P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VIII , ISSUE- II May  - 2023
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
‘‘भारत में पंथनिरपेक्षता’’
"Secularism in India"
Paper Id :  17896   Submission Date :  11/05/2023   Acceptance Date :  20/05/2023   Publication Date :  25/05/2023
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बृज भूषण
एसोसिएट प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय काँधला (शामली)
कांधला,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश प्रस्तुत ‍शोधपत्र भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता के प्रावधानों के प्रकाश में इस सिद्धान्त की व्यवहारिक वास्तविकताओं को परखने का प्रयास करता है। कोई भी राज्य मात्र संवैधानिक प्रावधानों से ही पंथनिरपेक्ष स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि प्रावधानों व राज्य की नीति व निर्णयों में विसंगतियाँ न हो। लेकिन व्यवहार में कुछ विसंगतियाँ दिखाई देती है जो भारत की पंथनिरपेक्षता पर प्रश्न चिहृ है। भारत की संसद व न्यायपालिका इन विसंगतियों पर गम्भीरता से विचार कर सकती है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The present research paper tries to examine the practical realities of this principle in the light of the provisions of secularism in the Indian Constitution. No state can achieve secular character only by constitutional provisions unless there are discrepancies in the provisions and the policy and decisions of the state. But there are some anomalies in practice which is a question mark on India's secularism. The Parliament and Judiciary of India can seriously consider these anomalies.
मुख्य शब्द पंथनिरपेक्षता, संगठित व असंगठित रीलिजन, पूर्वागृहवादी पंथनिरेपक्षता, तटस्थतावादी पंथनिरपेक्षता, रीलिजियस टकराव।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Secularism, Organized and Unorganized Religion, Pre-dominant Secularism, Neutralist Secularism, Religious Conflict.
प्रस्तावना
प्रागैतिहासिक काल से ही रीलिजन समाज में एक सशक्त संस्था के रूप में कार्यशील रहा है। पुरातन काल में यह संस्था असंगठित रूप में क्रियाशील तथा स्थानीयता की विशेषताओं से युक्त रही है अर्थात् छोटे भूभाग में व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान के साथ जीवन व्यतीत करते थे। परन्तु विगत 2000 वर्षो से इस संस्था ने संगठित स्वरूप धारण करना प्रारम्भ कर दिया, परिणामस्वरूप इस संगठित संस्था ने अपेक्षाकृत छोटे व असंगठित रीलिजनों के अस्तित्व को चुनौती देना प्रारम्भ किया। संगठित प्रयासो से आज समाज में अनेक रीलिजन अपनी-अपनी वैश्विक पहचान के साथ अस्तित्व में है। छोटे, स्थानीय तथा असंगठित रीलिजन संगठित रीलिजनों का ग्रास बन गये। आज अनेक संगठित रीलिजन अपनी-अपनी वैश्विक पहचान व सत्ता के साथ विश्वभर में क्रियाशील है। इनमें प्रमुख अब्राहमिक रीलिजन (यहूदी, इसाई व इस्लाम), पारसी, हिन्दूज्म/हिन्दूत्व (वैदिक/सनातनी, बौद्ध, जैन, सिख) इत्यादि है। प्रत्येक रीलिजन अपने-अपने पूर्व निर्धारित मानकों के अनुसार अपने अनुयायियों के व्यक्तित्व का निर्माण करते है तथा अनेक व्यवहारों को नियन्त्रित व निर्देशित करते है तथा दावा किया जाता है कि यह रीलिजन की सकारात्मक भूमिका है। इस तथाकथित सकारात्मक भूमिका का परिणाम यह होता है कि भिन्न-भिन्न रीलिजनों (विश्वासों) के लोग व्यक्तित्व निर्माण की विभेदीकृत प्रक्रिया के