P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VII March  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
निराला काव्य जनक्रान्ति एवं सामाजिक परिवर्तन का उद्घोष
Proclamation of People’s Revolution and Social Change in Nirala’s Poetry
Paper Id :  17668   Submission Date :  17/03/2023   Acceptance Date :  22/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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सत्यदेव सिंह
सह आचार्य
हिन्दी
एसआरकेपी. राजकीय पी.जी. कॉलेज किशनगढ़
अजमेर,राजस्थान, भारत
सारांश पौरुष और ओज के क्रान्तिचेतना कवि निराला क्रान्ति के उस लोकधर्मी रूप के पक्षधर हैं जिसमें अपने अधिकार सही रूप से नहीं मिले तो शोषित द्वारा उन्हें स्वयं संघर्ष करके प्राप्त करना मानव का धर्म है। क्रान्ति चेतना का यह स्वर अपने व्यापक निहितार्थो में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की प्रेरणा को भी ध्वनित करता है। निराला ने अपने काव्य विकास के प्रत्येक चरण में मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन किया है। उसमें जन साधारण के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न-संघर्ष से गहन रूप से सम्बद्ध रही है उसमें दलित-उत्पीड़ित, शोषित उपेक्षित जन के हृदय से रहकर फूट पड़ने वाली राग-रागिनियाँ हैं, उसमें यातनाग्रस्त मानवता और चिरसंघर्षरत मनुष्यता के हर्ष-उल्लास, उत्साह-विषाद निराशा और संत्रास से भरे स्वप्न हैं। दलित जनपर करुणा और सहानुभूति का यह संस्पर्श निराला काव्य में आद्यान्त रहा है किन्तु उनके परवर्ती काव्य में यह करूणा और सहानुभूति; क्षोभ, आक्रोश एवं व्यंग्य में मुखरित होने लगती हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Nirala the revolutionary poet of courage and bravery is advocate of pro people revolution. If we do not get our rights properly then it is the religion of human being to get them by the oppressed by fighting themselves. This voice of revolutionary consciousness also sounds the inspiration of the national liberation struggle in its wider implication. Nirala has created poetry full of human sensitivity at every stage of his poetic development. His poetry has been deeply related to the happiness-sorrow, hope, aspiration and dream struggle of the common people, Dalit oppression, exploited, neglected, from whose heart the melody keeps on bursting.
In it, there are dreams full of joy, enthusiasm, sadness, despair, fear of tortured humanity and eternally struggling humanity. This touch of compassion and sympathy on the Dalit people has been prevalent in Nirala's poetry, but in his later poetry, this compassion and sympathy begins to express itself in anger, anger and sarcasm.
मुख्य शब्द क्रान्तिचेतना, मुक्ति संग्राम, आह्वान, विद्रोह।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Revolutionary, Freedom struggle, Invocation, Rebellion.
