P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IX May  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
सार्वजनिक-भूमि प्रबंधन: मौर्य राज्य और वर्तमान राजस्थान
Public-Land Management: The Maurya Kingdom and Present Rajasthan
Paper Id :  17631   Submission Date :  14/05/2023   Acceptance Date :  22/05/2023   Publication Date :  25/05/2023
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राजेंद्र प्रसाद अग्रवाल
शोधार्थी
लोक प्रशासन विभाग
श्री जगदीशप्रसाद झाबरमल टीबड़ेवाला विश्वविद्यालय
विद्यानगरी, झुंझुनू,राजस्थान, भारत
राम दर्शन
शोध निर्देशक
लोक प्रशासन विभाग
श्री जगदीशप्रसाद झाबरमल टीबड़ेवाला विश्वविद्यालय
विद्यानगरी, झुंझुनू, राजस्थान, भारत
सारांश प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा में भूमि को प्रकृति का उपहार मानते हुए इसे सर्व समुदाय की संपत्ति माना गया था। ऋग्वैदिक काल से उत्तर वैदिक संक्रमण के दौरान समाज ने व्यवस्थित और स्थायित्व जीवन शैली अपनाकर कृषि और आवासीय उद्देश्यों के लिए भूमि का सामुदायिक उपयोग उपभोग प्रारम्भ किया गया। कुल-कबीले के आंतरिक और बाह्य संघर्षों और चुनौतियों से सुरक्षा के लिए नियुक्त वरिष्ठ, शक्तिशाली और बुद्धिमान व्यक्ति ’राजन’ को कुल के सदस्यों से बलि (टैक्स) प्राप्त होती थी। ब्राहमिक व्यवस्था में “सवै भूमि गोपाल की” की अवधारणा में भूमि किसी राज्य या राजा या निजी स्वामित्व की न होकर सर्व समुदाय की शामलाती मानी जाती रही है। प्रजा की रक्षा-सुरक्षा व्यवस्था और सुविधाओं के विकास के लिए राज्य को कर प्रदान करने की परंपरा वर्तमान युग तक चली आ रही है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हिन्दू काल खंड की तुलना में मुस्लिम-ब्रिटिश पराधीनता के काल खंड में अब्राहमिक व्यवस्था की वैचारिकी में भूमि स्वामित्व से जन सामान्य को दूर रखा गया। इस व्यवस्था में जमींदारी या ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देकर राज्य और कृषकों के मध्य बिचौलियों के माध्यम से किसानों का दमन और शोषण कर अधिकाधिक टैक्स वसूल करना शासकों का लक्ष्य रहा। मौर्य काल में राज्य हित में कुछ भूमि को प्रशासनिक खर्चों के लिए शासन के अंतर्गत रखा गया था। सार्वजनिक और सामुदायिक भूमियों की ग्राम समुदाय के सहयोग से राज्य द्वारा पूर्ण सुरक्षा और व्यवस्था की जाती थी। प्रत्येक काल-खण्ड में भूमि का प्रबंधन और भूमि पर अधिकार व्यवस्थागत कारकों यथा सामाजिक-सांस्कृतिक साझा चेतना, नेतृत्व, भौगोलिक अनुकूलताओं, स्थलाकृति (topography), कला, विज्ञान और तकनीकी कौशल, प्रज्ञा और स्थानीय जीवन-शैली से प्रभावित रहा है। वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य और सार्वजनिक-सामुदायिक स्वामित्व की भूमियां राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव, स्थानीय निकायों की उदासीनता और कुप्रबंधन के कारण अतिक्रमण की चपेट में आ चुकी है। प्रस्तुत आलेख में इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए राजस्थान राज्य की सार्वजनिक भूमि प्रबंधन की विवेचना की गई है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the ancient Indian Sanatan tradition, considering land as a gift of nature, it was considered the property of all the community. During the post-Vedic transition from the Rigvedic period, the society adopted a systematic and stable lifestyle and started community use of land for agricultural and residential purposes. The 'Rajan', a senior, powerful and intelligent person appointed to protect the clan from internal and external conflicts and challenges, received sacrifices (taxes) from the members of the clan. In the Brahmic system, in the concept of “Savai Bhoomi Gopal ki”, the land is considered to be the property of the whole community and not of any state or king or private property. The tradition of providing tax to the state for the development of defense-security system and facilities of the subjects is going on till the present era. From the historical point of view, in comparison to the Hindu period, in the period of Muslim-British subjugation, common people were kept away from land ownership in the ideology of Abrahamic system. In this system, the aim of the rulers was to suppress and exploit the farmers through the middlemen between the state and the farmers by promoting zamindari or contractual practice and collecting maximum tax. During the Maurya period some lands were kept under the administration for administrative expenses in the interest of the state. Public and community lands were fully protected and managed by the state with the help of the village community. The management of land and rights over land in each period have been influenced by systemic factors such as socio-cultural shared consciousness, leadership, geographical adaptability, topography, art, science and technical skills, wisdom and local way of life. In the present democratic system, the state and public-community owned lands have come under the grip of encroachment due to lack of political will, apathy and mismanagement of local bodies. Keeping this historical perspective in mind, the public land management of Rajasthan state has been discussed in the presented article.
मुख्य शब्द मौर्यकाल, भूमि क़ानून, शासकीय भूमि, सार्वजनिक भूमि, खालसा, अतिक्रमण, सामुदायिक भूमि, चरागाह, ब्राहमिक, अब्राहमिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Mauryan period, Land law, Government land, Public land, Khalsa, Encroachment, Community land, Pasture, Brahmic, Abrahamic.
प्रस्तावना
राज्य की स्थापना में और उसके अनवरत विकास के लिए भूमि की उपलब्धता एक महत्त्वपूर्ण घटक है। नवीन बसावट, प्रजा के लिए आवास योग्य सुरक्षित भूमि, कृषि योग्य भूमि तथा गैर कृषि उपयोग यथा वाणिज्य, व्यवसाय, सड़क, सार्वजनिक सुविधाओं, चारागाह, जल क्षेत्र, सड़क, वन-क्षेत्र, श्मशान, बाग बगीचों के लिए उपयुक्त भूमि और साथ ही बसे हुए ग्राम और शहरों के निरंतर विकास और समृद्धि हेतु नई बंजर और अक्षत (virgin land) को उपयोगी बनाने और विद्यमान भूमियों का भू-उपयोग परिवर्तन भी जरूरी हो जाता है ताकि भौतिक अवसंरचनाओं और बढ़ती प्रशासनिक और सैन्य जरूरतों को पूरा किया जा सके। कृषि भूमि सदैव से भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ और आजीविका में सहायक होकर सामजिक हैसियत का प्रतीक रही है। इस कारण से कृषि भूमि के महत्त्व को देखते हुए इतिहास में भूमि हमेशा से शासकों और सत्ताओं की नीतियों का एक केंद्र बिंदु रहती आई है। देश के सुनियोजित व सतत विकास में भूमि की उपलब्धता, इसके बढ़ते आर्थिक मूल्य और पर्यावरणीय महत्व और चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में शासकीय, सामुदायिक एवं सार्वजनिक भूमियों का प्रबंधन तथा संरक्षण आवश्यक है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. मौर्य प्रशासन में भूमि प्रबंधन के संगठनात्मक एवं संरचनात्मक ढांचे का अध्ययन कर इसके द्वारा तत्कालीन समाज और अर्थव्यवस्था में हुए सकारात्मक परिवर्तन को समझना। 2. भूमि प्रबंधन में प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के माध्यम से स्थापित प्रभावी ,संगठित और नियंत्रित शासन व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन एवं विश्लेषण करना। 3. मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत राज्य के प्रत्यक्ष नियंत्रणाधीन भूमि और सशर्त ग्राम समुदाय तथा विशेष व्यक्तियों द्वारा धारित भूमि के संरक्षण,संवर्धन की नीतियों और अतिचार की समस्या का अध्ययन क रवर्तमान में लागू कर सकने की संभावनाओं का पता लगाना। 4. मौर्य कालीन सार्वजनिक उपयोग की भूमियों का प्रबंधन का मूल्यांकन कर वर्तमान परिस्थितियों में इसके बेहतर क्रियान्वयन का अध्ययन करना। 5. आधुनिक भू-प्रबंधन प्रणाली में मौर्ययुगीन नीतियों को लागू करने से संभावित फायदे और चुनौतियों की पहचान करना।
साहित्यावलोकन

