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पर्यावरण विमर्श और समकालीन हिन्दी उपन्यास | |||||||
Environmental Discussion and Contemporary Hindi Novel | |||||||
Paper Id :
17730 Submission Date :
2023-06-16 Acceptance Date :
2023-06-22 Publication Date :
2023-06-25
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सारांश |
साहित्य के विशाल सागर में अनगिनत बूंदो के रूप में संग्रहित जल मानवता की विकास यात्रा का प्रमाण हैं। मनुष्य अपने जीवन और परिवेश से जो कुछ सीखता है उसे शब्दो में पिरोकर आने वाली पीढ़ियों के लिए संचित करता है। हिन्दी साहित्य भी इसी पथ का गामी है। हिन्दी साहित्य के अनेक रूपों में इसका कथा साहित्य रूप सदा से लोकप्रिय विधा के रूप चलन में रहा है।
आज कथा साहित्य में उपन्यास विधा शिल्प की दृष्टि से नयी मंजिलों को स्पर्श कर रही है, वहीं दूसरी तरफ कथ्य व कथानक की दृष्टि से भी कई रूप इसमें परिलक्षित होते है। अपने कथ्य के माध्यम से समाज में प्रचलित कई विषयों को इसने उठाया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The water stored in the form of countless drops in the vast ocean of literature is the proof of the development journey of humanity. Whatever a man learns from his life and environment, he accumulates it for generations to come by threading it into words. Hindi literature is also a follower of this path. In many forms of Hindi literature, its fiction form has always been in trend as a popular genre. Today, the novel genre in fiction is touching new heights from the point of view of craft, on the other hand, many forms are reflected in it from the point of view of story and plot. It has raised many topics prevalent in the society through its narrative. |
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मुख्य शब्द | विमर्श, पर्यावरण, जल संकट, ग्लोबल वार्मिंग, भूमण्डलीकरण, विकिरण, दम्भ, विझान, असंतुलन, अविवेक। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Discussion, Environment, Water crisis, Global warming, Globalization, Radiation, Arrogance, Vijan, Imbalance, Indiscretion. | ||||||
प्रस्तावना | समाज, देश व विश्व में विद्यमान समस्याएँ एक लेखक को भी प्रभावित करती है। लेखक चूंकि संवेदनशील प्राणी है वह इन समस्याओं से गहराई से जुड़ता है। लेखक में सम्प्रेषण की विशिष्ट क्षमता भी है। अतः वह अपनी संवेदनाएँ, विचार, भाव, अनुभूति, अनुभव पाठक तक सम्प्रेषित करने में सक्षम भी होता है। आज वैश्विक परिदृश्य पर पर्यावरण असंतुलन एक विकट समस्या के रूप में उभरा है। पिछले 20-30 वर्षो से यह समस्या अपना विकराल रूप लेकर बढ़ती ही जा रही है। विवेक सम्पन्न मनुष्य जाति इस समस्या पर मंथन-चिंतन करके इससे उबरने का प्रयास कर रही है। यह मंथन चिन्तन साहित्य में पर्यावण विमर्श के रूप् में उभरा है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत आलेख ऐसे उपन्यासों की विषयवस्तु की पडताल करता
हैए जिसमें पर्यावरण को कथ्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऐसी कथाओं को
विवेचित व विश्लेषित करने का उद्देश्य है कि लेखक जो बात इन कथ्यों के माध्यम से
कह रहा है वह पर्यावरण विमर्श को कहाँ तक बढ़ाती है। पर्यावरण विमर्श के किन
विभिन्न पहलुओं को वह रहा है वह पर्यावरण विमर्श के किन विभिन्न पहलुओं को वह
स्पर्श करती हैए जिन पात्रों के माध्यम से वह अपनी बात कहती है उन पात्रों को
नियोजन कहाँ से किया हैघ् इन तथ्यों को प्रस्तुत आलेख में स्पष्ट किया गया है। |
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साहित्यावलोकन | 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस
के रूप में नामित है। 365 दिन में से यह एक दिन सचेत कर रहा है। पर्यावरण की
सुरक्षा और संवर्धन के लिए, लेकिन आवश्यकता है कि हम 365
दिन पर्यावरण के प्रति उसके सम्वर्धन और उसकी सुरक्षा के प्रति जागृत रहें।
सम्पूर्ण विश्व इस विषय को लेकर मानव जाति के भविष्य के लिए चिंतित दृष्टिगत होता
है और इस समस्या का समाधान प्राप्त करने के लिए भी प्रयासरत है। साहित्य भी इस
क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। जिसे लेकर समीक्षा के क्षेत्र
में भी यह एक विमर्श के रूप में उभर रहा है। पुरातन साहित्य से लेकर वर्तमान
साहित्य तक में हम इस चिंतन को समझ पा रहे हैं हिंदी कविता, कहानी
और अन्य विधाएं विधाओं में इस विषय को लेकर किए गए शोध कार्य इस विमर्श को एक दिशा
प्रदान करते हैं। उपन्यास विधा अपने विस्तृत कलेवर के कारण इस वैश्विक समस्या के
हर कोण को पाठक तक पहुंचाने का उपक्रम करती है जिसे लेकर अब तक कई शोध कार्य हमारे
