P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VI February  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
निराला के काव्य में जन शोषण, अत्याचार एवं वैषम्य के प्रति आक्रोश और व्यंग्य
Anger and Sarcasm against Public Exploitation, Atrocities and Disparity in Poetry of Nirala
Paper Id :  17669   Submission Date :  15/02/2023   Acceptance Date :  22/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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सत्यदेव सिंह
सह आचार्य
हिन्दी विभाग
एसआरकेपी. राजकीय पी.जी. कॉलेज
किशनगढ़, अजमेर,राजस्थान, भारत
सारांश निराला जनसंघर्ष और पौरुष के परिवर्तन विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है। निराला ने अपने काव्य विकास के प्रत्येक चरण में मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन किया है। उसमें जन साधारण के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न-संघर्ष से गहन रूप से सम्बद्ध रही है उसमें दलित-उत्पीड़ित, शोषित उपेक्षित जन के हृदय से रहकर फूट पड़ने वाली राग-रागिनियाँ हैं, उसमें यातनाग्रस्त मानवता और चिरसंघर्षरत मनुष्यता के हर्ष-उल्लास, उत्साह-विषाद निराशा और संत्रास से भरे स्वप्न हैं। दलित जनपर करुणा और सहानुभूति का यह संस्पर्श निराला काव्य में आद्यान्त रहा है किन्तु उनके परवर्ती काव्य में यह करूणा और सहानुभूति; क्षोभ, आक्रोश एवं व्यंग्य में मुखरित होने लगती हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Nirala is a poet of people’s struggle and fortitude as well as change and revolution.Nirala has created poetry full of human sensitivity at every stage of his poetic development. His poetry has been deeply related to the happiness-sorrow, hope, aspiration and dream struggle of the common people, Dalit oppression, exploited, neglected, from whose heart the melody keeps on bursting. In it, there are dreams full of joy, enthusiasm, sadness, despair, fear of tortured humanity and eternally struggling humanity. This touch of compassion and sympathy on the Dalit people has been prevalent in Nirala's poetry, but in his later poetry, this compassion and sympathy begins to express itself in anger, anger and sarcasm.
मुख्य शब्द जन-संघर्ष मानवीय संवेदना, जन शोषण, अत्याचार, वैषम्य, आक्रोश, व्यंग्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद People’s Struggle Human Sensitivity, Exploitation, Atrocities Dispariy of Common People, Outrage and Sarcasm.
प्रस्तावना
निराला जनसंघर्ष और पौरुष के परिवर्तन विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है इसका कारण यही है। शोषित जन के प्रति करुण सहानुभूतियुक्त स्वर के बाद निराला स्वयं उसकी पक्षधरता की घोषणा करते हैं, तथा विश्वास और सृजन की दूरी को समाप्त करते हुए उसी वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। अब उनका करुणाप्लावित स्वर शोषण तन्त्र की पहचान के स्वर में बदल जाता है और शोषक उनके आक्रोश और व्यंग्य का केन्द्र बनता जाता है। ’’निराला स्वयं उस उपेक्षित, अपमानित, शोषित जन समान्य के प्रतीक पुरुष हैं।... इसीलिए उसकी पीड़ा, उसके नैराश्य, उसकी भोली-भाली उत्कट आस्था और समय आने पर उसके विराट जागरण को उन्होंने इतनी गहराई से वाणी दी है।