प्रस्तावना
वस्तुतः निराला के इस क्रान्ति-विद्रोह, विप्लव-विध्वंस के आह्वान में नव निर्माण के स्वर भी विद्यमान हैं। उनकी क्रान्ति केवल निरुद्देश्य विनाशक क्रान्ति मात्र नहीं है। उनके क्रान्तिकारी स्वर में परिवर्तन की माँग है और इस माँग की सम्पूर्णता में अन्याय के दमन की ध्वनि है जिसका मूल आधार मानव है और इस मानव का सर्वाधिक उपयुक्त भारतीय रूप किसान है। इसीलिए भारतीय किसान उनके मानसिक उद्वेलन और व्यग्रता का, उनकी चिन्तना का केन्द्र है। उसके प्रति सामाजिक-आर्थिक वैषम्य को समाप्त कर समता एवं समरसता का संचार करना ही उनकी क्रान्ति चेतना का मूल उद्देश्य है।
अध्ययन का उद्देश्य निराला काव्य का मूल आधार मानव है मानवीय संवेदना मूलतः काव्य का मूल मन्तव्य होता है। 1. निराला की काव्य में जनक्रान्ति एवं सामाजिक परिवर्तन क उद्घोष का अनुशीलन करना। 2. निराला की काव्य की मार्मिकता का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

निराला की जातीय चेतना उनकी बहुआयामी चेतना की ही अभिव्यक्ति है। वैयक्तिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय तथा अन्तःराष्ट्रीय जगत में घटने वाली घटनाओं के घात-प्रतिघात से उनकी इस चेतना का विकास हुआ था। निराला ऐसे रचनाकार हैं- जिनके यहाँ अपार करुणा, सहानुभूति और मानवीयता है, इसीलिए निराला की रचनाएँ अपने भीतर प्रवेश किये को, वही नहीं रहने देती हैं, बल्कि उसे बदलने की प्रक्रिया में ले जाती हैं। डॉ॰ सुनीता देवी (2020) ने अपने शोध पत्र निराला के काव्य में मानवतावाद' में निराला’ के काव्य में मानवतावाद को सशक्त रूप में अभिव्यक्त माना है। उनके अनुसार निराला ने नैतिकता का हनन करने वाले तत्त्वों के प्रति उन्होंने जबरदस्त विद्रोह प्रकट किया है। निराला’ जी मनुष्य के जीवन को शक्ति प्रदान करने वाले जीवन मूल्यों का जीवन का मूलाधार बताया है। डॉ. रामविलास शर्मा अक्सर उन्हें निराला जन-संघर्ष और पौरुष के परिवर्तन विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है। इसका कारण यही है। उनके कहानी उपन्यास में भी समाज के दलित और संघर्षरत मनुष्यों का गौरव निखरकर सामने आता है। अकारण नहीं है 'बादलराग में अधीर कृषक विप्लव के वीर को बुलाता है और "इलाहाबाद" के पथ पर चिलचिलाती लू में पत्थर तोड़ती मज़दूरनी निराला की सहानुभूति में रंग जाती है। 'देवी 'चतुरीचमार' 'कुल्लीभाट' 'जागो फिर एक बार' जैसे संघर्षरत चरित्र और उनके साथ पूरा किसान समुदाय अँग्रेज़ों और उनके सहायक ज़मींदारों के ख़िलाफ़ अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता हुआ निराला की रचनाओं में गौरवान्वित होता है। निराला ने इन कविताओं के माध्यम से किसान वर्ग और मज़दूर वर्ग की मानवीय संवेदना को चित्रित किया है। अवनीश मिश्र (2017) ने अपने लेख में कहा है कि निराला की मृत्यु के बाद धर्मवीर भारती ने निराला पर एक स्मरण-लेख लिखा था उसमें उन्होंने निराला की तुलना पृथ्वी पर गंगा उतारकर लाने वाले भगीरथ से की थी धर्मवीर भारती ने लिखा है- 'भगीरथ' अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आए थे निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए निराला को याद करते हुए भगीरथ की याद आए या ग्रीकमिथकीय देवता प्रमेथियसध्प्रमथ्यु की तो यह आश्चर्य की बात नहीं है।

मुख्य पाठ

जन संवेदना की धाराका उद्बोधनपाकर निराला की क्रान्ति चेतना सर्वप्रथम बादलकी घनघोर गर्जना के रोर के बीच मुखर होती है। शोषण की दहकती तपिश का दाह मुक्तिकामी बादल की गर्जना के अहसास और धारासार वर्षण से ही मिट सकता है। बैसवाड़े के कृषक संघर्ष की संस्कृति से निराला का मन बादल की इस क्रान्तिकारी भूमिका की ओर आकृष्ट होता है-
                           जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर
                           तुझे बुलाता कृषक अधीर
                           ऐ विप्लव के वीर!