समक्ष आए हैं जिनमें इस समस्या की वर्तमान स्थिति को बहुत गहनता से विश्लेषण किया
गया है । साहित्य के विभिन्न रूपों के भीतर लेखक वर्ग द्वारा विवेचित कई
महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे सूखा, बाढ़, कार्बन
डाइऑक्साइड का विस्तार वनों की कटाई इत्यादि पर विश्लेषण हुआ है। इन सबके बीच
मनुष्य की इसके प्रति उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के बात शोध आलेख में कम स्पष्ट
हो पाई है, जिसे और शोध की आवश्यकता है। |
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मुख्य पाठ |
पर्यावरण शब्द का निर्माण दो शब्दों से
मिलकर हुआ है - परि और आवरण। परि का अर्थ हमारे चारों ओर आवरण जो हमें चारों और से
घेरे हुए हैं। इस प्रकार पर्यावरण के अंतर्गत सभी भौतिक, रासायनिक
और जैविक कारकों को सम्मिलित करते हैं जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को
प्रभावित करते हैं। पर्यावरण उन परिस्थितियों तथा दशाओं
(भौतिक दशा) को प्रदर्शित करता है जो किसी एकल जीव या जीव समूह को चारों और से
आवृत करती है तथा उसे प्रभावित करती है।” पर्यावरण के अंतर्गत स्थलमंडल, वायुमंडल,
जलमंडल, जैव मंडल सभी कुछ शामिल है।
पर्यावरण के इन सभी क्षेत्रों में जैव मंडल का सबसे प्रमुख अंग मानव है जो इन
चारों क्षेत्रों से प्रभावित होता है और अपनी शक्ति से इन सभी क्षेत्रों को
प्रभावित,
नियंत्रित और परिवर्तित भी करता है। भारत की संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम की रही है। जिसका अभिप्राय
केवल यह नहीं है कि धरती पर रहने वाले संपूर्ण मनुष्य मेरा परिवार है बल्कि इसका मंतव्य
यह है कि संपूर्ण पृथ्वी ही मेरा घर है यही कारण है कि भारतीय संस्कृति पशु, पक्षी,
पेड़, जीव जंतुओं के प्रति भी अपना
उत्तरदायित्व स्वीकार करती है। हमारे देवी देवताओं के रूप भी प्रकृति के विभिन्न
रूपों में दिखाए गए हैं जो प्रतीक रूप में हमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा का अनुभव
कराते हैं। हमारी प्रवृत्ति संरक्षण की रही है। प्रकृति सदैव ही मनुष्य की कर्मस्थली ही नहीं अपितु जीवन दायिनी शक्ति भी रही है। सृष्टि पर व्याप्त समस्त जीवन व प्रकृति का संबंध चिरन्तन है। प्रकृति का ही एक अंग होने के नाते मानव भी प्रकृति की ही गोद में जन्म लेता है, पोषित होता है और पुनः इसी में विलीन हो जाता है। प्रकृति और मानव के सम्बंधों की अभिव्यक्ति हमारे प्राचीन साहित्य वेदों में भी मिलती है। वैदिक काल को अरण्य संस्कृति का काल भी कदाचित इसलिए कहते है क्योकि यहाँ प्रकृति मनुष्य के सम्मान, आराधना के साथ-साथ उसके हर कर्म की सक्रिय सहंचरी भी है। वेदों के अतिरिक्त पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे ग्रन्थो में भी प्रकृति व मनुष्य का यह सहभाव दृष्टिगत होता है। मत्स्य पुराण में कहा गया है कि “दस कूप बनाने का पुण्य एक वापी से, दस वापी बनाने का पुण्य एक तालाब से, दस तालाब बनाने का पुण्य एक पुत्र उत्पन्न करने से तथा पुत्र उत्पन्न करने का पुण्य एक वृक्ष लगाने से मिलता है।”[1] पौराणिक साहित्य में प्रकृति व मानव का यह
सम्बंध तत्कालीन समाज की मनः स्थिति का प्रतिबिम्ब ही था। साहित्य समाज का दर्पण
होता है इस उक्ति से हम सभी भीलीभाँति परीचित है। आज के समाज पर दृष्टिपात करे तो
लक्षित होगा कि पूर्व की सेवा भावना, निस्वार्थता, संयम,
धैर्यता, संतष्टता इत्यादि मूल्य क्षीण
होते-होते समाप्ति की कगार तक पहुँच चुके हैं। आज वैश्विक पटल पर जिस समस्या का
सामना हम कर रहे हैं उसमें हमारा योग भी कम नहीं है। क्योंकि अपनी ही संस्कृति के
मूल तत्व को हम भूल गए हैं। अधिक से अधिक प्राप्त कर लेने की होड़ में सर्वाधिक
नुकसान पर्यावण का हुआ है और हो रहा है। बुद्धि सम्पन्न मानव, विज्ञान की जादुई छड़ी को अपने हाथ में लेकर प्रकृति पर आधिपत्य करने का
दुस्साहस कर बैठा। आज के भौतिकवादी युग में हम इतने स्वार्थी
हो गए हैं कि प्रकृति के हर अंश को पूर्णतः अपने लिए उपयोग करना चाहते हैं। मनुष्य के द्वारा विज्ञान के अविवेकी
प्रयोग से प्रकृति में असंतुलन की स्थिति उन्पन्न हो गई है। असंतुलन से पशु, पक्षी,
पेड़, पौधे और मनुष्य सभी प्रभावित
होते हैं। पशुओं की, पेड़ पौधौं की कई प्रजातियां इस असंतुलन से
विलुप्त हो चुकी हैं। मनुष्य अपने स्वार्थ के वशीभूत हो जिस ढंग
से ऊर्जा के स्रोतों का उपयोग कर रहा है उससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, बाढ़, अनावृष्टि,
रेडियोधर्मी विकिरण, कार्बन
डाइआक्साइड के घनत्व में वृद्धि जैसी कई स्थितियां उत्पन्न हुई है। पिछले कुछ
वर्षो में पृथ्वी का ताप जिस तीव्रता से बढ़ रहा है वह विचारणीय है। 5000 से 7000 वर्षो में पृथ्वी पर 1 डिग्री सेल्सियस ताप में
वृद्धि होती है परंतु वर्तमान समय में यह वृद्धि 100 या 50 वर्षो के अंतराल पर होने लगी है ऐसी स्थिति में इस धरती पर जीवन कैसे संभव हो
पाएगा?