कारण मतविभिन्नताओं वाले संगठित समुदाओं में बंट जाते है। संगठित समुदाओं की ये मतविभिन्नताएँ विशिष्ट पहचान व्यक्ति व समुदाओं को घमण्ड तथा श्रेष्ठता की भावनाओं से युक्त कर देती है जो समाज में रीलिजियस संघर्षों का कारण बनती है। ये संघर्ष, रीलिजन के, व्यवस्था में नकारात्मक योगदान कहे जाते है। मानव सभ्यता रीलिजनों के पारस्परिक रक्तरंजित संघर्षों की साक्षी रही है। भारतीय सन्यासी स्वामी विवेकानन्द जी का इस सम्बन्ध में कथन है कि मानव सभ्यता में भूख व अकाल ये शायद ही इतने लोग मरे हो जितने रंक्तिरंजित रीलिजनियस संघर्षों से। प्रश्न उठता है कि रीलिजनों में पारस्परिक संघर्ष होते क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर रीलिजन विशेष (विशेषकर अब्राहमिक रीलिजनों) की संरचनात्मक-संगठनात्मक विशिष्टताओं में ही निहित है जैसे- 1. रीलिजियस पहचान के चार प्रमुख कारक, एक संस्थापक, एक पवित्र पुस्तक, एक प्रार्थना पद्धति, एक केन्द्रिय सत्ता, इन चारों कारकों के प्रति एक अनुयायाी समर्पित व प्रतिबद्ध होता है जो उसकी अन्योें से भिन्न पहचान निर्मित करते है। 2. प्रत्येक रीलिजन की तीन प्रमुख मान्यताएँ होती है - अन्तिम निष्कर्षवादी अर्थात केवल यही एक सच्चा रीलिजन है, ऐसा दावा करना, असमावेशी अर्थात जो इस रीलिजन का पालन नहीं करते वे साॅल्वेशन या मुक्ति के पात्र नहीं होगें, प्रथकतावादी अर्थात जो इस सच्चे मार्ग को धारण करता है वह अन्य मार्ग को धारण नहीं कर सकता। 3. विश्वासों की व्यवस्था है - रीलिजन का अस्तित्व ही विश्वासों पर टीका होता है जो गैर तार्किक होने के साथ-साथ प्रश्न न उठाने की प्रतिबद्धता से मजबूती पाते है। विश्वासों की व्यवस्था में विश्वास करना ही सत्य होता है। 4. रीलिजन व विज्ञान का पारस्परिक विरोधी होना। 5. रीलिजन में अनुयायियों के लिए निषेधों ‘चाहिए’ तथा ‘‘नहीं चाहिए’’ की व्यवस्था। किसी भी रीलिजन की उक्त पांच विशिष्टताएँ अपने अनुयायियों में अलग रीलिजियस पहचान के प्रति प्रतिबद्धता, श्रेष्ठता की भावना तथा विश्व भर में अपनी रीलिजियस सत्ता स्थापित करने की दृढ़ इच्छा उत्पन्न करते है जो रीलिजियस संघर्षों का कारण बनते है इन रीलिजियस संघर्षो के समाधान के लिए ही पश्चिमी विश्व (यूरोप) ने एक अवधारणा को जन्म दिया जो सेक्यूलराइजेशन के नाम से जानी जाती है। यद्यपि रीलिजियस समुदायों में पारस्परिक टकराव हमेशा रहा है, परन्तु सेक्यूलराइजेशन की शुरूआत इसके कारण नहीं हुई। इसकी शुरूआत तब हुई जब यूरोपियन राष्ट्रों में चर्च व राज्य के बीच संघर्ष तीव्र होेने लगे। चर्च व राज्य के बीच संघर्षों ने यूरोपियन बुद्धिजीवियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया तथा इसने एक विमर्श को जन्म दिया जिसका मुद्दा बना ‘‘रीलिजन व राज्य के बीच सम्बन्ध कैसे हो’’? इस व्यापक विमर्श के कारण 16वीं व 17वीं शताब्दी के यूरोप में चर्च व राज्य के टकराव के समाधान हेतु सेक्यूलराइजेशन को एक माध्यम के रूप में स्वीकारा गया। इस विमर्श में यूरोपियन बुद्धिजीवी दो धडो में बट गये। एक धडा जो रिलीजन के सक्रिय बहिस्कार के समर्थन में था, वही दूसरे पक्ष की मान्यता थी कि रिलीजन को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि वह समाज में एक मजबूत संस्था के रूप में कार्यशील है तथा यह व्यक्तिगत तथा सामुदायिक इच्छाओं का विषय है। इस प्रकार सेक्यूलरिज्म को लेकर बुद्धिजीवियों के दृष्टिकोणों को दो भागों में बांटा जा सकता है- 1. तटस्थतावादी पंथनिरपेक्षता 2. पूर्वाग्रहवादी पंथनिरपेक्षता। तटस्थतावादी पंथनिरपेक्षताः- इसकी मान्यता है कि रिलीजन एक सामाजिक वास्तविकता है इसके