P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VIII , ISSUE- II May  - 2023
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
वर्तमान लोक-व्यवस्था (PUBLIC- ORDER)-कौटलीय अर्थशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में
Current Public Order - In the Perspective of Kautaliya Economics
Paper Id :  17630   Submission Date :  07/05/2023   Acceptance Date :  20/05/2023   Publication Date :  25/05/2023
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राजेंद्र प्रसाद अग्रवाल
शोध छात्र
लोक प्रशासन विभाग
श्री जगदीशप्रसाद झाबरमल टीबड़ेवाला विश्वविद्यालय
विद्यानगरी, झुंझुनू ,राजस्थान, भारत
राम दर्शन
शोध निर्देशक
लोक प्रशासन विभाग
श्री जगदीशप्रसाद झाबरमल टीबड़ेवाला विश्वविद्यालय
विद्यानगरी, झुंझुनू, राजस्थान, भारत
सारांश किसी देश के विकास और समृद्धि के लिए शांति और लोक-व्यवस्था का होना एक पुरोभाव्य शर्त है। अपराध के घटित होने से पूर्व समय पर की गई निवारक कार्यवाही और अपराध घटित होने पर अपराधी पर की गई समुचित दंडात्मक कार्यवाही कानून और व्यवस्था स्थापित करने और लोक शांति बनाए रखने के लिए अति महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र में राज्य के निर्णय, नीतियों एवं योजनाओं से असहमति की स्थिति में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखते हुए संवैधानिक दायरे में रहकर “ध्यानाकर्षण” के रूप में आंदोलन, प्रदर्शन किया जा सकता है। लोकतंत्र के मूल्यों की सुरक्षा और उसे बहाल करने में मीडिया अहम भूमिका निभाता है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों का जन्म संविधान की कोख से हुआ है और इसीलिये कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका का भी दायित्व बनता है कि इस प्रकार के मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर राष्ट्र हित में कठोर निर्णय लिए जाएं। मौर्यकालीन न्याय एवं दंड की नीति में जहां व्यक्तिगत अपराधों के लिए शारीरिक दंड वही संगठित अपराधों के लिए आर्थिक दंड को वरीयता दी जाती थी। मौर्य साम्राज्य में मजबूत प्रशासनिक तंत्र, शासक की राष्ट्र और प्रजा के प्रति प्रतिबद्धता और कठोर कानूनों का भय के कारण अपराध नहीं के बराबर होते थे। इसी अनुरूप वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी इस तरह की हिंसक आंदोलन और राष्ट्रद्रोहात्मक गतिविधियों को मिलने वाले वित्तीय स्रोतों को बंद करना एवं उन पर कठोर कार्यवाही अपेक्षित है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The presence of peace and public order is a pre-requisite for the development and prosperity of a country. Timely preventive action taken before the occurrence of crime and appropriate punitive action taken on the culprit after the occurrence of crime is very important for establishing law and order and maintaining public peace. In a democracy, in the event of disagreement with the decisions, policies and plans of the state, while maintaining peace and order, agitation can be performed in the form of "attention" by staying within the constitutional ambit. Media plays an important role in protecting and restoring the values of democracy. Executive, Legislature and Judiciary all three have been born from the womb of the Constitution and that is why it is the responsibility of the Executive as well as the Judiciary to take strict decisions in the interest of the nation by taking suo motu cognizance in such matters. In Mauryan's policy of justice and punishment, where physical punishment was given for individual crimes, economic punishment was preferred for organized crimes. In the Mauryan Empire, due to the strong administrative system, the ruler's commitment to the nation and the people, and the fear of harsh laws, crimes were almost negligible. Accordingly, in the present perspective also, such violent agitations and anti-national activities are expected to stop the financial sources and strict action should be taken against them.
मुख्य शब्द सार्वजनिक व्यवस्था,लोक-व्यवस्था, संविधान, लोकतंत्र, कौटिल्य, अर्थशास्त्र, कानून और व्यवस्था, मौर्यकाल।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Public Order, Public Order, Constitution, Democracy, Kautilya, Arthashastra, Law and Order, Mauryan Period.