यह सब हमें मिलकर सोचना है। वैश्वीकरण, आर्थिक
साम्राज्यवाद,
उपनिवेशवाद, भूमण्डलीकरण, बाजारवाद जैसी प्रवृतियाँ वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है, जो
मनुष्य के लालच का विभत्स रूप हमारे सामने ला रही है। विकसित राष्ट्र निरन्तर
अविकसित व विकासशील राष्ट्रों को अपनी इन प्रवृतियों का औजार और साधन बना रहे हैं।
पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई, वनों का विनाश, नदियों के बहाव को मनमाने तरीके से मोड़ना, पानी
पर बड़े-बड़े बांध, मिट्टी, की
उर्वरकता बढ़ाने के लिए रसायनिकों का प्रयोग कर धरती को जहरीला बनाना जैसे कृत्य
मनुष्य की मूर्खता नहीं तो और क्या है? मनुष्य अपने इन कार्यो
को पूरा करने के लिए विज्ञान का सहारा लेता है। विज्ञान व तकनीक प्रयोग से आज
ग्लोबल बार्मिंग, ओजोन परत में क्षय, कई जीवों की समाप्ति, कार्बनडाई ऑक्साइड का बढ़ता
स्तर,
अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़,
तूफान जैसी भयावह परिस्थितियाँ उभरकर सामने आ रही है। मानव
की इस प्रवृत्ति को इंगित करते हुए प्रसिद्ध उपन्यासकार संजीव लिखते हैं- "उसे जीत चाहिए। पूरे ब्रह्माण्ड पर जी। ब्रह्माण्ड का अंत है पर इस मनुष्य की
लिप्सा का कोई अंत नहीं। एक जीत के बाद उसे दूसरी जीत चाहिए। वह जितना ही सहज
और सुखी होना चाहता है उतना ही जटिल और दुःखी हो जाता है। कुछ गांठे खुलती है, कुछ और गांठे बन जाती है। जीत के लिए उसे जनशक्ति चाहिए, ऊर्जाओं का स्वामित्व चाहिए, तकनीकी चाहिए, अर्थ मनोबल और कौशल चाहिए। राष्ट्र
चाहिए ताकि उस पर अपना वर्चस्व स्थापित कर सके, धर्म
और अनुशासन का पाठ चाहिए ताकि दूसरे सिर न उठा सके, धर्म
चाहिए,
इस्केप चाहिए, पनहगाह चाहिए।"[2] ब्रह्माण्ड पर जीत कि लिप्सा से भरा मानव
भूल गया कि हमारा शरीर भी उस पंचभूत से ही निर्मित है जिस पंचभूत से ब्रह्माण्ड का
निर्माण हुआ है। ब्रह्माण्ड का क्षय स्वयं हमारा भी क्षय है। पाँच तत्व पृथ्वी, अग्नि, जल,
वायु और आकाश इन पाँच तत्वों से निर्मित हम स्वयं भी तो
ब्रह्माण्ड का ही एक अंश है। अपने लिए, जीने का अर्थ है, न जीना जमीन, आसमान, आग, हवा, पानी और प्रकाश से स्नुप्रमाणित, न पशु होना न आदमी होना दिक्काल में अपरिभाषित होना।[3] डा. केदारनाथ अग्रवाल की कविता जिस सत्य
की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है उस सत्य से पहचान ही आज के युग की सबसे बड़ी
विडम्बना है। कवि जिस स्वार्थपूर्ण जीवन की और यहाँ संकेत कर रहा है वह पशुत्व से
भी अधिक हीन है यहाँ तक कि वह अस्तित्वहीन होने के स्थिति में है। पंचभूतों को
लेकर कवि कहीं न कहीं प्रकृति के प्रति कर्तव्य का भाव बोध स्मृत कराने का प्रयास
कर रहा है। सृष्टि का प्रत्येक अणु स्वयं में स्वायत्त है परन्तु वह अपने अस्तित्व के लिए दूसरे अणु पर निर्भर है। अणु से अणु का क्षरण
ही उसका विनाश है। मानव भी तो उस विराट प्रकृति का एक अणु हैं, प्रकृति को खण्डित करके वह अपना अस्तित्व कैसे बचा पाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी
रिपोर्ट में प्रमुख प्रदूषित शहरों में 13 शहर भारत के हें। केवल वायु ही नहीं अपितु प्रकृति के पाँचों तत्त्वों को आज
मानव के लालच ने दूषित कर दिया है। इस संबंध में डॉ. जनमेजय सिंह लिखते है- "आधुनिक भौतिकवादी संस्कृति और सभ्यता के विकास ने देश की सम्पदा में वृद्धि की
है। औद्योगीकरण,
नगरीकरण, यंत्रीकरण की प्रगति के
साथ-साथ विशालकाय मिल, फैक्ट्री, कारखाने
भी स्थापित हुए। कृषि में विज्ञान का प्रवेश हुआ, वैज्ञानिक
ढंग से खेती करने के कार्य में वृद्धि हुई। इन सबने मिलकर प्राकृतिक पर्यावण को
नष्ट भ्रष्ट कर दिया।"[4] पर्यावरण संकट से जूझ रही मानव जाति अब
मजबूर है कि अपने सहजात बन्धुओं के साथ बैठ चिन्तन मनन करे और तुरन्त कुछ कदम
उठाए। इस वैश्विक समस्या को पहचानकर चिंतन मनन व क्रियात्मक कार्य करने की
प्रक्रिया का नाम ही पर्यावरण विमर्श है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ उसका
पथ प्रदर्शक भी होता है। समाज व विश्व में आसन्न इस आपदा को पहचानकार साहित्य भी
अपनी भूमिका का निर्वहन पूर्ण ईमानदारी से कर रहा है। आधुनिक हिन्दी साहित्य भी इस सम्बंध में अपनी
