ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IV July  - 2023
Anthology The Research
पूर्व मध्यकालीन मारवाड़ के मन्दिरों के मूर्तिशिल्प में अंकित सांस्कृतिक जीवन
Cultural Life Depicted in The Sculpture of The Temples of Early Medieval Marwar
Paper Id :  17872   Submission Date :  2023-07-14   Acceptance Date :  2023-07-21   Publication Date :  2023-07-25
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राजल खिड़िया
शोध छात्रा
इतिहास विभाग
सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय
अजमेर, राजस्थान, भारत
भारत
सर्वदमन मिश्र
शोध निर्देशक
इतिहास
रा.बा.महाविद्यालय
अजमेर, राजस्थान, भारत
सारांश
भारत में धर्मवार स्थापत्य अथवा मूर्तिकला का प्रचलन नहीं रहा है एक ही भारतीय कला का प्रयोग विभिन्न धर्मों के प्रयोजनार्थ किया गया। तत्कालीन प्रचलित धर्मों ने यहां के मंदिरों के निर्माण में उनकी मूर्तियों के अंकन को काफी प्रभावित किया है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म व वैष्णव धर्म के मंदिर व मूर्तियां इसी कारण यहा ज्यादा मिलती है। मारवाड़ के प्रसिद्ध एवं कलात्मक मंदिर रणकपुर, बुचकला, किराडू, ओसियां आदि में स्थित है। कला विशेषज्ञों ने यहां की मन्दिर निर्माण शैली को महामारू नाम दिया है इसे गुर्जर प्रतिहार शैली भी कहा जाता है इस क्षेत्रीय शैली का विकास लगभग आठवीं शताब्दी में हुआ। इन मंदिरों के शिल्प पर गुजरात का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। इन मंदिरों में विभिन्न शैलीगत तत्वों एवं परस्पर विभिन्नताओं के दर्शन होते है। इन मंदिरों की बाह्य दीवारों पर सैंकडों मूर्तियां जड़ी है, मूर्तियों की सुंदरता, उनकी भाव-भंगिमा को देखना अद्भुत है, मूर्तियां प्रमुखतः कतारों में मिलती है, मध्य में बने आलों में देव प्रतिमाएं है अधिकतर मूर्तियां उस काल के जीवन और परम्पराओं को दर्शाती है. इनमें नृत्य, संगीत, युद्ध, शिकार आदि जैसे दृश्य हैं । प्रमुख मूर्तियों में सुर-सुंदरी, देवदासी और मिथुन मूर्तियां है, इनमें धर्मोपदेश, नृत्य-संगीत, शिक्षण के दृश्य भी है। सामाजिक जनजीवन का मूर्तियों के माध्यम से स्थिति का बोध होता है ।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Religion-wise architecture or sculpture has not been practiced in India, the same Indian art was used for the purpose of different religions: the then prevalent religions have greatly influenced the marking of their idols in the construction of temples here. Temples and idols of Jainism, Buddhism and Vaishnavism are found here for this reason only.
Famous and artistic temples of Marwar are situated in Ranakpur, Buchkala, Kiradu, Osian etc. Art experts have given the name Mahamaru to the temple construction style here. It is also known as Gurjar Pratihar style. This regional style was developed around the eighth century. The influence of Gujarat can be clearly seen on the craft of these temples. Different stylistic elements and mutual differences can be seen in these temples.
Hundreds of idols are studded on the outer walls of these temples, it is amazing to see the beauty of the idols, their expressions, idols are mainly found in queues, there are deities in the niches made in the middle, most of the idols depict the life and traditions of that period. There are scenes like dance, music, war, hunting etc. Sur-Sundari, Devdasi and Mithun idols are among the main idols, there are also scenes of sermon, dance-music, teaching. Status of social life is realized through idols.
मुख्य शब्द पूर्व मध्यकालीन मारवाड़, मूर्तिशिल्प, भारतीय संस्कृति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Early Medieval Marwar, Sculpture, Indian Culture.
प्रस्तावना

