P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VIII April  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
धर्म एवं रीलिजनः एक विमर्श
Religion: A Discussion
Paper Id :  17859   Submission Date :  19/04/2023   Acceptance Date :  22/04/2023   Publication Date :  25/04/2023
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बृजभूषण
एसोसिएट प्रोफेसर
समाजशास्त्र
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
कांधला,शामली, उत्तर प्रदेश,भारत
सारांश रीलिजन पश्चिमी जगत की शब्दावली है जो ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी तथा पारसी पर तो फिट बैठती है परन्तु भारत के लोगों के धर्म तथा भारत के बाहर कन्फ्यूसियस/ताओइज्म तथा अन्य पूर्वी समाजों की धारणाओं के सुसंगत नहीं है। रीलिजन की तरह धर्म की कोई एक सर्वमान्य पुस्तक, एक मसीहा, एक पूजा पद्धति तथा एक केन्द्रित सत्ता नहीं होती है। इन वास्तविकताओं की अनदेखी कर पश्चिमी जगत के बुद्धिजीवियों ने हिन्दू, हिन्दूज्म को रीलिजन बताने के भरसक बौद्धिक प्रयास किये। जबकि हिन्दूओं की धारणा ‘‘धर्म’’ है, जो विभिन्नताओं में एकता तथा उदारवादी विशेषताओं से युक्त है जिसे सनातन कहा जाता है इसका अंग्रेजी में समानार्थी है ‘‘Timeless’’(अर्थात् जिसे समय की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता)। सनातन को रिलिजन के रूप में अनुवादित कर भ्रम की स्थिति पैदा की है। हिन्दुओं को कभी पता ही नहीं था कि वे हिन्दू है उनको यह नाम भौगोलिक पहचान के आधार पर उसी पश्चिमी जगत ने दिया, आश्चर्य की बात देखिए कि वे इस नाम से खुश है तथा कोई आपत्ति नहीं जताते है। रीलिजन विश्वास करने वालों तथा विश्वास न करने वालों के मध्य गहरा विभाजन पैदा करता है, यहाँ तक कि नास्तिकों के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है। जबकि धर्म के अनुसार सत्य की अनुभूति केवल पुस्तक पढ़ने से नहीं हो सकती है। पुस्तकें केवल मागदर्शक हो सकती है। सत्य की अनुभूति किसी साधक को स्वयं के प्रयास से करनी होती है। धर्म समावेशी है। धार्मिक मान्यता है कि विश्व के प्रत्येक समुदाय ने महान स्त्री व पुरूष पैदा किये है जिन्होंने सत्य की अनुभूति की है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘‘एकम्सद् विप्रः बहुदाः वदन्ति’’ जबकि सत्य एक ही है जिसे विद्वान अनेक रूपों में व्यक्त करते है। धर्म, रीलिजन की तरह अलग रीलिजियस पहचान की वकालत नहीं करता वरन् मूल रूप में ऐसी पहचान का विरोध करता है तथा इसे झूठा प्रचार तन्त्र मानता है। रीलिजन एवं विज्ञान दोनों एक दूसरे के विरोधी। धर्म विज्ञान का विरोधी नहीं है। धर्म की संकल्पना में ज्ञान को दो श्रेणियों में बांटा जाता है - (1) पराविद्या (आध्यत्मिक ज्ञान) (2) अपराविद्या (द्रव्य ज्ञान)।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Religion is a Western term that fits Christianity, Islam, Judaism and Zoroastrianism but is not compatible with the religion of the people of India and the concepts of Confucius/Taoism and other Eastern societies outside India. Religion does not have a universal book, a messiah, a system of worship and a central authority. Ignoring these realities, the intellectuals of the western world tried their best to describe Hinduism as a religion. Whereas the concept of Hindus is "Dharma", which is characterized by unity in diversity and moderate characteristics, which is called Sanatan, its equivalent in English is "Timeless". Confusion has been created by translating Sanatan as Religion. Hindus never knew that they are Hindus, this name was given to them by the same western world on the basis of geographical identity, see the surprising thing that they are happy with this name and do not raise any objection. Religion creates a deep division between those who believe and those who do not believe, even atheists have no place in it. While according to religion, the realization of truth cannot be done only by reading a book. Books can only be guides. A seeker has to realize the truth through his own efforts. Religion is inclusive. It is a religious belief that every community of the world has produced great men and women who have realized the truth. It is said in Rigveda that “Ekamsad Viprah Bahudah Vadanti” while the truth is one which is expressed by scholars in many forms. Religion does not advocate a separate religious identity like religion, but basically opposes such identity and considers it a false propaganda system. Religion and science are opposite to each other. Religion is not opposed to science. In the concept of Dharma, knowledge is divided into two categories – (1) Paravidya (spiritual knowledge) (2) Aparavidya (material knowledge).