तिवारी, डॉ श्यामलेश कुमार (2020)1 कौटिल्यीय अर्थशास्त्रम् पुस्तक में कौटिलीय अर्थशास्त्र ग्रन्थ को 15 अधिकरण, 180 प्रकरण, 150 अध्यायों तथा 6000 श्लोकों के अनुसार विस्तृत रूप से टिप्पणी सहित समझाया गया है। इसमें प्राचीन भारत के मौर्य कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन को प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय प्रणाली, दंड नीति और अर्थव्यवस्था के आधार स्तम्भ भूमि स्वामित्व प्रणाली, पशुपालन, व्यापार और वाणिज्य तथा राज्य में बाह्य सुरक्षा एवं कानून-व्यवस्था के लिए सैन्य शक्ति के महत्व को बताया  गया है।

प्रसाद, डॉ ओम प्रकाश (2022)[2] “कौटिल्य का अर्थशास्त्र-एक ऐतिहासिक अध्ययनमें लेखक ने पुस्तक को 12 अध्यायों में विभाजित कर स्त्री विमर्श, अर्थव्यवस्था, कृषि -विज्ञानं, प्रशासनिक व्यवस्था एवं कूटनीतिक व्यवहार, गुप्तचर प्रणाली, विज्ञान एवं तकनीक तथा दंड-नीति का वर्णन करते हुए राजा के कर्तव्य और उसके आचरण पर प्रकाश डाला है। लेखक का विशेष रूप से इस बात पर जोर रहा है कि विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी से आर्थिक बदलाव होता है और फिर आर्थिक प्रगति के अनुसार सामाजिक और राजनैतिक दशा-दिशा तय होती है।

शर्मा, ओमप्रकाश (2022)[3] अपनी पुस्तक कौटिलीय अर्थशास्त्रमें लेखक ने पुस्तक में लोक-व्यवहार ,राजनीति  तथा दंड-विधान सम्बन्धी तथ्यों को समझाते हुए यह बताया है कि प्राचीन भारत में प्रजातंत्र और राजतंत्र का मिश्रित शासन तंत्र प्रचलित था। राज्यविषयक सूक्ष्म जानकारियां और दंडविधान का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समन्वय अर्थशास्त्र में उपलब्ध है।

फिंगर प्रिरट क्लासिक (2022)[4] अर्थशास्त्र कौटिल्य पुस्तक में बताया गया है कि इंडियन मेकाइवली के रूप में ज्ञात कौटिल्य चाणक्य का अर्थशास्त्र राजनीति, सैन्य प्रशासन और आर्थिक स्ट्रैटेजी पर लिखा हुआ एक अद्वितीय ग्रन्थ है। चिरस्थायी राजकौशल और शासन कार्य प्रणाली पर लिखा हुआ एक प्राचीनतम ग्रन्थ है जो किसी भी शासक के लिए अनगिनत प्रश्नों के उत्तर के रूप में आज भी प्रासांगिक है। यह योग्य राजा के लिए आवश्यक गुण, राज्य के प्रबंधन, साम्राज्य विस्तार की रणनीति और शक्तियों के माध्यम से राज्य की समृद्धि और प्रजा हित संरक्षण करते हुए राजा की हदों को विस्तार देता है।

मिश्रा, अनिल कुमार (2021)[5] कौटिल्य अर्थशास्त्र  पुस्तक में  लेखक द्वारा कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र के आधार पर तत्कालीन समय में स्त्रियों की स्थिति, राज्य का गठन, राज्य की प्रशासनिक प्रणाली, चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य विस्तार, दंड और न्याय प्रणाली, वर्णाश्रम  व्यवस्था, धर्म और राजनीति और  राज्य में व्याप्त भ्रष्ट आचरण का समालोचनान्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