पूर्व राजपूताना का पश्चिमी क्षेत्र मारवाड़ कहलाता था। अभिलेखों ने मारवाड़ को मरु, मरुमण्डल, मरुकांतार आदि नामों से पुकारा गया, जिनका तात्पर्य रेगिस्तान या जलविहीन क्षेत्र होता है। वैदिक काल में इसके लिये मरु शब्द का प्रयोग हुआ।[1] पूर्व मध्यकाल में मारवाड़ पर प्रतिहारों का शासन था।[2] यह माना जाता है कि 8वीं, 9वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गुर्जर प्रतिहारों की एक शाखा जाबालीपुर (जालोर) पर शासन कर रही थी कुलयमाला जिसका संकलन 778 ई. में हुआ, उससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय वत्सराज जालोर पर शासन कर रहा था। ओसियां के अभिलेख और दौलतपुर ताम्रपत्र भी वत्सराज को गुर्जर देश का शासक बताते है।[3] जाबालीपुर की अपनी राजधानी से गुर्जर प्रतिहार राजवंश के शासकों ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और सम्पूर्ण गुर्जर देश को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले आये। अन्ततः उन्होंने अपनी राजधानी को कन्नोज स्थानानांतरित किया और वे भारतीय इतिहास में इम्पीरियल प्रतिहार कहलाये मारवाड़ को इम्पीरियल प्रतिहारों को अपने ही संबंधियों को हस्तान्तरित कर दिया।

अध्ययन का उद्देश्य

मारवाड की संस्कृति व लोकजीवन, मूल भारतीय संस्कृति का अंग है। मध्यकालीन शासको ने जिस कला-संस्कृति का सृजन कर उसे पल्लवित व संरक्षित रखा अपने आप में मालिक व अद्वित्तीय है। उसे विशिष्ट श्रेणी में रखना अत्यंत आवश्यक होगा इमारत अथवा किसी काल विशेष की स्थापत्य तात्कालीक समाज का दर्पण है। जिस पर अनुसंधान करना जिससे हम उस समय के संस्कृति का अध्ययन सुचारू रूप से कर सके।

साहित्यावलोकन

इतिहासकार पं. गौरीशंकर हीराचन्द औझा ने अपनी पुस्तक - जोधपुर राज्य का इतिहास और बीकानेर राज्य के इतिहास में जोधपुर व बीकाने की स्थापत्य के बारे में अवगत करवाया। डां. रतनलाल मिश्र की राजस्थान के दुर्ग प्रस्तावित शोध में राजस्थान के दुर्गों के बारे मे अध्ययन किया। डॉ. जयसिंह नीरज की राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा में मारवाड़ की सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा विश्वेश्वरनाथ रेउ की मारवाड का इतिहास और रामकरण आसोपा मारावाड का मूल इतिहास और बीकानेर अभिलेखागार से प्राप्त पुस्तकें स्थापत्य के बारे में दिशा निर्देश का काम करता है।

मुख्य पाठ

मारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार-

जोधपुर और घटियाला से गुर्जर प्रतिहारों के जो अभिलेख प्राप्त होते है वे प्रतिहारों की एक दूसरी शाखा की ओर संकेत करते हैं, जिन्होंने मारवाड़ पर 8-10शताब्दी तक शासन किया। ये इम्पीरियल प्रतिहारों के सामन्त थे। इनके कतिपय अन्य अभिलेख से संसूचित करते हैं कि डीडवाना, मांडलपुर (मंडोर), मेदान्तकपुर (मेड़ता), वल्लमंडल (जैसलमेर क्षेत्र) और भीनमाल आदि इनके राज्य क्षेत्र में आते थे।[4] अभिलेखित साक्ष्यों से यह पुष्ट होता है कि मारवाड़ के प्रतिहारों का कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासकों से सीधा संबंध था। जैसे की कक्क जो कि 9वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मंडोर का ही प्रतिहार शासक था वह कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय के साथ युद्ध में लड़ा था।[5]

जब प्रतिहार शासक बाऊक मंडोर पर शासनारूढ़ हुआ तब बुचकला जो कि मंडोर के निकट ही अवस्थित है, उसे नागभट्ट द्वितीय की निजी भूमि के रूप में व्यंजित किया जाता था।[6] इससे व्यक्त होता है कि मारवाड़ पूरी तरह कनोज के प्रतिहारों के प्रभाव के अन्तर्गत था।