मुख्य शब्द धर्म, रीलिजन, सामान्य धर्म, विशिष्ट धर्म, आपद धर्म, अन्तिम निष्कर्षवादी, असमावेशी, प्रथकतावादी, अदृश्यसत्ता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Religion, General Religion, Special Religion, Emergency Religion, Ultimate Conclusionist, Non-inclusive, Separatist, Invisible Authority.
प्रस्तावना
धर्म एवं रीलिजन दो अलग-अलग अवधारणाएँ है परन्तु समकालीन समाज इन दोनों अवधारणाओं के अन्तर को समझने में असफल रहा है। परिणामस्वरूप समाज सदियों से अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है। भाषागत् दृष्टि से भी धर्म को रीलिजन के समकक्ष मानकर एक अन्याय पूर्ण गलती की है। रीलिजन (संगठित) रहस्यमयी सत्ता/सत्ताओं में विश्वासों की व्यवस्था है जो एक पवित्र पुस्तक तथा एक मसीहा (प्रोफेट) की मान्यता पर आधारित है। इन मान्यताओं की सीमाओं से बाहर जो भी है वह गैर रीलिजयस तथा पाप माना जाता है। रीलिजन में यह विश्वास किया जाता है कि मसीहा के शब्द ही कल्याणकारी है। जो इन शब्दों में विश्वास नहीं करता वह कल्याण का हकदार नहीं है। इस तरह संगठित रीलिजन विश्वासी तथा अविश्वासी के बीच विभाजनकारी, कष्टदायी, असहिष्णुता तथा अन्याय को बढ़ावा देता है। सदियों से यह मानवीय सभ्यता के इतिहास में एक विभाजनकारी शक्ति के रूप में कार्यरत है। दूसरी ओर दृष्टि डाले तो पायेंगे कि ‘‘धर्म की अवधारणा’’ भारतीय संस्कृति (जो विश्व की एकमात्र प्राचीनतम् जीवित संस्कृति है) का मूल तत्व है। धर्म कभी भी बाँटता नहीं वरन् जोड़ता है। यह विभाजकारी हो ही नहीं सकता। धर्म की धारणा के अन्तर्गत प्रत्येक तर्क-वितर्क जायज़ तथा स्वागत योग्य होता है। ब्रह्माण्ड की कोई भी सत्ता ऐसी नहीं जिस पर प्रश्न नहीं पूछा जा सकता। प्रत्येक प्रश्न स्वागत योग्य है। धर्म में विमर्श की स्वतंत्रता है क्योंकि सत्य की तरह यह अनन्त है। ‘धर्म’ जो विमर्श की असीमित स्वतत्रंता प्रदान करता है, यह भारत अथवा पूर्वी विश्व की अवधारणा है। रीलिजन पश्चिमी जगत अथवा यूरोप की अवधारणा है। पश्चिमी जगत का विमर्श रीलिजन की धारणा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है जो धर्म को भी रीलिजन के समकक्ष मान बैठा है और दुर्भाग्यवश विश्वभर ने इसे स्वीकार भी कर लिया है। यही नहीं ‘‘धर्म की अवधारणा’’ का स्थापितकर्ता राष्ट्र भारत (जो शताब्दियों की गुलामी झेल चुका) भी इसी भ्रमपूर्ण स्थिति का सामना कर रहा है। 16वीं व 17वीं शताब्दी में यूरोप में चर्च एवं राज्य के मध्य रीलियस संघर्ष ने ‘‘सेक्यूलराइजेसन’’ की नयी अवधारणा को जन्म दिया। जिसे वामपंथी विचारधारा ने रीजिलन की दासता से बच निकलने वे मार्ग के रूप में स्वीकारा, तो कुछ ने इसे रीलिजन एवं राज्य के टकराव को टालने का साधन माना। स्वतंत्रता, स्वायतता, व्यक्तिगत पहचान इत्यादि ये सभी इसी संघर्ष के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई धारणएँ है। विज्ञानवाद के उद्भव एवं विकास के साथ-साथ रीलिजियस पहचान, आश्चर्यजनक ढ़ग से, और अधिक निखरती चली गयी जिसने आधुनिक समाज में असहिष्णुता की समस्या को और भी गम्भीर बना दिया है। पश्चिमी राष्ट्रों के प्रभुत्व के कारण आधुनिकतावाद की धारणा इसके साथ जुड गयी है जिसने गैर पश्चिमी राष्ट्रों में एक गुलामी की मानसिकता को जन्म दिया है, कि ‘‘हम उनसे पिछड़े है तथा पश्चिमी शिक्षा पद्धति के सहारे ही हम उनकी बराबरी कर सकते है’’। वहीं पश्चिमी शिक्षा पद्धति जो रीलिजन को धर्म के समकक्ष स्वीकारती है। परिणाम यह हुआ है कि हम पश्चिमी जगत की शब्दावलियों तथा अवधारणाओं के आदतन बन गये है, यह सोचे-समझे बिना कि हमारी भी अपनी कुछ सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित अवधारणाएँ है जो उनसे बेहतर व तार्किक है। इसलिए पश्चिमी विमर्श द्वारा बनायी गयी स्ट्रेट जैकेट में ही अपने आप को फिट बैठाने का प्रयास किया है। जिसका परिणाम हम देख रहे है कि भारत व गैर पश्चिमी राष्ट्रों में वैचारिक संघर्ष भटकाव, अराजकता तथा विभाजन के रूप में। हम आज भी सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक गलती कर रहे है कि रीलिजन की अति संकीर्णताओं की अनदेखी कर धर्म की व्यापक अवधारणा को समझने व अपनाने का प्रयास नहीं कर रहे है। धर्म की धारणा जो हमें विमर्श की स्वतंत्रता प्रदान करती है तथा असीमित प्रश्न उठाने का आग्रह एवं प्रोत्साहित करती है बावजूद इसके फिर भी हम पश्चिमी जगत की स्ट्रेट जैकेट में ही अपने आप को फिट बैठाना चाहते है। यहीं नहीं धर्म की व्यापक अवधारणा को भी अपनी वैचारिक आदत के अनुरूप उसी जैकेट में तोड़-मरोड़ कर फिट बैठाना चाहते है। आइये, हम अपनी इस आदत के विपरीत धर्म की व्यापक अवधारणा को समझने का प्रयास करते है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत पेपर भारतीय विमर्श परम्परा के केन्द्रित तत्व ‘‘धर्म’’ की गहनता एवं व्यापकता को समझने व समझाने के प्रयास के साथ-साथ पश्चिमी विमर्श की ‘‘रीलिजन की अवधारणा’’ का एक तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास है।
साहित्यावलोकन