भूमिका अदा करते हुए कविता, निबन्ध, आलेख,
कहानी व उपन्यास आदि के माध्यम से एक विवेक सम्पन्न दृष्टि
का निर्माण करने का कार्य अनवरत कर रहा है। साहित्य में पर्यावरण विमर्श
के विषय क्षेत्र पर्यावरण में हाने वाले बदलाव के प्रभाव
का अध्ययन साहित्य की विविध विधाओं में पर्यावरण व
पर्यावरण असंतुलन का अध्ययन साहित्य के कथ्य में पर्यावरणीय चिंताओं
का अध्ययन साहित्य द्वारा सृजित पात्रों का
पर्यावरणीय विश्लेषण 21वीं
सदी के हिन्दी उपन्यासों में पर्यावरण विमर्श ”पृथ्वी प्रत्येक व्यक्ति की
जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन
किसी एक भी व्यक्ति के लालच के लिए नहीं।” बीसवी सदी के अंतिम दशक के यह मान लिया
गया है कि पृथ्वी को बचाए रखना ही नयी सदी अर्थात इक्कीसवी सदी की सबसे बड़ी चुनौती
होगी। भौतिकशास्त्री स्टीफन हाकिंग ने यहाँ तक कह दिया कि अगले सौ वर्षो में हमें
दूसरी पृथ्वी की आवश्यकता होगी। “अपने चारों ओर के परिवेश को हमने इस कदर छेड़ा है कि बात अगर पर्यावरण की उठती
है तो प्रदूषण का सवाल अपने आप ही आगे आ जाता है। हर ओर सुनी जाने वाली यह ऐसी
बेताल-पचीसी है जिसमें लाशों को ढोने वाला कोई एक विक्रम नही बल्कि हम सभी है और
सही उत्तर की प्रतीक्षा में बेताल साथ-साथ चल रहा है।”[5] समकालीन उपन्यास साहित्य इस अनुत्तरित
प्रश्न के प्रति विक्रम की तरह सचेष्ट होकर कार्य कर रहा है| ‘कलिकथा वाया बाईपास अलका सरावगी’ सर्वप्रथम हम अलका सरावगी द्वारा 1998 में लिखित ‘कलिकथा वाया बाईपास’ की बात करते है। अलका जी का प्रस्तुत उपन्यास शिल्प की नवीनता
की दृष्टि से भी काफी चर्चा में रहा था। नायक किशोर हार्ट की सर्जरी के पश्चात
मानसिक दृष्टि से असंतुलित हो जाता है। इस असंतुलित स्थिति में लेखिका नायक के
माध्यम से अपनी बात कहती है। नायक की अब तीन स्थितियाँ है अतीत, वर्तमान व भविष्य। जिसके माध्यम से लेखिका समाज व देश के अतीत, वर्तमान व भविष्य की पड़ताल करती है। प्रस्तुत उपन्यास में भूमण्डलीकरण, शहरीकरण,
बाजारवाद, पूंजीवाद के कारण होने वाले
खतरों की तरफ स्पष्ट रूप से चर्चा की गई है। "पृथ्वी को बचाने का अब एक ही
तरीका है। मशीनों के स्थान पर आदमी का श्रम ले लें और यह श्रम अधिक से अधिक
हरियाली के उत्पादन में लगे, ऐसी हरियाली जिसमें किसी
प्रकार के रसायन का प्रयोग न हो। तब पेड़-पौधो से उन्पन्न होने वाली आक्सीजन ही इस
पृथ्वी को बचा सकती है।"[6] समय की नब्ज को पहचानकर अलका जी विश्व और
देश की ज्वलंत समस्या को सटीक तरीके से उठाती है। माननीय पी वी नरसिंहा राव के
नेतृत्व में देश में उदारीकरण की शुरूआत हुई और उसी के साथ शुरू हुआ देश में
बाजारीकरण का दौर और उससे उत्पन्न अनेकानेक समस्याएँ। अलका जी केवल देश ही नहीं
अपितु औजोन परत में क्षय की वैश्विक समस्या की तरफ भी ध्यान आकर्षित करती है। जो
भी भूमण्डलीकरण नव उपनिवेश्वाद, तकनीकीकरण, बाजारीकरण की प्रवृत्ति का ही एक परिणाम है। "अब तक लोग डरते आए थे कि तीसरा विश्व युद्ध छिड़ा तो पूरी पृथ्वी नष्ट हो
जाएगी। पर वैसा कुछ नहीं घटा। जो घटा वह बिल्कुल अकल्पनीय था। जिसे एकदम अनहोनी कहते
है। अचानक संसार में प्रकृति के पांचों तत्व मिट्टी, जल, आग,
आकाश और हवा गड़बड़ा गए। अब तक वैज्ञानिक यह कहते आए थे कि
संसार का तापमान बढ़ रहा है और पृथ्वी के उपर जो खास हवा की छतरी है उसमें छेद होने
का डर है,
लेकिन हर वैज्ञानिक ऐसा समझ रहा था, ऐसा
कम से कम उसके जीते जी नहीं होगा।"[7] संकट की आसन्न स्थिति में भी हम अब भी इस
इत्मीनान में बैठे है कि आग अभी तक मेरे घर में तो नहीं आई। इस खतरनाक प्रवृत्ति
को भी लेखिका संकेतित करती है। लक्ष्मण रेखा- भगवतीशरण
मिश्र - 2008
प्रकाशन वर्ष “विशम्भर ‘क्रोमीन’ द्वारा उसके जल के प्रदूषण की बात कर रहा था। वह कैसे भूल गया कि ‘क्रोमीन’ तो
बाद में प्रदूषित करती है, इस नैनी के जल को वास्तविक
प्रदूषण तो इसे हमारी उदासीनता ही प्रदान करती है। नांलों से गिरते पानी को छोड़ भी
दे तो ‘सीजन’ के दिनों में ताल के वक्ष पर तैरती अनेक नौकाओं में आसीतन अनेक हाथों से
खाद्य सामग्रियों को वेष्टित करने वाले पोलीथीन तथा कागज और पत्तों के दोनो का ही
