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आधुनिक भारत में जनजातीय व मजदूर आंदोलन | |||||||
Tribal and Labour Movement in Modern India | |||||||
Paper Id :
17353 Submission Date :
2023-05-27 Acceptance Date :
2024-05-27 Publication Date :
2024-06-25
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सारांश |
आजादी के बाद के दौर में अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ गाँवों की
गरीब जनता, किसानों, जनजाति के लोगों, महिलाओं और मजदूरों के
व्यापक स्तर पर सामूहिक आंदोलन होते रहे हैं। अधिकांशतः ये आंदोलन स्वतःस्फूर्त और
छुटपुट रहे हैं। पर कभी-कभी अच्छी तरह संगठित भी रहे हैं। आर्थिक और जातीय मुद्दे
राजनीति में सामाजिक आंदोलन की धुरी रहे हैं। किसानों और मजदूरों के ज्यादातर
आंदोलन आर्थिक मुद्दों से संबंधित हैं, हालांकि
आदिवासियों के आंदोलनों में जातीय मुद्दे एक महत्वपूर्ण तत्व हैं। आर्थिक मुद्दों
का क्षेत्र बहुत व्यापक है - खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी, वन उत्पादों पर अधिकार, वनों का संरक्षण,
भूमि सुधार, अतिरिक्त भूमि का वितरण,
औद्योगिक मजदूरों के आंदोलनों में एक बहुत बड़ा अंतर है। किसान
आंदोलन बिना किसी अपवाद के स्थानीय और क्षेत्रीय होते हैं। जबकि ट्रेड यूनियन
आंदोलन किसी एक उद्योग अथवा देश भर में फैले विभिन्न उद्योगों के मजदूरों को शामिल
करने की क्षमता रखता है । |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the post-independence era, there have been massive mass movements of the rural poor, farmers, tribal people, women and laborers against injustice and oppression. Mostly these movements have been spontaneous and sporadic. But sometimes well organized too. Economic and caste issues have been the pivot of social movement in politics. Most of the farmers' and workers' movements are related to economic issues, although caste issues are an important element in tribal movements. The spectrum of economic issues is very wide - minimum wages for agricultural labourers, rights on forest produce, conservation of forests, land reforms, distribution of surplus land, there is a vast difference in the movements of industrial workers. Peasant movements are local and regional without any exception. Whereas the trade union movement has the capacity to involve workers of any one industry or different industries spread across the country. | ||||||
मुख्य शब्द | आधुनिक भारत, मजदूर आंदोलन, आर्थिक और जातीय मुद्दे। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Modern India, Labor Movement, Economic and Caste Issues. | ||||||
प्रस्तावना | किसानों, ग्रामीण गरीबों और
औद्योगिक मजदूरों को संगठित करने में वामपंथी दलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी
है। वैचारिक ढांचों के साथ इन तबकों की गोलबंदी के लिए, वामपंथी
दलों ने संगठित तंत्र भी प्रदान किया। इन दलों ने इस वैचारिक ढांचे के तहत गरीबों
की समस्याओं को सामाजिक परिवर्तन के व्यापक मुद्दे से और राजसत्ता को असमान
सामाजिक संबंधों से जोड़ने का प्रयास किया। लामबंदी की निरंतरता बनाए रखने के
उद्देश्य से इन दलों ने किसानों और खेतिहर मजदूरों के संयुक्त मंच को हिमायत की।