सामान्य जन एवं बुद्धिजीवी एक ओर जहाँ संगठित रीलिजन की संकीर्णताओं की अनदेखी कर धर्म की व्यापकता को समझ नहीं पाये, वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों का यह सतत प्रयास रहा है कि विश्व भर का जन-जन यह समझे कि ‘‘धर्म की धारणा’’ रीलिजन के समकक्ष नहीं है। प्रथमा बनर्जी (2019) ने अपने लेख में लिखा कि भारत धर्म की भूमि है, परन्तु यूरोपियन ने इसे हिन्दूवाद, इस्लाम, कन्पन्यूशियस इत्यादि तक सीमित कर दिया है। यूरोपियन ने धर्म को क्रिश्चिनीटी के सीमित दायरे तक समझने का प्रयास किया है और हम भारतीयों ने इसे स्वीकार भी कर लिया है। धर्म तथा रीलिजन समकक्ष नहीं है। धर्म का सीधा अर्थ है कर्तव्य, अंहिसा व दया। व्यक्ति के रूप में यह पूर्वजों के प्रति, देवों के प्रति, शिक्षक के प्रति कर्तव्य है। 7वीं इन्टरनेशनल धर्म-धम्म, काॅन्फ्रेंस, भोपाल में माननीय राष्ट्रपति, भारत सरकार श्रीमती द्रोपदी मुर्मु (2023) ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि धर्म-धम्म भारतीय अवधारणा की मूल ध्वनि है। यह हमारी समावेशी परम्परा है जो सम्पूर्ण मानवता का आधार स्तम्भ है, यह पूर्वी विश्व का मानववाद है जिसमें व्यक्ति एवं समाज का मत्रैई विकास, अंहिसा, घृणा व अलगाव में मुक्ति है। नैतिकता आधारित सामाजिक व्यवस्था तथा व्यक्तिगत व्यवहार, यही पूर्वी मानववाद का स्वरूप है। धर्म-धम्म व्यक्ति का कर्तव्य समझा जाता है जिससे व्यवस्था में स्थितरा हो तथा नैतिकता से परिपूर्ण हो। ‘‘सर्वभवन्तु सुखिनः’’ की भावना से ओत-प्रोत जो है वही पूर्व का मानववाद है। हमारी इच्छा है कि सम्पूर्ण विश्व इसका लाभ उठाये क्योंकि संकटग्रस्त विश्व को इसकी आवश्यकता है। धर्म-धम्म विभिन्न विश्वासों के व्यक्तियों तथा समुदायों के मध्य समरसता स्थापित करने का साधन है। धर्म-धम्म की अवधारणा का प्रभाव स्वतन्त्रता के पश्चात हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं पर भी पड़ा है। धर्म-धम्म मानवता के कल्याण की एक वैश्विक अपील है। इसी अन्र्तराष्ट्रीय संगोष्ठी ने मध्य प्रदेश सरकार के तत्कालीन गर्वनर श्री मंगू भाई पटेल (2023) ने अपने उद्दबोधन में कहा कि भारतीय दर्शन का निचैड़ है कि हम सभी एक ब्रह्माण्ड की ईकाई है तथा यह विश्व हमारी साझी विरासत है। यदि विश्व को आज आतंकवाद, साम्राज्यवाद, जलवायु परिवर्तन जैसी मानव जनित समस्याओं से बचना है तो धर्म-धम्म की धारणा प्रासंगिक हो जाती है। बुद्ध का दर्शन ही हिंसा तथा युद्ध का समाधान है। इसी संगोष्ठी में रामजन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के ट्रेजरार, स्वामी गोविन्द देव गिरी महाराज (2023) में अपने सम्बोधन में कहा कि भारत प्रकाश, ज्ञान व सीखने की भूमि है। हमने कभी भी किसी पर आक्रमण नहीं किये। हम सभी के विश्वासों व विचारों का स्वागत करते है। धर्म या धम्म विश्व का केन्द्रित तत्व है जो मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। गार्गी यादव (2021) अपने आलोचनात्मक अध्ययन के लेख में धर्म तथा न्याय को अन्र्तसम्बन्धित करने का प्रयास करती है तथा बताती है कि कैसे धर्म की धारणा से कानून स्थापित हुए है। आई॰आई॰टी॰ गांधीनगर के विजिटिंग प्रोफेसर श्री माइकेल दानिनो (2018) ने ‘‘क्या भारत सेक्यूलर राष्ट्र है?’’ विषय पर अपने लेक्चर में कहा कि संस्कृत भाषा का शब्द धर्मअंग्रेजी के रीलिजन से बिल्कुल भिन्न है। परन्तु हिन्दी में इसे रीलिजन के समकक्ष माना जाने लगा है, यह इस शब्द और अवधारणा के साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ है। धर्म को गाॅड/गाॅडस में विश्वासों की आवश्यकता नहीं जिस प्रकार रीलिजन में है। रीलिजन एक पश्चिमी अवधारणा है। रीलिजन और हिन्दूइज्म दोनों ही भारतीय अवधारणाएँ नहीं है। यह वास्तव में स्नातन धर्म है जो ब्रह्माण्ड का दिव्य नियम (eternal law) है जिसे रीलिजन की तरह किसी निश्चित प्रारूपीय ढांचे में नहीं बांधा जा सका। संक्रान्त सानू (2003) ने अपने लेख में कहा कि धर्म, रीलिजन से बिल्कुल भिन्न अवधारणा है। इब्राहमिक रीलिजन के दृष्टिकोण से हम ‘‘हिन्दू रीलिजियस पहचान’’ की बात करते है जो मूल धार्मिक अवधारणा नहीं है। हिन्दूइज्म, क्रिश्टीनिटी के तरह एक रीलिजन नहीं है। तो कैसे हमने ‘‘हिन्दू’’ को एक रीलिजियस जामा पहनाया है? ‘हिन्दूका सामना लम्बे समय तक दो अब्राहमिक रीलिजनों पहले इस्लाम से तथा फिर क्रिशटिनीटी से हुआ जिसने धीरे-धीरे क्रमशः एक अब्राहमिक रीलिजन की तरह हिन्दूइज्म का रूप ले लिया। सनातनियों को पता भी नहीं कि वे कब से हिन्दू हो गये तो भी वे अपने नये नामकरण से खुश है। इनकी संस्कृत भाषा में रीलिजन के समकक्ष कोई शब्द ही नहीं है। फिर भी हिन्दू व हिन्दूइज्म का लेबल लगाकर इसको एक रीलिजन बना दिया गया है। क्या ‘‘धर्म’’ का लेबल पर्याप्त नहीं था? केरी ब्राउन (1988) लिखते है धर्म समावेशी है जिसमें रीलिजन व सेेक्यूलर प्रारूप के संघर्षो का समाधान है। हिन्दूइज्म एक जीवन पद्धति है जिसे हजारों वर्षो से भारत में सनातन धर्म या दिव्य नियम (the law of eternal) कहा जाता है। यह रीलिजन से कहीं ज्यादा बेहतर है तथा रीलिजन को जानने के लिए थियोलोजिकल दृष्टिकोण से कहीं बहुत बेहतर है। इस जीवन पद्धति में एक व्यक्ति कितनी ही दिव्यताओं में या किसी एक दिव्यता में विश्वास कर सकता है यहां तक कि अविश्वास भी कर सकता है तब भी वह हिन्दू बना रहता है। यह जीवन जीने का एक तरीका है। वामदेव शास्त्री (2003) ने ग्लोबल धर्म काॅन्फ्रेस में कहा कि आज विश्वभर में हमें नयी धार्मिक चेतना की आवश्यकता है जो सभी के लिए समान हो तथा सभी प्राणियों के अस्तित्व को मान्यता दे। जो सभी को समान रूप से अस्तित्व, चेतना के उत्थान तथा अपनी खुशी से जीने का अधिकार दें। ग्लोबल संकट का एक ही कारण है कि हमने धर्म का परित्याग कर अपने विश्वासों और इच्छाओं को दूसरे के ऊपर थोपने का प्रयास किया है। एस॰ कल्याणरमन (2006) का निष्कर्ष है कि धर्म सभी जातियों-प्रजातियों, रीलिजन्स, लिंग तथा समस्त प्राणियों के लिए यूनिवर्सल है। मानव मात्र को समान रूप से स्वतन्त्रता है कि वे धर्म को जीवन में अपनाये या न अपनाये। अधर्म ही पृथ्वी पर पीड़ाओं का कारण है तथा धर्म कल्याणकारी है।