प्रस्तावना
जीवन और जगत के अस्तित्व और निर्बाध संचालन के लिए यह आवश्यक है कि उसको निर्मित करने वाले अवयवों में सामंजस्य, तारतम्य और संतुलन बना रहे। भारतीय सनातन परंपरा में ऋग्वैदिक प्राकृतिक व्यवस्था और मानव समाज के आचरण के लिए ऋत की अवधारणा का उल्लेख मिलता है।[1] ऋत एक व्यवस्था का नाम है जिसे प्राकृतिक नियम और नैतिक नियमों के रूप में देखा और समझा जा सकता है। इसमें किसी भी प्रकार का विचलन उस तंत्र और सामाजिक परिवेश के आपसी संबंधों एवं उनकी कार्यक्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इस विचलन की पराकाष्ठा संस्था और समाज में अव्यवस्था और अराजकता के रूप में परिलक्षित होती है। न्याय की अवधारणा भी इसी व्यवस्था में छिपी हुई है। विज्ञान जगत में किसी भौतिक निकाय / तंत्र को निर्मित करने वाले उसके अंशों में परस्पर अभिविन्यास और अंतः क्रिया के आधार पर उस पदार्थ या तंत्र के कार्य करने की क्षमता को मापा जाता है। ”एन्ट्रापी” निकाय की अव्यवस्था का सूचक है जिससे यह पता चलता है कि इसके अनुपात में वह तंत्र कार्य करने की क्षमता खो चुका है अर्थात जितनी अव्यवस्था होगी उसी अनुरुप वह सिस्टम कार्य करने में अक्षम होगा। कार्य करने की इस क्षमता का मापन-”एन्ट्रापी” (entropy) के रूप में किया जाता है।[2] प्राकृतिक जगत की ऋत व्यवस्था और भौतिक जगत के ”एन्ट्रापी” के अनुरूप ही राष्ट्र और समाज के संदर्भ में व्यक्ति-समुदाय-वर्ग के मध्य आपसी संतुलन, सामंजस्य, व्यवस्था और अनुकूलन का स्तर ही उस राष्ट्र और समाज का भविष्य तय करता है। अतः राजनीति और लोक प्रशासन के दृष्टिकोण से एक समृद्ध और उन्नत समाज में यह “लोक-व्यवस्था”( public order) ही होती है जो राजा (राज्य) और प्रजा (पब्लिक) के दायित्वों का निर्धारण करती है तथा शासक और नागरिकों के बीच के सामंजस्य को व्यक्त करती है। इस संतुलन या व्यवस्था में व्यवधान लोक व्यवस्था को प्रभावित करने वाला होता है। सदियों से चली आ रही सामाजिक परम्पराओं, स्वानुशासन के साथ-साथ स्वतंत्रता के बाद आधुनिक भारतीय प्रजातांत्रिक गणराज्य में भारत का संविधान इस लोक व्यवस्था की उपयोगिता और उसकी कसौटी तय करता है। प्रत्येक व्यक्ति को समय पर न्याय उपलब्ध करवाना और दैनिक जीवन के निर्बाध संचालन के लिए शांतिमय वातावरण बनाये रखना राज्य का महत्त्वपूर्ण दायित्व है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. मौर्य साम्राज्य की लोक-व्यवस्था नीतियों एवं शांति व कानून व्यवस्था की स्थापना में सहायक रही न्याय प्रणाली के विभिन्न पहलुओं का अन्वीक्षण और समकालीन समाज में उनके प्रभाव का अन्वेषण करना। 2. आधुनिक लोक-व्यवस्था प्रणाली में मौर्ययुगीन नीतियों को लागू करने से संभावित लाभ और चुनौतियों की पहचान करना। 3. समसामयिक शासन में मौर्य साम्राज्य की लोक-व्यवस्था नीतियों के क्रियान्वयन की सीमाओं का विश्लेषण करना। 4. मौर्यकालीन कठोर अपराधिक कानून एवं दंड नीति के आधार पर अपराधों पर नियंत्रण एवं वर्तमान संदर्भ में इनकी प्रासंगिकता का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

(ठाकुर, 2021)[3] पुस्तक में 21वीं सदी में भारतीय पत्रकारिता के बदलते  स्वरूप एवं सोशल मीडिया के इस दौर में गलत रिपोर्टिंग एवं अपुष्ट खबरों को सर्कुलेट करना, पीड़ित को अपराधी और अपराधी को पीड़ित बना दिया हैं। ऐसे कई मामले लेखक द्वारा बताए गए हैं जिनमें न्यायिक प्रक्रिया से बरी हुए व्यक्तियों को मीडिया अपने बौद्धिक अहम् और एजेंडा के तहत आज भी निर्दोष व्यक्ति को अपराधी बनाने पर तुली हुई है। गुजरात दंगों के दौरान पत्रकारिता धर्म को तिलांजलि देते हुए और सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की नीयत से दंगों की गलत रिपोर्टिंग की गई। सोशल मीडिया फेक न्यूज एवं अफवाहों के प्रसारण से अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में इसका दुरुपयोग कर रही है।

(मेहता, 2022)[4] लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को कानून-व्यवस्थाअपराध और हिंसा की रिपोर्ट में विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उनके द्वारा प्रसारित किए जाने वाले समाचारों से कहीं अपराधों का महिमामंडन तो नहीं हो रहा है। सनसनी और आपाधापी की प्रतिस्पर्धा में संवेदनशील और बचने वाले सामग्री का लाइव प्रसारण राष्ट्रीय एकता और अखंडता, आपसी सामंजस्य और सौहार्द को प्रभावित करता है।

(अग्रवाल, 2021)[5] प्राचीन काल से ही न्याय की अवधारणा भारतीय समाज का महत्वपूर्ण अंग रही है। संविधान में हम भारत की लोग संविधान की सर्वोच्चता बरकरार रखते हुए राज्य का संचालन में इसके आधारभूत तीनों अंग-विधायिकाकार्यपालिका एवं न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका है। राज्य की प्रशासनिक गतिविधियों और सुरक्षा एवं शान्ति की भौतिक और वैधानिक गारण्टी के आधार पर ही देश की आर्थिक समृद्धि और सामाजिक स्थायित्व निर्भर है। बिना किसी भेदभाव पक्षपात और विलंब के न्याय नहीं मिलने की स्थिति में असंतोष और विद्रोह की संभावना बनी रहती है।