मुख्य पाठ

1. भूमि स्वामित्व का स्वरुप- भूमि आधृति (tenure) प्रणालीग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक अवसंरचना, सांस्कृतिक, आर्थिक, प्राकृतिक और राजनैतिक परिस्थितियों से निर्धारित होती है। ऋग्वैदिक काल से पूर्व  भारत में लोगों का स्थायी निवास नहीं होकर ये लोग यायावरी (घुमक्कड़) जीवन व्यतीत करते थे। भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार की कोई अवधारणा इस दौरान देखने को नहीं मिलती है। प्राचीन भारत में भूमि पर स्वामित्व व्यक्तिगत नहीं होकर सामुदायिक स्वामित्व प्रचलन में रहा है। जो कुल कबीला या समूह नई बंजर भूमि को साफ सफाई कर कृषि योग्य बनाकर जुटाई करता भूमि उसी की मानी जाती थी। वैदिक काल में सामान्यत शामलाती भूमि स्वामित्व का उल्लेख मिलता है जिसकी पुष्टि वैदिक साहित्य शतपथ ब्राह्मण और महाकाव्य महाभारत से भी होती है। उन दिनों भूमि के क्रय विक्रयदान को हेय दृष्टि से देखा जाता था। मनुस्मृति के अनुसार जो व्यक्ति सर्वप्रथम भूमि को साफ कर खेती करताभूमि उसी की होती थी, इससे व्यक्तिगत स्वामित्व की धारणा परिलक्षित होती है। कबीले के प्रमुख के रूप में कुल का मुखिया या राजन बली के रूप में उपज का कुछ हिस्सा लेता था और इसके बदले आंतरिक और बाह्य संघर्ष में सदस्यों की मदद यह राजन करता था। राजा वास्तव में भूमि का मालिक नहीं होता था। मौर्य काल में दो प्रकार की भूमियों राष्ट्र और सीता वर्ग का उल्लेख है। राष्ट्र वर्ग की भूमियों पर राजस्व प्राप्ति के अतिरिक्त सरकारी तंत्र का कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं था। इस प्रकार की गैर शासकीय भूमियों का आंतरिक प्रबंधन और व्यवस्थाएं स्वयं भूमि धारण और खेती करने वाले को थीं। राज्य केवल राष्ट्र-कर के रूप में इनसे राजस्व प्राप्त करता था। सीता प्रकार की भूमियों राज्य की स्वयं की भूमियों होती थीं मौर्य काल के बाद स्थायी और मजबूत साम्राज्य के अभाव में राजस्व प्रणाली में मध्यस्थो के उदय का संकेत मिलने लगा था। उत्तर भारत में मुस्लिम सल्तनत की स्थापना के बाद भूमि के स्वामित्व के पैटर्न में बदलाव आया। सल्तनत के अधीन भूमि तीन भागों में विभाजित थी। सल्तनत काल में इक्ता प्रणाली में शासकीय अधिकारियों को सेवा के बदले इक्ता भूमि, धार्मिक उद्देश्य के लिए इनाम या वक्फ भूमि और खालसा भूमि सुलतान के राजसी खर्चों के लिए सुलतान के सीधे नियंत्रण में रहती थी। खूंट, मुकद्दम और चौधरी मध्यवर्ती भूमि मालिक वर्ग थे। उनमें से खूंटों को जमींदार का दर्जा प्राप्त था, जबकि मुकद्दम और चौधरी गाँवों के मुखिया थे और समृद्ध किसान थे। यह मध्यवर्ती भूस्वामी वर्ग किसानों से कर वसूल कर केन्द्रीय कोषागार में जमा करता था। लेकिन, अलाउद्दीन खिलजी के युग में मध्यवर्ती वर्ग की शक्तियां छीन ली गईं और राज्य के कर्मचारियों को किसानों से सीधे कर वसूलने का काम दिया गया। ग्रामीण समाज में भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन किसान साथ-साथ रहते थे, लेकिन केवल जमीन के मालिक किसान ही कर चुकाते थे। शेरशाह सूरी के शासन के दौरान, ’जाब्ताप्रणाली शुरू की गई थी और कर जोत के आकार पर आधारित था। सभी कृषि योग्य भूमि को मापा गया और प्रत्येक किसान को एक शीर्षक विलेख दिया गया जिसमें लगाया जाने वाला कर भी उल्लेख किया गया था। अकबर ने अपने अधीन भूमि को खालसाऔर जागीरमें विभाजित किया। मनसूबेदार, जिनका वेतन उन्हें दी गई भूमि के राजस्व से प्राप्त होता था, जागीरदार के रूप में जाने जाते थे। सल्तनत काल में सुल्तान ने परंपरा से चले आ रहे लगान में वृद्धि कर किसानों का शोषण प्रारंभ कर दिया। मुगल काल में भी शासक का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक राजस्व वसूल करना रहा था। वास्तविक किसानों के शोषण का कारण जागीर प्रथा और अनुपस्थित जागीरदारों का ही परिवर्तित स्वरूप ब्रिटिश राज्य में ठेकेदारों के रूप में देखने को मिलता है। औपनिवैशिक काल खंड में मुख्य रूप से भूमि प्रणाली के तीन रूप जमींदारी, (भूमि स्वामित्व प्रदान कर भू-राजस्व वसूली के अधिकार), रैयतवाड़ी (राज्य व किसानों के मध्य बिचौलियों की समाप्ति) और महलवाड़ी (ग्राम समुदाय को भू-राजस्व संग्रहण के अधिकार) देखने को मिलते हैं। बा्रहमिक वैचारिकी में प्रकृति और जीव-जगत की एकारता और समग्रता नदी, पहाड, तालाब और गोचर भूमि आदि के संरक्षण के रुप में आज भी ग्रामीण परिवेश में लोकोक्ति और लोकस्मृति के रुप में परिलक्षित होती है।[6] इसी कारण सामुदायिक एवं शामलाती भूमियों के अतिरिक्त भी राज्य द्वारा ऐसे शासकों के शासन काल में कृषकों से उनकी सुरक्षा और सुविधा के अनुपात में ही  कृषि उपज पर उत्पाद का कुछ हिस्सा ही कर के रुप में लिया जाता था। भारत 800 से अधिक सालों तक इस्लामिक और ईसाइयत विचारधारा के शासकों के अधीन रहा है। अब्राह्मिक वैचारिकी के इन शासकों के काल खण्ड में प्रशासनिक और भूमि प्रणाली भी इसी अनुरुप प्रभावित रही है। आजाद भारत में इन जमींदारों की भूमियों को जागीर पुनर्ग्रहण कानूनों के माध्यम से अधिग्रहित किया, भूमिहीनों को वितरित करने की नीतियां और कानून बनाए गए, साथ ही कृषि भूमि धारण की अधिकतम सीमा निर्धारित कर सरप्लस भूमि को गरीब और वास्तविक किसानों को वितरित किया जाना आरंभ हुआ। जमीन के स्वामित्व के लिए आज खसराखतौनी शब्द कानूनी व्यवहार में है जिसका हिंदी, संस्कृत, प्राकृत भाषा का समानार्थक शब्द उपलब्ध नहीं होता है। भाषायी नृ-विज्ञान के अनुसार आवश्यकता और प्रासंगिकता के आधार पर शब्द जन्म लेते हैं। ठेकेदारी और निजी भू-स्वामित्व हिन्दू-भारत में नहीं था। खसरा-खतौनी इस्लामिक और ठेकेदारी ब्रिटिश हुकूमत की देन है।[7] सत्रहवीं शताब्दी में भारत आए फ्रांसिसी यात्री फ्रांस्वा बर्नियर्र ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायरमें भू-स्वामित्व के प्रश्न पर भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं की चर्चा में भारत में निजी भू-स्वामित्व होने से इंकार करता हैं।

2. मौर्य काल में भू-प्रशासनिक व्यवस्था- कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भू-उपयोगिता के आधार पर पांच प्रकार की भूमियों का  उल्लेख है। कृषि योग्य भूमि मुख्य रूप से शासकीय ,निजी और चरागाह भूमि के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। दूसरे प्रकार की भूमि वन क्षेत्र के अंतर्गत आती थी। उत्पादकता के आधार पर इन्हें उत्पादक और गैर उत्पादक क्षेत्र के रूप में बांटा  गया है। उत्पादक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के उत्पादों से राज्य को आय प्राप्त होती थी तथा इनमें से कुछ भूमि हाथियों के लिए भी सुरक्षित थी। ऐसी वन  भूमियां जो आबादी से दूर होती थी उन्हें तपस्वियों के लिए ,मनोरंजन के लिए और वन्यजीवों के लिए छोड़ा जाता था। जलाशयों के रूप में उपलब्ध  अधिकाँश संपत्तियां शासन के स्वामित्व में भी थी और कुछ जलाशयों के गैर शासकीय अर्थात निजी स्वामित्व भी उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त खनन क्षेत्र पूर्णतया राज्य के स्वामित्व में आता था। खनन का  कार्य शासन के साथ-साथ लीज पर प्राइवेट संचालकों को भी दे दिया जाता था। इन चारों प्रकार की भूमियों के अतिरिक्त अन्य भूमि भी उपलब्ध होती थी जिनमें से कुछ हिस्से  पर उसकी उपयुक्तता  के आधार पर नई बसावट की  व्यवस्था की जाती थी  कुछ भूमि  बंजर या बेकार  भूमि (waste land) के रूप में उपलब्ध थी।[8] मौर्य काल में राज्य की स्थापना के समय कृषि योग्य भूमि, चरागाह भूमि, हाथियों के लिए भूमि, लकड़ी के वन, दुर्गे और किले, सीमा चौकिया, सड़कें और व्यापार मार्ग के लिए भूमि की उपलब्धता  को आधार बनाया जाता था।