स्वरूप विविध है, लोग विभिन्न रिलीजन अपनाते है इसलिए राज्य को सभी रीलिजनों का सम्मान करना चाहिए। राज्य को एक रिलीजन के कानूनों को अपनाकर सभी के ऊपर नहीं थोपना चाहिए। यह सिद्धान्त अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग ढंग से लागू हो सकता है। यह दृष्टिकोण नागरिकों के रिलीजन अपनाने या न अपनाने की स्वतन्त्रता के पक्ष में है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसी दृष्टिकोण को अपने संविधान में अपनाया है। पूर्वाग्रहवादी पंथनिरपेक्षता:- यह दृष्टिकोण रिलीजन के सक्रिय बहिस्कार का समर्थन करता है अर्थात् न रहेगा बांस और न ही बजेगी बांसूरी। इस सिद्धान्त का मानना है कि राज्य और रिलीजन के टकराव को समाप्त करने का यहीं एक स्थाई मार्ग है। यह दृष्टिकोण रिलीजन का विरोधी व निंदक है इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी कहा जाता है। इसकी मान्यता है कि रीलिजन एक अवैज्ञानिक सामाजिक संरचना है। एक पंथनिरपेक्ष राज्य को चाहिए कि वह लोगों को इस लत से दूर करें। सभी राज्य इस दृष्टिकोण को अपना सकते है भले ही उन्होंने रीलिजियस संघर्षों का सामना न किया हो। राज्य को रिलीजन के मामलों में सक्रिय विरोध का अधिकार प्राप्त होता है। यू॰एस॰एस॰आर॰ ने इस दृष्टिकोण की वकालत की है। 1977 के सोवियत संविधान में व्यवस्था की गयी है कि यू॰एस॰एस॰आर॰ के नागरिकों को अंतरात्मा की स्वतन्त्रता की गारंटी दी जाती है यानि कि किसी भी रिलीजन को मानने व न मानने या नास्तिक प्रचार करने की स्वतन्त्रता थी। .......... यू॰एस॰एस॰आर॰ ने चर्च को राज्य से तथा स्कूल को चर्च से अलग कर दिया गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने इस सिद्धान्त को खारिज कर दिया। 1993 का संविधान धर्म की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है तथा रीलिजियस घर्णा के प्रचार पर रोक लगाता है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत पेपर का उद्देश्य भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता के प्रावधानों के प्रकाश में इसकी जमीनी व व्यवहारिक वास्तविकताओं को तर्क संगत ढंग से परखने का प्रयास है।
साहित्यावलोकन

भारत में पंथनिरपेक्षता को लेकर बुद्धिजीवी एक मत नहीं है। एक वर्ग वह है जो इसे यूरोपियन समाज की अवधारणा मानकर भारतीय समाज की संस्कृति व राष्ट्र दोनों के विपरीत मानते हुए इसे अनावश्यक थोपा गया सिद्धान्त मानते है। दूसरा वर्ग जो पंथनिरपेक्षता का समर्थक है और इसकी पेरोकारी करता है वह भी इसकी व्यवहारिकता को लेकर अप्रसन्नता व्यक्त करते है। इनमें से दोनों वर्गो की प्रतिक्रियाएँ इस प्रकार है। राजमोहन गाँधी (2020), अपने एक व्याख्यान में प्रतिक्रिया देते हुए कहते है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता का अभी भी भविष्य है यदि इसके अनुयायी आर॰एस॰एस॰ पर आरोप-प्रत्यारोप करना बंद कर दे। नहीं भूलना चाहिए कि आर॰एस॰एस॰ को भी धर्मनिरपेक्षता ने निम्न जातियों के हिन्दुओं को स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया है। हांलाकि आर॰एस॰एस॰ की अपने स्थापना काल से ही यह मान्यता रही है कि जाति हिन्दू समाज के विघटन का प्रमुख कारण है। फेमिनिएट इंडिया (2022), पंथनिरपेक्षता को धार्मिक स्वतन्त्रता एवं मौलिक अधिकारों के साथ जोड़कर देखने का प्रयास करती है। इनका कहना है कि कर्नाटक राज्य में हिजाब प्रतिबन्द का वर्तमान मामला न केवल धार्मिक स्वतन्त्रता से सम्बन्धित है बल्कि यह व्यक्ति की शिक्षा, जीवन व स्वतन्त्रता का भी अधिकार है जिसे सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है। स्कूल में