ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
निराला काव्य में मानवीय संवेदना
Human Sensitivity In Niralas Poetry
Paper Id :  17653   Submission Date :  17/01/2023   Acceptance Date :  22/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
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सत्यदेव सिंह
सह आचार्य
हिन्दी विभाग
श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी गवर्नमेंट पी.जी. कॉलेज
किशनगढ़,राजस्थान, भारत
सारांश निराला ने अपने काव्य विकास के प्रत्येक चरण में मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन किया है। उसमें जन साधारण के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न-संघर्ष से गहन रूप से सम्बद्ध रही है उसमें दलित-उत्पीड़ित, शोषित उपेक्षित जन के हृदय से रहकर फूट पड़ने वाली राग-रागिनियाँ हैं, उसमें यातनाग्रस्त मानवता और चिरसंघर्षरत मनुष्यता के हर्ष-उल्लास, उत्साह-विषाद निराशा और संत्रास से भरे स्वप्न हैं। दलित जनपर करुणा और सहानुभूति का यह संस्पर्श निराला काव्य में आद्यान्त रहा है किन्तु उनके परवर्ती काव्य में यह करूणा और सहानुभूति; क्षोभ, आक्रोश एवं व्यंग्य में मुखरित होने लगती हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Nirala has created poetry full of human sensitivity at every stage of his poetic development. It has been deeply related to the happiness-sorrow, hope-aspiration, dream-struggle of the common man, it has ragas and raginis emanating from the heart of the downtrodden-oppressed, exploited-neglected people; Euphoria, depression are dreams full of despair and terror. This touch of compassion and sympathy on the Dalit people has been prevalent in Nirala's poetry, but in his later poetry this compassion and sympathy; Anger and sarcasm start to emerge.
मुख्य शब्द मानवीय संवेदना, जन साधारण, करुणा, सहानुभूति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Human Sensitivity, Common Man, Compassion, Sympathy.
प्रस्तावना
मानवीय संवेदना’ का तात्पर्य किसी के कष्ट से उपजी वेदना की सह-अनुभूति एवं उसके मंगल की कामना और उसकी सुखानुभूति से तदाकारिता तथा व्यापक जीवन जगत् का अनुभूतिजन्य यथार्थ अन्तर्बोध। निराला की काव्य चेतना जन साधारण के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न-संघर्ष से गहन रूप से सम्बद्ध रही है उसमें दलित-उत्पीड़ित, शोषित उपेक्षित जन के हृदय से रहकर फूट पड़ने वाली राग-रागिनियाँ हैं, उसमें यातनाग्रस्त मानवता और चिरसंघर्षरत मनुष्यता के हर्ष-उल्लास, उत्साह-विषाद निराशा और संत्रास से भरे स्वप्न हैं। निराला काव्य के प्रायः सभी संग्रहों में निराला की यह व्यापक एवं गहन मानवीय संवेदना परिव्याप्त है।
अध्ययन का उद्देश्य मानवीय संवेदना मूलतः काव्य का मूल मन्तव्य होता है। 1. निराला की काव्य में मानवीय संवेदना का अनुशीलन करना। 2. निराला की काव्य की मार्मिकता का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

निराला की जातीय चेतना उनकी बहुआयामी चेतना की ही अभिव्यक्ति है। वैयक्तिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय तथा अन्तःराष्ट्रीय जगत में घटने वाली घटनाओं के घात-प्रतिघात से उनकी इस चेतना का विकास हुआ था।