(सिंह, 2022)[6] गुजरात राज्य के 2002 में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा इन सांप्रदायिक घटनाओं की एक रिपोर्ट तैयार कर तथा इस जैसी अन्य घटनाओं के साथ विश्लेषण के आधार पर लोक शांति और व्यवस्था बनाए रखने के संबंधित उपलब्ध सभी विधिक प्रावधानों का संकलन करने के लिए निर्देश की पृष्ठभूमि में यह पुस्तक तैयार की गई है।

(रामचंद्रन, 2020)[7] लोक प्रशासन से तात्पर्य जनसेवा से होता है और यह जनसेवा सरकार के रूप में व्यक्तियों के एक संगठन के द्वारा संपादित की जाती है। सरकार का यह कर्तव्य होता है कि वह लोक कल्याणकारी कार्यों के साथ-साथ संपूर्ण राज्य में लोगों की सुरक्षा करे, उन्हें एक शांतिमय वातावरण की विधिक गारंटी प्रदान करे। मौर्यकालीन प्रशासन के आधार स्तंभ कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार जनता का कल्याण करनाव्यवस्था और स्थिरता की रक्षा करना, आर्थिक समृद्धि को प्रोत्साहन देना और धर्म का संरक्षण करना राज्य का दायित्व है। न्यायपूर्ण कानून व्यवस्था राज्य का कर्तव्य है और  मानव कल्याण सुनिश्चित करने की बुनियादी शर्त है।

मुख्य पाठ

6. सांवैधानिक और विधिक प्रास्थिति-भारतीय संविधान में नौ बार-1.अनुच्छेद सं.19(2), 2.अनुच्छेद सं-19(3), 3. अनुच्छेद सं.19(4), 4.अनुच्छेद सं-25(1), 5.अनुच्छेद सं-26, 6.अनुच्छेद सं.33(बी), 7.छठे परिशिष्ट के पैराग्राफ.15, 8.द्वितीय अनुसूची-राज्य सूची-प्रविष्टि सं 1, 9.तृतीय अनुसूची-समवर्ती सूची में प्रविष्टि सं 3 पर लोक व्यवस्थाशब्द का उल्लेख मिलता है।[8] हालांकि संविधान में लोक व्यवस्था को परिभाषित नहीं किया गया है परन्तु इसमें उल्लेखित प्रसंगों और सन्दर्भों के आधार पर इसके महत्व और इसकी उपयोगिता को समझा जा सकता है। संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद सं 14 से 31 तक में नागरिकों के मौलिक अधिकारों यथा-समानता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास की स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धर्म और उपासना तथा धार्मिक स्वतंत्रता, संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों का उल्लेख किया हुआ है। लोकतंत्र में ये वे सिविल अधिकार हैं जो व्यक्ति और समाज के आत्मसम्मान और गरिमामयी जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं और जिनको प्राप्त करने लिए देश के अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। अनुच्छेद 19 का  खंड 1 (क) भारतवर्ष के सभी नागरिकों के लिए बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, खंड 1(ख) में शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के एकत्रित होने तथा खंड 1(ग) में संगम/संघ बनाने का अधिकार प्रदान करता है। परन्तु भारत की एकता और सम्प्रभुता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, ”लोक-व्यवस्था”, शिष्टाचार या सदाचार के हित में या न्यायालय आदेश/निर्देशों के अनुसरण में ये अधिकार विद्यमान कानूनों के प्रवर्तन पर कोई प्रभाव नहीं डालेंगे और न ही ये अधिकार राज्य को इस बाबत विधि बनाने से निवारित कर सकेंगे।[9] धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25 और 26 में भी सभी व्यक्तियों को अंतःकरण और धर्म के अबाध रुप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने तथा धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता प्रदान करता है परन्तु यह स्वतंत्रता लोक-व्यवस्था, सदाचार, और स्वास्थ्य के अध्ययधीन रहेगी।[10] संसद लोक-व्यवस्था में तैनात फोॅर्स के सदस्यों के कर्तव्यों के उचित पालन और अनुशासन बनाये रखने के लिए भाग 3 के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के सम्बंध में किसी भी विस्तार तक निर्बंधित और निवारत कर सकेगी।[11] लोक-व्यवस्था विषय को राज्य सूची में रखा गया है अर्थात लोक-व्यवस्था सम्बन्धी कानून बनाने और उनके प्रवर्तन सम्बन्धी विधियां राज्य की सरकार द्वारा निर्मित की जाती है। साथ ही राज्य की लोक व्यवस्था बनाये रखने के लिए निवारक निरोध सम्बन्धी विषय संविधान की समवर्ती सूची में होने से केंद्र और राज्य दोनों इसके लिए प्रावधान कर सकते हैं। इस हेतु स्वतंत्रता से पूर्व के अधिनियमों-भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता 1973, पुलिस अधिनियम 1861 के साथ-साथ लोक-अव्यवस्था और अषांति को रोकने तथा काबू करने के लिए कुछ नई विधियां यथा विधि विरूद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम 1967, (UAPA),राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 (NSA), लोक सम्पत्ति नुकसान निवारण अधिनियम 1984, धार्मिक संस्था (दुरुपयोग निवारण) अधिनियम 1988, उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991, आदि भी वर्तमान में उपलब्ध हैं।