कुछ ड्रेस कोड के कारण सिर पर स्कार्फ व हिजाब पर प्रतिबन्द लगाना मनमाना आदेश है। पवन मिनोचा (2022), अपने एक लेख में लिखते है कि एक राष्ट्र एक रीलिजन भारत की पंथनिरपेक्षता का खलनायकीकरण है।................. भारत में कुछ होता दिखाई दे रहा है। इस प्रकार उपरोक्त तीनों प्रतिक्रियाएँ पंथनिरपेक्षता के समर्थकों की व्यवहारिक निराशा की ओर संकेत करती है। दूसरे वर्ग के बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह सिद्धान्त भारतीय समाज के मूल्यों के अनुरूप नहीं है तभी तो इसके समर्थक भी इसकी भारत में व्यवहारिकता के लेकर निराश है। इस सिद्धान्त के विरोधियों का मानना है कि भारत के सन्दर्भ में यह अनुपयुक्त व अनावश्यक है। माइकेल दानिनो (2018), ‘‘क्या भारत पंथ निरपेक्ष है?’’ इस पर प्रतिक्रिया देते है कि यह अनावश्यक है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहाँ व्यवहार में ‘‘धर्म’’ की धारणा कार्यशील है जो रीलिजन की धारणा से बिल्कुल भिन्न है, वहाँ पंथनिरपेक्षता क्यों? प्रदीप चावला (2018), अपने इस पर विषय पर लिखे गये निबन्ध में कहते है कि भारत में पंथनिरपेक्षता के पेरोकारों की कुछ ऐसी मान्यताएँ है कि यदि अल्पसंख्यक अपने मत का प्रचार-प्रसार कर मतांतरण कराये तो सही है और यदि कार्य बहुसंख्यक समाज करे तो पाप है यह कैसी पंथनिरपेक्षता है? संविधान विशेषज्ञ श्री सुभाष कश्यप (2013) ने पंथनिरपेक्षता के राजनीतिकरण पर आपत्ति जताते हुए कहा कि देश में पंथनिरपेक्षता का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। जो सत्ता प्राप्ति के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाई जा रहीं है वह समाज को बांटने की कोशिश है।

मुख्य पाठ

भारत में पंथ निरपेक्षता की स्थिति को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम भारत में इस अवधारणा की स्थापना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझे। जैसा कि हम जानते है कि पंथनिरपेक्षता एक यूरोपयिन विचार है जो राज्य व चर्च के संघर्षों का समाधान करने के लिए 16वीं व 17वीं शताब्दी के यूरोपियन वैचारिक विमर्श की देन है। अतः स्पष्ट है कि दो संस्थाओं (रीलिजन व राज्य) के बीच टकराओं के समाधान के रूप में इस विचार को, विभिन्न दृष्टिकोणों से, स्वीकारा गया। जिस समय यूरोप में यह विचार जन्म लेकर पल-बढ़ रहा था, क्या उस समय भारत में भी रीलिजन व राज्य आपस में टकरा रहे थे? सच यह है कि उस समय का भारत जिसके अधिकतर भू-भाग पर (दक्षिण भारत के अलावा) इस्लामिक राज्यसत्ता का कब्जा हो चुका था, जो इस्लामी मान्यताओं व कानूनों के अनुसार शासित हो रहा था। जिस जनता पर ये इस्लामी बादशाह राज्य कर रहे थे वें अधिकतर विभिन्न पंथों को अपनाने वाली असंगठित भीड़ थी जो सनातनी, वैदिक, हिन्दू इत्यादि कहे जाते थे। क्या 16वीं, 17वीं शताब्दी की भारत की जनता (असंगठित भीड़) की कोई रीलिजियस पहचान थी? इसका उत्तर है नहीं। उस समय की बहु सांस्कृतिक भारतीय जनता, जो गुलामी का सामना कर रही थी, की कोई एक रीलिजियस पहचान नहीं थी। उस समय का भारतीय जन समूह भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक पहचानों से तो युक्त था परन्तु किसी एक रीलिजियस पहचान से मुक्त था। इसका कारण है कि 11वीं, 12वीं शताब्दी तक भारत में रीलिजन की अपेक्षा धर्म की अवधारणा प्रबल थी, जो भारत की मूल अवधारणा है। लम्बे इस्लामिक शासन के कारण भारतीय जनता पर इस्लाम का प्रभाव पड़ा जिसके परिणामस्वरूप भारत के जन अपने मूल मत को छोड़कर इस्लामिक मत को अपनाने लगे। वैचारिक रूप से यह मत परिवर्तन धर्म से रीलिजन की ओर होने वाला परिवर्तन कहा जा सकता है। ध्यान रहें धर्म व रीलिजन अलग-अलग अवधारणाएँ है।