प्रतिहारों के संरक्षण में ओसियां, भीनमाल, रोहिन्सकप, किराडू, मंडोर इत्यादि कला और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बनकर उभरे। पूर्व मध्यकाल में मारवाड़ क्षेत्र की इस सांस्कृतिक समृद्धि को पुष्ट करने के अनेक पुरातात्विक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त चीनी यात्री युवान च्वांग का विवरण और कुवलयमाला से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि मारवाड़ अंचल भी पूर्व मध्यकाल में प्रभूत सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था। वत्सराज के शासन के दौरान उपकेशपुर (ओसियां) नगर जो कि एक बड़े तीर्थ नगर के रूप में उभरा।[7] इसी प्रकार मण्डोर और रोहिंसकूप (घटियाला) नगर कला के महत्वपूर्ण नगर बने। यहां तक कि मरुभूमि की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद ओसियां भीनमाल और किराडु में भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ।

प्रतिहार शासकों के उदार दृष्टिकोण के कारण विभिन्न मतावलम्बियों ने उनके राजत्व क्षेत्र में अपने अपने मन्दिर बनवाये प्रतिहार शासक स्वयं भी भिन्न-भिन्न देवताओं के उपासक थे। वत्सराज को शिव के भक्त के रूप में व्यंजित किया जाता है। वहीं नागभट्ट भोज और महेन्द्रपाल देवी के उपासक माने जाते हैं। अलग-अलग सम्प्रदायों के अनुयायी होने के बावजूद प्रतिहार शासकों ने समस्त धार्मिक मतों को संरक्षण दिया।

मारवाड़ क्षेत्र के मन्दिर स्थापत्य को तात्कालीन धार्मिक परम्पराओं ने गहरे से प्रभावित किया है। पूर्व मध्यकाल में शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर प्रमुख धार्मिक परम्पराएं थी। इसके अतिरिक्त जैन धर्म का भी व्यापक प्रभाव था। मारवाड़ अंचल विशेषकर ओसियां से प्रमाणित हो जाता है कि शैव और वैष्णव परम्पराओं के साथ-साथ जैन व शाक्त परम्परायें समाहित थीं।

भारतीय परम्परा में मन्दिर सामुदायिक जीवन का केन्द्र रहे हैं। मन्दिर 1 न केवल उपासना केन्द्र के रूप में जाने जाते रहे वरन् वो रूपांकन और प्रदर्शन कलाओं के संरक्षण व संवर्धन में भी महती भूमिका निभाते रहे हैं। मन्दिर का निर्माण और संचालन समस्त समुदाय का उत्तरदायित्व समझा जाता था। मन्दिरों के निर्वहन हेतु शासक वर्ग कई गांव व बड़े भूमि क्षेत्र दान दिया करता था और आम नागरिक समुदाय अपनी सामर्थ्य अनुसार द्रव्य और विभिन्न वस्तुओं से मन्दिर संचालन में सहयोग करता था।

मारवाड़ क्षेत्र के प्रमुख मन्दिर

पूर्व मध्यकाल में मारवाड़ अंचल में विशेषकर वैष्णव और सौर सम्प्रदायों का प्रभाव था। इसमें भी वैष्णव परम्परा ज्यादा प्राचीन थी क्योंकि मंडोर से एक गुप्तकालीन वैष्णव मन्दिर का प्रमाण प्राप्त होता है। जिसमें दो स्तम्भ हैं, जिन पर कृष्ण के जीवन की झांकियां अंकित    है।[8]

ओसियां- ओसियां जोधपुर से लगभग 45 किमी दक्षिण पश्चिम में अवस्थित है। प्राचीनकाल काल में यह उपकेशपुर के रूप में जाना जाता था 8-9 शताब्दी के मध्य यह हिन्दु परम्परा का मुख्य केन्द्र था। ओसियां से प्राप्त इस कालखंड वैष्णव और शाक्त मन्दिर इस तथ्य की प्रमाणिक रूप से पुष्टि करते हैं। कालांतर में यह बड़े जैन धार्मिक केन्द्र के रूप में उभरा परन्तु आज ओसियां हिन्दु और जैन दोनों मतालम्बियों का प्रमुख तीर्थ स्थल है। ओसियां से प्राप्त मन्दिरों का समुच्चय और साहित्य और अभिलेखीय साक्ष्यों में ओसियां का विवरण यह स्पष्ट कर देता है कि पूर्व मध्यकाल तक ओसियां एक बड़ा और समृद्ध नगर था। क्षेत्र की लोक परम्परा भी इस दृष्टिकोण को पुष्ट करती है। स्थानीय परम्परा में शहर का विस्तार पश्चिम में मथानिया तक उत्तर में तिवारी तक तथा दक्षिण में घटियाला तक बताया गया है।