इस प्रकार के व्यापक जनाधार वाले संघर्ष कभी-कभी लंबे समय तक चलते रहे और अपनी
संयुक्त संघर्षशीलता की ताकत पर कई आर्थिक सफलताएं भी हासिल की। असंतोष और विरोध
अभिव्यक्त करने वाले इस तरह के संघर्ष देश के लगभग हर हिस्से में किसी न किसी रूप
में फैलते रहे, किंतु कभी भी इनका कोई अखिल भारतीय स्वरूप
नहीं बन सका। छुट-पुट अभिव्यक्तियों के कारण इन आंदोलनों का चरित्र क्षेत्रीयता
और स्थानीयता से आगे नहीं बढ़ सका। विडंबना यह है कि इस तरह के संयुक्त संघर्षो का
फायदा प्रायः शहरी और ग्रामीण मध्य वर्गों को होता रहा। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य आधुनिक भारत में जनजातीय व मजदूर
आंदोलनों का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों, पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों जैसे डी. एन. धनगरे (1983) की 'पेजेंट मूवमेंट्स इन इंडिया', एम.एस.ए. राव (1978) का लेख 'सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया', ए. आर. देसाई (1979) की 'पेजेंट स्ट्रगल इन इंडिया', हेरॉल्ड क्रॉफ (1966) की 'ट्रेड यूनियन्स एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया' आदि का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
जनजातियाँ 1981 की जनगणना के अनुसार 5 करोड़ 10 लाख लोग या कुल आबादी का 7 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के सदस्य हैं। इस
आबादी का दो तिहाई से भी अधिक हिस्सा पूर्वोत्तर राज्यों-अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, नागालैण्ड और त्रिपुरा में तथा शेष मध्य
प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, बिहार, गुजरात तथा दादर और नागर हवेली में हैं।
इनमें से अधिकांश पहाड़ी अंचलों और जंगला के ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। इनकी
आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि तथा जंगलों के उत्पाद हैं और जनजातियों का बहुमत छोटे
किसानों तथा खेतिहर मजदूरों का है। इनमें से अनेक लकड़ी काटने, कोयला बनाने तथा बागान में काम करने वाले
मजदूर हैं। आजादी से
पूर्व भारत में जनजातियों के आन्दोलन आजादी से
पूर्व भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनजातियों के अनेक विद्रोह हुए। इनमें से
उल्लेखनीय थे- 1772 में राजमहल
पहाड़ियों का मालेर विद्रोह, 1931 का कोल
विद्रोह, 1855 का संथाल
विद्रोह, 1857 का भोक्ता
विद्रोह और राष्ट्रीय आंदोलन, 1880 में कच्छ
नागाओं का विद्रोह, 1990 में सरदारी
या मुल्ही लड़ाई और मुण्डा जनजाति के बीच चला बिरसा आंदोलन। इनमें से अनेक संघर्ष
सदियों पुराने थे और आंदोलनों को नेतृत्व देने वाले कबीला-नेता आर्थिक शोषण और
विदेशी घुसपैठ के खिलाफ अपनी जनता को गोलबंद करने के लिए धार्मिक मुहावरों और
प्रतीकों को इस्तेमाल करते थे। इनमें से कुछ संघर्ष उस औपनिवेशिक नीति के खिलाफ थे, जिसके तहत रेलवे तथा विभिन्न उद्योगों की
जरूरतों को पूरा करने के लिए लकड़ी तथा जंगल के अन्य उत्पादों वनों को सुरक्षित कर
दिया गया था। वनों के
संरक्षण के अलावा औपनिवेशिक प्रशासन ने ऐसी स्थितियां तैयार की, जिनमें जनजातीय आबादी को खेतिहर भूमि से
बेदखल कर दिया गया। ब्रिटिश प्रशासन ने जहां जनजातीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न
क्षेत्रों में उत्पादन की नयी प्रणाली शुरू करने का कोई प्रयास नहीं किया, वहीं इसने सूदखोर महाजनों और व्यापारियों के