मुख्य पाठ

उपरोक्त बौद्धिक विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म तथा रीलिजन दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ है, लेकिन समकालीन मानव समाज के व्यवहार में भ्रम की स्थिति है, कि दोनों धारणाओं को समान समझा जाता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि दोनों अवधारणाओं को अलग-अलग स्पष्ट किया जाये। 

धर्म की अवधारणा - ‘‘धर्म’’ शब्द की उत्पत्ति धृधातु से हुई है जिसका अर्थ है - धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। वह तत्व जो सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है, जिससे सभी कुछ संयमित व सुव्यवस्थित बना रहता है वही धर्म है। भारतीय ज्ञान ग्रन्थों में ‘‘धर्म’’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। सामान्यतः धर्म शब्द का सम्बनध कर्तव्य, स्वभाव, करने योग्य कार्य, वस्तु के आन्तरिक गुण, पवित्रता इत्यादि से है। कर्तव्य, जैसे गुरू का धर्म अर्थात गुरू का वास्तविक कर्तव्य। ‘‘सन्त का धर्म’’ शान्त स्वभाव का बोध कराता है। ‘‘हर स्थिति में धर्म का पालन करो’’ इससे तात्पर्य है कि विशेष परिस्थिति में करने योग्य कार्य। ‘‘पानी का धर्म है बहना’’ तो यह वस्तु का आन्तरिक गुण स्पष्ट करता है। ‘‘पवित्रता’’ का सम्बन्ध आचरण की शुद्धता से है। इस प्रकार धर्म परिस्थितियों, मानवीय गुणों, व्यक्ति व वस्तु के आन्तरिक गुणों का बोध कराता है जो समाजीकरण में सहायक होते है।

डा॰ राधा कृष्णन ने कहा कि जिन सिद्धान्तों के अनुसार हम अपना दैनिक जीवन व्यतीत करते है तथा जिनके द्वारा हमारे सामाजिक जीवन की स्थापना होती है वही धर्म है। यह जीवन का सत्य है तथा हमारी प्रकृति का निर्धारण करने वाली शक्ति है। वेदों तथा वेदान्तिक साहित्य में इसी सत्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि धर्म जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने की विधि है। ऋग्वेद (प्राचीनतम् वेद) में धर्म को एक ऐसे तत्व के रूप में प्रयोग किया गया है जो उन्नायक (ऊँचा उठाने वाला) या सम्पोषक (पालन पोषण करने वाला) है। ऐतरेय ब्रह्मण में धर्म का अर्थ कर्तव्यों के सर्वांग स्वरूप जैसे-जप,तप, व्रत, हवन, यज्ञ आदि से है। द्दन्दोग्यउपनिषद् में धर्म का अर्थ विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों से है। तैत्तरीय उपनिषद् में जीवन के विभिन्न स्तरों (आश्रम) से सम्बद्ध कर्तव्यों से है। पूर्व मीमांसा में इसे जीवन को निर्देशित करने वाला तत्व कहा गया है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार धर्म सत्य की अनुभूति का विषय है। मतवाद या कल्पना नहीं है। आत्म स्वरूप को जान लेना ही धर्म है। मन व प्राण का आत्मा के साथ एक हो जाना ही धर्म है। हिन्दू धर्म कोष में डा॰ राजबली लिखते है कि ‘‘धर्म’’ वस्तु या व्यक्ति का आन्तरिक गुण है। वैषेसिक दर्शन में धर्मजीवन के विकास का ढंग है जिससे जीवन के अगले पड़ाव में सुधार हो। जैन दर्शन में धर्म को ‘‘जीयो और जीने दो’’ (सहअस्तित्ववाद) तथा बौद्ध दर्शन में ‘‘अच्छे कर्मों से अच्छाई को प्राप्त करना’’ के रूप में समझा गया है। जैसा कि विदित है कि धर्म शब्द के प्रयोग का प्रचलन वेदों में हुआ है तो कुछ लोगों का कहना है कि धर्मवेदोक्त आचरण द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण करना है जिससे जीव व प्रकृति के सम्बन्ध संतुलित हो तथा जीव परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त कर सके। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, धर्म रीलिजनों से भिन्न है क्योकि यह मतमतान्तरों पर आधारित विश्वास नहीं है। यह सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति या साक्षात्कार है। यह अनुभूति का विषय है, अपने द्वारा कही गयी मनमानी बात, मतवाद या युक्तिमूलक कल्पना नहीं है चाहे वह कितनी भी सुन्दर क्यों न हो। आत्मा के ब्रहम स्वरूप को जान लेना ही धर्म है। धर्म केवल सुन लेने व मान लेने की चीज नहीं वरन् समस्त मन, प्राण का एक हो जाना धर्म है ................ जो व्यक्ति जितना निःस्वार्थी तथा कर्तव्यपरायण होगा वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक व शिव के समीप होगा। वह तत्व जो चरित्र को परिष्कृत कर कर्तव्यपरायण बना दें वही धर्म है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टिकोण से धर्म वह तत्व है जो मानव व समाज कल्याण में सहायक है जिससे एक व्यक्ति अभय तथा आत्मशान्ति की अनुभूति कर संतोष, वैभव व सुयश प्राप्त कर सके। धर्म वह तत्व है जिससे समाज व राष्ट्र में सुव्यवस्था, सम्पन्नता तथा सामूहिक चेतना स्थापित हो।