इतना विसर्जन इसमें नाविकों के लाख-मना करने पर भी होता है कि नैनी इस सबको गलाने
पचाने के बाद कब तक अपने अमृत-जल को गरल में परिवर्तित होने से रोक सकती हैं।” विशम्भर और गीतिका के बीच के सम्वादों के
माध्यम से लेखक पहाड़ी क्षेत्र नैनीताल की झील के प्रदूषित होने की बात कहती है।
सीधी सपाट शब्दावली में पानी के कारणों को गिनाता है। नदियों में, झीलों में निरन्तर अवशिष्ट पदार्थो को फेकना, मृत
जानवरों व लाशों को फेकना, धुआँ उगलते कारखानों, गंदे नालो का झीलों में गिरना, पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई से
विगलित हो लेखक कह उठता है- “कोई लक्ष्मण रेखा खींचोगे कि नहीं जो प्रकृति के साथ तुम्हारे इस विवेकहीन
व्यवहार पर अंकुश दे।”[8] जिस मर्यादा या सीमा रेखा की बात लेखक उठाता है वह अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है। इतिहास गवाह है कि जब-जब मर्यादाओं का उल्लंघन हुआ है तब-तब विनाश की स्थिति अवश्य उत्पन्न हुई है। धर्म भी उसी की रक्षा करता है जो उसकी रक्ष करता है। स्वयं की सुरक्षा के लिए बनी मर्यादा हमारा धर्म है हम स्वयं भी उस धर्म या मर्यादा या लक्ष्मण रेखा का पालन नहीं करेंगे तो स्वयं क्या हम सुरक्षित पाएंगे? यह विवेक को जगाने वाला प्रश्न लक्ष्मण रेखा में प्रकट होता है। मरंग गोडा नीलकण्ठ हुआ - महुआ
माझी - प्रकाशन वर्ष 2012 “ततंग उसे पत्थरों का डाक्टर बनाना चाहते थे यह उन दिनों की बात है जब मरंग
गोडा में सभी के हाथ पाँव बिल्कुल सही सलामत थे, किसी
का सिर असमान्य रूप से बड़ा या छोटा नहीं दिखता था, किसी
की देह घिनौने घावों से बजबजाती नहीं थी, केन्दुफल के बीज न तो
टेढ़े हुआ करते थे और न ही गायब, गाय
बकरियों के जबड़े, दांत या मसूड़े सड़गलकर
गिरते नहीं थे| आसन्न तूफान या बारिश की जानकारी देने के
लिए लिपी जैसे लाल मटमैले पक्षी गाँव, जंगल या टोला में हर
वक्त मौतायन रहते।”[9] विकास के नाम पर मानव के वीभत्स ह्रास का
सत्य दस्तावेज है ‘मरंग गोडा नीकण्ड हुआ’ उपन्यास। जमदेशपुर से तीस चालीस किमी दूर स्थित जादूगोडा
नामक वह कस्बा है जहाँ 1967 में यूरेनियम के खनन से
पन्द्रह गाँवों के तीस हजार से अधिक लोग
विकिरण प्रभावित हुए है। और हो रह है। वर्षों की रिसर्च के बाद लेखिका ने संवेदना
के साथ तथ्यों को जोड़कर इस सच्चाई को शब्दांकित किया है। महुआ माझी ने बताया है कि
युरेनियम की खदानों से निकली पीली धूल वहां के लोगों को, जीवों
को,
प्रकृति को बीमार और पंगु बना रही है। यहाँ विचित्र
बच्चों का जन्म हो रहा है किसी का सिर असामान्य रूप से बड़ा है किसी का
छोटा। गाय बकरियों के सिर मसूडे दांत सड़कर गिरने लगे है। फल बीज रहित है, तो मछलियाँ असामान्य आकृति की। विकास के नाम पर इस स्थान का दोहन जीव जगत के
लिए अभिशाप है। नीलकण्ठ शिव को कहा जाता है। शिव ने
समुद्र मंथन के दौरान उत्पन्न विष का पान किया, इसलिए
वे नीलकण्ठ कहलाए। मरंग गोडा स्थान भी आज पूरे देश के विकास के नाम पर इस खतरनाक
विष को पीने के लिए मजबूर है। शिव परम आत्मा है परन्तु मनुष्य की सीमा है वह इस
विष को सहन करने में सक्षम नहीं है। परमाणु संयत्रों में एक हजार मेगावाट बिजली
पैदा करने पर करीब सत्ताईस किलोग्राम रेडियोधर्मी कचरा उत्पन्न होता है जिसे
निष्क्रिय करने के लिए एक लाख वर्ष से भी अधिक का वक्त लग सकता है| इसके साथ ही यूरेनियम अणुओं में जो टुकड़े टूट-टूट कर गिरते
रहते है उसमे से ऊर्जा निकलती रहती है| इस टूटने की प्रक्रिया को रेडियो एक्टिविटी कहते है। जो अनेक बीमारियों व
विकलांगता का कारण बनती है। आदिवासी क्षेत्र के भोले भाले निवासियों
को विकास के नाम पर इस प्रकार ठगा जाना सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए विचारणीय तथ्य
है जिसे महुआ माझी सशक्त तरीके से सम्प्रेषित करती है। मीठी नीम - कुसुम कुमार
प्रकाशन वर्ष-2011 एक बात कसम खाकर कहती हूँ “मैं जहाँ रहूँगी, वृक्षों की रक्षा करूँगी।” उपन्यास की प्रमुख पात्र ओमना अशिक्षित है
परन्तु इसके बावजूद प्रकृति व पेड़ से उसका प्रेम हम सब के लिए प्रेरणा बनता है।
ओमना का वृक्षों के प्रति प्रेम इतना अधिक है कि वह उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती यहाँ तक कि अपने