ओसियां के मन्दिरों को दो समूहों में बांटा जा सकता है। समूह गांव के बाहर अवस्थित वैष्णव और सौर मन्दिरों का है और दूसरा समूह पहाड़ी पर अवस्थित मन्दिरों का है।

वैष्णव मन्दिर- वैष्णव मन्दिरों में तीन प्रमुख है जिन्हें भण्डारकर ने हरिहर मन्दिर कहा है। इन मन्दिरों में दो पंचायतन शैली के मन्दिर हैं और तीसरा एकायतन शैली का मन्दिर है। तीनों ही मन्दिर एक ऊँची जगती पर बने है जिसमें सीढ़ियों पर एक मंडप भी बना है। इन तीनों ही मन्दिरों में कोई मूर्ति विद्यमान नहीं है ।

भण्डारकर और अन्य विद्वानों ने इन्हें हरिहर मन्दिर माना है, लताबिम्ब पर और मन्दिर की बाह्य दीवारों पर जो वैष्णव परम्परा का परन्तु अंकन है तथा विष्णु के विभिन्न अवतारों को रूपांकित किया गया है; वह यह निर्विवाद रूप से तय कर देता है कि ये तीनों ही मन्दिर वैष्णव परम्परा के मन्दिर है। दूसरे दरवाजों पर नागवल्ली का चित्रण इस रूप में हुआ है कि नीचे अनिवार्य रूप से गरुड़ का अंकन किया गया है। तीसरे तीनों ही मन्दिरों के गर्भगृह के दरवाजे की शहतीर पर गरुड़ पर आरूढ़ विष्णु का अंकन किया गया है। चौथे, जैसा कि विष्णु धर्मोत्तर पुराण में वर्णित है कि जिस देवता का मन्दिर हो उसका चिह्न, उसका अस्त्र और वाहन प्रतीक के रूप में मन्दिर में अंकित होने चाहिये और इन तीनों ही मन्दिरों में जिन्हें भण्डारकर और कतिपय विद्वान हरिहर मन्दिर कहते है विष्णु के लाक्षणिक चिह्न बहुतायत से मिलते हैं।

पंचायतन पूजा पद्धति में विष्णु, शिव, सूर्य, शक्ति और गणेश को पांच देवताओं के रूप में मान्यता दी जाती है। इन मन्दिरों के भग्नावशेषों में जो बाहरी गर्भगृह है, वहां शिव, शक्ति, सूर्य और गणेश के प्रतिमा और चिह्न प्राप्त होते है इसलिये यह माना जा सकता है कि इन पंचायतन मन्दिरों का प्रधान देवता विष्णु है।

हरिहर समूह का दूसरा मन्दिर भी निर्विवाद रूप से वैष्णवमन्दिर है यद्यपि इस पंचायतन मन्दिर के जो उपमन्दिर हैं वो नष्ट हो चुके हैं। हरिहर मन्दिर प्रथम परम्परा की तुलना में यह मन्दिर रूपांकन में एक संक्रमण काल को व्यक्त करता है। इस मन्दिर की मूर्तियां अपेक्षाकृत लम्बी व नाजुक हैं। हरिहर परम्परा का तीसरा मन्दिर एकायतन है इसमें एकमात्र गर्भगृह और गुम्बद युक्त सभा मण्डप है।

सूर्य मन्दिर- वैष्णव मन्दिरों की कुछ दूरी पर सूर्य मन्दिर अवस्थित है। सूर्य मन्दिर में एक गर्भगृह, एक अंतराल एक खुला प्रदक्षिणा, एक सभामण्डप और एक उपमण्डप शामिल है। यह भी पंचायतन शैली का मन्दिर प्रतीत होता है। इसके चार सहायक मन्दिर एक दीवार द्वारा परस्पर जुड़े थे जो कि सूर्य मन्दिर के परकोटे का काम भी करती थी। इस मन्दिर के गर्भगृह में कोई प्रतिमा नहीं है। परन्तु इस मन्दिर को जगती, अधिष्ठान और गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर प्रचुर मात्रा में शिल्पांकन है। गर्भगृह की दरवाजे की शहतीर पर लक्ष्मीनारायण का अंकन है, जिसके चारों ओर गणेश, ब्रह्मा, कुबेर और शिव को रूपायित किया गया है। गर्भगृह की बाहरी दीवार की ताक पर महिषासुरमर्दिनी, सूर्य और गणेश का अंकन है; जबकि जगती पर बलराम और विष्णु का अंकन है। इस प्रकार गर्भगृह की प्रतिमा के अभाव में और बाहरी दीवारों पर देवी- देवताओं के अंकन से यह कहना कठिन है ये एक सूर्य मन्दिर था अथवा यह एक वैष्णव मन्दिर ही था। 