अध्ययन का उद्देश्य निराला का काव्य मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत है। 1. निराला के काव्य में जन शोषण, अत्याचार एवं वैषम्य के प्रति आक्रोश और व्यंग्य का अनुषीलन करना 2. निराला के काव्यमें शोषित जन के प्रति करुण सहानुभूतियुक्त स्वर एवं पक्षधरता का अध्ययन करना
साहित्यावलोकन

निराला की जातीय चेतना उनकी बहुआयामी चेतना की ही अभिव्यक्ति है। वैयक्तिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय तथा अन्तःराष्ट्रीय जगत में घटने वाली घटनाओं के घात-प्रतिघात से उनकी इस चेतना का विकास हुआ था।

निराला ऐसे रचनाकार हैं- जिनके यहाँ अपार करुणा, सहानुभूति और मानवीयता है, इसीलिए निराला की रचनाएँ अपने भीतर प्रवेश किये को, वही नहीं रहने देती हैं, बल्कि उसे बदलने की प्रक्रिया में ले जाती हैं। डॉ॰ सुनीता देवी (2020) ने अपने शोध पत्र निराला के काव्य में मानवतावाद' में निरालाके काव्य में मानवतावाद को सशक्त रूप में अभिव्यक्त माना है। उनके अनुसार निराला ने नैतिकता का हनन करने वाले तत्वों के प्रति उन्होंने जबरदस्त विद्रोह प्रकट किया है। निरालाजी मनुष्य के जीवन को षक्ति प्रदान करने वाले जीवन मूल्यों का जीवन का मूलाधार बताया है। डॉ. रामविलास शर्मा अक्सर उन्हें निराला जन-संघर्ष और पौरुष के परिवर्तन विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है। इसका कारण यही है। उनके कहानी उपन्यास में भी समाज के दलित और संघर्षरत मनुष्यों का गौरव निखरकर सामने आता है। अकारण नहीं है 'बादलराग में अधीर कृषक विप्लव के वीर को बुलाता है और "इलाहाबाद" के पथ पर चिलचिलाती लू में पत्थर तोड़ती मज़दूरनी निराला की सहानुभूति में रंग जाती है। 'देवी 'चतुरीचमार' 'कुल्लीभाट' 'जागो फिर एक बार' जैसे संघर्षरत चरित्र और उनके साथ पूरा किसान समुदाय अँग्रेज़ों और उनके सहायक ज़मींदारों के ख़िलाफ़ अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता हुआ निराला की रचनाओं में गौरवान्वित होता है। निराला ने इन कविताओं के माध्यम से किसान वर्ग और मज़दूर वर्ग की मानवीय संवेदना को चित्रित किया   है। अवनीश मिश्र (2017) ने अपने लेख में कहा है कि निराला की मृत्यु के बाद धर्मवीर भारती ने निराला पर एक स्मरण-लेख लिखा था उसमें उन्होंने निराला की तुलना पृथ्वी पर गंगा उतारकर लाने वाले भगीरथ से की थी धर्मवीर भारती ने लिखा है- 'भगीरथ' अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आए थे निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए निराला को याद करते हुए भगीरथ की याद आए या ग्रीकमिथकीय देवता प्रमेथियसध्प्रमथ्यु की तो यह आश्चर्य की बात नहीं है।

मुख्य पाठ

निराला काव्य में उपेक्षित उत्पीड़ित जन के प्रति करुण सहानुभूतियुक्त स्वर के बाद वे स्वयं उसकी पक्षधरता की घोषणा करते हैं, तथा विश्वास और सृजन की दूरी को समाप्त करते हुए उसी वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। अब उनका करुणाप्लावित स्वर शोषण तन्त्र की पहचान के स्वर में बदल जाता है और शोषक उनके आक्रोश और व्यंग्य का केन्द्र बनता जाता है।