कौटलीय अर्थशास्त्र के अनुसार मौर्य काल में दो प्रकार की भूमियों का उल्लेख मिलता है। एक भूमि राजा की (crown land) अर्थात शासकीय और  दूसरी ऐसी गैर-शासकीय भूमि जिससे राजा को उपज का कुछ हिस्सा राजस्व के रूप में प्राप्त होता था। पहले प्रकार की कृषि भूमि से प्राप्त आय सीताकहलाती थी तथा शासकीय भूमि के अलावा दूसरी प्रकार की भूमि से प्राप्त राजस्व भागकहलाता था। शासकीय भूमि  के प्रबंधन की जिम्मेदारी सीताध्यक्ष” (शासकीय कृषि भूमि का मुख्य अधीक्षक) नामक अधिकारी को दी हुई थी। सीताध्यक्ष शासकीय कृषि भूमि का या तो सीधे ही खेती का प्रबंध करवाता था या फिर ऐसी शासकीय भूमि जिस पर सीताध्यक्ष बुवाई न करवा सके उसे  खेती के इच्छुक किसानों को लीज़ पर दे देता था।[9] राजकीय भूमि पर होने वाली फसल और अन्य उत्पादों के राज्य हित में निस्तारण का उत्तरदायित्व भी सीताध्यक्ष का ही था। बंटाई पर दी गई भूमि से किसानो को उपज का चौथा या पांचवा हिस्सा कर के रूप में लिया जाता और यदि राज्य ऐसे कृषकों को जो अपने श्रम के साथ राज्य से मदद के रूप में बीज ,औज़ार आदि आदानों को लेते थे उन्हें उपज का आधा हिस्सा राज्य को देना पड़ता था। कुछ ऐसी भी शासकीय भूमियां होती थीं जो पहले से कृषि योग्य नहीं होती तो कृषि कार्य करने की शर्त पर इन्हें एक निश्चित अवधि के लिए कर मुक्त भूमि के रूप में किसानों को खेती के लिए प्रदान कर दिए जाती थी। गैर-शासकीय कृषि भूमियों से प्राप्त होने वाला भूमि कर भाग” (गैर शासकीय भूमियों में कृषि उत्पादन पर लगने वाले टैक्स ,जो सामान्तया उपज का छठा भाग होता था) के रूप में किसानों से राज्य प्राप्त करता था जिसकी वसूली की जिम्मेदारी सीताध्यक्ष की न होकर समाहर्ता नामक अधिकारी की होती थी। नई बंजड़ भूमि क्षेत्र को वेदपाठी ब्राह्मण (श्रोत्रिय) के लिए बिना किसी मूल्य और  भूमि कर लिए उत्तराधिकार के अधिकारों के साथ दे दिया जाता था। शासकीय खदानों पर राज्य का नियंत्रण था जिन्हें राज्य द्वारा संचालन करने के साथ ही कई  बार खदानों को लीज पर संचालन के लिए उपलब्ध कराया जाता था। प्राचीन भारत में भूमि का स्वामित्व मुख्यतः समुदाय आधारित था जो सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार कुछ भिन्नताएं रखता था। ग्रामीण क्षेत्र में स्थित भूमि संबंधी राजस्व यानी राष्ट्रम् के अंतर्गत मुख्य रूप से चरागाह भूमि से प्राप्त राजस्व विवीतम्,  भूमि सर्वेक्षण से प्राप्त राजस्व रज्जू, पुलिस के अधिकार क्षेत्र से बाहर विवीताध्यक्ष की सहायता से पकड़े गए चोरों से की गई वसूली चोर रज्जू, शासकीय भूमि से प्राप्त राजस्व सीता, शासकीय और गैर शासकीय भूमि से उत्पादन के हिस्से के रूप में या लीज रेंट के रूप में वसूल किया जाने वाला राजस्व भाग कहलाता था। 

3. शासकीय भूमि सम्बन्धी प्रावधान

एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन के रूप में भूमिप्रारम्भ से ही सार्वजनिक या सामुदायिक व्यवस्था के अंतर्गत रही है। वहीं दूसरी ओर सभी प्रकार की बंजड़ भूमि (virgin land), वन भूमि और प्राकृतिक जल स्रोतों पर राज्य का अधिकार होता था। सीताध्यक्ष द्वारा दासों, कर्मकारों और बंदियों की मदद से राज्य की भूमि पर खेती कराई जाती थी। कुछ राजकीय भूमियों जिनपर सीताध्यक्ष खेती नहीं कराते थे उस पर करद (tax-payer) खेती करते थे। शासकीय कृषि भूमियों की प्रत्यक्ष खेती में श्रम, बीज, खाद आदि पर होने वाले व्यय को उत्पन्न होने वाली विभिन्न उपजों के मूल्य से घटाने के बाद प्राप्त शुद्ध आय राज्य को प्राप्त होने वाले राजस्व का एक मुख्य भाग होता था। राजकीय कृषि भूमि पर लीज आधारित खेती करवाने की स्थिति में पट्टेदार द्वारा केवल श्रम उपलब्ध करने पर उसे उपज का चौथा या पांचवा भाग और यदि श्रम के साथ साथ पट्टीदार बीज, औज़ार आदि भी उपलब्ध कराये तो उसे उपज का आधा हिस्सा मिलता था।सीताध्यक्ष द्वारा राजकीय भूमि पर हल चलवाकर खेती कराई जाती थी। खेती के लिए हल, बैल का प्रयोग किया जाता था। सीताध्यक्ष के अधीन और उसके निर्देशन में दासों, कर्मकारों यानी श्रमिकों और कैदियों से बीज बुआये जाते थे। खेती के लिए किसानों को दी गई कृषि योग्य भूमि पर यदि किसान स्वयं खेती नहीं करता तो उसे लेकर यह भूमि अन्य किसानों को दे दी जाती थी या उसपर ग्राम भृतकों (ग्राम की सेवा में नियुक्त कर्मकरों) और वैदेहकों (व्यापारियों) द्वारा खेती कराई जाती थी। मौर्य काल में कृषि योग्य भूमि पर खेती कराने का उद्देश्य यही था कि राजकीय आमदनी में कमी नहीं होने पाए और साथ ही राज्य को पर्याप्त मात्रा में करके साथ साथ जनता के लिए अन्य उत्पादन हो सके। राजकीय भूमि पर खेती करने वाले कर्मचारियों को उनके कार्य के अनुरूप भोजन और वेतन इत्यादि की व्यवस्था की जाती थी।[10] जो भूमि कृषि योग्य नहीं होती थी उसे जो लोग खेती करने के लिए तैयार होते थे उनको दी जाकर उनसे वापस नहीं ली जाती थी।ऐसी राजकीय  भूमि जिस पर प्रथम बार जुताई होनी थी उसे कुछ अवधि के लिए कर मुक्त भूमि के रूप में या बातचीत के माध्यम से थोड़े राजस्व प्राप्ति के आधार पर किसानों को उपलब्ध करवाना भी सीताध्यक्ष की जिम्मेदारी में शुमार था। भूराजस्व के अतिरिक्त सिंचाई कर के रूप में खेतों के क्षेत्रफल के हिसाब से सिंचाई दर नियत कर उसकी सिंचाई कर वसूली की जाती थी। बसावट के लिए प्रयुक्त बंजड़/ऊसर भूमि राज्य की संपत्ति मानी जाती थी जो उसको धारण करने वाले की मृत्यु उपरांत वापिस राज्य में निहित हो जाती थी।

सार्वजनिक प्रयोजन की भूमियां- मौर्य राज्य में शाही राजमार्ग, प्रांतीय मुख्यालय को जोड़ने वाली संपर्क सड़कें, चरागाह, वन, श्मशानों के रास्ते फुटपाथ और अन्य सार्वजनिक रास्तों की चौड़ाई नियत की हुई थी। इन सड़कों, रास्तों या फुटपाथों पर आवागमन में किसी प्रकार बाधा डालकर व्यवधान उत्पन्न करने, क्षतिग्रस्त करने अथवा इन्हें संकरा करने की स्थिति में अपराधी पर सड़क और रास्तों की श्रेणी अनुसार बारह पण से एक हज़ार पण तक अर्थदंड की व्यवस्था थी।[11] रास्तों को जोतकर संकरा करने पर यह शास्ति एक चौथाई वसूल की जाती थी। (एक पण का सिक्का 3.6 गा्रम चांदी के वजन के बराबर  होता था जिसका वर्तमान मूल्य लगभग 280 रुपये है।)[12]