शक्ति को समर्पित मन्दिर- ओसियां में दो प्रसिद्ध मन्दिर शाक्त परम्परा को समर्पित हैपिप्पला माता और सच्चियाय माता पिप्पला माता का मन्दिर सूर्य मन्दिर के निकट है। यह एक सुसज्जित जगती पर बना हुआ है। मूल रूप से इसमें गर्भगृह, मण्डप और उपमण्डप था। इस मन्दिर का काफी बड़ा हिस्सा नष्ट हो चुका है। गर्भगृह में एक आदमकद की महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा सुरक्षित है, जिसके दोनों और गणेश और कुबेर विराजमान है। पिप्पला माता की बाहरी दीवारों पर महिषासुरमर्दिनी और गजलक्ष्मी का अंकन है पृष्ठ दीवार की प्रधान ताक खाली है परन्तु यह निर्विवाद है कि इस ताक में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा रही होगी।

सच्चियाय माता का मन्दिर- यह मन्दिर सच्चियाय माता या सच्चिका को समर्पित है जो महिषासुरमर्दिनी का ही पर्याय है। यह एक पहाड़ी पर अवस्थित है। यह कतिपय वैष्णव लघु मन्दिरों से घिरा हुआ है। सच्चिका रूप में महिषासुरमर्दिनी जैन मतावलम्बियों की भी आराध्या देवी है। इसलिये यह मन्दिर जैन व हिन्दु दोनों परम्पराओं का पवित्र स्थल है। पश्चिमाभिमुख इस मन्दिर में एक गर्भगृह, एक प्रदक्षिणापथ, एक सभा मण्डप और एक उपमण्डप है। सभामण्डप का गुम्बद आठ बड़े अष्टभुजीय स्तम्भों पर टिका हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर का आधार पुराना है जबकि सभा मण्डप का निर्माण 12वीं शताब्दी के आसपास हुआ है। संवत 1234 के एक अभिलेख से पष्ट होता है कि एक धनी व्यापारी गयापाल ने मन्दिर की बाहरी दीवारों को सुसज्जित करवाया था। मन्दिर की बाहरी दीवारों पर चण्डिका, सच्चिका और मातृका का अंकन है। मातृका को एक गधे पर बैठा दिखाया गया है। इसको शीतला के साथ भी समेकित किया जा सकता है। जैसा कि उक्त अभिलेख में भी वर्णित है। सच्चिया माता के चारों और कई मन्दिर है उनमें से एक विष्णु को समर्पित है । इस मन्दिर के सभामण्डप की भित्ति पर भी मूर्तियों का अंकन है। एक रूपांकन में पुरुष प्रतिमा बांसुरी बजाते हुये तथा एक स्त्री प्रतिमा कमल के फूल के साथ निदर्शित की गयी है। भण्डारकर ने इस युगल को राधा और कृष्ण के रूप में माना है। इस मन्दिर की बाहरी दीवारों पर गणेश और सूर्य की प्रतिमाओं का अंकन है। मण्डप में विष्णु और संकर्षण का अंकन किया गया है। गर्भगृह की बाहरी दीवार की ताकों पर अर्द्धनारीश्वर व गणेश का अंकन है। मूर्तियां का यह निदर्शन सौर व वैष्णव परम्पराओं के समाहार का प्रतीक है। यह अन्य प्रतिमा हरिहर की है जो कि विष्णु व शिव के समाहार का प्रतीक है। सच्चिया माता के निकट का एक अन्य लघु मन्दिर भी सूर्य व वैष्णव परम्पराओं के रूपाहार को व्यक्त करता है। इस मन्दिर के लताबिम्ब पर विष्णु की एक प्रतिमा गरुड़ पर आरूढ़ प्रदर्शित है जबकि गर्भगृह की बाहरी दीवार पर शिव, ब्रह्मा, विष्णु की त्रिमूर्ति और सूर्य को विष्णु के अवतार के रूप में रूपांकित किया गया है।

ओसियां के मूर्ति शिल्प का महत्व:

ओसियां के मन्दिरों का मूर्ति शिल्प अभिप्राय व लाक्षणिकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। ओसियां के मन्दिर राजस्थान क्षेत्र के प्राचीनतम् मन्दिर है। बाह्य अलंकारों और दैनन्दिन जीवन के रूपांकन के कारण यह सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के पुननिर्माण में महत्त्वपूर्ण है।

बुचकला- बुचकला जोधपुर से करीब 40 किमी दूरी पर अवस्थित है। 19 यहां दो मन्दिर है जो भग्नावस्था में है। स्थानीय परम्परा में इसे शिव पार्वती मन्दिर के रूप में जाना जाता है परन्तु मूलतः यह विष्णु और पार्वती को समर्पित मन्दिर हैं। यह इन दोनों मन्दिरों के पृष्ठ भाग के प्रधान ताकें पर निर्मित प्रतिमा से स्पष्ट होता है। विष्णु मन्दिर, जिसे स्थानीय परम्परा में पार्वती मन्दिर के रूप में जाना जाता है, ऐतिहासिक दृष्टि से इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां से 815 ई. का नागभट्ट द्वितीय के शासनकाल का अभिलेख मिला है। इसी आधार पर पार्वती मन्दिर को भी जो शिव मन्दिर के रूप में प्रसिद्ध हैं नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में निर्मित मान सकते हैं। ये दोनों मन्दिर जगती अधिष्ठान पर रूपांकित मूर्ति शिल्प के लिये महत्वपूर्ण है।

किराडू- किराडू का प्राचीन नाम किराटकूप मिलता है। किराडू के मन्दिरों में सोमेश्वर मन्दिर अपने समृद्ध मूर्ति शिल्प के लिये महत्त्वपूर्ण है। 12 सोमेश्वर मन्दिर के स्तम्भ इस तथ्य के प्रमाण हैं कि किस प्रकार मूर्ति शिल्प वास्तु संरचना का एक पूरक अनुगामी बन गया। सोमेश्वर मन्दिर की मूर्तियां यद्यपि कलात्मक दृष्टि से बहुत उल्लेखनीय नहीं है परन्तु यहां की मूर्ति सम्पदा अपने धर्मेतर रूपांकन के लिये विशेष उल्लेखनीय है ।

मूर्ति शिल्प सांस्कृतिक जीवन के स्रोत के रूप में

भारतीय मूर्ति शिल्प वास्तु परम्परा की अनुषंगिक कला के रूप में प्रधानतः जान पड़ती है मूर्ति शिल्प का मुख्यतः प्रयोग मन्दिरों में अलंकरणों के लिये ही किया गया। चूंकि मूर्ति शिल्प मन्दिर वास्तु के साथ संयुक्त है अतैव भारत की मूर्ति शिल्प परम्परा में प्रधानतः धार्मिक रूपांकन ही प्राप्त होते है। धार्मिक मूर्ति परम्परा की भारत में एक समृद्ध परम्परा है जिसमें विभिन्न देवी-देवताओं की लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता को अनुशासनिक गंभीरता के साथ निर्दिष्ट किया गया है एक दूसरे स्तर पर मन्दिरों से प्राप्त मूर्तिशिल्प नितान्त सामान्य जनजीवन को भी अभिव्यक्त करता है क्योंकि कलाकारों ने मन्दिर की बाहरी दीवारों, जगती, अधिष्ठान और गर्भगृह के शिखर तक सामान्य मानवीय चेष्टाओं को उकेरा है। पूर्व मध्यकाल में निर्मित खजुराहों और कोणार्क के मन्दिर दैनन्दिन जीवन और मानवीय चेष्टाओं की व्यापक झांकी प्रस्तुत करते है।