’’निराला स्वयं उस उपेक्षित, अपमानित, शोषित जन समान्य के प्रतीक पुरुष हैं।... इसीलिए उसकी पीड़ा, उसके नैराश्य, उसकी भोली-भाली उत्कट आस्था और समय आने पर उसके विराट जागरण को उन्होंने इतनी गहराई से वाणी दी है।’’[1] इसी दलित उपेक्षित जन साधारण की पहचान करते हुए निराला उसके शोषण तंत्र का ऐतिहासिक जायजा लेते हैं-

चलते फिरते पर निःसहाय
वे दीन क्षीण कंकालकाय
आशा केवल जीवनोपाय उर-उर में
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जाते यों दल के दल
शूद्रगण क्षुद्र जीवन-सम्बल पुर-पुर में।
वे शेष-श्वास पशु मूक-भाष
पाते प्रहार अब हताश्वास
सोचते कभी आजन्म-ग्रास द्विज गण के
होना ही उनका धर्म परम
वे वर्णाधम रे द्विज उत्तम
वे चरण चरण बस वर्णाश्रम रक्षण के।[2]
निराला की यह बहुसंख्यक शोषित उत्पीड़ित की पहचान तथा अल्पमतीय शोषक वर्ग के विरुद्ध उनका आक्रोश, उनकी प्रखर मानवीय चेतना का परिचायक है। यह शोषण तन्त्र उनके यहाँ कई नामों से सम्बोधित है-सूत बन्दीगण, द्विज-चाटुकार, कान्यकुब्ज कुल कुलांगार, राजे, इत्यादि। निराला इन शोषकों को दोहरा विश्वासघाती सिद्ध करते हैं। एक ओर यह शोषक वर्ग सदियों से जन सामान्य का किसी न किसी बहाने से उत्पीड़त दमन करता आ रहा है दूसरी ओर इस जन समान्य की मेधा को अपनी स्वार्थ साधना में नियोजित कर अपना प्रतिरक्षण भी करता आ रहा है-
चेहरा पीला पड़ा
रीढ़ झुकी। हाथ जोड़े।
आँख का अँधेरा बढ़ा
सैंकड़ों सदियाँ गुजरीं।
बड़े बड़े ऋषि आये, मुनि आये,कवि आये
तरह तरह की वाणी जनता को दे गये-
×      ×      ×
दगा की इस सभ्यता ने
दगा की।[3]
अल्पमतीय अभिजात वर्ग की सुविधा, सुरक्षा का यह चमत्कार, वाणियों का भ्रमजाल, जन साधारण का इस्तेमाल तो करता है उसका शोषण तो करता है, उसके अनन्त रस-स्रोत को दुहता तो है, किन्तु जनता जनार्दनकी शाब्दिक प्रशंसा-पूजा का छलावा करके उसे अपनी वस्तुस्थिति जानने से विमुख भी करता है। इस शाब्दिक भ्रमजाल में उलझा उपेक्षित-उत्पीड़ित जन सामान्य श्रद्धा विभोर हो विनीत भाव से लुटना रहता है। यही दोहरा शोषण तन्त्र है। ’’जब भी ठगी गयी, जब भी जनता की आँख खुली उसने पाया कि संस्कृति, कला, ईश्वर, राष्ट्र-प्रेम, स्वामिभक्ति और नैतिकता की सुरक्षा के नाम पर वही राजेवही अल्पमत-अपने किले में सुरक्षित मुस्करा रहा था।’’[4]
राजे ने अपनी रखवाली की
किला बनाकर रहा
बड़ी बड़ी फौजे रखीं।
चापलूस कितने समान्त आये
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए
कितने ब्राह्मण आये
पोथियों में जनता को बाँधे हुए।
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाये
लेखकों ने लेख लिखे
ऐतिहासिकों ने इतिहासों के पन्ने भरे
नाट्य कलाकारों ने कितने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले।
जनता पर जादू चला-राजे के समाज का।
लोक नारियों के लिए रानियाँ आदर्श र्हुइं।
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बाजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
खून की नदी बही।
आँख कान मूँद कर जनता ने डुबकियाँ लीं।
आँख खुली-राजे ने अपनी रखवाली की।[5]