लिए रास्ता खोल दिया. जो जनजातीय लोगों की जमीनें हड़पने के लिए बेताब थे। इस
प्रक्रिया का कुल प्रभाव ये रहा कि जनजातीय आबादी अपनी जमीन से अलग होती गयी। अपनी
जमीन के अपहरण के खिलाफ संथालों, मुण्डा और
भूमिली जैसे कुछ कबीलों ने संघर्ष चलाया। आजादी के बाद
भारत में जनजातियों के आंदोलन पिछले चार
दशकों के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में जनजातियों ने विभिन्न सामाजिक और
आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष चलाया। इनमें से कुछ आंदोलनों का स्वरूप पुनर्जागरण जैसा
था, जिनका
उद्देश्य जनजातीय संस्कृति को पुनर्जीवित करना या नयी व्यवस्था में परंपरागत भूमिकाओं
के नष्ट होने का हल ढूंढना था। लेकिन, अधिकांश
आंदोलनों ने जिन मुद्दों पर ध्यान दिया, वे थे-
संसाधनों तक उनकी पहुंच और इन पर उनके नियंत्रण के लिए उत्पन्न खतरा, इनके प्राकृतिक वास की एकांतता को खतरा, अपनी पहचान बनाए रखने के नए स्वरूपों की तलाश
और विभिन्न स्तरों पर सामुदायिक शक्ति संपन्न संगठन बनाने की अपेक्षाकृत संतोषजनक
प्रणाली कायम करना। आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों की दृष्टि से जनजातीय आंदोलन, मोटे तौर पर तीन तरह के हैं - (1) राजनीतिक स्वायत्तता के लिए आंदोलन, (2) कृषि और सीमा आधारित आंदोलन और (3) मध्यम दर्जे के आंदोलन। उत्तर-पूर्वी
सीमा के जनजातीय समुदाय खासतौर से नागाओं ने भारतीय संघ से बाहर नागाओं के लिए अलग
राज्य की मांग की। 1946 में गठित
नागा नेशनल कौंसिल ने एक स्वायत्तशासी राज्य की मांग की, जिसका भारतीय संघ के अंदर कानफेडरेशन
(राज्यमंडल) का दर्जा हो । सीमांत क्षेत्रों में कुछ अन्य कबीलों ने भी सातवें दशक
में इसी तरह के आंदोलनों की शुरुआत की। मिसाल के तौर पर, मिजो नेशनल आर्मी ने मिजो समुदाय लिए एक पृथक
राज्य की मांग की। भारतीय राज्य ने इन आंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए सहयोग और
दमन का मिला-जुला तरीका इस्तेमाल किया। गैर-सीमांत
जनजातियों ने भारतीय संघ के अंदर पृथक जिलों या राज्यों की मांग की है। झारखंड और
बोडोलैंड के आंदोलन इसके उदाहरण हैं। झारखंड आंदोलन उन्नीसवीं शती के तीसरे दशक के
उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ। बाद में 1938 में आदिवासी महासभा और 1949 झारखंड पार्टी का गठन हुआ। 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा नामक एक जुझारू
जनजातीय संगठन का जन्म हुआ। इसने पृथक झारखंड राज्य की मांग की, ताकि स्थानीय आदिवासियों और हरिजनों का
गैरआदिवासियों के हाथों शोषण समाप्त किया जा सके और सरकार तथा उद्योगों में
जनजातियों की बड़ी संख्या को तरजीह दिलायी जा सके। झारखंड मुक्ति मोर्चा में, जो बाहरी जमींदारों और पूँजीपतियों द्वारा
किए जा रहे शोषण के खिलाफ शुरू हुआ था, क्षेत्र के
गैर जनजातीय भी शामिल हैं। इस आंदोलन ने अब एक क्षेत्रीय - आंदोलन का रूप ले लिया
है, जो पिछड़ेपन
और अल्पविकसित के आर्थिक मुद्दों को उजागर करता है। मजदूर वर्ग
के आन्दोलन भारत में
मजदूर वर्ग कुल आबादी का एक छोटा हिस्सा है, क्योंकि औद्योगिक उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि
के बावजूद भारत अभी भी मुख्य रूप से कृषि प्रधान देश है। 1981 की जनगणना के अनुसार 14 करोड़ 79 लाख लोग कृषि में लगे लोग गैर-कृषि मजदूर और 7 करोड़ 44 लाख । 1947 के बाद से नये उद्योगों की स्थापना ने
