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निराला-काव्य में प्रगतिशील प्रवृत्तियाँ | |||||||
Progressive Trends in Nirala-Kavya | |||||||
Paper Id :
17655 Submission Date :
2023-02-05 Acceptance Date :
2023-02-21 Publication Date :
2023-02-25
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सारांश |
निराला काव्य का केन्द्र मानव है निराला की प्रगतिशील लोकोन्मुखता, उनकी सामाजिक यथार्थवादी मानवतावादी दृष्टि, प्रखर व्यंग्य चेतना एवं दीनहीन शोषित उत्पीड़ित कृषक मजदूर के प्रति सक्रिय संवेदनशीलता के कारण उनके प्रगतिशील दृष्टि से प्रेरित रही है। निष्चय ही निराला अपने युगीन परिवेश की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से अलग-थलग नहीं थे किन्तु निराला की लोक चेतना एवं यथार्थवादी मानवीय संवेदना उनकी जीवन की अनुभूतियों का परिणाम अधिक है किसी वाद या सिद्धान्त का प्रभाव कम।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Human is the center of Niral’s poetry, human's progressive people-orientedness. His social realistic humanist vision, intense satirical consciousness and active sensitivity towards the downtrodden exploited oppressed farmer-laborer have been inspired by his progressive vision. Certainly Nirala was not isolated from the literary and cultural activities of his contemporary environment, but Nirala's public consciousness and realistic human sensibilities are more the result of his life's experiences, less the effect of any doctrine or theory. | ||||||
मुख्य शब्द | प्रगतिशील लोकोन्मुखता, सामाजिक यथार्थवाद, मानवतावाद, व्यंग्य चेतना। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Progressive People-Orientedness, Social Realism, Humanist, Satirical Consciousness. | ||||||
प्रस्तावना |
निराला काव्य में प्रगतिवादी चेतना एक स्वस्थ विधेयात्मक प्रवृत्ति के रुप मे उभरी है न कि सांम्प्रदायिक एवं वादात्मक आवेश के चौखट में फीट होकर। उनके काव्य की संवेदना का केन्द्र मानवीय संवेदना है। निराला का मानव साम्य आधुनिक पंथ निरपेक्ष राष्ट्रीयता की स्थापना भी मानवतावाद की विस्तृत भावभूमि पर स्वतन्त्रता पूर्व ही कर देता है जब वह जाति धर्म आधारित बँटवारा व्यर्थ सिद्ध कर मानव को केवल उसकी मानवता से ही मूल्यांकित करने का आह्वान करता है। निराला का मानव की महत्ता में सदैव सम्पूर्ण विश्वास रहा। उनके लिए ’मानव’ देव से बढ़कर तथा यह ’धरती’ स्वर्ग से बढ़कर महत्व रखती है। मानवीय समता के साथ निराला विष्व मांगल्य के कवि है। मानव कल्याण की सार्वभौमिक, सार्वदेशिक, सार्वकालिक व्यंजना ही उनके काव्य का मूल स्वर है।
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अध्ययन का उद्देश्य | निराला का काव्य रचनाकाल सन् 1916 से लेकर सन् 1961 तक 45 वार्षो का एवं मुक्तिबोध का काव्य रचनाकाल सन् 1935 से सन् 1964 तक लगभग 30 वार्षो का रहा है इसमें लगभग 26 वर्ष तक दोनों ने समानान्तर रूप से एक ही समय में काव्य सृजन किया। दोनों की वैयक्तिक स्थिति एवं युगीन परिस्थितियों से उनके काव्य प्रभावित हुए और दोनों ही के काव्य ने कई सोपन, कई मोड़ और कई धाराओं को पार किया। इसी परिप्रेक्ष्य में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के प्रगतिशील काव्य का अध्ययन किया गया है। |
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साहित्यावलोकन |
जितेंद्र कुमार बरबड़ के अनुसार निराला’ साहित्य जगत के ऐसे कवि हैं जिनके साहित्य को पढ़ने से ही नहीं स्मरण मात्र करने से ही हृदय में उत्साह भर जाता है। इनके काव्य का यथार्थ अत्यंत व्यापक, विराट तथा सौन्दर्य इतना विलक्षण है जिसमें जीवन का सर्वस्व समाहित हो गया है। निराला’ प्रगतिवादी कवि हैं और प्रगतिवादी, शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना लाने तथा उसे संगठित कर शोषण मुक्त करने का समर्थन करता है। ’निराला’ की प्रगतिशील दृष्टि उनकी आरंभिक रचना ’जूली की कली’ से ही दिखाई देने लगती है जिसमें छंद के बंधनों को तोड़कर कविता को छंद मुक्त किया। इसके बाद ’जागो फिर एक बार’ ’शिवाजी का पत्र’, ’यमुना के प्रति’,बादल राग’, ’भिक्षुक’, ’विधवा’, ’वह तोड़ती पत्थर’, ’कुकुरमुत्ता’ आदि प्रगतिवादी चेतना की कविताओं को अपने काव्य ग्रंथों में स्थान दिया। ’कुकुरमुत्ता’ ’नए पत्ते’ ’गीत कुंज’ आदि संग्रह तो पूरी तरह प्रगतिवादी स्वरूप लिए हुए हैं। डॉ. शिवदत्त शर्मा ने यह विवेचित किया है कि निराला चाहे प्रगतिशील कवि थे, परन्तु प्रगतिवादी कवि नहीं थे। उन्होंने न मार्क्ससवादी विचारधारा का समर्थन किया और न ही अपनी कविता में साम्यवाद का प्रचार किया। लया एन. का कहना है कि निराला साहित्य सामाजिक चेतना से संपन्न है। उनके साहित्य में सामाजिक विसंगितियों से हमेशा संघर्ष किया है। सही मायने में निराला साहित्य नवजागरण का प्रतीक है। |
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मुख्य पाठ |
अपने रचनाकाल के प्रारम्भ से ही निराला की रचनाओं में अनेकरूपता रही है। छायावादी भावबोध के प्रारम्भिक चरण में भी सामाजिक यथार्थबोध पर आधारित ‘भिक्षुक‘ , ‘विधवा‘ , ‘बादल राग‘ जैसी कविताएँ निराला की प्रगतिशील दृष्टि की परिचायक हैं। छायावादी दौर के चरमोत्कर्ष के समय भी दान, तोड़ती पत्थर, वनबेला, उक्ति, ठूंठ, हिन्दी के सुमनों के प्रति, आदि कविताओं में यथर्थवादी प्रवृत्तियुक्तप्रतिपक्षी काव्य, अभिजात्य काव्य दृष्टि को चुनौति देता प्रकट होता है इस प्रकार ‘अनामिका‘ की से कविताएँ निराला काव्य के प्रगतिशील स्वर का प्रस्थान बिन्दु बन जाती है। यद्यपि अन कविताओं का काव्य प्रगतिशील है किन्तु शिल्प अभी भाववादी दृष्टि से मुक्त नहीं हुआ है। परिवर्तन के इस संक्रमणकालीन दौर में सन् 1940 के बाद निराला काव्य में छायावाद के अभिजात्य काव्य संस्कारों के न्रति तीव्र प्रतिक्रिया दिखायी पड़ती है। युग जीवन की बहुमुखी प्ररिस्थितियों का यथार्थ निराला को एक नये काव्यबोध की जमीन पर उतरने का आह्नान कर रहा था। 