ये किले, ये फौजें शोषक-उत्पीड़क वर्ग की प्रतिरक्षा का भौतिक ढाँचा ही नहीं है इस प्रतिरक्षा कवच में धर्म-कला, संस्कृति -साहित्य, दर्शन-इतिहास सभीको शोषण तंत्र की अस्तित्व रक्षा में नियोजित कर दिया गया, उसकी सुविधा के लिए प्रायोजित कर दिया गया है। यह मखमली दस्ताने में फौलादी शोषण के पंजे का छ्द्म आवरण है, जिसे सामान्यतः जन साधारण देख नहीं पाता क्योंकि खून की नदी में डुबकियाँ लेने को विवश जनता का ब्रेनवॉश किया जा चुका है। निराला इसी ऐतिहासिक सत्य को अपनी कविता की वैचारिक जमीन बनाते हैं। ’’ निचले वर्ग के लागों को लगातार सदियों तक दबा-दबाकर उन्हें जर्जर बना देना तथा अन्ततः भारतीय मेधा का भी अपने स्वार्थों के लिए बड़ी चालाकी से इस्तेमाल कर लेना और आज के भारतीय समाज में भी उसी की पुनरावृत्ति पर पुनरावृत्ति, इसे निराला अच्छी तरह समझते हैं और इसके खतरे से वह पूरी तरह अगाह हैं। इस सम्पूर्ण सामाजिक बनावट पर ही प्रहार उनका लक्ष्य है।’’[6]
इसी लक्ष्य ने निराला को आज का सर्वाधिक प्रासंगिक कवि बना दिया है-’’इसके मूल में उनके जीवन संघर्ष और उनकी संवेदना का प्रमुख महत्व है। निराला के यहाँ किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं है उनका विद्रोह उन लोगों के विरुद्ध है जो यथास्थितिवाद के पोषक हैं और चाहते हैं कि गरीबों और असहायों का शोषण इस प्रकार होता रहे।... इस विरोध ने निराला को और भी अधिक साहसी बनाया, वे हिम्मत से उन पाखण्डों का विरोध करने लगे जिनके कारण मानव जाति का बहुमत उपेक्षा और लांछना भरी जिन्दगी जीने को विवश है।’’[7]
शोषण तंत्र की इस पहचान को निराला अब स्वयं तक सीमित नहीं रखते। अब वे दलित शोषित सामान्य जन को सतर्क करते हुए उसे शोषण के शिकंजे में फँसने से आगाह करते है और किसी भी कीमत पर शोषक का साथ न देने का आह्वान करते हैं इसलिए निराला की कविता अब अज्ञातकुलशीला संवेदना की अभिव्यक्ति की कविता बन जाती है। वे अपनी अभिजात्य बिम्बात्मक लयात्मकता को तोड़कर जनाकुल चौराहें, सड़क, खेत-खलिहान के आदमी की बात को भदेस अकाव्यात्मकता के आक्षेपों के खतरे उठाते हुए भी उसी के भाषा बिम्ब में अभिव्यक्त करते है। यहीं उनका काव्य स्वर व्यंग्य के तीखे तेवर लेकर उपस्थित होता है। इन व्यंग्यात्मक कविताओं में -उनकी ताजगी, उनमें शब्दबन्ध के नये प्रयोग, उनकी गद्यात्मकता और सपाट अकाव्यात्मकता में से रिसने वाला नये ढंग का कवित्व, भाषा का छिछरा खुल्ला संघटन, अन्दर तक चीरता हुआ व्यंग्य, उन्मुक्त हास्य और कठोरता के कवच में छिपी अगाध अप्रत्यक्ष करुणा तथा उपेक्षित के उन्नयन के प्रति गहरी आस्था निराला की रचनात्मक सक्षमता और काव्य दृष्टि के इस नये आयाम को अपने सफलतम रूप में हमारे सामने उद्घाटित करती है।[8] कुकुरमुत्ता, बेला, नये पत्ते की कविताएँ इसी धरातल की उपज हैं।
अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पायी खुशबू रंगोआब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता है केपीटलिस्ट।
कितनों को तू ने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-धाम,
 ×      ×      ×
शाहों, रावों अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
×      ×      ×
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लागों को नहीं कोई किनारा।[9]
अभिजात्य भाव बोध की कविता के विरुद्ध एंटी-क्लाइमैक्सका सृजन करने वाला कुकुरमुत्ता’ ’एक नये ढंग का व्यंग्य काव्य जरूर है। अपने परिवेश और परिप्रेक्ष्य के अन्तःसम्बन्धों और अन्तर्विरोधों के प्रति एक सपाट सरलीकृत रवैया अपनाता हुआ, करारी फब्बतियाँ कसने वाला एक मौलिक व्यंग्य जो काव्य बोध के बदलाव को रेखांकित करता है।’’[10] ढेर सारी लफ्फाजी कुरूचिसम्पन्नता और आत्ममुग्धता को समेटते हुए भी। शोषक पूँजीवादी समन्तवादी ऐश्वर्य विलास के लिए सामान्य के शोषण पर उसका यंग्यात्मक प्रहार उसकी यथार्थता को गहरा देता है। कुकुरमुत्ता निराला की जीवंतता की निशानी है और उनके प्रखर सतर्क समाजचेतना होने की पहचान भी है। कुकुरमुत्ताका यह विस्फोट व्यंग्य, अत्याचार, शोषण और साथ ही मानवीय अधःपतन की स्थिति से समझौता न करने की प्रतिबद्धता का परिणाम है।