निराला ऐसे रचनाकार हैं, जिनके यहाँ अपार करुणा, सहानुभूति और मानवीयता है, इसीलिए निराला की रचनाएँ अपने भीतर प्रवेश किये को, वही नहीं रहने देती हैं, बल्कि उसे बदलने की प्रक्रिया में ले जाती हैं। डॉ॰ सुनीता देवी ने अपने शोध पत्र निरालाके काव्य में मानवतावाद में निरालाके काव्य में मानवतावाद को सशक्त रूप में अभिव्यक्त माना है। उनके अनुसार निराला ने नैतिकता का हनन करने वाले तत्वों के प्रति उन्होंने जबरदस्त विद्रोह प्रकट किया है। निरालाजी मनुष्य के जीवन को शक्ति प्रदान करने वाले जीवन मूल्यों का जीवन का मूलाधार बताया है। डॉ. रामविलास शर्मा अक्सर उन्हें संघर्ष और पौरुष का परिवर्तन विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है इसका कारण यही है। उनके कहानी उपन्यास में भी समाज के दलित और संघर्षरत मनुष्यों का गौरव निखरकर सामने आता है। अकारण नहीं है 'बादलराग' में अधीर कृषक 'विप्लव' के वीर को बुलाता है और "इलाहाबाद" के पथ पर चिलचिलाती लू में पत्थर तोड़ती मज़दूरनी निराला की सहानुभूति में रंग जाती है। 'देवी' 'चतुरीचमार' 'कुल्लीभाट' 'जागो फिर एक बार' जैसे संघर्षरत चरित्र और उनके साथ पूरा किसान समुदाय अँग्रेज़ों और उनके सहायक ज़मींदारों के ख़िलाफ़ अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता हुआ निराला की रचनाओं में गौरवान्वित होता है। निराला ने इन कविताओं के माध्यम से किसान वर्ग और मज़दूर वर्ग की मानवीय संवेदना को चित्रित किया है। अवनीष मिश्र ने अपने लेख में कहा है कि निराला की मृत्यु के बाद धर्मवीर भारती ने निराला पर एक स्मरण-लेख लिखा था उसमें उन्होंने निराला की तुलना पृथ्वी पर गंगा उतार कर लाने वाले भगीरथ से की थी। धर्मवीर भारती ने लिखा है- 'भगीरथ अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आए थे। निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए ण् निराला को याद करते हुए भगीरथ की याद आए या ग्रीक मिथकीय देवता प्रमेथियसध्प्रमथ्यु की तो यह आश्चर्य की बात नहीं है।

मुख्य पाठ

निराला की काव्य चेतना जन साधारण के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न-संघर्ष से गहन रूप से सम्बद्ध रही है उसमें दलित-उत्पीड़ित, शोषित उपेक्षित जन के हृदय से रहकर फूट पड़ने वाली राग-रागिनियाँ हैं, उसमें यातनाग्रस्त मानवता और चिरसंघर्षरत मनुष्यता के हर्ष-उल्लास, उत्साह-विषाद निराशा और संत्रास से भरे स्वप्न हैं। निराला काव्य के प्रायः सभी संग्रहों में निराला की यह व्यापक एवं गहन मानवीय संवेदना परिव्याप्त है।वास्तव में ’’निराला के सम्पूर्ण काव्य में उपेक्षित दलित के उन्नयन और जन साधारण की प्रतिष्ठा के प्रति गहरी आस्था के दर्शन होते हैं। उपेक्षित या जन साधारण उनके लिए कोई अमूर्त विचार नहीं है। उनकी तेजस्वी मेधा ने भारतीय समाज में उस वर्ग को पहचानने और उसकी दुःख-गाथा को अभिव्यक्ति देने में कभी कोई भूल नहीं की। ऐसा नहीं है कि निराला ने किसी समय विशेष में अनुभव और रचना की किसी विशेष दिशा में ही जन साधारण को पहचाना हो। जन साधारण की यह गहरी और वास्तविक पहचान निराला के व्यक्तित्व की सांस्कारिक निष्ठा से उद्भूत हुई है। जन साधारण की उपेक्षा, उसके शोषण, उसके अपमान उसकी निराशा, सहनशीलता और घोर विपत्तियों में भी जीवन के प्रति उसकी भोली बेलाग निष्ठा तथा सहज विनम्रता भरा आत्मविश्वास - भारतीय जन साधारण के चरित्र की इस सच्चाई को निराला ने बड़ी गहराई से और सम्पूर्णतः पहचाना है। वास्तव में निराला जन साधारण की इस चरित्रगत सच्चाई से स्वयं भी भरे-पूरे थे।’’[1]
निराला काव्य के प्रायः सभी संग्रहों में निराला की यह व्यापक एवं गहन मानवीय संवेदना परिव्याप्त है। परिमल की-विधवा, भिक्षुक, अधिवास, संध्या-सुन्दरी, दीन, बहू, कण, बादल राग कविताएँ, गीतिका के -बादल में आये जीवन धन, जला दे जीर्ण शीर्ण प्राचीन, रंग गयी पग पग धन्य धरा-गीत, अनामिका की-मित्र के प्रति, दान, प्रगल्भ प्रेम, तोड़ती पत्थर, वे किसान की नयी बहू की आँखे, और छवि-कविताएँ, ’तुलसीदासके अनेक पदबन्ध, कुकुरमुत्ता नामक कविता, अणिमा की-’’यह है बाजारमेरे घर के पश्चिम, सड़क के किनारे, चूँकि यहाँ दाना है, बेला के बहुत से गीत एवं गजलें, नये पत्तेखेत जोतकर घर आए हैं, महकी साड़ी, धान कूटता है, खिरनी के पेड़, तले-जैसे गीत, अर्चना की-आशा आशा भरेदुरित दूर करो नाथ, शिशिर की शर्वरी, फूटे हैं आमों में बोर,बाँधो न नाव इस ठांव, बन्धु! माँ अपने आलोक निखारो, गीत गुंज की -बादल रे जी तड़पे रे जी तडपे, घन आये घनश्याम न आये, बापू तुम यदि मुर्गी खाते, तथा साँध्य काकलीकी गहरी विभावरी शीत की इत्यादि कविताएँ-उपेक्षित उत्पीड़ित के प्रति गहरी करुण संवेदना, उसके मान सम्मान, उत्थान को अभिव्यक्ति देने वाली कविताएँ हैं।
इस प्रकार निराला ने अपने काव्य विकास के प्रत्येक चरण में मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन किया है-
दीन दलित के प्रति करूणा एवं दुःख दरिद्र्य के प्रति क्षोभा
                           मैंने मैं शैली अपनायी
                           देखा दुःखी एक निज भाई
                           दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
                           झट उमड़ वेदना आई।
                           ×      ×      ×
                           लगाया उसे गले से हाय
                           ×      ×      ×
                           उसकी अश्रुभरी आँखों पर मेरे करुणांचल का स्पर्श
                           करता मेरी प्रगति अनन्त, किन्तु तो भी मैं नहीं विमर्ष
                           छूटता है यद्यपि अधिवास
                           किन्तु फिर भी न मुझे कुछ त्रास।[2]
चिर दुःखी से भ्रातृत्व का नाता, उसके दुख के प्रति हार्दिक सम-वेदना की अनुभूति, उसका आत्मीय लगाव एवं संरक्षण, उसको अपने जीवन और काव्य में केन्द्र बनाने के लिए सभी खतरे उठाने की निर्द्वन्द्व घोषणा निराला काव्य की आत्मा है। हजारों हजार साल से उपेक्षित अपमानित और प्रताड़ित इन्हीं दीन-दुःखियों, अपाहित-अपंगों एवं असहाय-अनाथों की पीड़ा को इतनी आत्मीयतापूर्ण अभिव्यक्ति निराला काव्य की मानवीय संवेदना का मूल आधार है। इस प्रकार निराला ने काव्य संवेदना की नयी जमीन तोड़ी है।
पेट की भूख और उससे कहीं अधिक साधन सम्पन्नों की हृदयहीनता से अमानवीय व्यवहार को विवश कर दिये गये भक्षुकके भयावह दैन्य स्वरूप का अंकन हृदय विदारक है-
                           पेट-पीठ मिलकर दोनों हैं एक
                           चल रहा लकुटिया टेक
                           मुट्ठी भर दाने को
                           भूख मिटाने को
                           मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता
                           पछताता पथ पर आता।
                           ×      ×      ×
                           बाँयें से वे भलते हुए पेट को चलते
                           और दाहिना दया दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।
                           चाट रहे जूठे पत्तलें कभी सड़क पर खड़े हुए
                           औरझपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।’’[3]
भिक्षुककविता का यह करुण एवं भयावह दृश्य-बिम्ब एक ओर विशुद्ध उत्कट संवेदना का अजस्त्र प्रवाह है तो दूसरी ओर भिक्षुक के साथ ही कवि, दर्शक और मानव मात्र के कलेजे के दो टूक कर देने वाले सामाजिक पतन का सजीव चित्र है। ’’इस कविता का दैन्य और कदर्थना अपने आप में इतनी समर्थ है कि हमें भीतर तक झकझोर देती है।’’[4] भिक्षुक की उपेक्षा और वेदना का अपनी संवेदना से तादात्म्य स्थापित कर निराला ने मानवीय संवेदना के करुण स्वर का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है।
किन्तु करुणा के इस उफनते सैलाब को समेटकर शक्ति में परिवर्तित करने के संकल्प की गूँज अभी निराला से दूर है। वे अभी अपनी करुण संवेदना के पात्र की सहनशीलता की उच्चाशयता को गौरव मण्डित करने के आवेग में ही निमग्न हैं-
                           अपने उर की तप्त व्यथाएँ
                           क्षीण काण्ठ की करुण कथाएँ
                           कह जाते हो
                           और जगत् की ओर ताक कर
                           दुःख, हृदय का क्षोभ त्याग कर
                           सह जाते हो।[5]
 
वस्तुतः निराला ने अपनी काव्य-संवेदना का आलम्बन सही चुना है तथा उनका हृदय भी इन दीन दुःखियों के प्रति गहराई तक करुणाभिभूत है किन्तु उनकी दृष्टि अपने छायावादी भावबोध से आच्छादित होने के कारण वेदना के इस अनन्त सागर की थाह ही लेती रही है इसे उद्वेलित ही करती रही है पर इसे बाँधने का कोई उपाय नहीं ढूँढ पायी है। यद्यपि वेदना सागर की थाह लेना और उससे उद्वेलित होना करना भी तब तक के हिन्दी काव्य के लिए अभूतपूर्व था।
दलित भारत की विधवाकी सहनशक्ति की यही उच्चाश्यता, उसे आत्म गौरव का प्रतीक घोषित कर पूजनीय देवी प्रतिमा तो अवश्य बना सकती है किन्तु उसका अस्फुट रुदन सामान्यतः किसी का हृदय अधीर नहीं करता-
                           यह इष्ट देव के मन्दिर की पूजा-सी
                           वह दीपशिखा-सी शान्त, भाव में लीन
                           ×      ×      ×
                           रोती है अस्फुट स्वर में
                           दुःख सुनता है आकाश धीर-[6]
अत्याचार सहने के इस देवतुल्य उदारीकरण, निज सुख से मुख मोड़ने की महनीयता और दीन के विषमय दुख का पान कर अपने हृदय अमृत से सींचना इसका ही द्योतक है किन्तु इस प्रारम्भिक दौर में वे अपने रोमांटिक मानवतावादी आग्रहों से ऊपर उठकर इन शोषण जर्जरित असहाय पात्रों की व्यक्तिगत पक्षधरता तो है किन्तु पीड़ित को यहाँ स्वयं अपने पक्ष की स्थापना की प्रेरणा नहीं है। यह अभाव निराला आगे चलकर पूरा करते हैं। जब वे ठोकरें खाने वाले गरीबों के हजारों हाथ समर के लिए उठते देखते हैं।
अब निराला के पीडित पात्र अपने कलेजे के टुकड़े नहीं करते अपने हथौड़े के प्रहार से पत्थरों को तोड़ते हुए अट्टालिका पर प्रहार की मनःस्थिति तक पहुँच जाते हैं-
                           गुरू हथौड़ा हाथ
                           करती बार बार प्रहार
                           सामने तरू-मालिका अट्टालिका प्राकार।।[7]
कहीं कहीं छायावादी भावबोध और शब्द-बन्ध की घुसपैठ के बावजूद झुलसाती लू के थपेड़ों के बीच मार खार भी न रोने वाली दृष्टि की स्वामिनी अपनी दुतरफा प्रहार की मनः स्थिति से विचलित न होती हुई अपने मौन संकल्प में पुनः दोहराती है-मैं तोड़ती पत्थर। यह दोहराव अनेक अर्थ संधान करता है-’’कभी करुणा दृष्टि के सन्दर्भ में, कभी शोषण के सामाजिक साहित्यिक प्रगतिशील रूप में, कभी निराला के मन में अन्तर्विरोध के रूप में, तो कभी मानवीय पक्ष की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के रूप में, इन सब दृष्टिकोणों के बीच निराला के हृदय की करुणा और सहानुभूति सहज और सर्वमान्य है जिसका मर्मस्पर्शी रूप पत्थर तोड़ती श्रमिक महिला के कठिन परिश्रम में निहित है, वह अपनी व्यथा तथा परिणाम क्षमा में केवल भौतिक स्थूल रूप में ही पत्थर नहीं तोड़ रही। उस श्रमिक महिला के हथौडे़ की चोट पत्थर पर तो प्रकट पड़ रही है किन्तु उसका वास्तविक प्रहार कहाँ पड़ रहा है यह स्पष्ट हो जाता     है।’’[8]
दलित जनपर करुणा और सहानुभूति का यह संस्पर्श निराला काव्य में आद्यान्त रहा है किन्तु उनके परवर्ती काव्य में यह करूणा और सहानुभूति; क्षोभ, आक्रोश एवं व्यंग्य में मुखरित होने लगती है।

निष्कर्ष निष्कर्षतः निराला काव्य में दुख के प्रति हार्दिक सम-वेदना की अनुभूति, उसका आत्मीय लगाव एवं संरक्षण, उसको अपने जीवन और काव्य में केन्द्र बनाने के लिए सभी खतरे उठाने की निर्द्वन्द्व घोषणा निराला काव्य की आत्मा है। हजारों हजार साल से उपेक्षित अपमानित और प्रताड़ित इन्हीं दीन-दुःखियों, अपाहित-अपंगों एवं असहाय-अनाथों की पीड़ा को इतनी आत्मीयतापूर्ण अभिव्यक्ति निराला काव्य की मानवीय संवेदना का मूल आधार है। इस प्रकार निराला ने काव्य संवेदना की नयी जमीन तोड़ी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. दूधनाथ सिंह: निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ. 196 2. निराला: परिमल, पृ. 97 3. वही, पृ. 103 4. रामरतन भटनागर: निराला: सांस्कृतिक जागरण, पृ. 255 5. निराला: परिमल, पृ. 111 6. वही पृ. 98-99 7. निराला: अनामिका पृ. 64 8. रमेश दत्त मिश्र: निराला काव्य में मानवीय चेतना, पृ. 126