1942 में ‘कुकुरमुक्ता‘ के प्रकाशन से निराला यथार्थवादी काव्यबोध की दबड़-खाबड़ घाटियों में उतर आए। ‘तुलसीदास‘ छायावादी काव्यबोध का एक क्लाइमैक्स था जिसने नये बदलाव की सूचना दी। इस प्रकार सन् 1939 से 1946 तक का निराला काव्य सामाजिक यर्थाथ के ठोस धरााातल पर अवर्तीण प्रगतिशील काव्य माना जाता है, कुकुरमुत्ता(1942), अणिमा (1943), बेला (1946), नये पत्ते (1946) इस दौर की में निराला के प्रमुख काव्य संग्रह हैं। ‘‘इन कविताओं द्वारा निराला हिन्दी कविता में वस्तु और रुप दोनों स्तरों पर छायावादी, रहस्यवादी, कलावादी, विचारवादी, भाववादी रुझानों से मुक्तहोकर सहज और स्वाभाविक किन्तु सुरुचिपूर्ण काव्य भाषा में युग के समाजवादी यथार्थ को उसके नये-नये अन्तर्विरोधों और अन्तः सम्बन्धों के साथ चित्रित करते है। समाजवादी यथार्थ की अन्तर्वस्तु भारतीय समाज और साहित्य में पहले से मौजूद थी, किन्तु निराला उसे नये काव्य सत्यों के रुप में रचनात्मक धरातल पर चरितार्थ करते है। ‘‘[1] यद्यपि प्रगतिशील काव्यदृष्टि के पहले काव्य कुकुरमुत्ता में अभिजात्य काव्यबोध के विरोध के साथ ही अकाव्यात्मक अन्तर्विरोध और व्यंग्यात्मक लफ्फाजी का अतिरेक भी महत्वपूर्ण किन्तु कहीं न कहीं गहरी सामाजिक यथार्थ दृष्टि का गंभीर अहसास इस आवरण को चीरकर प्रकट हो जाता है- रहते थे नव्वाब के खादिम इस प्रारभिक यथार्थबोध का विकास बेला की रचनाओं में होता है- निराला का यह नया काव्य सत्य सामान्य उपेक्षित उत्पीड़ित जन को नवजीवन की प्रेरणा देता हुआ उद्बोधित करता है-अफ्रीका के आदमी आदिम- खानसामाँ, बावर्ची और चोबदार , सिपाही, साईस, भिष्ती, घुड़सवार, ताम जानवाले कुछ देशी कहार, नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार, फीलवान, ऊँटवान, गाड़ीवान एक खासा हिन्दु मुस्लिम खानदान एक ही रस्सी से किस्मत कीं बँधा काटता था जिन्दगी गिरता-सधा। पेट के मारे वहाँ पर आ बसे, साथ उनके रहे, रोये और हँसे।[2] जल्द जल्द पैर बढ़ाओ, आओ,आओं। जनसामान्य के दैन्य, विषमता, गरीबी, भुखमरी एवं अमानवीस शोषण ये संत्रस्त पराधीन समुदाय के मुक्ति संघर्ष की प्रेरणा का स्वर निराला काव्य में तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था निराला एक ओर शोषक पूँजीपतियों का पर्दाफाश कर रहे थे। आज अमीरों की हवेली किसानों की होगी पाठशाला धोबी पासी चमार तेली खोालेंगें अँधेरे का ताला, एक पाठ पढेंगे टाट बिछाओ।[3] भेद कुल खुल जाय वह सूरत हामारे दिल में है वहीं दूसरी ओर सामान्य जनचेतना को संकल्पधर्मी चुनौती का आह्नान कर रहे थे-देश को मिल जाये जो पूँजी तुम्हारी मिल में है।[4] राह पर बैठे उन्हें आबाद तू जब तक न कर निराला का यह क्रान्तिधर्मी आह्नान ‘बेला‘ में सफल संघर्ष में परिणत होता जा रहा था उपेक्षित दीन-हीन सामान्य जन अपनी स्वत्व-प्राप्ति का महासंग्राम लड़ने के लिए सन्नद्ध हो उठे निराला इसकी गवाही देते है। चैन मत ले, गैर को बरबाद तू जब तक न कर।[5] जिन्होनें ठोकरें खायी गरीबी में पडे़ उनके ‘नये पत्ते‘ के प्रकाशन से निराला काव्य में यथार्थवादी सामाजिक दृष्टिकोण की पूर्ण अभिव्यक्ति के साथ उनका प्रगतिशील दृष्टिकोण भी चरम बिन्दु पर पहुँच गया। आर्थिक वैशम्य, सामाजिक विड़म्बना, राजनीतिक पाखण्ड, धार्मिक रुढिवाद एवं ऐतिहासिक, सांस्कृतिक षड्यंत्र पर पैने व्यंग्यों द्वारा निराला ने यथार्थवादी भावबोध को पूर्ण प्रखरता से अभिव्यक्ति दी। सामंतवादी इतिहास बोध ओर सभ्यता के खोखलेपन को तिक्त स्वर में अनावृत्त करते हुए निराला कहते है-हजारों-हा-हजारोें हाथ के उठते समर देखे।[6] राजे ने अपनी रखववाली की इसी प्रकार ‘दगा की‘ में निराला आदिमकाल से आज तक शासक वर्ग द्वारा सम्यता के नाम पर जनता से दगा करने, ‘चर्खा चला‘ कविता में अभिजात्य संस्कारों के विरुद्ध जनसामान्य एवं उसके मूल्यों की स्थापना-पौराणिक मिथकों की याद दिलाकर करने का आह्नान करते है। झिंगुर डटकर बोला कविता में कृषक-षोषण एवं सामन्तवाद से शासन की मिलीभगत का पर्दाफाश एक सामान्य खेतीहर कृषक से करवाते हुए जनचेतना के प्रसार का संकेत भी दिया गया है-किला बनाकर रहा बड़ी-बड़ी फोजें रखीं चापलूस कितने सामंत आये कितने ब्राह्मण आये पोथियों में जनता को बाँधे हुए।[7] चूँकि हम किसान सभा के ‘छलाँग मारता चला गया‘‘ कविता में जमींदार के सिपाही की हेकड़ी को करारे व्यंग्य से छेदा जाता है। ‘डिप्टी साहब आए‘ कविता में ‘बदलू‘ किसान जमींदार के चापलूस की नाक पर घूंसा जमाता है। ‘कुत्ता भौकने लगा‘ कविता में चंदा उगाहने आये जमींदारी सिपाहियों पर कृषक कुत्ता छोड़ देता है। उस प्रकार कृषि प्रधान भारत की साधारण जनता में संघर्ष की चेतना की सुगबुगाहट त्रीव आक्रोष में बदलती जाती है।भाई जी के मददगार जमींदार ने गोली चलवाई पुलिस के हुक्म की तामीली को। ऐसा यह पेंच है।‘‘[8] इसी के साथ छात्र आन्दोलन के दमन की भर्त्सना (खून की होली खेली), राजनीतिक नेताओं का पर्दाफाश (महँगू महँगा रहा), सौर्न्दय के अभिजात्यवादी मानदण्डों पर व्यंग्यात्मक प्रहार (रानी और कानी, खजोहरा) आदि स्वर भी निराला की यथार्थवादी मानवीय चेतना को नये स्वर देते है। निराला जहाँ एक ओर बहुआयामी शोषण चक्र में अनेकानेक पीड़ाओं से व्यथित जनसामान्य की करुण स्थिति का चित्रण करते है। वहीं दूसरी और विषिष्ट को छोड़कर अतिसामान्य लोकोन्मुखी जन-संस्कृति एंव जन-संवेदनाओं को भी सहज कलात्मक अभिव्यक्ति देते है- हरी-भरी खेतों की ग्राम जीवन की कृषक संस्कृति से सम्बद्ध यह जन सम्पृक्ति निराला काव्य में आरोपित एवं ओढी हुई नहीं है।