[12] लोक सम्पत्ति नुकसान निवारण अधिनियम 1984 के समानान्तर में उत्तर प्रदेश, हरियाणा और केरल आदि राज्यों ने लोक व्यवस्था को बिगाड़ने वाले और निजी तथा सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति पहुंचाने वाले अपराधियों से क्षति की गई सम्पत्ति के नुकसान की वसूली के विधिक प्रावधान किये हैं। हड़ताल बंद के दौरान लोक प्रशांति को भंग करने वाले  दंगाइयों एवं बलवा करने वालों से नुकसान की वसूली प्राधिकरण के माध्यम से करने के लिए उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी संपत्ति क्षति वसूली संशोधन अधिनियम-2022” दिनांक 23 सितंबर 2022 को उत्तर प्रदेश के दोनों  सदनों द्वारा पारित किया गया। उत्तर प्रदेश के इस प्राधिकरण के गठन से पहले भी देश में सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोपियों के खिलाफ सजा देने के लिए केंद्र सरकार ने 1984 में लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम बनाया था, किन्तु इस कानून के तहत आरोपियों से नुकसान की वसूली का प्रावधान नहीं था। देश की वर्तमान बदली हुई परिस्थितियों में हिंसक आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति को निशाना बनाया जा रहा है। ग्लोबल पीस इंडेक्स (जीपीआई) की 2022 की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत को आंदोलनों के दौरान पिछले साल करीब 50 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।[13] उत्तर प्रदेश के अमरोहा में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने पर उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी संपत्ति क्षति वसूली दावा न्यायाधिकरण मेरठ ने पहली बार दंगे के मामले में 86 लोगों को सजा दी है। प्राधिकरण ने नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के विरोध प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामले में 4.27 लाख रुपए के मुआवजे का भुगतान करने का आदेश जारी किया। यह देश में यह पहला मामला है जब कानूनी तौर पर सम्पत्ति के तोडफोड़ के आरोपियों को आर्थिक दंड से दंडित किया गया। नागरिकता संशोधन एक्ट के खिलाफ दिल्ली, गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में हुए विरोध प्रदर्शन में सार्वजनिक और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। लखनऊ में हुए विरोध प्रदर्शन में भी सार्वजनिक संपत्ति का जबरदस्त नुकसान हुआ।[14] हरियाणा में लोक व्यवस्था में विघ्न के दौरान संपत्ति क्षति वसूली अधिनियम, 2021 के तहत वसूली नियम 2022, नौ दिसंबर 2022 को अधिसूचित किये गए हैं।[15] केरल में वर्ष 2019 में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को लेकर राज्य में हुए, हिंसक प्रदर्शन में प्राइवेट और राजकीय संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचा। इससे निपटने के लिए केरल सरकार एक नया बिल लेकर आई। केरल की विधानसभा में केरल प्रिवेंशन ऑफ डेमेज टू प्रोपर्टीज एण्ड पेमेण्ट ऑफ कम्पनसेशन अध्यादेश 2019 नंवबर 2019 को विधानसभा ने पारित कर दिया। इसके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति किसी विरोध प्रदर्शन में पब्लिक प्रॉपर्टी का नुकसान पहुंचाने का दोषी पाया जाता है तो उसे 5 साल की सजा हो सकती है, इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है। केरल के इस एक्ट के मुताबिक अगर हिंसक विरोध प्रदर्शन में विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ हो या फिर आगजनी हुई हो तो दोषी को 10 साल तक की सजा हो सकती है।[16] राजस्थान में  दिनांक 5.3.2008 से बूट-लेगर, खतरनाक व्यक्तियों, नशीली दवाओं के निवारक निरोध के लिए अपराधियों, सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए हानिकारक असामाजिक और खतरनाक गतिविधियों को रोकने के लिए संपत्ति हड़पने वालों के लिये राजस्थान असामाजिक गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 2006 लागू है।[17]

7. सामान्य और विधिक व्याख्या-द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग 2005 द्वारा लोक प्रशासनिक तंत्र की मजबूती और प्रचलित प्रावधानों में सुधार के लिए सरकार के प्रत्येक स्तर पर संगठनात्मक सुधार, प्रशासन में नैतिक मूल्यों की स्थापना, नागरिक केंद्रित और समस्या प्रबंधन तथा लोक व्यवस्था में सुधार के लिए आयोग ने विभिन्न विषयों पर 15 रिपोटर्स् प्रस्तुत की हैं। इनमें से जून 2007 को आयोग द्वारा लोक व्यवस्था के संबंध में अपनी पांचवी रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है।[18] इसमें वर्तमान प्रचलित कानून की समीक्षा वर्तमान मुद्दों को हल करने की सामर्थ्य और उनमें आवश्यक सुधार की संस्तुति प्रस्तुत की है। परिशांति (peace), लोक-प्रशांति (public tranquillity) कानून-व्यवस्था (Law & Order), लोक व्यवस्था (Public order), लोक सुरक्षा (public safety), लोक न्यूसेंस (public nuisances) आदि मिले-जुले और लगभग समानार्थी शब्द है परंतु उद्देश्य, कानूनी प्रावधान, मानक और इनको स्थापित करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया के आधार पर इनमें वैषम्य हैं।