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि धर्म अलौकिक विश्वासों पर आधारित अवधारणा नहीं है वरन् वास्तविक एवं व्यवहारिक जीवन से सम्बद्ध है जो व्यक्ति को कर्तव्यपरायण हो जाने की प्रेरणा देता है तथा ‘‘सर्वभवन्तु सुखिनः’’ सभी के कल्याण की कामना करता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार ‘‘यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः’’ धर्म के दो उद्देश्य है- अभ्युदय एवं निःश्रेयस। अभ्युदय का अर्थ सांसरिक जीवन (भौतिक जीवन) में सुख, समृद्धि तथा सम्पन्नता में वृद्धि करना। निःश्रेयस का अर्थ है- मुक्त हो जाना। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म वह तत्व है जो द्रव्य जगत तथा दिव्य जगत में सन्तुलन स्थापित करता है। किसी प्रकार के अन्धविश्वास से इसका सम्बन्ध नहीं है। धर्म व्यक्ति की द्रव्य जगत से दिव्य जगत की कर्म यात्रा का मार्गदर्शक है। पी॰वी॰ काणे अपनी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में लिखते है कि ‘‘धर्म’’ शब्द से शास्त्रकारों का तात्पर्य किसी ईश्वरीय मत या सम्प्रदाय से नहीं है वरन् यह जीवन के आचरण की संहिता है जो एक व्यक्ति एवं समाज का सदस्य होने के रूप में व्यक्ति की क्रियाओं को नियमित करता है तथा व्यक्तित्व का क्रमबद्ध विकास करना व व्यक्ति को इस योग्य बनाना कि वह मानव अस्तित्व के लक्ष्य को प्राप्त कर सके। इस प्रकार धर्म ‘‘अनुशासन से स्वतन्त्रता’’ के सिद्धान्त पर आधारित अवधारणा है।

धर्म के स्वरूप:- धर्म का अर्थ है ‘‘कर्तव्य भावना’’। धर्म वह तत्व है जो भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति के कर्तव्यों का निर्धारण भिन्न-भिन्न प्रकार से करता है। ध्यान रहे सभी व्यक्तियों की रूचियाँ, मानसिक योग्यता, कार्यक्षमता तथा पद (अधिकार) समान नहीं होते तथा परिस्थितियाँ भी बदलती रहती है तो ऐसे में व्यक्ति के कर्तव्यों का निर्धारण करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। भारतीय मनीषियों ने इस चुनौती से उत्पन्न धर्म की दोषपूर्ण अभिव्यक्ति अर्थात ‘‘अधर्म’’ को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है- जैसे विधर्म, परधर्म, उपधर्म, छलधर्म तथा धर्माभास। विधर्म का अर्थ है - कर्तव्य विरोधी। परमर्ध का अर्थ है- अन्य व्यक्तियों के लिए निर्धारित कर्तव्य। उपधर्म का अर्थ है - निर्धारित आचार-नियमों के विरूद्ध जिन्हें हम पाखण्ड या दम्भ भी कहते है। धर्माभास का अर्थ है- वह स्थिति जिसमें व्यक्ति अपने लिए निर्धारित कर्तव्यों की अवहेलना करता है तथा ऐसे आचरणों को न्यायपूर्ण दिखाने का प्रयास करता है जिससे उसके निजी हितों की पूर्ति हो सके। छलधर्म का अर्थ है - असत्य को सत्य बताकर धोखा देना। मुख्य रूप से धर्म को तीन भागों या श्रेणियों में बांटा जाता है - (1) सामान्य धर्म (2) विशिष्ट धर्म (3) आपद धर्म।

सामान्य धर्म- जो सभी के लिए समान रूप से अनुसरणीय है। इसका उद्देश्य है मानव में सद्गुणों का विकास कर उसे श्रेष्ठ बनाना। महर्षि नारद प्रहलाद को उपदेश देते हुए सामान्य धर्म के तीस लक्षण बताते है - 1. सत्य 2. दया 3. तपस्या 4. पवित्रता 5. कष्ट सहने की क्षमता 6. अनुचित उचित का विचार 7. मन का संयम 8. इन्द्रियों का संयम 9. अहिंसा 10. ब्रहमचर्य 11. त्याग 12. स्वाध्याय 13. सरलता 14. सन्तोष 15. समदृष्टि 16 सेवा 17. धीरे-धीरे सांसरिक भोगों का त्याग 18. सांसारिक सुख के प्रति उदासीनता 19. मौन 20. आत्मचिन्तन 21. सभी प्राणियों में परमतत्व को देखना 22. महापुरूषों का संग 23. ईश्वर का गुणगान 24. ईश्वर चिन्तन 25. ईश्वर सेवा 26. पूजा तथा यज्ञों का निर्वहन 27. ईश्वर के प्रति दासभाव 28. ईश्वर वन्दना 29. सखा भाव  30. ईश्वर को आत्मसमर्पण। मनुस्मृति मंे सामान्य धर्म के दस लक्षण बताये है - 1. धृति- ज्ञानेन्द्रियों पर संयम रखना 2. क्षमा - सबल होते हुए भी उदार व्यवहार करना 3. काम व लोभ पर संयम - मानसिक-शारीरिक वासनाओं पर नियन्त्रण करना 4. अस्तेय - चोरी न करना 5. शुचिता (पवित्रता)- आचरण की शुद्धता (मन-वचन-कर्म से) 6. इन्द्रिय निग्रह - इच्छाओं पर नियन्त्रण 7. धी (बुद्धि)- बुद्धि का समुचित विकास 8. विद्या - अवगुणों से मुक्ति तथा सद्गुणों की युक्ति 9. सत्य- सत्य को स्वीकारना व आचरण करना 10. अक्रोध - क्रोध समस्त अवगुणों का वाहक है।