उनका जीवन लोक संघर्ष, कृषक आन्दोलन एवं ग्राम जीवन से घनिष्ठ रुप से सम्बद्ध रहा है इस कारण स्वभावतः वे लोकानुभुति, कृषक जीवन के सुख-दुख, यातना-संघर्ष, गीत-संगीत, उत्सव-पर्व आदि के चित्रण गहरासई से कर पाने में समर्थ हुए है। निराला की लोकचेतना जनसामान्य के गुणगान मात्र को ही काव्य का अभिष्ट नही माानती वरन् उसके अभावों को स्पष्ट करके, उसकी विकृति एवं विद्रूपताओं को अभिव्यक्त करके उसे सँवारने की आवश्यकता पर बल देती है। निराला काव्य की मल समस्या जनजीवन का अभ्युत्थान और उसके लिए काव्य द्वारा लोकरुची को, लोक-संस्कार को ऊँचा उठाने की आवश्यकता है। सरस्वंती लहराई मग्न किसानो के घर उन्मद बजी बधाई। खुली चाँदनी में डफ और मजीरें लेकर बैठे गोल बाँध कर लोग बिछे खेसों पर,[9] न तो निराला मार्क्स के पूर्णतः समर्थक रहे, न ही उनकी सामाजिक प्रगतिशील चेतना ने प्रगतिवादी साहित्यान्दोलन के प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा की। जब भारत में साम्यवाद की सुगबुगाहट भी नही थी निराला ‘भिक्षुक‘ , ‘विधवा‘, ‘कण‘ , ‘दीन‘ आदि मानवीय संवेदना युक्त कविताओं का सृजन कर चुके थे। अतः ‘‘निराला काव्य में प्रगतिवादी चेतना एक स्वस्थ विधेयात्मक प्रवृत्ति के रुप मे उभरी है न कि सांम्प्रदायिक एवं वादात्मक आवेश के चौखट में फीट होकर।‘‘[10] दूधनाथ सिंह के शब्दों में निराला पर मार्क्सवादी चिंतन का प्रभाव तो है किन्तु निराला की प्रगतिशील दृष्टि का मूल उनके व्यक्तित्व की सांस्कारिक निष्ठा ही है ‘‘मुझे लगता है कि इतिहास की इस गहरी समझ और भारतीय जनसाधारण की यथार्थ स्थिति के इतने सुक्षम निरीक्षण में मार्क्सवादी चिंतन का कुछ ना कुछ प्रभाव निराला पर अवष्य है। इस विचारधारा के आलोक में उपेक्षित की पक्षधरता की उनकी व्यक्तिगत निष्ठा और मजबूत हुई है। इसके आलोक में अपने ही अन्दर बसी हुई इस रचनात्मक मानसिकता की पूनर्पहचान निराला ने की है।‘‘[11] निराला काव्य में व्यंग्य का स्वर तो प्रारम्भ में भी रहा किन्तु सन् 1939 के बाद तो हास्य और व्यंग्य उसका मुख्य स्वर बन गया है। निराला की यथार्थाग्रही संवेदना समसामयिक सामाजिक अन्तर्विरोंधों को गहराई से देखती है और व्यंग्य को इस यथार्थ के अत्यन्त सक्षक्त माध्यम के रुप में स्वीकार करती है। ‘‘ सामाजिक जीवन की विभीषिकाओं को निराला जी ने खुली आँखों से देखा, दिल से अनुभव किया। जनसामान्य के गालों पर लरजते आँसुओं में उन्होने उनके दुख एवं पीड़ा की कहानी देखी और सुनीं। यही पीड़ा और दुख उनके काव्य में व्यंग्य के रुप में मुखर हुआ।