औद्योगिक कामगारों की संख्या में निरंतर वृद्धि की है। रोजगार की दृष्टि से देखें
तो रेलवे, पटसन और सूती
कपड़ा उद्योग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। औद्योगिक
कामगारों में बड़ी और छोटी फर्मों में काम करने वाले, स्थायी और अस्थायी, अनियत और कांट्रेक्ट, कुशल और अकुशल तथा शिक्षित और अशिक्षित मजदूर
शामिल हैं। इसलिए इतनी विभिन्नता वाले मजदूरों को जिनके आपसी हितों में बहुत कम
समानता है, एक साथ मिला
देना भ्रामक होगा। लेकिन, अधिकांश
विश्लेषक संगठित और असंगठित क्षेत्रों के औद्योगिक मजदूरों में एक फर्क करते हैं।
संगठित क्षेत्र का मतलब ऐसी फर्मों से है, जिसमें दस या दस से अधिक मजदूर (या बिना
विद्युत शक्ति के 20 मजदूर हों), फर्म रजिस्टर्ड हो और फैक्टरीज एक्ट के
अंतर्गत जिसकी जाँच होती हो। अपेक्षाकृत छोटी, असंगठित क्षेत्र की फर्मों फैक्टरीज एक्ट के
अंतर्गत आती हैं, जिसे स्थानीय
अधिकारी लागू करते हैं। तो भी उनके
बीच अंतर से किसी बहुत स्पष्ट वर्गीकरण में मदद नहीं मिलती। अनेक लोग संगठित
क्षेत्रों में काम करते हैं, पर उन्हें
संगठित क्षेत्र की नौकरी के फायदे नहीं मिलते, क्योंकि वे या तो अस्थायी हैं, अनियत हैं अथवा ठेके पर काम करते हैं। बड़े
कारखाने प्रायः छोटी यूनिटों में बने उत्पादों की असेम्बलिंग, फिनिशिंग और मार्केटिंग करते हैं और इससे भी
नीचे छोटी यूनिटों का एक सिलसिला होता है। संगठित क्षेत्र अनेक मामलों में असंगठित
क्षेत्र पर निर्भर करता है, जैसे-हिस्से, पुर्जे, संसाधन और रख-रखाव। ट्रेड यूनियन
आंदोलन ट्रेड यूनियन
आंदोलन का इतिहास राष्ट्रवादी आंदोलन और इससे संबद्ध राजनीतिक पार्टियों के इतिहास
के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है, जो इसका एक
भाग थे। आजादी से पूर्व राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों का निशाना साम्राज्यवादी
दासता पर था। 1920 से 1947 के बीच आर्थिक मुद्दों के मुकाबले आजादी का
राजनीतिक मुद्दा भारी पड़ता था । मजदूरों के संघर्षों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद और
भारतीय पूँजीवाद दोनों से टक्कर ली। लेकिन, द्वितीय विश्वयुद्ध के खत्म होते-होते
साम्राज्यवादियों और पूँजीपतियों के मुकाबले कार्यनीति के सवाल पर ट्रेड यूनियनों
में कांग्रेस और कम्युनिस्ट समर्थक एक-दूसरे से अलग हो गए। कांग्रेस की
नीतियों के प्रति मजदूरों के अंदर व्याप्त असंतोष आजादी के बाद और अधिक बढा। आजादी
ने निजी पूँजी की प्रथा की शुरुआत की और इसके व्यापक जन समुदाय पर अपना दबदबा कायम
किया और इसका शोषण किया। सत्ताधारी वर्गों ने पूँजीवाद की स्थापना में दिलचस्पी ली, जिसके फलस्वरूप अधिकाँश लोगों के असमानता और
शोषण में निरंतर गिरावट आई। पिछले चार दशकों की यही कहानी रही है, जिसने देश भर में का शिकार होना ही था।
मुद्रा-स्फीति और मूल्य वृद्धि से मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में मजदूरों के बीच
प्रतिरोध को जन्म दिया। आजादी के बाद
के शुरू के दिनों में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ए आइ टी यू सी) ने इस
प्रतिरोध का नेतृत्व किया। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने तक मजदूरों के
प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले दो राष्ट्रीय संगठन अस्तित्व में आ गए थे ए आइ
टी यू सी और इंडियन फेडरेशन ऑफ लेबर 1948 तक समाजवादियों और एम. एन. राय के नेतृत्व