सामुदायिक उद्देश्य की भूमियां -

1. चरागाह भूमि-मौर्य व्यवस्था में गांव के पशुओं को चरने के लिए गांवों के बीच अथवा दो गांवों के मध्य कृषि के अयोग्य भूमि को चारागाह के लिए आरक्षित किया जाता था। चारागाह से संबंधित प्रबंधन के लिए राज्य की ओर से नियुक्त एक अधिकारी विवीताध्यक्ष, गांवों के बाहर ऐसा क्षेत्र जहाँ पुलिस की पहुँच नहीं थी, और जंगली जीव, चोर, संदिग्ध व्यक्तियों आदि की संभावनाओं के मद्देनजर जगह जगह चौकियां (posts) स्थापित करता। देशी विदेशी व्यापारियों की जांच का कार्य भी विवीताध्यक्ष के पर्यवेक्षण में किया जाता था। राहगीरों, व्यापारियों और पशुओं के लिए जलविहीन क्षेत्र में जल की व्यवस्था हेतु जलाशय, कुएं निर्माण,फल-फूल युक्त बाग बगीचे बनवाना चारागाह भूमि को साफ सफाई,घास उगाने के लिए जल की व्यवस्था सिंचाई कार्य ,पशुओं,यात्रियों और व्यापारियों की ऐसे सुनसान क्षेत्र में सुरक्षा उपलब्ध करवाना भी विवीताध्यक्ष का कार्य था। ग्राम की सीमा के अंतर्गत चारागाह की जिम्मेदारी का निर्वहन ग्राम के मुखिया (village headman) के द्वारा किया जाता था। ग्राम मुखिया ही शामलाती भूमि (common land) पर पशु चराई का शुल्क प्राप्त कर एकत्रित करता था। इसके साथ ही ग्राम मुखिया यह सुनिश्चित करता कि पशु छुट्टे नहीं घूमेकिसी निजी अथवा राजकीय संपत्ति,फसल को नुकसान नहीं पहुँचाये। बिना अनुमति पशु चारण पर पशु मालिक और चरवाहों पर 6 से 12 पण जुर्माना लगता था। गोचर भूमि में आग लगाने वाले अपराधी को जिंदा आग में जलाकर मार डालने के प्रावधान था।[13]

2. जल-स्रोत- जलाशय, बाँध, तालाब आदि-जल संग्रहण के लिए जलाशयों का निर्माण निजी और राजकीय दोनों स्तरों पर होता था। भरे हुए बांध के तटबंध को नुकसान पहुँचाने को बड़ी गंभीरता से लिया जाता था और अपराधी को उसी स्थल पर जल में डुबोकर मृत्यु दंड के प्रावधान थे। हालाँकि रीते बांध होने की स्थिति अपराधी को  मध्यम साहस दंड (पैनल्टी 200 से 500 पण) से दण्डित किया जाता था। नगरीय क्षेत्र में नागरिक और ग्रामीण क्षेत्रों में समाहर्ता अपने अधीनस्थों के सहयोग से अपने अपने क्षेत्र के सामुदायिक-सार्वजनिक उपयोग के जल-भंडारण स्रोत, सड़क, नालों, भूमिगत उपमार्गों, चरागाहों, श्मशान आदि का दैनिक निरीक्षण करते थे।[14] जलाशय आदि में या उसके पास शौच और लघुशंका आदि करना करने पर क्रमशः दो पण और एक पण का अर्थदंड आरोपित किया जाता था।

4. राजस्थान में भूमि कानून एवं प्रबंधन- भारत की स्वतंत्रता से पूर्व और भारतीय संघ के निर्माण तक राजस्थान  राज्य का पृथक् से कोई अस्तित्व नहीं था। राजस्थान अपने वर्तमान स्वरूप में आने से पूर्व राजपूताना के नाम से जाना जाता था और छोटी-बड़ी 19 रियासतों और एक केंद्र-शासित प्रदेश अजमेर-मारवाड़ा से मिलकर बना हुआ था। राजपूताना में कई स्वाधीन राजपूत राजाओं का राज था। मध्यकाल में राज्य की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि और कृषि से प्राप्त होने वाला भू-राजस्व था। राज्य की समस्त भूमि शासक में निहित होती थी। खेती की भूमि पर वंशानुगत व्यवस्था होने के कारण ही भूमि पर किसान उस पर अपना स्वामित्व समझता था। राज्य को प्राप्त होने वाले भू-राजस्व के आधार पर भूमि के दो वर्ग थे। पहली खालसाभूमि राज्य के सीधे नियंत्रण में थी। राज्य का केंद्रीय और अधिक उपजाऊ भू-भाग वाले गांव इस वर्ग में रखे जाते थे और ऐसी भूमि पर खेती करने वाले किसानों से लगान वसूली और लगान निर्धारण का कार्य शासन के अधिकारी करते थे। भूमि का दूसरा वर्ग जागीरभूमि के रूप में था। राज्य को सेवाओं देने वाले सामंतों और अन्य व्यक्तियों को जागीर प्रदान की जाती थी। जागीर भूमियां चार प्रकार की थीं।

1. सामंत जागीर-यह जन्मजात जागीर थी तथा इसका लगान सामंतों द्वारा वसूल किया जाता था।

2. हुकूमत जागीर-यह जागीर मुत्सद्दियों (diplomat) को दी जाती थी। परगने के हाकिम लगान को राजकोष में जमा कराते थे। यह जागीर वेतन के रूप में प्रदान की जाती थी जो जागीरदार की मृत्यु उपरांत खालसा कर दी जाती थी।

3. भोम-इनसे सरकारी सेवाएं ली जाती थीं परन्तु ऐसी जागीर पर लगान देय नहीं था एवं

4. सांसण (शासन) जागीर-धर्मार्थ, शिक्षण कार्य, साहित्य लेखन आदि के लिए चारण, भाटों आदि को अनुदान स्वरुप प्रदान की जाती थी। यह माफ़ीजागीर भी कहलाती थी क्योंकि यह कर मुक्त होती थी। मध्यकालीन राजपूताना स्टेट्स में प्रचलित यह राजस्व प्रशासन व्यवस्था कमोवेश मुग़ल व्यवस्था के अनुरूप ही थी। राजस्थान में भूमि सुधार एवं जागीर पुनर्ग्रहण, 1952 और राजस्थान काश्तकारी अधिनियम, 1955 के बाद भूमि सुधार एवं कृषकों के दायित्व एवं अधिकार के संबंध में अधिनियम लागू होने के पश्चात एक महत्वपूर्ण अधिनियम राजस्थान भू राजस्व अधिनियम,1956 राज्य में 01 जुलाई 1956 से प्रभावी हुआ। इस अधिनियम से भूमि राजस्व न्यायालय, राजस्व अधिकारियों ,ग्राम स्तरीय सेवकों की नियुक्तियां उनके कर्तव्य, नक्शा और भू अभिलेखों की तैयारी और उनका  अनुरक्षण, राजस्व एवं लगान के  परिनिर्धारण संपदाओं  के विभाजन, राजस्व संग्रहण तथा तदानुषंगिक मामलों से संबंधित विधि को समेकित और संशोधित किया गया।

राजस्थान में समस्त भूमियों के अभिलेख यथा ग्राम का नक्शा (गांव और खेतों की सीमा दर्शाने वाला दस्तावेज), खसरा (field book) और खतौनी (जमाबंदी या अधिकार-अभिलेख) का संधारण राजस्व विभाग द्वारा किया जाता है। इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र के साथ साथ वन क्षेत्र, खनन क्षेत्र, जल प्लावित भूमियां, शहरी क्षेत्र की कृषि-गैर कृषि सभी प्रकार की भूमियां सम्मिलित हैं। राजस्व विभाग द्वारा जमाबंदी में भूमियों की आधारभूत सूचनाएँ संकलित होती हैं जिससे भूमियों के स्वामित्व, भूमि किस्म, खसरों का क्षेत्रफल ,भू-राजस्व की दर और  आसामियों के दायित्व  का विवरण अंकित होता है। जमाबंदी में क्रमवार सरकारी भूमि, निजी खातेदारी -गैरखातेदारी, चरागाह और विभागीय भूमियों का विवरण तैयार किया जाता है जो किसी भी प्रविष्टि के परिवर्तन के साथ अपडेट होता जाता है। पूर्व में यह जमाबंदी चौसाला के रूप में प्रत्येक चार वर्ष बाद नए सिरे से मैन्युअल तैयार की जाती थी परन्तु केंद्र सरकार के डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम के लागू होने के बाद यह जमाबंदी अब निरंतर अपडेट रहती है और ऑनलाइन पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है।

सरकारी भूमि के अंतर्गत कृषि योग्य, कृषि अयोग्य-पशु चराई हेतु उपयुक्त, पहाड़ी, पर्वत, नदियां, नाले, जंगलात, श्मशान, कब्रिस्तान जैसी सार्वजनिक और सामुदायिक उपयोग की शामलाती भूमियां (common lands) तथा विभिन्न विभागों के स्वामित्व और संधारणीय भूमि सड़क,रेलवे लाइन सम्मिलित हैं। राज्य सरकार की और से नियुक्त राजस्व अधिकारी  इन सरकारी भूमियों के उचित प्रबंधन और देखरेख के लिए उत्तरदायी हैं। अतिक्रमण से सुरक्षा ,विभागों को आवंटन और सार्वजनिक एवं सामुदायिक उपयोग के लिए ऐसी सरकारी भूमियों को समय समय पर पात्र व्यक्ति और संस्थाओं को सशर्त आवंटन या लीज पर दिया जाता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि राजकीय सिवाय चक भूमि जो किसी राजस्व ग्राम की जमाबंदी में खाता संख्या 01 में अंकित रहती है, उनमें से नदीनाले, जल क्षेत्र जैसी प्रतिबंधित भूमियों को छोड़कर विभिन्न सरकारी, निजी और सामुदायिक उद्देश्य के लिए आवंटित / आरक्षित या लीज पर दी जाती रही है। परंतु बढ़ती आबादी और भूमिहीनों को आवास हेतुआधारभूत संरचना यथा हवाई पट्टीसिंचाई प्रोजेक्टजल प्रदाय परियोजनाराजकीय भवन और कार्यालयश्मशानकब्रिस्तान, गौशालाविस्थापितो के पुनर्वास, औद्योगिक विकास संस्थाओंरेलवे लाइन, सड़क, हाईवे तथा खनन हेतु कई बार उपयुक्त भूमि के अभाव में राज्य सरकार ग्राम पंचायत के परामर्श से प्रभावित एरिया के बराबर उपयुक्त सिवाय चक या निजी खातेदारी भूमि को चारागाह उद्देश्य के लिए उपलब्ध करा देती है। इससे चारागाह की कुल भूमि भी संरक्षित रहती है और संविधान की भावना के अनुरूप सामाजिक-आर्थिक न्याय और विकास के उद्देश्य को भी पूर्ण किया जाता है।

5. भूमि संरक्षण और प्रबंधन की विधिक स्थिति -

महानगरों के महत्वपूर्ण  स्थानों पर, रेलवे, केंद्रीय और राज्य की संस्थाओं की भविष्य के उपयोग के लिए पड़ी खाली भूमिरेलवे लाइन की प्रतिबंधित सीमा क्षेत्र में, राजमार्गों के आसपास उनके स्वामित्व की भूमियों, नदी, नाले, झील और जलाशय की भूमि और कैचमेंट क्षेत्र में, गांवों के शामलाती चरागाह और रास्तों की भूमियों पर बाहरी लोगों के कच्चे पक्के निर्माण कर नाजायज कब्जे कर उन्हें नियमन करने या पुनर्वास की मांग प्रायः देखने को मिल रही है। लोकतंत्र में वोटों की संख्या और सडक शक्ति के बल पर कच्ची बस्ती में कच्चे पक्के निर्माण कर अतिक्रमण को वैध  करने और स्थानीय प्रशासन से पानी, बिजली और  सड़क की मांग करना या हटाने पर अपने को पीड़ित के रुप में पेश कर मानवाधिकार के नाम पर पुनर्वास की बात कहना आम बात हो गई है। उत्तराखण्ड के हल्द्वानी में रेलवे की भूमि पर अतिक्रमण कर अवैध बस्ती निर्माण का ऐसा एक मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।[15] भूमि की विधिक व्याख्या, राजकीय भूमि की अतिक्रमण से सुरक्षा, राजकीय विभागों-सार्वजानिक और सामुदायिक उद्देश्यों उद्देश्यों के लिए आवंटन/आरक्षण एवं उनका संरक्षण, भू-अभिलेख संधारण और अनुरक्षण, राजस्व कार्मिकों के दायित्व, राजस्व न्यायालय संगठन और कार्य प्रणाली के लिए राजस्थान में भू-राजस्व अधिनियम 1956 (संक्षिप्त में एल०आर०एक्ट) एवं राजस्थान काश्तकारी अधिनियम 1955 (संक्षिप्त में टेनेन्सी एक्ट) और इनके अधीन नियमादि बने हुए हैं। एल०आर०एक्ट की धारा 3 में नगरपालिका या ग्राम पंचायत के गावोंकस्बों अथवा शहर की सीमा में अवस्थित आबादी भूमि (नजूल भूमि) राज्य सरकार में निहित मानी गई है। अध्याय 6 की धारा 88 और 103 के अनुसार राजकीय भूमि और भूमि को परिभाषित करते हुए बताया गया है कि समस्त सड़कें, गलियांरास्ते आदि और समस्त भूमियां चाहे कहीं भी स्थित हैं और जो व्यक्तिगत अथवा विधिपूर्वक संपत्ति धारण करने वाले व्यक्तियों या संस्थाओं की नहीं हैराज्य सरकार की संपत्ति होगी। चरागाह, श्मशान और कब्रिस्तान के काम आने वाली सामुदायिक भूमि एवं सड़क या रास्ते आदि के रूप में सार्वजनिक प्रयोजन की भूमि धारा 103 में परिभाषित हैं। टेनेंसी एक्ट में धारा 5 (24) में आबादी को छोड़कर कृषि एवं कृषि सम्बंधित गतिविधियों तथा अस्थायी जल प्लावित भूमियों को शामिल किया गया है जबकि धारा 5 (28) में गांव के पशुओं की चराई के लिए उपयोग में लाई गई भूमियां चारागाह के रूप में परिभाषित हैं।

एल०आर०एक्ट की धारा 91 के तहत ऐसी भूमियां जिस पर किसी भी व्यक्ति द्वारा बिना किसी अधिकार के कब्जा कर रखा है तो उसे अतिक्रमी  घोषित कर उसके विरुद्ध बेदखली की कार्रवाई की जाएगी। जहाँ तक राजकीय भूमि के संरक्षण का प्रश्न है, इसकी पूर्ण जिम्मेदारी भूमिधारी तहसीलदार की होती है। यहाँ राजकीय भूमि में जमाबंदी के खाता संख्या 01 की सिवाय-चक (बिलानाम), चरागाह (गोचर) भूमि के साथ सरकार के विभिन्न विभागों और स्थानीय निकायों की भूमियां आती हैं। इस अधिनियम की धारा 95 (7) के तहत तहसीलदार स्थानीय निकाय के आवेदन पर या स्वप्रेरणा से कार्यवाही कर सकता है। यहाँ यह स्पष्ट किया जाना प्रासांगिक है कि अब पंचायती राज अधिनियम 1994 एवं नगर पालिका अधिनियम 2009 एवं अन्य स्थानीय निकायों के पृथक विशिष्ट  अधिनियमों के अस्तित्व में आने के बाद इन निकायों के सक्षम अधिकारियों के द्वारा ही उनके स्वामित्व की भूमियों-चरागाह, श्मशान, कब्रिस्तान, जलाशय, सार्वजनिक रास्तों पर अतिचार के सम्बन्ध में कार्यवाही की जाती है। अतः स्थानीय निकाय और ऐसे विभाग जिनके स्वयं के अतिक्रमण हटाने के लिए कानून बने हुए हैं ,को छोड़कर शेष विभागों स्वामित्व वाली राजकीय भूमियों पर अतिक्रमण की स्थिति में इनके आवेदन या स्वप्रेरणा से तहसीलदार न्यायालय कार्यवाही कर सकता है। राजकीय भूमि की सुरक्षा निश्चित रूप से तहसीलदार का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। अतिक्रमित भूमि पर फसल की दशा में तहसीलदार को फसल के नष्टीकरण या जब्त कर नीलाम करने के अधिकार दिए हुए हैं। इस धारा के तहत अतिक्रमी सिद्ध होने पर अतिक्रमित क्षेत्रफ़ल  के भू-राजस्व के पचास गुने तक अर्थदंड के प्रावधान इसके अतिरिक्त प्रथम अतिचार की भौतिक बेदखली के पश्चात् पश्चातवर्ती अतिचार के लिए अतिक्रमी को तीन माह तक के सिविल कारावास की सजा  के भी प्रावधान हैं। अतिक्रमण यदि निर्माण के रूप में हो रहा हो  और प्रारंभिक अवस्था में इसकी जानकारी हो जाये  ऐसे अतिक्रमण को बिना नोटिस के स्थापित (established) होने से पूर्व ही हटवाकर सामग्री और उपकरणों को जब्त कर लिया जाये। ऐसे ही एक मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने निर्णय अहमदाबाद नगर निगम बनाम नबाब खान[16] ,दिनांक 11.10.1996  में भी यह उल्लेखित किया है कि अतिक्रमण का प्रयास होते ही ताजा-ताजा (recent origin) के मामलों में नेचुरल जस्टिस की पालना आवश्यक नहीं है। सार्वजनिक महत्व की भूमियों यथा सड़क, रास्ते, श्मशान, कब्रिस्तान चरागाह, सार्वजानिक कुँए, नदी, जोहड़ और तालाब आदि पर अतिचार की स्थिति में राजस्थान भू-राजस्व (संशोधन) अधिनियम, 1992 द्वारा अन्तः स्थापित उप-धारा 6 बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस श्रेणी की भूमियों पर अतिचार सिद्ध होने पर अतिचारी को एक माह से तीन वर्ष के साधारण कारावास और बीस हज़ार तक के अर्थदंड का प्रावधान है। इस उपधारा के तहत मुकदमे का विचारण न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में होता है। साथ ही इस उप-धारा के खंड (ख) में इस उप-धारा के तहत दंडनीय अपराध को रोकने में उपेक्षा करने और दुर्भावना के कारण उत्तरदायी राजकीय कार्मिक को दोष सिद्ध होने पर एक माह तक के साधारण कारावास और एक हज़ार रूपये तक के जुर्माने से दण्डित करने के प्रावधान हैं। मौके के अनुरुप खेतों की सीमा निर्धारण, नक्शे तैयार करने, भूमि की किस्म अनुसार भू-राजस्व की दर सुनिश्चित करने और अन्य परिवर्तनों को अपडेट करने के लिए राजस्थान में एक निश्चित अंतराल में भूमि सर्वेक्षण की व्यवस्था सैटलमेण्ट विभाग करता है परन्तु विगत अनुभवों से यह पता चलता है कि विभागीय लापरवाही से मौके के विपरीत गलत सीमाएं बनाकर और अशुद्ध रिकॉर्ड तैयार कर इसने लिटिगेशन को बढाया है। विधिक प्रावधानों के बावजूद प्रक्रियागत और व्यवस्थागत खामियों के कारण राजकीय एवं सार्वजनिक भूमियों  पर व्यक्तिगत और संस्थागत अतिक्रमण में बढोत्तरी हुई है। अवैध निर्माण कर किए गये इन अतिक्रमण को निःशुल्क या नाम-मात्र के शुल्क पर नियमन करने से एक तरफ लाखों रुपये खर्च कर प्लॉट खरीदने वाले सद्भावी क्रेताओं का शासन पर से विश्वास कम हुआ है ,वहीं नियोजित विकास प्रभावित होकर कानून-व्यवस्था की नई समस्या उत्पन्न हुई है।

6. महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टांत- राजकीय और सार्वजनिक- सामुदायिक भूमियों के संरक्षण और उस पर किए अतिचार को रोकने के लिए पर्याप्त विधिक प्रावधानों के बाद भी अतिचारियों से भूमि को मुक्त कराने के मामले समय समय पर शीर्ष अदालत में आम जनता और पीड़ित पक्ष द्वारा दायर किए गए हैं। इनमे मुख्य रूप से उल्लेखनीय न्यायिक निर्णय हैं -

1. जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य[17]-उच्चतम न्यायालय, सिविल अपील संख्या 1132/2011 निर्णय दिनांक 28.01.2011. में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रकरण में पंजाब राज्य के उस मामले पर विचार किया गया था जिसमें  तालाब की भूमि पर किए गए अतिक्रमण को पटियाला कलेक्टर द्वारा  भूमि कीमत लेकर नियमित करने के आदेश जारी किए गए थे। न्यायालय के निर्देशानुसार ग्राम पंचायत, स्थानीय निकाय या  शामलात भूमि पर किए गए अवैधानिक और अनधिकृत कब्जे और अतिक्रमण को हटाया जाए तथा उस भूमि को कब्जा मुक्त कर वापस पंचायत, स्थानीय निकाय को ग्राम समुदाय के उपयोग हेतु सौंपा जाए। ऐसी भूमियों पर किए गए कब्जे का नियमन नहीं किया जावे।  विशेष परिस्थितियों में भूमिहीन श्रमिकों  और एसटी-एससी वर्ग के गरीब सदस्यों को अपवाद स्वरूप उनके पक्ष में नियमन किया जा सकता है या इस प्रकार की भूमियों पर पहले से ही चल रहे  विद्यालय, अस्पताल या अन्य लोक उपयोगी भवन का राज्य सरकार द्वारा नियमन किया जा सकता है,

2. सुओ मोटो बनाम राजस्थान राज्य[18] प्रकरण संख्या 11153/2011 निर्णय दिनांक 29.05.2012 में न्यायालय द्वारा गैर-मुमकिन नाला, तालाब, नदी, बांध और पायतन और इनके कैचमेंट में आवंटन नहीं करने के संबंध में निर्देश दिए गए ताकि जल भराव एवं जल प्रवाह क्षेत्र में कोई अवरोध उत्पन्न न हो,

3. माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय जोधपुर की डबल बेंच के एक अन्य प्रसिद्ध निर्णय अब्दुल रहमान बनाम राजस्थान19 राज्य व अन्य का उल्लेख करना भी समीचीन है। इस मुकदमे में प्रश्नगत एक गैर-मुमकिन नाडी भूमि पर कई  राजकीय भवन पूर्व से निर्मित थे और स्थानीय सरपंच द्वारा बनवाए जा रहे  राजकीय विद्यालय के भवन निर्माण पर रोक की मांग की गई थी ,हालांकि इस भूखंड पर दीगर लोगों के अतिक्रमणों को हटा दिया गया था। इस मुकदमे के दौरान पारित अंतरिम आदेश दिनांक 09.04.2003, जिसमें 15.08.1947 की स्थिति अनुसार जल भराव और जल प्रवाह (नदी, नाले आदि) को राजकीय भूमि घोषित करने और 15.08.1947 के बाद किया गए किसी भी भूमि रूपांतरण के मामलों को विधि अनुरूप गैर कानूनी घोषित करने के निर्देश सरकार को दिए गए थे, को दिनांक 02 अगस्त, 2004  को न्यायालय ने अंतिम कर दिया ।

4. माननीय उच्च न्यायालय की जयपुर बेंच द्वारा डी बी सिविल रिट पिटीशन (जनहित याचिका) संख्या-10819/2018 जगदीश प्रसाद मीणा व अन्य बनाम राजस्थान राज्य व अन्य[20] निर्णय दिनांक 30.01.2019 में दौसा जिले के चरागाह भूमि पर अतिक्रमण के  मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश पारित किया था। इस आदेश के माध्यम से माननीय न्यायालय द्वारा राज्य सरकार को निर्देश दिए गए थे कि राज्य सरकार जिला स्तर पर जिला कलेक्टर की अध्यक्षता में  एक सार्वजनिक भूमि संरक्षण प्रकोष्ठका गठन करवाए जो चरागाह, तालाब, शमशान, कब्रिस्तान, सार्वजनिक रास्ते जोहड़, नदी आदि सार्वजनिक उपयोग की भूमियों पर होने वाले अतिक्रमणों की शिकायतों की सच्चाई की जांच करवाए और गुणावगुण पर प्रचलित प्रावधानों के तहत अतिक्रमण पाए जाने की स्थिति में अतिक्रमियों को भौतिक रूप से बेदखल कर कब्जा प्राप्त करे।

5. गुलाब कोठारी बनाम राजस्थान राज्य डी बी सिविल याचिका[21] (PIL) संख्या 1554/04  पारित आदेश दिनांक 12.01.2017 एवं 08.08..2017 के अनुसार राज्य सरकार द्वारा शहरी क्षेत्र में मास्टर प्लान के विपरीत भू उपयोग परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

6. श्री राजस्थान गौ-सेवा समिति बनाम राजस्थान राज्य[22] डी बी सिविल रिट याचिका संख्या 326/2022 (लंबित) आदेश दिनांक 15.03.2022, 28.04.2022 एवं 25.04.2023 के अनुसार राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर में याची द्वारा राज्य सरकार द्वारा चारागाह भूमि पर अतिक्रमण कर बसी सघन आबादी को सशर्त नियमन हेतु 27.12.2021 को चारागाह पॉलिसी को चुनौती दी गई थी जिसपर न्यायालय द्वारा द्वारा केवल नियम 7 राजस्थान टेनेंसी नियम के अनुसार ग्राम पंचायत के परामर्श से अनाधिवासित कृषि योग्य राजकीय भूमि (सिवाय चक) में वर्गीकरण परिवर्तन करने के बाद चारागाह की क्षतिपूर्ति कर गैर कृषि उपयोग हेतू आवंटन की अनुमति दी गई है।

7. सिविल अपील संख्या 5841/2022 निर्णय दिनांक 23.08.2022 राजस्थान राज्य बनाम अल्ट्रा सीमेंट लिमिटेड[23] के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया कि जब राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज फिर-मुमकिन जोहड़ (प्रतिबंधित भूमि किस्म) का राजस्व अधिकारी की रिपोर्ट में मौके पर कोई अस्तित्व नहीं है एवं स्थानीय ग्राम पंचायत भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए अनापत्ति दे रही है और सम्बंधित पक्षकार प्रस्तावित खनन लीज एरिया के बराबर भूमि बदले में देने को तैयार है तो राज्य सरकार अब्दुल रहमान बनाम राजस्थान राज्य में राजस्थान उच्च न्यायालय  प्रकरण संख्या  में पारित निर्णय दिनांक 02 अगस्त, 2004 की गलत व्याख्या कर रेस्पोंडेंट पक्षकार के प्रार्थना पत्र को खारिज नहीं कर सकती है। प्रत्येक प्रकरण के गुणावगुण के आधार पर  सरकार को लोक न्यास और टिकाऊ विकास के बीच संतुलन स्थापित करना होगा।

निष्कर्ष शासकीय स्वामित्व और सार्वजनिक हित की भूमियों ,चरागाहों, जलाशयों और श्मशान आदि की सुरक्षा व्यवस्था के लिए बनाए गए मौर्यकालीन विधिक प्रावधानों और नीतियों में कठोर दंड का भय और सामुदायिक उत्तरदायित्व की साझा चेतना ने ऐसी भूमियों के अनुरक्षण और संरक्षण में अहम भूमिका निभाई थी। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में लगभग पांच वर्षों तक रहे यूनानी राजदूत और लेखक मेगस्थनीज तत्कालीन भारत में अपराध नहीं होने का उल्लेख करता है। इसके अतिरिक्त भी मौर्य कालीन साहित्यक साक्ष्य और पुरातात्विक अभिलेख भी मेगस्थनीज के इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं। वर्तमान राजस्थान सहित भारतीय राज्यों में राजकीय,सार्वजनिक और शामलाती भूमियों पर संगठित रूप से किए जा रहे अतिक्रमण और अवैध कब्जे यह स्पष्ट करते है कि इन अतिक्रमणकर्ताओं में अतिक्रमण विरोधी कानूनों का भय समाप्त हो चुका है। राजकीय और लोक स्वामित्व की इन भूमियों पर मौजूदा अतिक्रमण संबधी कानूनी प्रावधान और विभिन्न न्यायालयों की कड़ी फटकार के बाद भी बिना प्राधिकार के किए गए इन नाजायज कब्जों का बने रहना राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों और जिम्मेदार अधिकारियों की मिलीभगत, अकर्मण्यता और विफलता को दर्शाता है। राजस्थान राज्य में गैर-कृषि निर्माण के अतिक्रमण में भु-राजस्व के 50 गुणे अर्थ दण्ड के स्थान पर भारी अर्थ दण्ड और अतिक्रमण हटाने में आये खर्चे को अतिक्रमी से वसूल करने के स्पष्ट प्रावधान जरुरी हैं। सार्वजनिक महत्व की भूमियों पर अतिक्रमण करने पर राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम,1956 की धारा 91(6) की शक्तियां प्रक्रियागत विलम्बन और जटिलताओं के कारण न्यायिक मजिस्ट्रेट के स्थान पर जिला कलक्टर को प्रदत्त की जानी चाहिये। दीर्घकालिक नीतियों और प्रबंधन के अभाव और वोटबैंक की राजनीति ने गांवों और शहरों में अतिक्रमण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। इसने एक तरफ सार्वजनिक सुखाधिकार को बाधित कर गांव और शहरों के नियोजित विकास, स्थानीय विवाद एवं संघर्ष को जन्म देकर कानून व्यवस्था को प्रभावित किया है, वहीं दूसरी ओर सरकारों के प्रति कानून का पालन करने वाले (law abiding) आम नागरिकों का प्रशासन और न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास कम हुआ है। सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा के लिए अपराधियों में सजा का भय पैदा करने हेतु गंभीर प्रयास अपेक्षित हैं। समकालीन संकट के लिए समाधान अतीत में खोजे जा सकतें हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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