                           चूस लिया है जिसका सार
                           हाड़ मात्र ही है आधार
                           ऐ जीवन के पारावार![1]
शोषित कृशकाय कृषक की अधीर पुकार विप्लवी बादल का आह्वाान कर अपने सागर तुल्य जीवनदाता द्वारा शोषक ग्रीष्म से प्रतिकार लेकर अपने लिए जीवन रस का संचार माँगती है। यहाँ बादल रूपी विप्लवी यौद्धा का अप्रतिहत आक्रमण, भीषण युद्ध और उसके प्रभावों का अत्यन्त सादगी पूर्ण किन्तु कलात्मक वर्णन है जिसमें शोषक धराशायी हो गये हैं और साधारण जन हँसते खिलखिलाते अपने हाथ हिला हिलाकर बादल का स्वागत कर रहे हैं... दीन हीन जर्जर, विपन्न, त्रस्त, सदियों से प्रताड़ित शोषित किसान उस विप्लवी को अपनी दुर्बल बाँह उठाकर बुला रहे हैं।’’[2] उनकी आकांक्षा है कि-
                           अरे वर्ष के हर्ष!
                           बरस तू बरस बरस रसधार।
                           पार ले चल तू मुझको
                           बहा, दिखा मुझको भी निज
                           गर्जन भैरव संसार।
                           उथल पुथल कर हृदय
                           मचा हलचल
                           चल रे चल
                           मेरे पागल बादल।
                           धँसता दलदल
                           हँसता है नद खल खल×  ×
                           देख देख नाचता हृदय।[3]
क्रान्तिकारी के मूलभूत गुणों से सम्पन्न पागल बादल अपनी गर्जना से भैरव संसार की सृष्टि करता है जिससे दुष्ट शोषक व्यवस्था में उथल-पुथल मच जाती है उनका दलदली शोषण तंत्र धँसने लगता है। किन्तु शोषित कृषक के लिए यह हर्षदायी रसधारमय मुक्तिकामी बादल शोषकों को अत्यन्त आतंकित करते हुए विनष्ट कर देता है और अपने प्रचण्ड घोष से अनन्त प्रवाह के साथ टूट पड़ता है-निःस्वार्थ, निर्भीक, निर्बाध उन्मुक्त।
                           वज्र घोष से ऐ प्रचण्ड।
                           आतंक जमाने वाले।
                           कम्पित जंगम-नीड़-विहंगम
                           ऐ न व्यथा पाने वाले।
                           भय के मायामय आँगन पर
                           गिरो विप्लव के नव जलधर![4]  
निराला के इस विद्रोह की वाणी का निर्माण बैसवाड़े के कृषक संस्कारों से हुआ है जब वे शोषित और पीड़ित किसान को मानव के रूप में अत्यन्त निरीह पाते हैं तो-’’कर्मठ किसान का मनुष्य के रूप में यह निरीह जीवन निराला के अन्तर्मन में एक ऐसा उद्वेलन उपस्थित करता है कि वे किसानों की मुक्ति में ही क्रान्तिकारी है।[5]
वस्तुतः निराला के इस क्रान्ति-विद्रोह, विप्लव-विध्वंस के आह्वान में नव निर्माण के स्वर भी विद्यमान हैं। उनकी क्रान्ति केवल निरुद्देश्य विनाशक क्रान्ति मात्र नहीं है। उनके क्रान्तिकारी स्वर में परिवर्तन की माँग है और इस माँग की सम्पूर्णता में अन्याय के दमन की ध्वनि है जिसका मूल आधार मानव है और इस मानव का सर्वाधिक उपयुक्त भारतीय रूप किसान है। इसीलिए भारतीय किसान उनके मानसिक उद्वेलन और व्यग्रता का, उनकी चिन्तना का केन्द्र है। उसके प्रति सामाजिक-आर्थिक वैषम्य को समाप्त कर समता एवं समरसता का संचार करना ही उनकी क्रान्ति चेतना का मूल उद्देश्य है। इस दृष्टि से बादल रागकी कविताएँ क्रान्ति चेतना और विद्रोह की वाणी को व्यक्त करने वाली अप्रतिम रचनाएँ है। क्रान्ति के विधायक बादल मानवीय सहानुभूति की प्रेरणा से कृषक की विडम्बना और उसके दयनीय रूप को सीधे ढंग से रखते है वह निराला के क्रान्तिचेतना मन की गहन चिन्तना का परिणाम है। शोषण की निष्ठुरता और उसके फलस्ववरूप मानव की पीड़ा और करुणा भी निराला की मार्मिक प्रतिक्रिया के साथ एक गहन मानवीय संवेदना की प्रेरणा के रूप में बादल के प्रतीक द्वारा व्यक्त हुई है।