वाले इंडियन फेडरेशन ऑफ लेबर ने खुद को ए आई टी यू सी से अलग कर लिया और हिंदू
मजदुर संघ (एच एम एस) नामक एक अलग संगठन बना लिया, जबकि एआइ टी सी में शामिल कांग्रेस गुट ने
सितंबर 1947 में इंडिन
नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) की स्थापना की। इंटक से
संबद्ध जो 200 यूनियनें थीं, उनमें सबसे बड़ी यूनियनें 6(0) हजार की सदस्यता वाली अहमदाबाद की टेक्सटाइल
लेबर एसोसिएशन और टाटा वर्कर्स यूनियन थीं। इंटक का गठन ऐसी यूनियनों को लेकर हुआ
था, जो विभिन्न
स्थितियों में विकसित हुई थी और इस प्रकार यह मजदूर प्रबंधक संबंध के अलग-अलग
दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती थीं। इंटक का एक उद्देश्य उद्योग को राष्ट्रीय
स्वामित्व और नियंत्रण में लाना था। लेकिन, ऐसा लगता है कि राष्ट्रीयकरण की दिशा में
इंटक ने कुछ नहीं किया। इसका कारण यह है कि खुद इंटक के अंदर राष्ट्रीयकरण को लेकर
गंभीर दुविधाएं हैं। कांग्रेस पार्टी से संबद्ध होने के कारण इंटक ने सरकारी
निर्देशों का पालन शुरू कर दिया। सरकार के नजदीक होने के कारण इसे कई लाभ हुए। ए आई टी यू
सी और सेंटर फार इंडियन ट्रेड यूनियन (भाकपा के दो टुकड़े होने के बाद 1970 में स्थापित) क्रमशः भाकपा और माकपा से
संबद्ध हैं। ये इस वैचारिक दृष्टिकोण के समर्थक हैं कि औद्योगिक संबंधों को मजदूर
वर्ग के हितों को प्रदर्शित करना चाहिए और यह कि संगठित मजदूर ही प्रगतिशील
शक्तियों के कारक हैं। छठे और सातवें दशक में ए आइटी य सी की समझ और कार्यनीति में
बाधा पड़ी, क्योंकिं
भाकपा उन दिनों सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के करीब हो गयी थी। इस अवधि के दौरान
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने आरोप लगाया कि भारतीय कम्पनिस्ट पार्टी भटकाव का
शिकार हो गयी है और वर्ग सहयोग के रास्ते पर चल रही है। इसके कारण ए आई टी यू सी
के अंदर सक्रिय भाकपा और माकपा कार्यकर्त्ताओं के बीच खाई बढ़ती गयी और माकपा
नेतृत्व ने एक अलग ट्रेड यूनियन संगठन ‘‘सीटू’’ (सेंटर फार इंडियन ट्रेड यूनियंस) बनाने का
फैसला किया। सीटू की एक जुझारू संगठन के रूप में ख्याति है, पर इसका यह जुझारूपन भारी औद्योगिक और
सार्वजनिक क्षेत्र में मजदूरों तक ही सीमित है। ए आई टी यू
सी छठे दशक से ट्रेड यूनियन आंदोलनों की अग्रिम पंक्ति में है। अधिकांश आंदोलनों
का केन्द्र वेतन ढांचे में संशोधन रहा है और इन्होंने आवश्यकतानुसार न्यूनतम वेतन
की मांग उठायी है। 1959 में द्वितीय
वेतन आयोग की रिपोर्ट के बाद इन आंदोलनों को काफी गति मिली। इस रिपोर्ट में सीमित
राष्ट्रीय संसाधनों का हवाला देते हुए आवश्यकता पर आधारित न्यूनतम मजदूरी का सिद्धांत
मानने से इंकार किया गया था। अप्रैल 1960 में बंबई में केन्द्र सरकार के कर्मचारियों
के एक सम्मेलन में संयुक्त संघर्ष परिषद (ज्वाइंट कौंसिल ऑफ एक्शन) की स्थापना
हुई। इसमें ऑल इंडिया रेलवेमेन फेडरेशन, नेशनल
फेडरेशन ऑफ पोस्ट ऐण्ड टेलिग्राफ इम्प्लाइज ऑल इंडिया डिफेन्स इम्प्लाइज फेडरेशन
और कान्फेडरेशन आफ सेंट्रल गवर्नमेंट इम्प्लाइज के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और
जुलाई 1960 में हड़ताल का
आहवान किया गया। इसमें मुख्य मांगें थी - पहले वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर
महंगाई भत्ते का भुगतान, राष्ट्रीय
स्तर पर एक न्यूनतम मजदूरी तय करना और कुशल, अर्द्धकुशल और अकुशल मजदूरों के बीच अंतर का