निराला का व्यंग्य शोषणजन्य आक्रोश से उपजी तिक्त अनुभूति की पैनी अभिव्यक्ति है-
महँगाई की बाढ़ बढ़ आयी, गाँठ की छूटी गाढ़ी कमाई।
भूखे नंगे खड़े शरमाये, न आये वीर जवाहर लाल।
कैसे हम बचपायें निहत्थे, बहुत गये हमारे जत्थे,
राह देखते हैं भरमाये, न आये वीर जवाहर लाल।[11]
आश्वासनों के लम्बे चौड़े वचन देकर, संघर्ष की आग में झोंक कर, संकट के समय हाथ खींच लेने वाले वीरजवाहर लालके रूप में स्वातन्त्र्योन्मुख भारत के राजनीतिक नेतृत्व पर किया गया व्यंग्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। राजनीतिक भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर महँगूएवं लकुआजैसे सामान्य जन-जीवन के पात्रों का सोच प्रखरतर होता जा रहा है। यही निराला काव्य की प्रगतिशीलता है-
महँगू ने कहा, हाँ कम्पू में किरिया के
गोली जो लगी थी
उसका कारण पण्डितजी का शार्गिद है,
×      ×      ×
यहाँ भी यह जमींदार, बाजू से लगा ही है।
कहते हैं, इनके रुपये से ये चलते हैं,
कभी-कभी लाखों पर हाथ साफ करते हैं।’’[12]
वस्तुतः निराला ने ’’ अनुभूति को बार-बार जगह-जगह से -करारे व्यंग्य के बसूले से छील-छील कर चिकना और सन्तुलित किया है। यह व्यंग्य अपने निजत्व के ऊपर भी है और सामाजिक विषमताओं, संकीर्णताओं और हास्यास्पदताओं को लेकर भी है।... ये व्यंग्य हँसाते उतना नहीं जितना कविता की त्रासदी को नैराश्य के भयप्रद स्तर तक गहराते जाते हैं।’’[13]

निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि निराला जन.संघर्ष और पौरुष के परिवर्तन विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है। शोषित जन के प्रति करुण सहानुभूतियुक्त स्वर के बाद निराला स्वयं उसकी पक्षधरता की घोषणा करते हैं, तथा विश्वास और सृजन की दूरी को समाप्त करते हुए उसी वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। अब उनका करुणाप्लावित स्वर शोषण तन्त्र की पहचान के स्वर में बदल जाता है और शोषक उनके आक्रोश और व्यंग्य का केन्द्र बनता जाता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. https://anubooks.com/wp-content/uploads/2020/07/SM-Vol.-XI-No.1-March-2020-4.pdf 2. https://thewirehindi.com/21485/suryakant-tripathi-nirala-death-anniversary-hindi-poet/
अंत टिप्पणी
1. दुधनाथ सिंह: निराला: आत्महन्ता आस्थ, पृ. 196
2. निराला: तुलसीदास, बन्द 28-29
3. निराला: नये पत्ते, पृ. 35-36
4. दूधनाथ सिंह: निराला: आत्म हन्ता आस्था, पृ. 199
5. निराला: नये पत्ते, पृ. 31-32
6. दूधनाथ सिंह: निराला: आत्म हन्ता आस्था, पृ. 200
7. सूरज पालीवाल: निराला की दलित चेतना: मधुमती (अगस्त1997) पृ.78-79
8. दुधनाथ सिंह: निराला:आत्म हन्ता आस्था, पृ. 229
9. निराला: कुकुरमुत्ता, पृ. 39-40
10. राजकुमार सैनी: साहित्य स्त्रष्टा निराला, पृ. 34
11. निराला: बेला, गीत सं. 28
12. निराला: नये पत्ते, पृ. 109
13. दूधनाथ सिंह: निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ.