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मध्युगीन राजस्थान में सामन्ती व्यवस्था | |||||||
Feudal System in Medieval Rajasthan | |||||||
Paper Id :
17676 Submission Date :
2023-06-12 Acceptance Date :
2023-06-18 Publication Date :
2023-06-22
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सारांश |
राजस्थान में सामन्त
व्यवस्था रक्त सम्बन्ध और कुलीय भावना पर आधारित थी। राजस्थान
की सामन्त व्यवस्था पर व्यापक शोध कार्य के बाद यह स्पष्ट हो गया कि यहाँ की
सामन्त व्यवस्था कर्नल जेम्स टॉड द्वारा उल्लेखित पश्चिमी के फ्यूडल व्यवस्था के
समान स्वामी(राजा) और सेवक(सामन्त) पर आधारित नहीं थी राजस्थान की सामन्त व्यवस्था
रक्त सम्बन्ध एवं कुलीय भावना पर आधारित प्रशासनिक और सैनिक व्यवस्था थी
सामान्तवाद भूमिदान से जुड़ी व्यवस्था है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The feudal system in Rajasthan was based on blood relation and clan sentiment. After extensive research work on the feudal system of Rajasthan, it became clear that the feudal system here was not based on the feudal system of lord (king) and servant (feudal) as mentioned by Colonel James Tod in the west. There was an administrative and military system based on clan spirit. Samantwad is a system related to land donation. | ||||||
मुख्य शब्द | मध्युगीन राजस्थान, सामन्ती व्यवस्था| | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Medieval Rajasthan, Feudal System. | ||||||
प्रस्तावना | भारत में
सर्वप्रथम भूमिदान देने की परम्परा सातवाहन शासको ने शुरू की। प्रारंभ में भूमिदान
ब्राह्मणों, बौद्ध भिक्षुओं आदि को दिया गया। वे केवल उस भूमि से प्राप्त राजस्व का ही
उपयोग कर सकते थे। गुप्तकाल में आकर राजस्व के साथ साथ अन्य अधिकारों का भी
भूमिग्राही को हंस्तांतरण किया जाने लगा। ब्राह्मणों,
भिक्षुओं,
मंदिरों के साथ साथ अब राज्य
के उच्च पदाधिकारी भी वेतन के बदले भूमि प्राप्त करने लगे। वे अपनी अपनी सैन्य
टुकड़ियाँ रखने लगे, कानून व्यवस्था को देखने लगे। इन भूमि मालिकों को सामन्त कहा गया। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य मध्ययुगीन राजस्थान में सामन्ती व्यवस्था का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टॉड ने यहाँ की सामन्त व्यवस्था को इंग्लैंड की फ्यूडल व्यवस्था के समान मानते हुये उल्लेख किया है। व्यापक शोध कार्य के बाद यह स्पष्ट हो गया कि यहाँ की सामन्त व्यवस्था कर्नल जेम्स टॉड द्वारा उल्लेखित पश्चिमी की फ्यूडल व्यवस्था के समान स्वामी (राजा) और सेवक(सामन्त) पर आधारित नहीं थी राजस्थान की सामन्त व्यवस्था रक्त सम्बन्ध एवं कुलीय भावना पर आधरित प्रशासनिक और सैनिक व्यवस्था थी। |
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मुख्य पाठ |
राजा अपने सामन्तो को भाईजी और काकाजी आदि आदरसूचक शब्दों से संबोधित करते थे। इसी
प्रकार सामन्त राजा को बापजी कहते थे व्यापक शोध के बाद के ज्ञात होता है कि मुग़ल
प्रभाव से पूर्व राजस्थान में सामन्त व्यवस्था सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में चल रही
थी। सामन्ती व्यवस्था पर मुग़ल प्रभाव विभिन्न शोध पत्रों के अध्ययन से यह ज्ञात होता की मुग़ल संबंधों से राजपूताना
की परम्परा सामन्ती व्यवस्था में परिवर्तन आने लगा। मुगलों से पूर्व सामन्त नए अधिकारियों
के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे लेकिन
जब से अकबर ने टिका प्रथा शुरू की तो नये उत्तराधिकारी की मान्यता केवल मुगलों की इच्छा पर निर्भर हो गयी। जिससे सामंतों के महत्व में कमी आ गयी। मुग़ल
प्रभाव से ही सामंतों की श्रेणियाँ निश्चित की गयी। इन
श्रेणियों के आधार पर ही सामंतों का दरबार में सम्मान, स्थिति
बैठने का स्थान, पेशकश, ताजिम(राजा
का स्वागत) आदि निशिचित होते थे। इस प्रकार जब मुग़ल
राजपूतों के सरंक्षक हो गये तो अपनी सुरक्षा के लिए सामंतों पर उनकी निर्भरता भी
समाप्त हो गयी। स्वामी- सेवक सम्बन्ध विभिन्न मध्यकालीन स्रोतों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि मुगलों से पूर्व
राजा और उनके सामन्तो के बीच भाई- बंधु का संबंध था, सामंतों में निष्ठा की भावना थी, वे हमेशा अपने राजा के लिए प्राणों की आहुति देने को तैयार थे लेकिन मुग़ल
आधिपत्य से इन संबंधों में खटास आ गयी तथा सम्बन्ध स्वामी और सेवक में बदलने लगे। ऐसे टेंट का स्वरूप लिए हुये थी वहीँ अब मध्यकाल में मनसूबेदारी व्यवस्था
से प्रभावित होकर पदसोपान व्यवस्था के निकट पहुँच गयी। सामंतों के अधिकार एवं कर्तव्य सामन्त आवश्यकता के समय राजा को सैनिक सहायतादेते थे राजा सेना के लिए सामंतों पर निर्भर होता था कालांतर में रेख के आधार पर सामंतों की सैनिक सेवा का निर्धारण होने लगा था सामंतों की जागीर की वार्षिक उपज का अनुमान रेख कहलाता था। उत्तराधिकारी शुल्क सामन्त व् जागीरदार की मृत्यु के बाद उक्त जागीर के नए उत्तराधिकारी से यह कर वसूल किया जाता था। उत्तराधिकारी शुल्क एक प्रकार से उक्त जागीर के पट्टे का नवीनीकरण करना था। जागीरदार की मृत्यु की सूचना पाते ही राजा अपने दीवानी अधिकारी को कुछ
कर्मचारियों के साथ उस जागीर में भेजता यदि उत्तराधिकारी शुल्क इन्हें जमा नहीं कराया जाता तो जागीर जब्त करने का निर्देश दीवान को
दिया जाता था। जब राजपूत शासकों को मुगलों का सरंक्षण
मिल गया तो शासकों ने
सामन्तों के उत्तराधिकारी को
भी नियंत्रित किया। रेख रेख से तात्पर्य जागीर की अनुमानित वार्षिक राजस्व से था जिसका उल्लेख शासक
प्रदत्त जागीर के पट्टे में करता था। रेख का दूसरा अर्थ सैनिक कर से भी लिया
जाता है। रेख द्वारा निर्धारित आय के मापदण्डो के आधार
पर ही राज्य शुल्क का हिसाब किताब रखता था, रेख
के आधार पर ही सामन्त से उत्तराधिकार शुल्क, सैनिक सेवा, न्योता शुल्क, आदि का निर्धारण होता था। रेख न तो नियमित रूप से प्रतिवर्ष वसूल की जाती थी और न ही इसकी दर निश्चित थी। मारवाड़ में रेख शब्द का प्रयोग
पट्टा रेख और भरतु रेख के रूप में किया जाता था जिसका शासक द्वारा प्रदान किये गये
जागीर पट्टे में उल्लेख किया जाता था। भरतु रेख वह रकम
थी जो जागीरदार पट्टा रेख के आधार पर खजाने में जमा करवाता था। महाराजा सुरसिंह के काल में सर्वप्रथम जागीरदारों के पट्टे में उनको दिये
गये गांव की रेख (आमदनी) दर्ज की जाने लगी। 1755 में
महाराजा विजयसिंह ने एक हजार की आमदनी पर उनसे तीन सौ रूपये की दर से ‘मतालबा’ नामक कर देना आरम्भ किया। बाद में यही कर रेख के नाम से पुकारा जाने लगा। महाराजा मानसिंह के लिए यह प्रसिद्ध है मान लगायी महीपति रेखा ऊपर रेख। शासकों
एवं सामन्तों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी सामन्ती सेवा थी जिसे
चाकरी कहा जाता था। राजस्थान की रियासतों में सामन्तों की श्रेणियाँ संपर्क के परिणामस्वरूप सामन्त व्यवस्था में परिवर्तन राजस्थान में मुगलों से
हुआ तथा सभी रियासतों में सामन्तों की श्रेणियाँ स्पष्ट तौर पर बना दी गई। श्रेणियाँ के आधार पर ही सामन्तों का दरबार में सम्मान, स्थिति, बैठने का स्थान, पेशकश, ताजीम (राजा द्वारा स्वागत) आदि निश्चित होते थे। मारवाड़ मारवाड़ में सामन्तों की चार श्रेणियाँ थी 1. राजवी:- राजा के छोटे भाई- बहन व निकट सम्बन्धी
राजवी, कहलाते थे। 2. सरदार:- सरदारों की भी चार
उपश्रेणियाँ थी, जिनमे सिरामत प्रथम थे। सिरायत
सरदार दायीं मिसल (रणमल के वंशज) और बायीं मिसल (जोधा के वंशज) में विभाजित थे। 3. मुत्सद्दी:- राज्य प्रशासन में कार्य करने के एवज
में प्राप्त जागीर के अधिकारी मुत्सद्दी सामन्त थे। 4. राठौडो का राज्य स्थापित होने से पहले से ही मारवाड़ के
किसी क्षेत्र के स्वामी थे, जिन्होंने राजा की अधीनता
स्वीकार कर ली थी। मेवाड़ मेवाड़ राज्य में सामन्तो की तीन श्रेणियाँ थी :- मेवाड़ राज्य में अमर सिंह
द्वितीय के समय सामन्त प्रथा को प्रथा को व्यवस्थित किया गया तथा जागीर बदलने की
परम्परा को समाप्त कर दिया गया। 1. प्रथम श्रेणी :- प्रथम
श्रेणी में सामन्तों की
संख्या सोलह थी। 2. द्धितीय श्रेणी :- द्वितीय श्रेणी के सामन्तों की
संख्या बत्तीस थी। 3. तृतीय श्रेणी :- तृतीय
श्रेणी के सामन्तों को गोल
कहा जाता था। मेवाड़ में इस प्रकार की व्यवस्था अमरशाही रेख कहलाती थी। प्रथम
श्रेणी के सोलह सामन्तों में
बनेड़ा, शाहपुरा, सल्म्बुर व
बेदला के ठाकुरों का विशेष स्थान था। इन सोलह सामन्तों को ताजिम, ब्रहापसाव, हाथ का कुरब आदि सम्मान का अधिकार प्राप्त था। सल्म्बुर
का सामन्त महाराणा की अनुपस्थिति में प्रशासन का संचालन करता था। ताजमहल की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उसी की थी। वह वंशानुगत रूप से राज्य का प्रधान होता था। बीकानेर बीकानेर राज्य में महाराजा रायसिंह ने सामन्ती व्यवस्था में परिवर्तन किया
उसने बीकानेर में सर्वप्रथम पट्टा प्रणाली आरम्भ की जिसके द्वारा सामन्तों की
सेवाओं, दायित्व व अधिकारों को निश्चित कर उन्हें
नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। बीकानेर में सामन्तो की 3 श्रेणियाँ थी 1. प्रथम श्रेणी :- प्रथम
श्रेणी में वंशानुगत सामन्त जो राव बीका के परिवार से सम्बंधित थे। 2. द्वितीय श्रेणी :- द्वितीय श्रेणी में अन्य रक्त सम्बन्धी वंशानुगत जैसी बीका के भाई व चाचा के वंशज
थे। 3. तृतीय श्रेणी :- तृतीय
श्रेणी में अन्य राजपूत थे, जिनमे बीकानेर में राठौड़
शासन स्थापित होने से पूर्व शासक परिवार के सदस्य थे भाटी और सांखला वंश के थे। जयपुर जयपुर के महाराणा पृथ्वी ने अपने 12 पुत्रों के नाम से स्थायी जागीर चलायी
जिन्हें कोटडी कहा जाता था। जयपुर में सामंतों का वर्गीकरण ‘बारह कोटड़ी’ में किया गया। इनमें प्रथम कोटड़ी कच्छावा की थी। जो राजावत
कहलाते थे ये राजवंश के निकट संबंधी थे। उसके बाद
नाथावत खंगारोत, नरुका, बांकावत
आदि की कोटडिया थी जिसमे तेरहवीं कोटड़ी गुर्जरों की थी। जयपुर राज्य में सामन्त मुख्य रूप से दो श्रेणियाँ में
विभाजित थे – 1. ताजिमों 2. खास चौकी हाडौती हाडौती में सामन्तो की श्रेणियाँ 1. देशथी – देश में ही रहकर रक्षा करने वाले 2. हजूरथी – दरबार
के साथ मुगल सेवा में रहने वाले 3. राजवी – राजा के निकट सम्बन्धी 4. अमीर उमराव – कोटा
नरेश के निकटसम्बन्धी व कुटुम्बी राजवी और अन्य सरदार ‘अमीर
उमराव’ कहलाते थे। सामन्तो के विशेषाधिकार मेवाड़ के सामन्तों को उनके अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त थे। जब कोई
सामन्त दरबार में उपस्थित होता था तो महाराणा खड़ा होकर उसका स्वागत करता था। इस प्रकिया को ‘ताजीम’ कहते थे। ताजीम के वक्त महाराणा का कंधो पर हाथ
रखना “बाह पसाव” कहलाता था। महाराणा के दायीं तरफ की बैठक ‘बड़ी ओल’ एवं बायीं तरफ की बैठक ‘कुंवारों की ओल’ कहलाती थी। राजस्थान के सामंतशाही समाज में
सामाजिक-धार्मिक तथा उत्सवपूर्ण अवसरों पर शासक को सामन्त द्वारा और सामन्त को
उसके अनुसामंत द्वारा नेग (आर्थिक भेंट) प्रदान की जाती है। मारवाड़ दरबार द्वारा दी जाने वाली ताजीम दो प्रकार की है। इकहरी
(इकेवड़ी) दोहरी (दोवडी)। जिसे इकहरी ताजीम मिलती है
उसके महाराजा साहब के सामने हाजिर होते समय और जिसे दोहरी ताजीम मिलती है उसके
हाजिर होते और लौटते दोनों समय महाराजा साहब खड़े होकर उसका अभिवादन ग्रहण करते थे। हाथ का कुरब जिसको यह ताजीम मिलती थी उसके बांह पसाव वाले की तरह महाराजा साहब का घुटना या
दामन छूने पर महाराजा साहब उसके कंधे पर हाथ लगा कर अपने हाथ को अपनी छाती तक ले
जाते थे। ये ताजीमें भी इकहरी और दोहरी दोनों प्रकार की होती थी और
उन्हीं के अनुसार महाराजा साहब खड़े होकर आदर करते। सिरे का कुरब यह कुछ चुने हुय सरदारों को मिला हुआ था जो दरबार के समय अन्य सरदारों से ऊपर
बैठते थे इनके भी दो प्रकार थे- दायीं
मिसल के सिरासत महाराजा साहब के दायीं तरफ और बायीं मिसल के बायीं तरफ बैठते थे। सोना मारवाड़ में जिस व्यक्ति को सोना पहनने का अधिकार मिलता है वही पैर में सोना
पहन सकता है। पहले इस अधिकार के लिए दरबार की तरफ से पैर में पहनने का
स्वर्ण का आभूषण मिलता था। सिरोपाव;- प्रथम श्रेणी के सामन्त अपने शासक का ‘रुक्का खास’ मिलने पर ही राजदरबार में उपस्थित
होते थे। शासक उन्हें उचित आदर एवं सम्मान देता था तथा
उनके लौटते वक्त शासक उन्हें ‘सिरोपाव’(विशेष वस्त्राभूषण) देकर विदा करता था शासक के
राज्याभिषेक, राजघराने में विवाह, युवराज के जन्म आदि अवसरों पर शासक से ‘सिरोपाव’ प्राप्त करना उनका विशेषाधिकार था विभिन्न सिरोपाव निम्नलिखित है ;- 1. हाथी सिरोपाव ;- जिसको यह सिरोपाव मिलता है उस राज्य से कपड़ो वगेरों के सब मिलाकार नकद
राशि दी जाती थी। विवाह के मौके पर 849 रूपये मिलते है। इसके अलावा महाराजा साहब के नजदीकी भाई – बंधुओ
को जो मारवाड़ के महाराजा कहलाते है, विशेष कृपा और मान प्रदर्शित
करने के लिए 1000 रूपये दिए जाते थे। 2. पालकी सिरोपाव ;- जिसको महाराजा साहब की तरफ से यह सिरोपाव मिलता है उसे 472 रूपये दिए जाते
थे। परन्तु विवाह के मोके पर इसकी रकम 553 रूपये कर दी
जाती थी। 3. घोडा सिरोपाव ;- इसके लिए साधारण तोर पर 240 रुपए और विवाह के मोके पर 340 रूपये मिलते है। 4. सादा सिरोपाव ;- इसके प्रथम दर्जे में मामूली समय पर 140 रूपये और विवाह के समय 240 रूपये
दिए जाते थे। परन्तु इसके दुसरे दर्जे में 200 रूपये और
तीसरे में 71 रूपये मिलते थे। 5. कंठी-दुपट्टा सिरोपाव ;- इसकी प्रथम श्रेणी में 75 रूपये द्धितीय श्रेणी में 60 रूपये और तृतीय
श्रेणी वाले को 65 रुपए मिलते थे। 6. कड़ा, मोती, दुशाला और मदील(जागीरदारी पगड़ी) सिरोपाव ;- इसके प्रथम श्रेणी में 121 रूपये द्धितीय श्रेणी में 85 रूपये और तृतीय
श्रेणी वाले को 65 रुपए मिलते थे। 7. कड़ा और दुशाला सिरोपाव ;- इसमें 37 रूपये दिए जाते थे। विभिन्न शोध ग्रंधो के अध्ययन में ज्ञात होता है की राजस्थान की सामन्त
व्यवस्था आपसी साझेदारी कीथी और उसके रूप एक प्रकार से सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक
विशेषताओ को लिय हुआ था। इस प्रथा में निजी रूप से भूमि से लाये और राज्य की सैनिक
सेवा सम्ल्लित थी। शासक और सामन्त का सम्बन्ध पूर्णरूप
से आश्रितों का न होकर समकक्ष आज्ञाकारी सहयोगियों का था। राजस्थान में सामन्ती संस्कृति के प्रभाव राजपूत शासको द्वारा अपने सगे सम्बन्धियों, सैनिको, असैनिको
अधिकारियों को अपने राज्य क्षेत्र में से एकाधिकार गांव जागीर के रूप में देने की
प्रथा सामन्तवाद कहलाती थी। जो शासन प्रशासन के
विकेंद्रीकरण सिद्धांत पर आधारित थी। जिसकी विद्दमानता
ने राज्य के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। जिसे
निम्नलिखित बिन्धुओ के तहत स्पष्ट किया जा सकता है ;- 1. अपने-अपने क्षेत्रो में कूप-मण्डूकता को बनाये रखना- सामन्त प्रथा: रुढ़िवादी और परम्परावादी होते थे परिवर्तित परिस्थितियों
में इन्हें अपने जागीरराज्य की प्रगति पसंद न थी वे अपने जागीर के लोगो को बाहरी
लोगो के प्रभाव से बचाने के लिए न तो यातायात के साधनों का विकास करते थे इस
प्रकार लोगो को एक सीमित दायरे में संकुचित
कर विकास को अवरुद्ध किया। 2. कृषि व्यवस्था का ह्रास- राजस्थान
कृषि प्रदान देश रहा है एवं सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था कृषि पर ही टिकी हुई थी इस समय
ब्रिटिश इंडिया ने नयी वैज्ञानिक तकनीको द्वारा कृषि का आधुनिकीकरण एवं
वाणिज्यिकरण बड़ी बड़ी सिंचाई परियोजना कृषि फार्म कल्टीवेटर आदि का विकास हुआ लेकिन
सामन्तो ने इस और ध्यान ही नहीं दिया एवं कृषि को परम्परागत बनाये रखने का ही
प्रयास कर विकास को अवरुद्ध किया। 3. अत्यधिक आर्थिक शोषण एवं विद्रोह- बदले
हुये समय के साथ साथ सामन्तों को अपनी शानो शोकत को पूरा करने के लिए जब धन की अत्यधिक आवश्यकता पडती तो
कृषक विद्रोह हुए इस से एक और राज्य की कृषक व्यस्व्था चोपट हुयी तो दुसरी और कृषि
आधारित उद्योंगों एवं शांति व्यवस्था के न होने पर व्यापार वाणिज्य की अवनति हुयी। 4. व्यापार-वाणिज्य एवं परिवहन- संचार
को ह्तौत्साहित करना- कूप- मण्डूकता बनाये रखने
के लिए परिवहन- संचार का विकास ही नही होने दिया जिससे व्यापार- वाणिज्य चोपट हो
गया। व्यापरियों से अनेक प्रकार के सामन्ती कर वसूल
किये जाते थे। 5. व्यवसाय-उद्योंगो को प्रोत्साहन नहीं- सामन्तों
ने व्यापारियों को नये उधोग लगाने के लिए न तो कभी धन उपलब्ध कराया और न ही उन्हें
प्रोत्साहित किया गया। इसी लिए यहाँ के व्यवसायियों को
देश के अन्य भागो में पलायन करने पड़ा। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा समस्त देशवासियों को मनवाया। 6. फिजूलखर्ची को अत्यधिक बढ़ावा- सामन्तों को श्रेणीकरण होने से उनमे पारस्परिक द्वेष उत्पन्न हुआ। वे एक- दूसरे को हमेशा नीचा दिखाने में उलझे रहे थे।विवाह आदि के अवसर पर एक-दुसरे से अधिक खर्च करना अपनी शान समझते थे। जिसका सीधा भार कृषको एवं व्यापारियों पर पड़ता था।
7. विलासितापूर्ण जीवन यापन- प्रारम्भ
में मुगल एवं बाद में ब्रिटिश सरंक्षण प्राप्त होने पर शासक एवं सामन्त दोनों का
ही जीवन विलासितापूर्ण हो गया क्योंकि अब सैनिक सेवा की आवश्यकता नहीं रही।यह
विलासिता ब्रिटिश काल में और बढ़ गयी। सामन्तों की हवेलियों में नृत्य व संगीत की झंकार एवं शराब के प्यालो की टकराहट
सुनायीं देती थी। ऐसे में उनसे राज्य के विकास की
अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। |
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निष्कर्ष |
सामंतवाद भूमिदान से जुडी से व्यवस्था है।
भारत में सर्वप्रथम भूमिदान देने की परम्परा सातवाहन शासको ने शुरू की,
प्रारम्भ में भूमिदान ब्राह्मणों और बोद्धभिक्षुओ आदि
को दिया गया और वे केवल उस भूमि से प्राप्त राजस्व का ही उपयोग कर सकते थे।
गुप्तकाल में आकर राजस्व के साथ साथ अन्य अधिकारों का भी भूमिग्राही को हंस्तातरण
किया जाने लगा अब ब्राह्मणों भिक्षुओ मंदिरों के साथ साथ राज्य के उच्च पदाधिकारी
को भी वेतन के बदले भूमि दी जाने लगी इससे सामंतवादी व्यवस्था मजबूत हुई वे अपनी
अपनी सैन्य टुकडिया रखने लगे कानून व्यवस्था देखने लगे। इन भूमि मालिको को सामंत
कहा जाता था। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. राजस्थान का इतिहास- डॉ गोपीनाथ शर्मा |