बच्चों के साथ भी वह नहीं जाती। प्रस्तुत उपन्यास का आकार वृहद है। इस वृहद आकार
के भीतर यह बाहरी और भीतरी दोनों पर्यावरण का वर्णन प्रस्तुत करता चलता है। कहीं न
कहीं वृक्षों के प्रति प्रेम उजागर करने का संदेश, प्रस्तुत
उपन्यास में दिया गया है। कुइयाँ जान- नासिरा शर्मा
प्रकाशन वर्ष-2005 “आधुनिक टेक्नोलोजी में मनुष्य ने उस मूल स्रोत को आदिम करार दे दिया है और अपनी मशीनी ताकत के बल
पर प्रकृति के इस अक्षर स्रोत जल से खिलवाड़ कर रहा है। जिसका परिणाम यह है कि
अपार जल सम्पदा होते हुए भी हम आज प्यासे तड़पने को विवश हो रहे है। विशेषज्ञों ने लाख
चेतावनी दी है कि जिस तरह आज हम इस प्राकृतिक वरदान जल सम्पदा को नष्ट कर रहे है, उसके कारण वह दिन दूर नहीं जब पानी को लेकर विश्व एक और महायुद्ध की दहलीज पर
खड़ा होगा।‘’[10] नासिरा शर्मा द्वारा लिखित ‘कुइयाँजान’ उपन्यास
उनके अनुभव की गहनता, गहरी जीवन दृष्टि और मानवीय संवेदनाओं की
गहन अनुभूति का परिणाम है। विश्व की प्रमुख समस्या के रूप में उभरकर ‘जल समस्या’ मानव
के अस्तित्व के लिए ही संकट उत्पन्न कर रही है। लेखिका इसका संकेत उपन्यास की
भूमिका में ही करा देती है। पृथ्वी का बढ़ता तापमान, अनियन्त्रित,असंतुलित पर्यावरण
भविष्य में होने वाले जल की भीषण कमी की ओर आगाह कर रहा है। पृथ्वी का 75 प्रतिशत हिस्सा जल से आच्छादित है परन्तु इस जल का केवल 0.6 प्रतिशत भाग ही मृदु जल के रूप में उपलब्ध है। ‘कुइयाँजान’ उपन्यास का आधार आसन्न जल की समस्या ही
है। लेखिका जल संकट को आम जन जीवन के नित्य प्रति कार्यो जन्म, मृत्यु,
विवाह इत्यादि से जोड़कर इस रूप में प्रस्तुत करती है कि
पाठक को स्वयं अपने अनुभव लगते है। विश्व की यह समस्या हमारे देश की भी है।
भारत में भी विशेष रूप से राजस्थान को कथा का आधार बनाया है। बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर,
नागौर, चुरू जैसे ज़िलों के नागरिक अपने दैनिक जीवन में इन अभावों से
रूबरू होते ही है। कुइयांजान नासिरा जी का एक सशक्त उपन्यास
है। मनुष्य के जीवन का अस्तित्व प्रकृति के साथ जुड़ा है। प्रकृति मुक्त हस्त से, बिना भेदभाव के अपनी संतानों को सबकुछ देती है। परन्तु लालची मनुष्य सोने के
अण्डे देने वाली मुर्गी को ही मार डालना चाहता है। पानी की किल्लत के कारण मची हाय तौबा का
जिक्र उपन्यास में कुछ दस तरह किया गया है - “मुहल्ले के कुएँ बरसों पहले
कूड़े से पाट दिए गए थे। एक दो घरों में हैडपम्प थे, जो
खराब पड़े थे। मस्जिद वाली गली से मिली अन्दर वाली गली थी। वहाँ पक्के बड़े-बड़े घर
थे। उनके यहाँ भी पानी की हाय तौबा मची थी। शिव मन्दिर के पुजारी भी बिना नहाए
परेशान बैठे थे। उन्होनें न मंदिर धोया था, न
भगवान को भोग लगाया था। उनके सारे गगरे-लोटे खाली लुढ़के पड़े थे। नल की टोंटी पर कई
बार कौआ पानी की तलाश में आकर बैठ, उड़ चुका था।”[11] लेखिका अपनी बात का आधार कुईं को बनाती है
जो कुएँ का छोटा रूप होता है और विशेष रूप से राजस्थान जैसे प्रदेशों में ही मिलती
है। राजस्थान में पानी के इस विशेष शास्त्र को लेखिका विस्तार से व आत्मीयता से
वर्णित करती है इसलिए वह कुई को कुईयांजान नाम देकर अपनों के बीच का जीवित
अस्तित्व उसे प्रदान करती है। “कुईयाँ अर्थात वह जल स्त्रोत
जो मनुष्य की प्यास आदिम युग से ही बुझाता आया है। जो शायद जिजीविषा की पुकार पर
मानव की पहली खोज थी।” लेखिका जल की समस्या पर विदेशी आधिपात्य
के संकट को शिवनाथ नदी के उदाहरण के
माध्यम से स्पष्ट करती है कि किस प्रकार बतीसगढ़ में शिवनाथ नदी के निजीकरण के
पश्चात वहाँ के ठेकेदारों ने स्थानीय लोगों को पानी लेने पर रोक लगा दी है। लेखिका उपन्यास के माध्यम से जल की
प्राप्ति व उसके उपयोग में कुईयों जैसी धैर्यता हासिल करने का संकेत देती है साथ ही विदेशी हस्तक्षेप के प्रति सचेत भी करती हे। रेखना मेरी जान- रत्नेश्वर
सिंह - 2017 रत्नेश्वर सिंह बिहार के चर्चित लेखक है
अपने उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ के माध्यम से पर्यावरण विमर्श की
प्रमुख समस्या ग्लोबल वार्मिंग का तथ्य परक विश्लेषण प्रस्तुत करते है। “पृथ्वी पर नौ विशिष्ट सीमा