‘‘[12] निराला ने तत्कालिन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विभीषिकाओं एवं विडम्बनाओं का उद्घाटन कर, सामन्तवादी शक्तियों और शासक वर्ग के दोहरे चरित्र एवं साँठ-गाँठ का पर्दाफाश करते हुए कुकुरमुत्ता, बेला एवं नये पत्तें में गहरा, पैना और अनेकोन्मुखी व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। कुकुरमुत्ता पूँजीवादी वर्ग और संकीर्ण जातिवादी दृष्टि पर कटाक्ष करता है तो साहित्यिक विद्रूपताओं को भी व्यंग्य के आघात से अनावृत करता है। ‘बेला‘, ‘वीर जवाहर लाल‘ जैसे नेताओं की छद्म जन-आस्था का भण्डाफोड़, करती है तो ‘नये पत्ते‘ छद्म मार्क्सवादी ‘गिड़वानी‘ और गाँधीवादी सफेदपोशों के दुहरे चरित्र का पर्दाफाश करते है। मेरे नये मित्र है श्रीयुत् गिडवानी जी, बहुत बड़े सोश्यलिस्ट ‘मास्को डायलाग्स‘ लेकर आये है मिलने। फिर कहा ‘मेरे समाज‘ में बड़े-बड़े आदमी है, एक से है एक मूर्ख उनको फँसाना है ऐसे कोई साला एक धेला नहीं देने का देखा उपन्यास मैनें श्रीगणेश में मिला- ‘पृय असनेहमयी स्यामा मुझे प्रैम है।‘ इसको फिर रख दिया, देखा ‘मास्को डायलॉग्स‘, देखा गिडवानी को।[13] छायावादी भाषाई अभिजात्य को तोड़कर निराला ने अपनी प्रगतिशील रचनाओं में भाषा के सामान्यीकरण द्वारा जन-सम्प्रेक्षण की समस्या का अभिनव समाधान किया है। यह भाषा बोध का परिवर्तन अपने पुष्ट और प्रौढ रुप में ‘बेला‘ और ‘नये पत्तों‘ की रचनाओं में लक्षित होता है। उनके सहज, सरल और जनवादी भाषा संस्कार अपने स्वाभाविक प्रवाह, मौजी रंग और जीवन्त आवेग में ढलकर बोलचाल की आम भाषा का निर्वहन करते हुए भी भावानुसार सम्प्रेषणीयता और ध्वन्यात्मक पाठयकला के गुणों की छटा भी बिखेरते है। जनभाषा के साथ ही निराला काव्य का सहज शब्द-चित्र, लोक-सम्पृक्त बिम्ब-विधान एवं जनसामान्य की अलंकरण योजना उसकी जन-सम्प्रेषणीयता को और अधिक सशक्त बना देता है। फिर भी यह बस्ती है मोद पर नातिन जैसे नानी की गोद पर नाम है हिलगी बनी है भुचुम्बी जैसे लोकी की लम्बीं है तुम्बी।[14] |
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निष्कर्ष |
सारतः निराला प्रगतिवाद के पुरोधा तो हैं किन्तु उनकी प्रगतिशीलता सिद्धान्तों एवं वादों के परे है। उनका मार्ग प्रशस्त है। उनमें मानवीयता की भावना का उद्रेक और परिष्कार है। मानवीय कल्याण और उन्नयन उनका एकमात्र आदर्श है जिसका सम्बन्ध धरती से है। वास्तव में निराला की प्रगतिशीलता ओढ़ी हुई अथवा किताबी नहीं थी, वह साधारण जन के साथ उनके गहरे लगाव का परिणाम थी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. राजकुमार सैनी - साहित्य सृष्टा निराला, पृ. 38
2. निराला - कुकुरमुक्ता, पृ. 50
3. निराला - बेला, पृ. 78
4. निराला - बेला गीत सं. 59
5. वही, गीत सं. 60
6. वही, गीत सं. 55
7. निराला - नये पत्ते, पृ. 31-32
8. वही, पृ. 64
9. वही, पृ. 70-71
10. विपिन बिहाी ठाकुर - युग कवि निराला (सं. राममूर्ति शर्मा), पृ. 110
11. दूधनाथ सिंह - निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ. 211
12. डॉ. भागीरथ मिश्र - निराला काव्य का अध्ययन, पृ. 161
13. निराला - नये पत्ते, पृ. 25-26
14. वही, पृ. 17 |