विशिष्ट धर्म - इसे स्वधर्म भी कहा जाता है। इसके निर्धारण में व्यक्ति को अधिक स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। यह समय, स्थान, परिस्थिति, पद के आधार पर निर्धारित होता है। गीता मे कहा गया है कि ‘‘स्वधर्म निधनम् श्रेयः परधर्मों भयावाहः’’ दूसरों के निर्धारित धर्म की अपेक्षा स्वधर्म के लिए मरना भी श्रेष्ठ है। विशिष्ट धर्म के स्वरूप इस प्रकार है -

1. वर्ण धर्म - ब्राहमण धर्म, क्षत्रिय धर्म, वैश्य धर्म, शुद्र धर्म।

2. आश्रम धर्म - ब्रह्मचर्य आश्रम धर्म, गृहस्थ आश्रम धर्म, वानप्रस्थ आश्रम धर्म, सन्यास आश्रम धर्म।

3. कुल धर्म - पति धर्म, पत्नी धर्म, पुत्र-पुत्री धर्म, भ्रातृ धर्म।

4. राज धर्म - राजा का धर्म।

5. युग धर्म - परिवर्तन के कारण आध्यात्मिक एवं नैतिक स्तर में उत्थान-पतन सम्भव है इसलिए युग धर्मो का निर्धारण किया गया है। जैसे - सतयुग का धर्म तप है, त्रेता युग का धर्म ज्ञान है, द्वापर युग का धर्म यज्ञ तथा कलयुग का धर्म दान।

6. मित्र धर्म - एक मित्र का दूसरे मित्र के प्रति कर्तव्य।

7. गुरू धर्म - गुरू का स्वयं के प्रति व शिष्य के प्रति कर्तव्य।

आपद धर्म - आपत्ति काल में अथवा धर्म संकट की परिस्थितियों में कर्तव्य का पालन करना। परिस्थिति मे दो धर्मों में टकराव से अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण धर्म का पालन करना तथा दूसरे धर्म को कुछ समय के लिए स्थागित कर देना। इस प्रकार आपद धर्म एक अस्थायी धर्म है। इस प्रकार आपद धर्म सनातन धर्म की उदारता तथा व्यवहारिकता को स्पष्ट करता है। श्री अरविन्दो के शब्दों में ‘‘इस ज्ञान के अनुसार भारतीय संस्कृति में सभी सद्कार्य धर्म माने जाते है। इसकी विशेषता है - न्यायपूर्ण जीवन, आत्म संस्कृति, पदार्थ का ज्ञान, जीन की सभी क्रियाओं के प्रति उचित दृष्टिकोण।

भारतीय धर्म के विश्वव्यापी स्वरूप के आधार पर जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर ने कहा कि - ‘‘यदि कोई मुझसे पूछे कि किस आकाश के नीचे मानव मन के सर्वोत्तम पक्ष का पूर्ण विकास हुआ है? कहाँ के लोगों ने मानवीय जीवन की गम्भीरतम् समस्याओं पर गहनतम् विचार किया है और उनके ऐसे उत्तर खोजे जो प्लेटो व काॅम्ट जैसे विद्वानों के लिए भी मान्य है तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा। यदि मैं स्वयं से प्रश्न करूँ कि हम यूरोपवासी (जो केवल यूनानी, रोमी तथा यहूदी विचारों में पले है) कहाँ के साहित्य से वह विवेक दृष्टि प्राप्त करे जो हमारे जीवन को अधिक पूर्ण, सर्वतोन्मुखी, अधिक विराट या योें कहें कि सच्चे अर्थों में मानवीय बनाने के लिए अधिक आवश्यक है, कहाँ से मिलेगा हमें वह तत्व जो केवल इसी जीवन के लिए नहीं अपितु एक उत्कृष्ट एवं शाश्वत जीवन के लिए अनिवार्य है - तो मैं पुनः भारत की ओर संकेत करूँगा।’’

रीलिजन की अवधारणा:- जब हम रीलिजन (Religion) शब्द की उत्पत्ति व अर्थ को समझने का प्रयास करते है तो पता चलता है कि यह शब्द लैटिन भाषा के ‘‘Religo’’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है Good Faith and Ritual लैटिन भाषा का ही दूसरा शब्द है - ‘‘Religare’’ जिसका अर्थ है - ‘‘To tie fast’’ ऑक्सफोर्ड एडवान्स डिक्सनरी के अनुसार रीलिजन विश्वासों की व्यवस्था है जो किसी God/Gods विशेष के अस्तित्व पर आधारित है। न्यू काॅलिन डिक्सनरी के अनुसार रीलिजन संस्थात्मक विश्वासों की व्यवस्था है जो किसी सुपर पाॅवर या रहस्यमयी विश्वास से मानव को नियन्त्रित करती है। मानव शास्त्रियों  व समाजशास्त्रियों  ने रीलिजन को व्यक्तियों का पारलौकिक/रहस्यमयी सत्ता में विश्वासों एवं संस्कारों के रूप में परिभाषित किया है। जो मानव समाज को नियन्त्रित करने की मजबूत संस्था के रूप में कार्यरत है इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ है -

1. प्रत्येक रीलिजन को पहचान प्रदान करने वाले चार प्रमुख कारक-

1. एक संस्थापक(One Prophet of Savior) 2. एक पवित्र पुस्तक (One Holy Book) 3. एक प्रार्थना पद्धति (One worship way) 4. एक केन्द्रिय सत्ता (Centralized Hierarchy) जो अनुयायियों को नियन्त्रित करती है।

2. प्रत्येक रीलिजन की तीन प्रमुख मान्यताएँ होती है -

1. अन्तिम निष्कर्षवादी (Conclusive) अर्थात केवल यही एक सच्चा रीलिजन है, ऐसा दावा करना।   2. असमावेशी (Exclusionary) अर्थात जो इस रीलिजन का पालन नहीं करते वे साॅल्वेशन या मुक्ति के पात्र नहीं होगें। 3. प्रथकतावादी (Separative) अर्थात जो इस सच्चे मार्ग को धारण करेगा व दूसरे पथ/मार्ग मे शामिल नहीं हो सकता।