बादल राग में निराला का विद्रोह वास्तव में इस प्रचण्ड आँधी की तरह है जो मृत जीर्ण शीर्ण तिनकों और नीरस सूखे विवर्ण पत्तों को उड़ाकर धरती में नये-नये बीजों को बिखरे देती है, पुराने निष्फल पादपों को उखाड़कर धराशायी कर देती है और मुक्त गति के साथ जीवन की चिर विकासशील हलचल का पता देती हुई समस्त धरातल को अपनी प्रचण्ड बाँहों में भर लेती है। जो देखने में उच्छृंखल किन्तु उद्देश्य में सुछृंखलित तथा उपयोगी है, ऐसे विद्रोह की प्रेरणा का आधार कभी व्यक्ति जीवन न होकर सामूहिक जीवन का नवोन्मेष ही होता है ठीक प्रलयंकर शिव के ताण्डव नृत्य की भाँति’’[6]
पौरुष और ओज के क्रान्तिचेतना कवि निराला क्रान्ति के उस लोकधर्मी रूप के पक्षधर हैं जिसमें अपने अधिकार सही रूप से नहीं मिले तो शोषित द्वारा उन्हें स्वयं संघर्ष करके प्राप्त करना मानव का धर्म है। क्रान्ति चेतना का यह स्वर अपने व्यापक निहितार्थो में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की प्रेरणा को भी ध्वनित करता है। जागो फिर एक बार’, ’धाराऔर आवहनइसी भाव-भूमि की कविताएँ हैं।
जागो फिर एक बारतात्कालिक विप्लव की अपेक्षा सचेतन कर्म-साधना द्वारा निर्बल भ्रमित को उद्बुद्ध कर उसके बल वैभव का स्मरण कराने वाली व्यापक मानवीय धरातल पर पौरुष की ललकार है-
                           सिंही की गोद से
                           छीनता रे शिशु कौन
                           मौन भी क्या रहती वह
                           रहते प्राण ? रे अजान
                           एक मेष माता ही,
                           रहती है निर्निमेष
                           दुर्बल वह-
                           छिनती सन्तान जब
                           जन्म पर अपने अभिशप्त
                           तप्त आँसू बहाती है-[7]
निराला आत्मज-स्वत्व के छिनने पर अभिशप्त आँसू बहाने को दुर्बल कायरता की संज्ञा देकर शोषित को स्वयं अपनी पक्ष-रक्षा के लिए सन्नद्ध होकर संग्राम के लिए उसकी योग्यता-महत्ता का शाश्वत स्मरण कराते है। यह जागरण संदेश व्यक्ति मानव से लेकर राष्ट्र एवं विश्व मानव की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए उसकी सात्विक संघर्ष चेतना को जाग्रत करता हैं-
                           पशु नहीं, वीर तुम
                           समर शूर क्रूर नहीं।[8]
शोषित उत्पीड़ित मानव के नैराश्य को तोड़ने के लिए निराला श्यामाएवं धाराके क्रान्ति बिम्बों से उत्तेजना उद्वेलन का संसार रचते हैं। धाराके प्रबल अजस्त्र प्रवाह में बड़े बड़े दिग्गज धराशायी होकर बह जाते हैं। ऐसा पगलाया हुआ क्रान्तिधर्मी प्रवाह ही शोषक के आतंक से आक्रान्त के करुणा क्रन्दन को शांत कर सकता है-
                           नग्न प्रलय का सा ताण्डव हो रहा
                           चाल कैसी मतवाली-लहराती है।
                           प्रकृति को देख मींचती आँखें
                           त्रस्त खड़ी है-थर्राती है।
                           आज हो गये ढीले सारे बन्धन
                           मुक्त हो गये प्राण,
                           रुका है सारा करुणा-क्रन्दन।[9]
मृत्यु से पंजा लड़ाने का दम्य साहस क्रान्ति चेतना का पहला मंत्र है तभी संघर्ष का सिन्धु राग भय की नहीं अट्टहासयुक्त आनन्दोल्लासमय नृत्य की प्रेरणा देता है और तभी अत्याचारियों की मुण्ड माला गले का हार बनती है। निराला ऐसी ही क्रान्तिचेतना श्यामा के आवाहनद्वारा शौर्य का संचार करते हैं-
                           समान सभी तैयार
                           कितने ही हैं असुर, चाहिए कितने तुझको हार ?