संविधान में प्रदत्त अधिकारों के तहत लोक व्यवस्था के संबंध में राज्य सरकारों द्वारा और लोक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले व्यक्तियों को निरुद्ध करने के लिए समवर्ती सूची के अंतर्गत केंद्र और राज्य दोनों के द्वारा पृथक-पृथक  कानूनी प्रावधान बनाए हुए हैं। ये संविधान में वर्णित लोक व्यवस्था और देश व  समाज की सामान्य व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राज्य और केंद्र द्वारा निर्मित अधिनियम और नियम के अंतर्गत पुलिस और प्रशासन द्वारा प्रयोग में लाए जाते हैं और जिनकी सांवैधानिकता और वैधानिकता भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों द्वारा तय की जाती है।[19] भारत का संविधान अनुच्छेद 13,32,131 से 136,143,226 और 246 द्वारा इन न्यायालयों को संविधान के असंगत सरकार के कार्यकारी और विधायी निर्णयों की न्यायिक समीक्षा के अधिकार देता है।[20]

भारत के संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त बोलने, अपने विचार अभिव्यक्त करने की तथा शांतिपूर्ण और बिना किसी हथियारों की इकट्ठा होने की स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की मनोंवृति से वर्तमान में अपनी उचित-अनुचित मांगों को मनवाने के लिए सड़कें जाम करना, सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, दंगे करना, हिंसक प्रदर्शन करना आम बात हो गई है। ऐसे हिंसक धरने-प्रदर्शनों से लोक-व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचता है। इससे देश का विकास अवरुद्व होता है। 'My way otherwise highway' (सडक शक्ति) की बढ़ती प्रवृत्ति संविधान और संवैधानिक संस्थाओं का उपहास  करती नजर आती है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुसार धरना देने की घोषणा, हुल्लड़, नारेबाजी, घेराव और हिंसक मारपीट आदि की संभावित स्थिति और लोक प्रशांति प्रक्षुब्ध होने की संभावना के आधार पर ऐसे भीड़ या जमाव के सभी व्यक्तियों को शांति बनाए रखने के लिए पाबंद किया जाता है। पुलिस और प्रशासन के द्वारा संभावित क्षेत्र विशेष में तनाव और हिंसा की सम्भावना का आकलन करने के बाद कार्यवाही का निर्णय लिया जाता है। लोक-व्यवस्था पक्षपातरहित, त्वरित और सहज न्याय उपलब्धता पर आधारित होती है। राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य 1 SLR 7009(746) 1966 मामले में भारत की सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की सुरक्षा, लोक-व्यवस्था और कानून-व्यवस्था की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि कानून व्यवस्था के सारे मामले लोक-व्यवस्था में नहीं आते और न ही सभी लोक-व्यवस्था के प्रकरण राज्य की सुरक्षा को प्रभावित करने वाले होते हैं। दूसरे शब्दों में राज्य की सुरक्षा को प्रभावित करने वाली समस्याएं लोक व्यवस्था की भी समस्याएं हैं और सभी लोक-व्यवस्था के मुद्दे कानून-व्यवस्था की जहद में आते हैं।[21]

लोक-अव्यवस्था के कारण- भारत में सरकारी नीतियों के प्रति हिंसात्मक आंदोलन और प्रदर्शन, प्राकृतिक और राजकीय संसाधनों के शेयरिंग के विवाद, आतंकवाद, नक्सली विचारधारा, धार्मिक उन्माद, संघर्ष, जातीय और भाषायी आधार, संगठित अपराध, हेट स्पीच, सोशल मीडिया द्वारा आपत्तिजनक और भ्रामक प्रचार, शव के साथ प्रदर्शन, छात्रों तथा किसानों के आंदोलन आदि कारणों से सार्वजनिक व्यवस्था में व्यवधान होकर सामान्य जन-जीवन और आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होती हैं, निजी और लोक सम्पत्ति को क्षति पहुँचती हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कार्यपालिका के अधीन कार्यरत अधिकारियों द्वारा समय पर या शीघ्र निर्णय नहीं ले पाने, कामकाज की दीर्घसूत्री प्रवृति, तटस्थता या अकर्मण्यता के कारण भी छोटी-छोटी समस्याएं विकराल रूप ग्रहण कर लेती हैं। लोक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मुख्य रूप से सामान्य प्रशासन, पुलिस व्यवस्था तथा अपराधिक न्याय व्यवस्था उत्तरदायी है। साथ ही (non-state) प्लेयर्स के रूप में राजनीतिक दल, मीडिया, नागरिक समूह और गैर सरकारी संगठन भी अप्रत्यक्ष रूप से लोक व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। राजस्थान में वर्ष 2022  में लोक व्यवस्था में विघ्न डालने वाली मुख्य घटनाओं-करौली में सांप्रदायिक घटनाएं[22], जोधपुर में धार्मिक झंडे लगाने[23] और उदयपुर में कन्हैया लाल दर्जी की निर्मम हत्या[24] के कारण उत्पन्न तनाव का राष्ट्रव्यापी असर हुआ। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकडों के आधार पर 2017 से 2022 तक देश में 2900 से अधिक साम्प्रादिक घटनाओं के कारण लोक व्यवस्था बाधित हुई।[25] गत वर्षों में विभिन्न धार्मिक शोभा-यात्राओं-गणेश चतुर्थी, रामनवमी, हनुमान जयंती और नवरात्रि कार्यक्रमों के दौरान पत्थरबाजी, आगजनी की घटनाएं, भारत सरकार की अग्निपथ योजना के विरोध में हिंसक प्रदर्शन, आगजनी और तोडफोड, खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलन तथा धार्मिक आस्था और प्रतीकों पर टीका-टिप्पणी के कारण देश की लोक-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हुई है।