तर्कपूर्ण निर्धारण । हड़ताल के इस ऐतिहासिक आह्वान को, जिसका सभी बड़ी राष्ट्रीय यूनियनों ने समर्थन
किया था, आवश्यक सेवा
निर्वहन अध्यादेश, 1960 (एसेंसियल
सर्विसेज मेनटेनन्स ऑडिनेन्स 1960) के अंतर्गत
अवैध घोषित कर दिया गया। पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों ने बीस हजार मजदूरों को
गिरफ्तार किया, जबकि बहुत
सारे लोग पुलिस की गोली से मारे गए और घायल हुए। ऐसे दमन के
बावजूद यह हड़ताल पांच दिनों तक चली। सातवें दशक में मजदूरों, सफेदपोश कर्मचारियों और स्कूल तथा कालेज
अध्यापकों के अनेक अनेक जुझारू संघर्ष देखने में आए। इस अवधि में चले ट्रेड यूनियन
संघों पर वही संघर्ष हावी रहे, जिन्हें
केन्द्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों ने आल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट इम्पलाइज
फेडरेशन के नेतृत्व में चलाया था। केन्द्र सरकार के कर्मचारियों ने 19 सितम्बर, 1968 को हड़ताल कर दी। इनकी मांगे थी-मूल वेतन में
महंगाई भत्ता शामिल करना आवश्यकता आधारित न्यूनतम वेतन, मूल्यों में वृद्धि को पूरी तरह निष्प्रभावित
करना। इस बार फिर हड़ताल पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आठवे दशक में ट्रेड यूनियन के जुझारूपन में एक उभार आया। इस अवधि में हुई हड़ताल - और तालाबंदी से खोए गए कार्य दिवसों की संख्या से इसे मापा जा सकता है। 1965-75 के बीच खोए गए कार्य दिवसों की संख्या में लगभग 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सफल ट्रेड यूनियन गतिविधियों का काफी हद तक लाभ संगठित क्षेत्र के निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय कर्मचारियों व मजदूरों को मिला। इस अवधि में असंगठित क्षेत्र के मजदूर भी संगठित होने लगे थे, ताकि संपत्ति और सत्ता के पुनर्वितरण के लिए संगठन में दूरगामी परिवर्तन किया जा सके। बढ़ती कीमतों, आवश्यक उपभोक्ता सामग्री की कमी और बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में आंदोलन हो रहे थे। निरंतर तेज होती आर्थिक कठिनाइयाँ जिससे लगभग सभी वर्ग के लोग प्रभावित थे, के व्यापक विरोध में केन्द्र और राज्य सरकार के कर्मचारी भी हिस्सा ले रहे थे। |
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निष्कर्ष |
इन आंदोलनों में तो तेजी आ ही रही थी, इस बीच 17 लाख रेल
कर्मचारियों ने मई, 1974 में हड़ताल का आह्वान किया। रेल
कर्मचारियों की लगभग 200 अलग-अलग यूनियनों को लेकर एक
राष्ट्रीय समन्वय समिति बनायी गयी, ताकि संघर्ष को
नेतृत्व दिया जा सके। बैठक का आयोजन आल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के तत्कालीन
अध्यक्ष जार्ज फर्नाण्डीज ने किया था और इस काम में उन्हें भाकपा, माकपा तथा जनसंघ तक से संबद्ध यूनियनों का समर्थन हासिल करने में सफलता
मिल गयी। इनके प्रतिनिधियों को समन्वय समिति में शामिल किया गया। मजदूरों की
मांगों में मुख्य थीं- वेतन का दुगुना करना, अतिरिक्त
मँहगाई भत्ता, सालाना बोनस का भुगतान, और रियायती दर पर अनाज तथा अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराने की
सुविधा। इनमें से कुछ मांगें मान ली गयीं, लेकिन जो भी
रियायतें मिलीं, वे सभी सामानों के मूल्य में बेहताशा
वृद्धि के कारण बेअसर रही। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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