3. रीलिजन व विज्ञान परस्पर विरोधी है। इन दोनों में हमेशा टकराव रहा है। रीलिजन काल्पनिक विश्वासों पर आधारित है जबकि विज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाणों व वैज्ञानिक दृष्टिकोणों व पद्धतियों पर आधारित होता है।

4. पूर्णतः विश्वासों पर आधारित होना। अर्थात विश्वास/विश्वासों के अभाव में रीलिजन का अस्तित्व ही नहीं है। इसलिए गैर तार्किक होने के साथ-साथ ‘‘प्रश्न न उठाने के प्रतिबन्ध’’ से रीलिजन को मजबूती मिलती है। जैसे चमत्कारिक, पारलौकिक व गैर तार्किक सत्ता में विश्वास से सम्बन्धित। जैसे- ळवक अपनी सृष्टि के बाहर कही विशेष स्थान पर बैठा हमें देख रहा है, समय आने पर न्याय की तराजू में तोलेगा तदानुसार दण्ड व पुरस्कार देगा। रिलिजियस विचारों व व्यवहारों का परिणाम मृत्यु के पश्चात मिलता है। रीलिजियस नेतृत्व अपने अनुयायियों में अदृश्यसत्ता के प्रति भय उत्पन्न करते है इसी से उनके निजी हित पूर्ण होते है। विश्वासों की व्यवस्था में विश्वास करना ही सत्य होता है। अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाना ईश्वरीय कार्य माना जाता है जिससे मत परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है। इसके लिए संगठित प्रयास किये जाते है। ये विश्वास सुरक्षा व निश्चितता की भावात्मक अपील है तथा ये ही इनकी गारन्टी है।

5. ‘‘चाहिए’’ और ‘‘नही चाहिए’’ की दृढ़ व्यवस्थाः- (The Dogmas of do's and dont's) ज्यादातर रीलिजन कुछ सार्वभौमिक नैतिक मूल्यों की व्यवस्था करते है जैसे - स्वार्थी मत बनो, अच्छा करों, दूसरों को पीड़ा मत पहुँचाओं, चोरी मत करो, झूठ व ठगी से बचो इत्यादि जिससे सामाजिक व्यवस्था में सन्तुलन बना रह सके। परन्तु रिलिजन इन सार्वभौमिक नैतिक मूल्यों के अलावा कुछ ऐसे विश्वासों को भी थोपता है जो विश्वास व विश्वास न करने वालों के बीच दूरी बनाता है जैसे - केवल हमारा प्रोफेट ही सच्चा है, हमारी पुस्तक ही पवित्र पुस्तक है, हमारी पूजा पद्धति/प्रार्थना पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है। रीलिजियस परम्पराओं का पालन न करना पाप है। पवित्र पुस्तक तथा मसीहा के विचारों का पालन न करने पर मृत्यु के पश्चात विशेष स्थान पर पहुँचकर दुःख व दण्ड भुगतने होगे। इस प्रकार रीलिजन कुछ अच्छे सार्वभौमिक मूल्यों तथा जहरीले व असमावेशी विश्वासों का मिश्रण है। यह अपने अनुयायियों पर सैकड़ों ‘‘चाहिए’’ और ‘‘नही चाहिए’’ को थोपता है तथा इन पर प्रश्न उठाना पाप होता है। ये विश्वासी तथा अविश्वासी के मध्य असहिष्णुता पैदा करते है। विश्वासी तर्क से बचते है तथा अविश्वासी इसे बेवकूफी, गैर वैज्ञानिक, फैनाटिक न जाने क्या-क्या कहते है।