8. न्यायिक निर्णयों में लोक-व्यवस्था-गत वर्षों में देश के अंदर कुछ ऐसे मामले चर्चा में आए हैं जिनमें  पुलिस और प्रशासन द्वारा लोक व्यवस्था बनाये रखने के आधार पर की गई कार्रवाई को न्यायालय में चुनौती दी गई थी। वर्ष 2011 में रामलीला मैदान के अंदर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ एक लाख लोगों की रैली स्वामी रामदेव और भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के द्वारा दिए गए धरने को पुलिस द्वारा रात्रि के समय सोते हुए व्यक्तियों पर बल प्रयोग कर प्रदर्शन स्थल से हटवाया जाना (स्वतः संज्ञान बनाम गृह सचिव, भारत सरकार, आपराधिक रिट याचिका सं 122/2011 निर्णय दिनांक-23 फरबरी, 2012)[26], वर्ष 2022 में कर्नाटक राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में कक्षा में छात्रों द्वारा ड्रेस कोड के स्थान पर हिजाब पहनने के प्रतिबन्ध का मामला (रेशम बनाम कर्णाटक राज्य, वृहद पीठ आदेश दिनांक 15 मार्च, 2022 एवं उच्चतम न्यायालय aishat shifa cuke कर्णाटक राज्य सिविल अपील, निर्णय दिनांक 13 अक्टूबर, 2022 (अनिर्णीत स्थिति से अभी भी लंबित)[27], दिल्ली के किसान आंदोलन और लाल किले पर तोड़-फोड़ तथा नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 के विरुद्ध शाहीन बाग का प्रदर्शन, सड़क जाम और दिल्ली दंगा (सिविल अपील 3282/2020, अमित साहनी विरुद्ध पुलिस आयुक्त, निर्णय दिनांक-07 अक्टूबर, 2020)[28] आदि। सर्वप्रथम राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य (1965) के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय द्वारा सार्वजनिक व्यवस्था के संबंध में यह निर्धारित किया की किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा किए जा रहे किसी भी कृत्य से यदि  समुदाय या जनता व्यापक रूप से प्रभावित होती है तो सरकार प्रचलित कानूनों के तहत लोक  व्यवस्था बनाए रखने के लिए उपलब्ध प्रावधानों का उपयोग कर सकती है।

9. मौर्यकालीन कानून और व्यवस्था-मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था मूल मन्त्र प्रजा सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितं। नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितं।। अर्थात् प्रजा के सुख में राजा का सुख और प्रजा के हित में ही राजा का हित समझना चाहिये के दर्शन पर आधारित थी।[29] सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के साथ ही राज्य में समाज विरोधी गतिविधियों का निवारण कर अपराधियों को दण्डित करना एक अच्छे शासन की महती जिम्मेदारी होती है। मौर्यकाल में राष्ट्र के आभ्यन्तरिक प्रशासन के लिए राजा से यह अपेक्षित था कि वह अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए बाह्य आक्रमण से राज्य की सुरक्षा करे, राज्य में कानून और व्यवस्था बनाये रखे और प्रजा के कल्याण के लिए हरसंभव प्रयास करे। इस प्रकार रक्षा”, ”पालनऔर योगक्षेमके रूप में ये त्रि-कर्तव्यएक सुरक्षित,समृद्ध और प्रगतिशील राज्य के लिए आवश्यक माने गए हैं।[30] मौर्य काल की उत्तम कानून-व्यवस्था में गुप्तचरों के व्यापक नेटवर्क द्वारा  शासन और जनता के बीच चल रही विभिन्न गतिविधियों की जानकारी और तदनुसार प्रभावी कार्यवाही की महती भूमिका रही है। चन्द्रगुप्तकालीन राज्य में गुप्तचरों के अतिरिक्त प्रकट रुप में पुलिस व्यवस्था का भी उल्लेख मिलता है। जो गुप्तचर एक ही स्थान पर रहकर अपनी गतिविधियां करते थे उन्हें संस्थानिक और जो भ्रमण करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान गतिशील रहते हुए अपना कार्य संपादित करते थे वे संचारण वर्ग में आते थे। नगरीय आबादी क्षेत्र में नियुक्त पुलिस बल के सिपाही (Guards) रक्षिन कहलाते थे। कार्य विशेष के अनुसार स्त्री गुप्तचर भी नियुक्त की हुई थी। न्यायाधीश, विभिन्न विभागों में कार्यरत राजकीय कार्मिकों की गतिविधियों के साथ उनके चरित्र की सूचना भी शासक तक पहुँचाई जाती थी। चोर, अपराधी तथा शत्रुओं पर नजर रख उनके बारे में जानकारी जुटाने का कार्य भी इन्हीं गुप्तचरों के द्वारा सम्पादित किया जाता था। न्यायिक और प्रशासनिक निर्णयों में सहायक आवश्यक सूचनाओं को उपलब्ध कराने में भी ये गुप्तचर काम आते थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि गुप्तचरों के कार्यों की निगरानी के लिये भी उनके ऊपर अन्य गुप्तचर नियुक्त थे। मौर्य शासन में छोटे सिविल, राजस्व और आपराधिक विवादों के निस्तारण निचले स्तर की न्यायिक व्यवस्थाओं-ग्रामणी”, स्थानिक खारवाटिक, द्रोणमुख, युक्त आदि द्वारा सुलझा लिए जाते थे।