                           कर-मेखल मुण्ड मालाओं से बन मन अभिरामा-
                           एक बार बस और नाच तू श्यामा।[10]    
निराला की इस आरम्भिक भावनात्मक एवं प्रतीक प्रधान क्रान्ति चेतना में धीरे धीरे परिवर्तन का स्वर गूँजता है। ’’अब तक उनकी लड़ाई बड़ी सोबरथी। चेतना भी दे रहे थे कर्मण्यता का पाठ भी पढ़ा रहे थे। कभी उद्बोधन, कभी नैतिकता आदि के द्वारा वे सबके भीतर सुप्त संस्कारों और सोये हुए मनुष्यत्व को जगाने में प्रयत्नशील थे, किन्तु उस प्राणवान चेतना, रचनात्मकता को कदाचित् कोई समझने को तैयार ही नहीं था उनके भीतर की चेतना अब युद्ध की योजना, उसका पैंतरा बदल देती है। वे अब खुलकर उस जनता के साथ आ जाते हैं उसे स्पष्ट बतला देते हैं कि मैं तुम्हारे साथ हूँ क्योंकि तुम्हारे जैसा सताया हुआ, भोगा हुआ मैं भी हूँ।[11]
यह क्रान्ति युद्ध में सन्नद्ध पराक्रमी योद्धा कवि निराला का परिवर्तित रूप है। अब वे जन संघर्ष के कौशल में परिवर्तन कर नयी स्ट्रेटेजीबनाते हैं। अब तक उनकी क्रान्तिकारिता का कोई सीधे सीधे निश्चित टारगेट’ (लक्ष्य) नहीं था। आक्रोश और विद्रोह का प्रवाह किस दिशा में जाए किसे ध्वस्त करे, यह स्पष्ट नहीं था। अब निराला ने सर्वव्यापी शोषण तंत्र की नब्ज पर हाथ रखा। उसकी बहुआयामी शोषण प्रक्रिया के जाल को अनावृत करना प्रारम्भ किया। इसी के समानान्तर शोषण मुक्ति के नये उपाय सुझाये और क्रान्ति के बाद की समाज परिवर्तन की संकल्पना प्रस्तुत की। यह उनकी जीवनानुभूति का प्रतिफल था जिसमें तत्कालीन प्रगतिशील सामाजिक दृष्टि पृष्ठभूमि के रूप में एक प्रभावीकारक तो हो सकती है किन्तु निराला की यह नयी क्रान्ति चेतना दृष्टि उसकी उपज नहीं है।
निराला की क्रान्ति चेतना का आलम्बन अभी भी वही शोषित उत्पीड़ित है किन्तु अब उसकी दशा का चित्रण अधिक यथार्थ प्रेरित है-
                           वेश-रूखे अधर सूखे
                           पेट-भूखे आज आये।
                           हीन जीवन दीन चितवन
                           क्षीण आलम्बन बनाये।[12]
अब उन्हे शोषण तन्त्र के नागस्पष्ट मँडराते फुँफकारते नजर आते हैं साथ ही उनके संरक्षक और जन सामान्य के शोषण तंत्र के संजाल में उलझते जाने की स्थिति भी अपने संक्रान्त मूल्य के साथ उभर आती है-
                           काले काले बादल आये न आये वीर जवाहर लाल।
                           कैसे कैसे नाग मँडलाये न आये वीर जवाहर लाल।
                           पुरवाई की हैं फुफकारें, छन छन ये बिस की बौछारें
                           हम हैं जैसे गुफा में समाये, न आये वीर जवाहर लाल।[13]
निराला जीवनदायिनी वर्षा को जीवनघाती शोषक व्यवस्था से जोड़कर शोषण की जहरीली व्यवस्था की पेचीदा भयावहता एवं तज्जन्य वेदना की तीव्रता को बढ़ा देते हैं। इस शोषण तंत्र का ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन करते हुए निराला मानवीय विकास के साथ उसकी जटिलता, उसकी सघनता को टटोलते हैं-
                           धूहों और गुफाओं और पत्थरों के घरों से
                           आजकल के शहरों तक दुनिया ने चोली बदली।