निष्कर्ष माइकेल डानिनो (Michel Danino) के शब्दों में ‘‘रीलिजन’’ पश्चिमी जगत की अवधारणा है। न तो रीलिजन और न ही हिन्दुइज्म तथा अन्य इज्म भारतीय है। ‘‘सनातन धर्म’’ भारत की अवधारणा है जो सार्वकालिक व सार्वभौमिक दिव्यता का नियम है जिसे किसी अन्तिम सीमाबद्ध मान्यताओं के प्रारूप में नहीं बांधा जा सकता है। रीलिजन पश्चिमी जगत की शब्दावली है जो ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी तथा पारसी पर तो फिट बैठती है परन्तु भारत के लोगों के धर्म तथा भारत के बाहर कन्फ्यूसियस/ताओइज्म तथा अन्य पूर्वी समाजों की धारणाओं के सुसंगत नहीं है। रीलिजन की तरह धर्म की कोई एक सर्वमान्य पुस्तक, एक मसीहा, एक पूजा पद्धति तथा एक केन्द्रित सत्ता नहीं होती है। इन वास्तविकताओं की अनदेखी कर पश्चिमी जगत के बुद्धिजीवियों ने हिन्दू, हिन्दूज्म को रीलिजन बताने के भरसक बौद्धिक प्रयास किये। जबकि हिन्दूओं की धारणा ‘‘धर्म’’ है, जो विभिन्नताओं में एकता तथा उदारवादी विशेषताओं से युक्त है जिसे सनातन कहा जाता है इसका अंग्रेजी में समानार्थी है ‘‘ ज्पउमसमेे’’(अर्थात् जिसे समय की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता)। सनातन को रिलिजन के रूप में अनुवादित कर भ्रम की स्थिति पैदा की है। हिन्दूओं को कभी पता ही नहीं था कि वे हिन्दू है उनको यह नाम भौगोलिक पहचान के आधार पर उसी पश्चिमी जगत ने दिया, आश्चर्य की बात देखिए कि वे इस नाम से खुश है तथा कोई आपत्ति नहीं जताते है। रीलिजन विश्वास करने वालों तथा विश्वास न करने वालों के मध्य गहरा विभाजन पैदा करता है, यहां तक कि नास्तिकों के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है। जबकि धर्म के अनुसार सत्य की अनुभूति केवल पुस्तक पढ़ने से नहीं हो सकती है। पुस्तकें केवल मागदर्शक हो सकती है। सत्य की अनुभूति किसी साधक को स्वयं के प्रयास से करनी होती है। धर्म समावेशी है। धार्मिक मान्यता है कि विश्व के प्रत्येक समुदाय ने महान स्त्री व पुरूष पैदा किये है जिन्होंने सत्य की अनुभूति की है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘‘एकम्सद् विप्रः बहुदाः वदन्ति’’ जबकि सत्य एक ही है जिसे विद्वान अनेक रूपों में व्यक्त करते है। धर्म, रीलिजन की तरह अलग रीलिजियस पहचान की वकालत नहीं करता वरन् मूल रूप में ऐसी पहचान का विरोध करता है तथा इसे झूठा प्रचार तन्त्र मानता है। रीलिजन एवं विज्ञान दोनों एक दूसरे के विरोधी। धर्म विज्ञान का विरोधी नहीं है। धर्म की संकल्पना में ज्ञान को दो श्रेणियों में बांटा जाता है - (1) पराविद्या (आध्यत्मिक ज्ञान) (2) अपराविद्या (द्रव्य ज्ञान)। अपराविद्या ही आधुनिक विज्ञान कही जाती है जबकि पराविद्या सृष्टा, व जीव आत्मा के सनातन सम्बन्धों के बारे में है। भारतीयों का विचार है कि पराविद्या हमें अपराविद्या की ओर ले जाती है। इसलिए धर्म विज्ञान विरोधी नहीं है बल्कि ये दोनों एक दूसरे के पूरक है। विश्वास/विश्वासों के अभाव में रीलिजन का अस्तित्व ही नहीं हो सकता जबकि धर्म में विश्वास का कोई स्थान नहीं है। धर्म में ईश्वर जैसी महानसत्ता विश्वास का विषय/मुद्दा नहीं है वरन् यह अनुभूति या जान लेने का विषय है। यदि ईश्वर जैसी सत्ता का अस्तित्व है तो उसे जानना ही होगा, मानना नहीं। धर्म में पूर्णत्व को प्राप्त व्यक्ति (सद्गुरू) तथा पुस्तकें सत्य की अनुभूति में सहायक तो सिद्ध हो सकती है परन्तु सत्य की अनुभूति के लिए साधक को स्वयं के प्रयासों से अपना मार्ग तय करना होता है। रीलिजन में नास्तिकों के लिए कोई स्थान नहीं है जबकि धर्म नास्तिकों को हतोत्साहित नहीं करता है जिससे वे तर्क संगत प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रमाण ढूढ सके। रीलिजन में ईश्वर की एकदेशीय परिकल्पना है, परन्तु धर्म में सृष्टा, सृष्टि (प्रकृति) व जीव तीनों अभिन्न है। सृष्टा सृष्टि में एकदेशीय नहीं वरन् सर्वव्यापी है न ही वह न्याय की तराजू लेकर बैठा है जो दण्ड व पुरस्कार देता है। धर्म के अनुसार जीव कर्मानुसार तथा प्रकृति के नियमानुसार परिणामों को प्रत्येक क्षण भुगतता हैै। प्राकृतिक नियमानुसार जीव कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है इसलिए जीव को स्वयं के भाग्य का निर्माता भी कहा जाता है। रीलिजन स्वर्ग व नरक की एकदेशीय कल्पना को मान्यता प्रदान करता है जबकि धर्म में सुखद परिणामों को स्वर्ग तथा दुखद परिणामों को नरक कहा जाता है, स्वर्ग व नरक कोई स्थान विशेष नहीं है। धर्म के अनुसार जन्म एवं मरण जीवन गति के दो पक्ष है जिनका सामना प्रत्येक जीव को करना होता है जब तक वह पूर्णत्व की अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेता है। पूर्णत्व का अर्थ है जीव द्वारा सृष्टा व सृष्टि के स्वरूपों व सम्बन्धों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाना है जिसके परिणामस्वरूप जीव उद्घोषणा करता है कि - ‘‘अहम् ब्रह्मस्मि’’ तथा अन्य जीवों के इसी अवस्था की अनुभूति की कामना भी करता है। ‘‘ब्रह्म सत्यः जगत मिथ्या’’ जैसा महान दर्शन पूर्णत्व की अवस्था का परिणाम है। धर्म में सद्गुरू जीव (साधक) का नेतृत्व कर सकता है परन्तु सब कुछ प्रयास स्वयं साधक को ही करने होते है जबकि रीलिजन में सद्गुरू का कोई स्थान नहीं है। रीजिलन में विश्वासों की व्यवस्था को ही सत्य पाना जाता है परन्तु धर्म में विश्वास तब तक सत्य नहीं माना जा सकता जब तक कि अनुभूति के आधार पर उसके सत्य होने की पुष्टि नहीं हो जाती। भारत के लोग (जिन्हें अक्सर हिन्दू कहा जाता है) प्राचीनतम् काल से ही अनन्त सत्य को जानने के लिए भिन्न-2 मार्गो की खोज, समर्थन व सम्मान करते रहे है। यही कारण है कि भारत में अनेक मतों की उत्पत्ति हुई जैसे-वैदिकवाद, ब्रह्मणवाद, वेदान्त, शैव, वैष्णव, शक्तिवादी, तान्त्रिकवाद, बौद्धवाद, जैनवाद, सिख चार्वाक इत्यादि। इनके दर्शनों में तो अन्तर हो सकता है परन्तु इस मतान्तर ने भारत में रक्त रंजित संघर्षो को जन्म नहीं दिया। यह भारत में वैचारिक विमर्श की स्वतन्त्रता का प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। जबकि दूसरी ओर पश्चिमी जगत के रीलिजनों ने (ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी) अपने भीतर शत्रुता पूर्ण मतभेदों के आधार पर कैथोलिक-प्रोटेस्टेन्ट, सिया-सुन्नी जैसे धड़े उत्पन्न किये है। ऐसा क्यों है? मानवीय वैश्विक समस्याओं का समाधान रीलिजन में नहीं है तथा क्म्यूनिज्म या अन्य इज्म में भी नहीं है जो वर्तमान विश्व पर हावी है। समस्त समस्याओं का समाधान है धर्म आधारित विश्वगुरूता (वैश्विक नेतृत्व)। विश्वगुरूता का उद्देश्य विश्व पर अधिपत्य स्थापित करना नहीं, समस्त वैश्विक मतों की हत्या करना नहीं और न ही वैश्विक सांस्कृतिक विभिन्नता को नष्ट करना है वरन् धर्म की संकल्पना को विश्व स्तर पर मानव कल्याण हेतु स्थापित करना है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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