[31] केवल बड़े विवाद या जिनमे अर्थदंड के अलावा शारीरिक दंड के प्रावधान थे उन्हें ही उच्च स्तर के न्ययालयों मे सुनवाई होती थे। उच्च स्तर पर सिविल और आपराधिक मामले पृथक पृथक क्रमशः धर्मस्थनीय और कंटकशोधन न्यायालयों के सामने लाये जाते थे।[32] राजा न्याय का अंतिम निर्णायक होता था जो धर्मानुकूल निर्णय देने के लिए बाध्य था। मंत्रियों,न्यायाधीशों अधिकारियों और महत्वपूर्ण पदों (अमात्य) का चयन उपधा परीक्षण द्वारा किया जाता था।[33] कानूनों की कठोरता, स्पष्टता और निष्ठापूर्वक उनका प्रवर्तन होने के कारण ही तत्कालीन समय भारत यात्रा पर आये यूनानी लेखक मैगस्थनीज द्वारा अपनी यात्रा वृतांत में भारत में लोगों द्वारा कानून का पालन करने से न्यून संख्या में अपराध होने का उल्लेख किया है।[34] मजिस्ट्रेट और जज से भी संयमित, मर्यादित तथा पक्षपातरहित व्यवहार और आचरण अपेक्षित था अन्यथा उनके लिए भी स्थानान्तरण करने और दंड के प्रावधान थे।[35] मौर्य न्याय व्यवस्था की समस्या की जड पर प्रहार कर अपराधों का शमन और अपराधियों का दमन करने की नीति कानून-व्यवस्था बहाली में बहुत ही कारगर साबित हुई। अलेक्जेंडर की पड़ौसी देशों पर विजय एवं नंद वंश के उदासीन रवैये और अशक्त शासन के कारण हुए पतन के उदाहरण से कमजोर राज्य के भविष्य के लिए सामर्थ्यवान सैन्य बल की उपस्थिति, सेना के गुणात्मक और रणनीतिक कौशल के औचित्य और महत्व को इंगित किया गया है। राज्य की आंतरिक और बाह्य चुनौतियां से निपटने के लिए और राज्य में शांति स्थापना के लिए मजबूत और मनोबल युक्त सेना एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव रखती है। सावरकर के शब्दों में द मिलट्री माइट इज द बैड रॉक ऑफ द व्हॉल इम्ंपीरियल स्ट्रक्चरकी अवधारणा को सामने रखते हुए के कई देशों की तरह नागरिकों को सैन्य प्रशिक्षण की अनिवार्यता उचित लगती है। देश की सैन्य क्षमता के कारण और उसके साहस और सामर्थ्य के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण कानून व्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।[36]

10. सुझाव-कानून व्यवस्था और लोक व्यवस्था की स्थिति किसी भी राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक समृद्धि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है इसीलिये पुलिस, कार्यपालक मजिस्ट्रेट और कार्मिकों तथा आपराधिक न्याय तंत्र में व्यापक बदलावों की जरूरत महसूस की जा रही है। न्याय मिलने में अत्यधिक विलम्व, मंहगी न्याय प्रक्रिया, पुलिस कार्मिकों पर बंदोबस्त सम्बन्धी कार्यों का बढ़ता दबाब, उच्च स्तर पर जजों की पारदर्शी और निष्पक्ष भर्ती, कार्यपालक मजिस्ट्रेट को निवारक निरोध कानून और प्रक्रिया  की पूर्ण जानकारी नहीं होना, प्रशिक्षण का अभाव, ग्राम स्तर पर पुलिस और मुखबिर तंत्र की स्थापना जैसे विषयों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। जनमानस में यह आम धारणा (Public Perception) है कि गरीब, वंचित और सामान्य वर्ग को न्यायिक प्रक्रिया में उपेक्षित रखा गया है। धनी, बाहुबलियों को संरक्षण मिलता है। न्याय प्रणाली अभियुक्तों की पक्षधर है। किसी भी कनफ्लिक्ट को समग्रता (Holistic Approach) में डील किया जाना चाहिए। आपराधिक प्रकरण स्टेट की ओर से लडे जाते हैं अतः मौलिक, प्रक्रियात्मक और साक्ष्य अधिनियम  में आवश्यक संशोधन अपेक्षित हैं ताकि अपराधियों पर शीघ्र और प्रभावी कार्यवाही हो सके। न्यायालय के द्वारा सत्य का अन्वेक्षण हो न कि साक्ष्य की शिफ्टिंग, साक्ष्य अधिनियम में संशोधन हो जिससे संभावना की प्रधानता (Preponderance of Possibilities) पर सजा हो न कि आरोपी संदेह से परे साबित हो सकने के आधार पर बरी हो। अभियोजन की खामियों के आरोपी को बरी करने के  बजाय पुनः अनुसंधान की आवश्यकता, साक्षियों की सुरक्षा, सीआरपीसी की धारा 161 के बयानों पर हस्ताक्षर जैसे कानूनी सुधार वर्तमान समय की आवश्यकता है।[37] मैनस्ट्रीम और सोशल मीडिया की अपुष्ट खबरों को सनसनीपूर्ण बनाकर पेश करने तथा मिस-रिपोर्टिंग पर कार्यवाही, प्रशासन स्वयं का मीडिया प्लेर्फोर्म और नोडल  अधिकारी, जिम्मेदार अधिकारी को मीडिया प्रभारी नियुक्त कर उसके माध्यम से मीडिया ब्रीफिंग, झूंठे साक्ष्य देने पर कड़ी कार्यवाही, मीडिया, सिविल प्रशासन, गैर-सरकारी संगठन, सिविल सोसाइटी, स्थानीय स्तर पर मौहल्ला समिति, निरोधात्मक कार्यवाहियां प्रभावी और निष्पक्ष तरीके से नवीन तकनीक-ड्रोन-वीडियोगा्रफी से साक्ष्य एकत्रित करना, गैर-मारक उपायों से भीड को तितर-बितर करना इन तरीकों से उपयोग से व्यवस्था में सुधार संभव है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया की भूमिका भी यहां महत्वपूर्ण हो जाती है। लोकतंत्र