रेखाओं को चिन्हित किया गया है, जिनमें हमें हस्तक्षेप से
बचने की सलाह दी गई थी। पर हमने तीन सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण पहले ही शुरू कर दिया
है। वे है जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और भूमण्डलीय
नाइट्रोजन चक्र।” मनुष्य के दुस्साहस का परिणाम है ग्लोबल
वार्मिग जिससे ग्लेशियर पिघल रहे है। कहीं अतिवृष्टि और कहीं सूखे का खतरा उपस्थित
हो गया है। आज मुम्बई, पेरिस, लन्दन, मालद्वीप हॉलैंड, बंगलादेश जैसे कई तटीय प्रदेश जल मग्न
होने की चेतावनी को अपनाने के लिए मजबूर
है। बंगलादेश की पृष्ठभूमि पर लिखा गया
प्रस्तुत उपन्यास ग्लोबल वार्मिंग से भविष्य में डूबने वाली धरती का
साक्षात्कार मनु पुत्रों को करवाता है।
विश्वव्यापी इस समस्या की भयावहता को लेखक तथ्यपरक ढ़ंग से हमारे सामने रखता है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ शब्द आज हमारे लिए
अपरिचित नहीं है परन्तु तथ्यपरकता व रोचकता के साथ इस विषय को उठाने व पाठक के
विवेक को जाग्रत करने के कारण ‘रेखना
मेरी जान’ का महत्व स्वयंसिद्ध है। प्रस्तुत उपन्यास में अंटार्कटिका की बर्फ
के पिघलने व पर्वतों के खिसकने से उन्पन्न भयानक तूफान का वर्णन है। तूफान बारिसोल
शहर तक पहुँच चुका है। जहाँ उपन्यास की नायिका व उसका परिवार है। तूफान से बचने के
लिए जिस जल थल का उपयोग किया जाता है वह मानव की वैज्ञानिक खोज व दम्भ का
प्रतीक है परन्तु प्रकृति के समक्ष मानव का यह दम्भ खण्डित हो जाता है। विज्ञान
प्रकृति के समक्ष बौना साबित होता है। ‘प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब थे भूले मद में’[12] भविष्य की कल्पना के बिम्ब द्वारा लेखक
हमारी संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास करता है। एक लड़की पानी-पानी -
रत्नेश्वर सिंह - 2019 “थोड़ा ही खोदने पर उसकी उँगलियाँ गीली होने लगी थी। उसे लगा कि बस, अब वह पानी के बिल्कुल करीब है। उस चिलचिलाती धूप में उसका कण्ठ सूख रहा था।
जल की-महीन पानी की बूँदें उसके ललाट पर भी पसीज आई थी। हाँफती हुई पार्वती सूखे
कण्ठ को थोड़ा गीला करने के लिए चमकती हुई आँखों से अपनी उँगलियाँ चाटने लगी थी।
नमकीन लगा था उसे। अजीब सा मुँह बनाते हुए वह अपनी अँगलियाँ देखने लगी थी। उसकी
उँगलियाँ बालू से रगड़ खाकर छिल गई थी और उससे खून रिस रहा था।”[13] सूखे के वे भयावह वर्ष जिन्हे भारत झेल
चुका है उसे दिखाती एक फिल्म ‘इण्डिया
1869’
के साथ उपन्यास की शुरूआत होती है। अतीत के साथ ही साथ उपन्यास में ‘साफ्स कालेज’ व हॉस्टल
के माध्यम से भविष्य की बात कही गई है। जहाँ पानी के रिसर्च व डेवलमेण्ट की पढ़ाई
होती है। इस हॉस्टल में प्रत्येक छात्रा को प्रतिदिन 20
लीटर पानी ही मिलता है वह भी एटीएम मशीन के द्वारा। दो विश्व युद्धो की भीषणता व भयावहता को
सहन कर चुकी मानवता इस भविष्यवाणी से भयाक्रांत है कि तीसरा युद्ध जब कभी होगा तो
वह पानी के लिए होगा और आज जैसे यह भविष्यवाणी सच
होने की सीमा तक पहुँच चुकी है| पृथ्वी के जल भंडार सूखते जा रहे है ग्राउण्ड वाटर का स्तर
निरन्तर गिरता जा रहा है। पृथ्वी की सूख चुकी छाती से मशीनों के बल पर जल की अंतिम
बूंद को प्राप्त करने की होड़ इस भयावहता की ओर बढ़ा रही है अकाल की विभीषिका के
दृश्यों को पृथ्वी के दिखाती फिल्म के दृश्यों के साथ कथा की शुरूआत होती है। अपनी संतान को जीवित रखने के लिए उसके
कण्ठ में पानी की बूंद डालने के लिए एक माँ का अपनी उँगली काट संतान के मुख में
रखने जैसे दृश्य देख छात्राएँ सिहर उठती है। छात्राओं को भी एटीएम मशीन के द्वारा
सीमित पानी ही मिलता है। पानी की राशनिंग मशीन, पानी
की गेंद,
पानी के पाउच जैसे शब्द पाठक को चिंतित करते है। एक लड़की ‘श्री’ को केन्द्र में रखकर लेखक इस समस्या के
समाधान की तरफ संकेत भी देता है। नादान नदीला प्रोजेक्ट और श्रीस्त्र मंत्र आज
शायद काल्पनिक लगे। परन्तु लेखक इसके माध्यम से राह दिखाने का प्रयास करता है। कुल
मिलाकर जल जैसे अत्यावश्यक तत्व की मनुष्य जीवन में क्या अहमियत है? इस प्रश्न को अतीत, वर्तमान व भविष्य के माध्यम