                           ×      ×      ×
                           धोखा छिपा, छल छिपा।
                           बदले दिमाग बढ़े,
                           गोल बाँधे घेरे डाले,
                           अपना मतलब गाँठा,
                           फिर आँखें फेर लीं।
                           जाल भी ऐसा चला
                           कि थोड़ों के पेट में बहुतों को आना पड़ा।[14]
मानव सभ्यता के विकास के साथ शोषण के गहराते साये के सूत्रधार अब अनावृत किये जाने लगे। जन सामान्य के शोषण के पीछे-प्रबुद्ध नेतागण का षडयन्त्र और जनता के तथाकथित कर्णधारों के सामने उसके रहस्योद्घाटन का साहस निराला काव्य की उपलब्धि है-
                           आजकल पण्डित जी देश में विराजते हैं।    ×
                           बडे बाप के बेटे,
                           बीसियों भी पर्तो के अन्दर खुले हुए।
                           एक एक पर्त बड़े बड़े विलायती लोग।
                           देश की भी बड़ी बड़ी थातियाँ लिए हुये।
                            राजों के बाजू पकड़ बाप की वकालत से
                           कुर्सी रखने वाले अनुल्लंघ्य विद्या से
                           देशी जनों के बीच।[15]     
राजनीतिक नेतृत्व के चरित्र का अनावरण करते हुए निराला प्रगतिशीलता के तथाकथित उन्नायक तत्कालीन मार्क्सवादियों के दोहरे आचरण का अनावरण भी मास्को डायलॉगमें करते हुए कम्यूनिस्ट नेता गिडवानीसे कहलवाते हैं
                           फिर कहा मेरे समाज में बड़े बड़े आदमी हैं
                           एक से हैं एक मूर्ख
                           उनको फँसाना है
                           ऐसे कोई साला एक धेला नहीं देने का।[16]
इस शोषण तंत्र के विस्तार के साथ ही शोषित जन समान्य वर्ग में जागृत होती चेतना को ताड़ना और जिन्होंने ठोकरें खाई गरीबी में पड़े उनके हजारों हजारों हाथ के उठते हुए समर देखने[17] की प्रगतिशील दृष्टि निराला की क्रान्ति चेतना की तार्किक परिणति है। अब वे किसी मसीहा, राजे या किसी वीर जवाहर लाल का इन्तजार न कर स्वयं सन्नद्ध हो जाने की प्रेरणा देते हैं-
                           राह पर बैठे, उन्हें आबाद तू जब तक न कर
                           चैन मत ले गैर को बरबाद तू जब तक न कर
                           बदल शिक्षा क्रम, बना इतिहास सच्चा दम न ले
                           सज्जनों को प्रगति पद प्रहलाद तू जब तक न कर।
                           उलट तख्ता उपज की ताकत बढ़ाने के लिए
                           डाल मत, खेतों में अपनी खाद तू जब तक न कर।[18]
यह ललकार भरा आह्वान मसीहाई प्रतीक्षा में डूबे शोषित जन की असहाय विवशता से कहीं आगे की चेतना है। निराला अब सम्पूर्ण क्रान्ति का आह्वान करते हुए सामाजिक परिर्वतन की ठोस एवं मूर्त संकल्पना प्रस्तुत करते हैं-        
                           जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ।
                           आज अमीरों की हवेली
                           किसानों की होगी पाठशाला
                           धोबी पासी चमार तेली
                           खोलेंगे अन्धेरे का ताला
                           एक पाठ पढ़ेंगे टाट बिछाओ
                           यहाँ जहाँ सेठजी बैठे थे
                           ×      ×      ×
                           बैंक किसानों का खुलाओ।[19]
इस आह्वान से भी आगे भविष्यद्रष्टा निराला इसी जनसाधरण की सम्पूर्ण जाग्रति और परिवर्तन की बहार के प्रति पूर्ण आश्वस्त होकर आमूल परिवर्तन की जैसे उद्घोषणा कर देते हैं-
                           कैसी यह हवा चली। तरू तरू की खिली कली
                           लगने को कामों में, जगे लोग धामों में
                           ग्रामों ग्रामों में चल पड़े बड़े बड़े बली।
                           जान गये, जान गई खुली जो लगी कलई
                           उठे मसुरिया बलई, भगे बड़े बड़े बली
                           अपना जीवन आया, गई पराई छाया
                           फूटी काया काया, गूंज उठी गली गली।[20]

निष्कर्ष निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार निराला सम्पूर्ण क्रान्ति चेतना के कवि हैं। ऐसी क्रान्ति ध्येय राष्ट्रीय मुक्ति ही नहीं जन जन की सर्वांगीण मुक्ति है। निराला की इस क्रान्ति चेतना की धारा उनके काव्य में आदि से अन्त तक अनेक रूपों में अनेक भाव संवेदनाओं के स्तरों पर स्पष्ट हुई है। प्रारम्भ में यह प्रतीकों के माध्यम से प्रकट हुई है जैसे धारा, बादल, शिव, काली, किन्तु धीरे धीरे यह प्रत्यक्ष आलम्बन और आश्रय तलाशती है और उनके क्रान्तिकारी सीधे जनता से आने लगते हैं। निराला की क्रान्ति चेतना का प्रारम्भिक रूप विनाशात्मक अधिक है किन्तु उसमें रचनात्मकता का भी अभाव नहीं है। मानवीय पीड़ा के बालतोड़ बनने की अवस्था से विस्फोटित क्रान्ति में करुणा का स्नेहिल लेप भी है। निराला की क्रान्ति चेतना इस प्रकार निरन्तर एक विकासमान प्रक्रिया से गुजरती है जिसमें जनता की भागीदारी जनता की नेतृत्व क्षमता, जनता की चेतना बृहत्तर होती जाती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. https://anubooks.com/wp-content/uploads/2020/07/SM-Vol.-XI-No.1-March-2020-4.pdf 2. https://thewirehindi.com/21485/suryakant-tripathi-nirala-death-anniversary-hindi-poet/
अंत टिप्पणी
1. निराला: परिमल, पृ. 139
2. दूधनाथ सिंह: निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ. 311
3. निराला: परिमल, पृ. 133-134
4. वही पृ. 134
5. रामविलास शर्मा: निराला की साहित्य साधना (भाग-2), पृ. 22
6. गंगाप्रसाद पाण्डेय: विद्रोही कवि निराला-छायावाद के आधार स्तम्भ, पृ. 182
7. निराला: परिमल, पृ. 57-58
8. वही पृ. 58
9. वही पृ. 113-114
10. वही पृ. 115
11. रमेश दत्त मिश्र: निराला काव्य में मानवीय चेतना, पृ. 201
12. निराला: बेला गीता सं. 46
13. वही गीत सं. 38
14. निराला: नये पत्ते, पृ. 30
15. वही पृ. 106
16. वही पृ. 44
17. निराला: बेला, गीत सं. 55
18. वही, गीत सं. 60
19. वही, गीत सं. 62
20. वही, गीत सं. 50ला काव्य में मानवीय चेतना, पृ. 126