मारवाड़ के मन्दिर भी इस दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। ओसियां के सच्चिया माता की जगती पर शासक की मूर्ति उकेरी गयी है जिसकी लम्बी दाढ़ी और मूँछे है। उसके लम्बे बाल जुड़े के रूप में बंधे है। कानों में छोटे कुंडल है और गले में रुद्राक्ष की माला है। अधविसु के रूप में एक धोती को रूपांकित किया गया है इससे स्पष्ट होता है कि उच्च वर्ण में लम्बे बाल व दाढ़ी रखने की परम्परा थी । एक अन्य प्रतिमा में दाढ़ी वाला व्यक्ति खड़ी मुद्रा में दिखाया गया है। उसके हाथों में भारी-भरकम माला है जो सामने खड़ी महिला को पहनाने को उद्धत है। स्त्री के अंकन में लहरदार घाघरा और चोली को दिखाया गया है। स्त्री की प्रतिमा आभूषणों से सुसज्जित हैं। माथे पर चोटला व हाथों में बाजूबंद विशेष उल्लेखनीय है। यह विवाह का दृश्य है और जो इस बात की पुष्टि भी करता है कि विवाह की अनुष्ठानिक परम्परा में वरमाला का विधान प्राचीनकाल से भी रहा है। किराडू के सोमेश्वर मन्दिर में भी एक भारी भरकम माला लिये एक पुरुष आकृति अंकित है जिसका मुख गोलाकार है और लम्बे बाल जुड़ें में आविष्ट हैं नीचे दांयी ओर एक स्त्री परिचारिका का भी अंकन है जो संकेकित करता है कि पुरुष आकृति शासकीय वंश के किसी व्यक्ति की है। मारवाड़ के मन्दिरों में भिक्षुओं का प्रचुर मात्रा में अंकन है। आमतौर पर भिक्षुओं का अंकन मन्दिर की जंगा प्रदेश में किया गया है। भिक्षुओं का अंकन खड़ी मुद्रा में है। अधिकांशत: उष्णीश शीश हैं। कानों में बालियाँ है, गले में रुद्राक्ष की कंठी है और हाथों में कमंडल को दिखाया गया है। भिक्षुक परम्परा के आचार व्यवहार में ऐतिहासिक रूप में कोई बदलाव नहीं हुआ है। ये इन मूर्तियों से प्रकट होता है।

मन्दिरों में गंधर्व, अप्सरा और यक्ष की मूर्तियां भी बहुतायत से मिलती है प्राचीन और मध्यकालीन लोक परम्परा में गंधर्व अप्सराओं को प्रदर्शन कलाओं जैसे नृत्य, संगीत इत्यादि में निपुण माना जाता था। इन्हें अर्द्ध देवता के रूप में पूजा जाता है। यक्ष और यक्षिणिओं को मन्दिर में उड़ते हुये या शंख बजाते हुये निदर्शित किया गया है। इसी प्रकार गंधवों को संगीत वाद्य यंत्र बजाते हुये दिखाया गया है। ओसियां के हरिहर प्रथम मन्दिर में लताबिम्ब के दोनों ओर उड़ते हुये गंधर्वो को दिखाया गया है। गंधर्व जिनका रूपांकन अत्यन्त सुन्दरता के साथ किया गया है अपनी सुन्दर ध्येय दृष्टि के लिये जाने जाते थे। मन्दिरों में इनके निर्देशन के पीछे की मूल प्रेरणा यह विश्वास था कि गंधर्व उपासकों के सौभाग्य का हेतु बनते है।

अपसरायें जिन्हें देवांगना के रूप में जाना जाता है, वास्तव में सर्वश्रेष्ठ स्त्री सौन्दर्य और काम कलाओं का मानवीय अलंकरण हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार अप्सराओं का जन्म ब्रह्मा की कल्पना से हुआ। अप्सराओं को नृत्य, संगीत, गायन में निपुण माना जाता है। पुराणों की कई कथाओं में अप्सराओं को इन्द्र की ओर से प्रतिद्वंद्वियों को काम में वशीभूत करते दिखाया गया है। मन्दिर के अधिष्ठान पर अधिकांश स्त्री मूर्तिया अप्सराओं को समर्पित हैं। जहां अप्सराओं को नृत्य करते, वाद्य यंत्र बजाते हुये और विभिन्न आंगिक चेष्टाओं के माध्यम से लुभाते दर्शाया गया है। इन दशकंनो के माध्यम से सामान्य जनजीवन का व्यापक अवबोधन होता है। जैसे झूला झूलने के दृश्य, गेंद खेलने के दृश्य, पतंगबाजी के दृश्य तत्कालीन जनजीवन के आमोद-प्रमोद की प्रवृत्तियों को प्रकट करते है। कतिपय दृश्यांकनों में एकाधिक अप्सरा को पुरुष आकृति के साथ दिखाया गया है और ऐसा चित्रण उपवन, शिकार के दृश्यों इत्यादि में भी दिखायी पड़ता है जिससे व्यंजित होता है कि सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की संतोषजनक सहभागिता थी किराडू के सोमेश्वर मन्दिर में जो कतिपय युगल मूर्तियां है वे उन्मुक्त काम चेष्टाओं को व्यक्त करती है। एक युगल को लदे हुये आम के वृक्ष के नीचे झूले पर बैठे दिखाया गया है। जहां पुरुष आकृति अपने दोनों हाथों से स्त्री की चिबुक को उठाते हुये निहार रही हैं।

ये मूर्तिशिल्प स्त्री-पुरुष संबंध की उन्मुक्ता व सहजता को व्यक्त करता है।

मारवाड़ के मन्दिरों में नृत्य व संगीत के दृश्य प्रचूर मात्रा में विद्यमान हैं। बुचकला के पार्वती मन्दिर की जगती पर ऐसे बारह दृश्य हैं जिनमें विभिन्न पुरुष और स्त्री आकृतियां वीणा, मृदंग, तुरही और शंख को बजाते दिखाये गये है। इनमें पुरुष आकृतियां धोती और लंबा कुर्ता पहने है जिसके सिर पर पगड़ी व कानों में कुंडल हैं। स्त्री आकृतियां घाघरे और कंचुकी में दिखायी गयी हैं। जिनके सिर अनात है। स्त्रियों के हाथों में मोटे कड़े और बाजूबंद है तथा पैरों में पायजेब दृष्टिगोचर होती है। इसी प्रकार सोमेश्वर मन्दिर के सभामंडप में पुरुष आकृतियों को होल के साथ दिखाया गया है। इन समस्त मूर्तियों को एक संदर्भ विशेष में देखने से यह स्पष्ट होता है कि संगीत और नृत्य की इस अंचल में समृद्ध परम्परा थी जिसमें स्त्री और पुरुष मुख्य रूप से भाग लेते थे। प्राचीन और मध्यकाल में स्त्री की सामाजिक स्थिति को लेकर फैली समस्त भ्रांतियों के बावजूद मारवाड़ के मन्दिरों का मूर्ति शिल्प यह निर्विवाद रूप से यह प्रकट करता है कि स्त्रियों को समाज में समादृत किया जाता था। यदि हम मारवाड़ के इन मन्दिरों की स्त्री मूर्तियों का ही अध्ययन करें तो यह पायेंगे कि वो स्त्रियां अनेकानेक प्रकार की गतिविधियों में संलग्न है। किसी दृश्य में तोते के साथ खेलती दिखायी गयी है (सुरसारिका) । किसी दृश्य में अपने पैर से कांटा निकालती दिखायी गयी हैं (सौभाग्यकांक्षिणी)। किसी में आम के पेड़ की डाली को पकड़े दिखायी गयी हैं (अमलुखिका) किसी दृश्य में धनुष बाण लिये दिखायी गयी हैं (छापावती)। किसी में वीणा बजाते दिखायी गयी हैं (वीगावंशी) किसी में कटार लिये दिखायी गयी है (मेनका) किसी में पत्र लिखते दिखायी गयी है (पत्रलेखा)।

निष्कर्ष

इससे यह ध्वनित होता है कि स्त्रियां जीवन की हर गतिविधि में सम्मिलित थी और सामाजिक जीवन में उन पर कोई अंकुश नहीं था। मारवाड़ के मन्दिर सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन मन्दिरों की बाहरी भित्तियां पर कामविलास करते युगलों की मूर्तियां उत्कीर्ण है, ओसियां किराडू एवं रणकपुर आदि मन्दिरों में इनका अंकन हुआ है ऐसी मूर्तियां शिल्प ग्रन्थों वृहतसंहिता, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्नि पुराण आदि के अनुसार ही स्थापत्यीय अलंकरण के लिए बनाई गई है, सौन्दर्य, अनुभूति और उसकी अभिव्यंजना को अभिव्यक्त किया गया है उनका प्रदर्शन एक लोकोत्तर और आलौकिक कला के सृजन के उद्देश्यों से रस की निष्पति के लिए हुआ है। जिससे सहृदय और सामाजिक रसिक को सौन्दर्यनंद की अनुभूति हो । यही मूर्तियों के मन्दिरों में प्रदर्शन का शास्त्रीय रहस्य है।

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