के मूल्यों की सुरक्षा और उसे बहाल करने में मीडिया अहम भूमिका निभाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कई बार मीडिया के लोगों से ऐसी बहुत सी जानकारियां मिल जाती हैं जो कानून व्यवस्था बनाये रखने में सहायक हैं। सूचना प्राप्त होते ही समय पर उपलब्ध प्रावधानों के तहत निषेधात्मक कार्यवाही अपेक्षित है। लोक व्यवस्था में विदेशी फंडिग और स्थानीय अलगाववादी तत्वों की संलिप्तता के मद्देनजर केंद्रीय एजेंसी एनआईए, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय आदि की भूमिका अहम है। मौयैकालीन गुप्तचर तथा प्रतिवेदक प्रणाली की तरह सम्प्रति खुफिया मशीनरी को और अधिक मजबूत और उत्तरदायी बनाया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कौटिल्य के अनुसार मौर्य राज्य में परकोटे में बसे  नगर, ग्राम और आबादी से बाहर का क्षेत्र और गावों को जोड़ने वाले रास्तों पर लोगों के आने-जाने पर सख्ती से नियंत्रण रखा हुआ था। चोर, अपराधियों, शत्रुओं और जंगली जीवों से आमजन, यात्रियों और व्यापारियों को सुरक्षा और निर्बाध आवागमन उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न अधिकारियों को जिम्मेदारी दी हुई थी। परकोटे में रात्रिकालीन निषेधाज्ञा (night curfew) को प्रवर्तित कराने, अपराध रोकने, प्रवास (lodgings) नियंत्रण और परकोटे में प्रवेश विनियम के लिए नगर के सिविल और कानून-व्यवस्था प्रबंधन का सर्वोच्च अधिकारी नागरिक“(governor-general of the city) उत्तरदायी था। मुद्राध्यक्ष (chief passport ffoicer) बाहरी क्षेत्र में राजकीय मुद्रायुक्त आज्ञापत्र जारी करता था जिसे शुल्काध्यक्ष (Frontier officer), नदीपाल (River Guard) और विवीताध्यक्ष (Chief Controller of Pasture Lands) जाँच कर गुप्तचरों की सहायता से अन्तपाल और सम्राट को संदिग्धों की सूचना उपलब्ध करवाता था। ग्रामों की सीमा के अंदर ग्राम मुखिया के माध्यम से समाहर्ता कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदायी था।

निष्कर्ष सामान्य परिस्थितियों में राज्य के निवासी अपने अधिकारों और स्वतंत्रता का उपयोग कर सकें इसके लिए सामाजिक और सत्ता दोनों के स्तर पर प्रयास आवश्यक है। वर्तमान शासन में स्टेट मशीनरी “absence of any disturbance” को ही लोक-व्यवस्था का पर्याय मानते हुए यथास्थिति (status-quo) बनाए रखने को प्राथमिकता देती है चाहे पूर्व स्थिति संविधान और कानून के मुताबिक हो या न हो।[38] अल्पकालीन दृष्टिकोण से यह ठीक हो सकता है परन्तु दीर्घकालीन और व्यापक जनहित में मौर्ययुगीन समस्या के मूल में जाकर उसे जड़ से खत्म करना” का ध्येय लेकर उसे डील करना होगा। प्रशासनिक निर्णय गुणावगुण पर नहीं किये जा रहे हैं और कई बार राजनीतिक बॉस/आकाओं की इच्छानुरूप लिए जा रहे फैसलों में पक्षपात स्पष्ट झलकता है। लोक-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारकों से स्थानीय ,राज्य और राष्ट्रीय स्तरीय प्रभाव के अनुसार ही निपटने की जरुरत है। जितने भी मामले कानून और शांति व्यवस्था या लोक व्यवस्था सम्बन्धी इस आलेख में विवेचित किये गए हैं या प्रत्यक्ष में देखे और अनुभूत किये जाते हैं, उन सब में हितबद्ध पक्षकार यथा-प्रदर्शनकारी, आंदोलनकारी, इस कृत्य से पीड़ित पक्ष (अपने मौलिक अधिकारों से वंचित की गई जनता, राहगीर, वृद्ध, बीमार, बालक, विद्यार्थी, दहाडी श्रमिक तथा अन्य वल्नरेबल व्यक्ति या समुदाय), पुलिस और प्रशासन के कार्मिक, मीडिया, न्यायालय, एडवोकेट आदि हैं। यहाँ यह स्पष्ट है कि पीड़ित पक्ष को छोड़कर सभी के अपने एजेंडे हैं या उनके उद्देश्यों की पूर्ति हो रही है। सम्पूर्ण प्रशासनिक और कानूनी कार्यवाही की इस जुगाली में संविधान की उद्देशिका में वर्णित “हम भारत के लोग” सबसे ज्यादा नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं। न्याय पालिका,कार्यपालिका और विधायिका को यह समझना चाहिए कि वे सभी संविधान की कोख से जन्मे हैं, कोई बड़ा या छोटा नहीं है, बड़ा है तो संविधान और संविधान में वर्णित “हम भारत के लोग“, और यह सन्देश नीचे की मशीनरी तक पहुँचाना अत्यावश्यक है। लोक व्यवस्था के अंतर्गत राज्य एक प्रकार से व्यक्ति और समाज को स्वतंत्रता, सुरक्षा और शांति की भौतिक और वैधानिक गारंटी प्रदान करता है। इस हेतु समय-समय पर सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रचलित परंपराओं तथा नियमों के आधार तथा परिस्थितियों के अनुसार केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा विधिक प्रावधान निर्मित किये हैं। भारतीय संविधान के अनुसार सुरक्षा एवं न्याय व्यवस्था हेतु संघीय ढांचे के अंतर्गत केंद्र एवं राज्य की स्पष्ट भूमिका का वर्णन है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता एवं सबकी सुरक्षा अंतर्निहित है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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