से लेखक उठाता है। रह गई दिशाएँ इसी पर - संजीव “पूरा देश बैठा है बेचने। क्या बेच रहे है लोग? ....................... लोग हथेलियों पर रखकर अपना माल दिखा रहे
हैं ................ ये देखो, ये
डिम्ब,
ये वीर्य, ये कोख, ये ............. सब बेच रहे हैं खुद को
झेंपने की जरूरत नहीं। शील अश्लील मूल्य, संस्कार की सारी
रेखाएं मिट गई हैं। ......... यहाँ न पूरब है, न
पश्चिम,
न उत्तर, न दक्षिण, न ऊपर न नीचे, न कोई रिश्ता, न
कोई संस्कार .......... स्वयं में समाहित है यह ब्रांड, मैं भी। ................... किसी का कोई केन्द्र नहीं, मेरा भी नहीं । मैं स्वयं अपने आप का केन्द्र हूँ।”[14] विज्ञान प्रौद्योगिकी के साथ मिथ का सहारा
लेकर रचा गया प्रस्तुत उपन्यास मानव की बढ़ती अमर्यादित आकांक्षाओं का प्रस्तुतिकरण
है। जीवन और उसकी उत्पत्ति के रहस्य जो प्रकृति ने अपने भीतर छिपाए रखे है उन
रहस्यों की थाह पाने की मनुष्य की नाकाम कोशिश का प्रस्तुतिकरण है। लेखक अपने कथ्य
का आधार बनाता है एक टेस्ट ट्यूब के साथ ही दो मानव गर्भों में पलने से हुआ है।
अस्वाभाविक जन्म उसके अस्वाभाविक व्यक्तित्व में भी झलकता है। वह कृत्रिम गर्भाधान
से जुड़ी समस्त गुत्थियों को सुलझाने के पीछे उन्मादी है। जिम का म्यूजियम उसकी सोच
का प्रतिरूप है जहाँ चित्रों की मृण्मयी अनुकृतियाँ है। मछली की देह पर हाथी का
मस्तक,
मुर्गे पर बैल का सिर, मच्छर
पर जिराफ की गर्दन। संकर नस्ले, उभयलिंगी प्राणी, भेड़ की क्लोनिंग डाॅली, गुणसूत्रों की सीढ़ियाँ, ब्लैक होल्स आदि सभी कुछ इस प्रयोगशाला में है जो जिम की उन्मादकता का
प्रतिरूप है। जिम की तरह ही पीटर का जन्म भी अस्वभाविक
गर्भाधान से हुआ है। माता द्वारा स्पर्म बैंक से स्पर्म लेकर जन्म प्राप्त करने
वाला पीटर माँ की मृत्यु के बाद अपने अनदेखे पिता की खोज में बैचेन है। “सिर्फ एक सवाल उसने मुझे जन्म
क्यों दिया?
माना कि स्पर्म बैंक में स्पर्म देकर वह निवृत्त हो गया, जैसे पेशाब,
पखाना किया, फ्लश किया निवृत्त हो गया
...............”[15] यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या
बस यही है एक मनुष्य के जन्म लेने की यात्रा। क्या उस बच्चे के प्रति स्पर्मदाता
का कोई उत्तदायित्व नहीं रह जाता।” विज्ञान
के अतिशय प्रयोग के ये उदाहरण जिन विवेकहीन भावना शून्य, जीवों
का जन्म दे रहे है क्या वे सभी अपने रचयिता के साथ भावनात्मक सम्बल की अनुभूति कर
पाएँगे। यह भावनात्मक विखण्डन कहीं न कहीं उसे स्वयं अपने रचयिता से तो विच्छेदित
कर ही रहा है। विखंडित मानव प्रक्रति के पंचभूतोंके सामंजस्य में हस्तक्षेप की
मूर्खता भी कर रहा है| वह सम्पूर्ण प्रक्रिया को वैज्ञानिक क्रिया के रूप
में ही देखता है जीवन की रिन्तरता के रूप में नहीं। “आस्था हीन होकर हम कैसे रह
सकते है?
रिश्ते न भी हो तो भी हमें ईजाद कर लेने होगें ...... ईश्वर
न भी हो तो ईश्वर भी।” विज्ञान व प्रौद्योगिकी के प्रति मनुष्य का अति दंभ प्रकृति के समक्ष औन्धे मुंह गिरा है| नए नए प्रयोगों की निर्थकता, विफलता की तरफ भी उपन्यास पाठक को आकर्षित करता है और यह निर्णय उभरकर सामने आता है कि ‘’एक सम्पूर्ण इन्सान होने के लिए आदमी में डर, शर्म, चोरी, झूठ, ईर्ष्या, लोभ, द्वेष, विकार, और कुंठाओ का होना जरुरी है | माने सम्यक भय, सम्यक शर्म, सम्यक मिथ्या वगैरह वगैरह|’’[16] |
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निष्कर्ष |
मनुष्य की बेलगाम होती सोच को कुछ पल ठहरकर सोचने की आवश्यकता को दिशा देने वाला प्रस्तुत उपन्यास गहरी सोच व् शोध का परिणाम है | इन कुछ उपन्यासों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हिंदी उपन्यास साहित्य पर्यावरण की समस्या को लेकर सचेष्ट है |वह अतीत को देख रहा है वर्तमान को भोग रहा है भविष्य के प्रति आक्रांत है, उपन्यास तो केवल एक झलक है इनके अतिरिक्त भी कई औरउपन्यास लेखकों की सचेत लेखनी से अस्तित्त्व में आये है| ये उपन्यास न केवल वर्तमान की परिस्थितियों से सचेत करते है अपितु भविष्य के प्रति चेतावनी भी देते है | |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. मनीष कुमार कुर्रे (शोध आलेख) साहित्य कुंज अंक 156 सहायक ग्रंथ
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