लम्बे विदेशी इस्लामिक शासन के बाद (जिसमें इस्लाम स्थाई जड जमा चुका था), भारत पर कब्जा यूरोपियन आक्रमणकारियों (डच, फ्रांसीसी, ब्रिटिश इत्यादि) का हो गया। लगभग 175 वर्षो के ब्रिटिश शासन के फलस्वरूप भारत में इसाईयत ने अपने पैर जमाये। इस काल में भी फिर से भारत के लोगों का मत परिवर्तन धर्म से एक नये रीलिजन (ईसाइयत) की ओर हुआ। इस प्रकार लगभग सात शताब्दियों तक विदेशी शासकों के आक्रमण व शासन का सामना करने पर, भारतीय सभ्यता जो धर्म तत्व की प्रधानता के कारण बहु सांस्कृतिक, आध्यात्मिकता व सहअस्तित्वादी विशेषताओं से युक्त थी, 20वीं शताब्दी तक बहुरीलिजियस भी हो चुकी थी। विभिन्न रीलिजन जैसे- इस्लाम, ईसाइयत, यहूदीयत इत्यादि भारतीय समाज का हिस्सा बन चुके थे। दुर्भाग्य से रीलिजन ही वह कारण बना कि जिसके आधार पर 1947 में भारत राष्ट्र का विभाजन हुआ। 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों ने भारत के लोगों को सत्ता हस्तान्तिरत की जो तथाकथित स्वतन्त्रता कहीं जाती है लेकिन इस स्वतन्त्रता के एक दिन पहले यानि कि 14 अगस्त 1947 को रीलिजियस आधार पर भारत दो राष्ट्रों में विभाजित हुआ, एक इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान तथा दूसरा शेष भारत। पाकिस्तान ने इस्लाम को अपना राष्ट्रीय/राजकीय रीलिजन घोषित किया अर्थात् पाकिस्तान के इस कदम से वह एक गैर सेक्यूलर राष्ट्र बन गया जबकि दूसरी ओर भारत ने किसी भी रीलिजन को यह दर्जा नहीं दिया तथा सभी धर्मो रीलिजनों को स्वतन्त्रतापूर्वक नागरिक के रूप में जीने व रहने का अधिकार दिया। भारत ने यहीं नहीं किया वरन् भारत में निवास करने वाले गैर हिन्दू समुदाओं को रीलिजियस अल्पसंख्यक का भी दर्जा दिया और इस हेतु इनके हितों के रक्षार्थ संविधान में विशेष प्रावधान भी किये। भारत का यह कदम ही सेक्यूलरिज्म के नाम से जाना जाता है। पंथ निरपेक्षता राज्य को किसी रिलीजन विशेष को न केवल संरक्षण देने से रोकती है वरन् रीलिजन के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव पर प्रतिबन्ध लगाती है। यह अवधारणा किसी भी रीलीजन का विरोध नहीं करती है और रीलिजन का बहिष्कार करने वालों को भी सम्मान देती है। यद्यपि विभाजन के बावजूद भारत को 1947 में औपचारिक रूप से सेक्यूलर नेशन घोषित नहीं किया गया फिर भी लगभग 29 वर्षों बाद 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा पंथ निरपेक्षता को पुनः परिभाषित किया गया तथा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी पंथ निरपेक्षता शब्द जोड़ा गया। हालाकि पहले से ही पंथनिरेपक्षता की भावना भारतीय संविधान में निहित थी, जो भारतीय संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) से स्पष्ट होती है। भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुरूप पंथनिरपेक्षता को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि ‘‘भारत सरकार रीलिजन के मामले में तटस्थ रहेगी। इस तटस्थता का अर्थ है कि राज्य का कोई रीलिजन नहीं होगा, सभी नागरिकों को इच्छानुसार रीलिजन के साथ जीने का अधिकार होगा। राज्य किसी भी रीलिजन का न पक्ष लेगा और न ही विरोध करेगा। राज्य रीलिजन के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगा।’’

भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता का सकारात्मक पक्ष यह है कि किसी भी प्रकार के रीलिजियस टकराव रोकते हुए सभी समुदायों को एकता के सूत्र में बांधती है तथा किसी भी समुदाय के वर्चस्व की विरोधी है। यह अवधारणा राज्य व रीलिजन का पृथक्करण करते हुए मानव कल्याण को बढ़ावा देती है। इस तरह लिखित संवैधानिक प्रावधानों के तौर पर तो यह अवधारणा सकारात्मक दिखाई देती है परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं है, जिसका प्रमाण है भारत में साम्प्रदायिक टकराव व संघर्ष। लोकतन्त्र में वोट महत्वपूर्ण होता है जो वोट की राजनीति या वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है। इस वोट बैंक को बनाने के लिए राजनीतिक दलों को तुष्टिकरण की नीति का सहारा लेना पड़ता है जो परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक कटुता को जन्म देती है। बहुसंख्यक समुदाय के मन में यह धारणा चलती है कि राज्य अल्पसंख्यकों के कल्याण द्वारा उनकी अनदेखी कर रहा है तो दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के मन में यह बात घर कर जाती है कि राज्य बहुसंख्यकों के वर्चस्ववाद का हिमायती है। ये शंकाए ही सामुदायिक संघर्षों का कारण बनती है। स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में हुए सैकड़ों साम्प्रदायिक दंगों, 1990 में कश्मीर घाटी से हिन्दुओं का पलायन, 1992-93 के मुम्बई दंगें, 2003 के गुजरात दंगे, सी॰ए॰ए॰ तथा एन॰आर॰सी॰ के विरोध में भडकी हिंसा, 2020 के दिल्ली दंगें इत्यादि। ये उदाहरण पंथ निरपेक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाते है। कोई भी राज्य मात्र संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर व्यवहार में पंथनिरपेक्ष राज्य नहीं बन सकता जब तक कि राष्ट्र की जमीनी वास्तविकताओं को समझते हुए निर्णय व नीति निर्माण न हो। दुर्भाग्य से भारत में यही हो रहा है जो सिद्ध करता है कि भारत एक संवैधानिक प्रावधानों वाला पंथनिरपेक्ष राज्य है जो कभी-कभी व्यवहार में दिखाई ही नहीं देता है। ऐसा क्यों? वास्तव में भारतीय समाज के सांस्कृतिक मूल्य तथा पश्चिमी विश्व (यूरोप) के सांस्कृतिक मूल्य समान नहीं रहे है। भारतीय संस्कृति में धर्म तत्व की प्रधानता रहीं है वहीं यूरोपीय संस्कृति रीलिजन प्रधान रहीं है। भारत की धर्म प्रधान संस्कृति में कभी भी राज्य व धर्म का संघर्ष नहीं हुआ, वही दूसरी ओर यूरोप की रीलिजन प्रधान संस्कृति में राज्य व चर्च के टकराव होने प्रारम्भ हुए परिणामस्वरूप राज्य व चर्च के प्रथककरण की मांग का उदय हुआ। ध्यान रहे ‘‘धर्म’’ व्यक्ति के कर्तव्यों का निर्धारण व स्पष्टीकरण करने की सार्वभौमिक अवधारणा है। जिसमें ईश्वर में विश्वासों तथा अविश्वासों का कोई स्थान नहीं है वहीं विश्वासों के अभाव में रीलिजन का अस्तित्व ही नहीं हो सकता है। यूरोप में विश्वासी, विपरीत विश्वासों तथा अविश्वासी व्यक्तियों के टकराव के कारण सेक्यूलरिज्म जैसी विचार की आवश्यकता पड़ी जबकि भारत में ऐसी परिस्थितियाँ कभी आयी ही नहीं। यही कारण है भारत विभाजन के बाद 1950 में बने संविधान में सोशियलिज्म तथा सेक्यूलरिज्म जैसे शब्द थे ही नहीं। ये दोनों शब्द 29 वर्षों के बाद आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के द्वारा भारतीय संविधान में जोड़े गये। इस औपचारिक कदम ने अनेक प्रश्नों को खडा कर दिया, कि 15 अगस्त 1947 से 1976 तक क्या भारत पंथनिरपेक्ष राज्य नहीं था? यदि नहीं था, तो तकनीकी रूप भारत की स्थिति क्या थी? वह स्पष्ट होनी चाहिए। यदि मान भी ले कि 1976 से पहले भारत पंथनिरपेक्ष राज्य नहीं था तो क्या एक लोकतान्त्रिक देश आपातकाल घोषित करके संविधान संशोधन कर पंथनिरपेक्षता की औपचारिक घोषणा कर सकता है? ये तमाम प्रश्न पंथनिरपेक्षता को लेकर भारतीय जनमानस के लिए भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा करते है। इस तरह भारत का रीलिजियस आधार पर विभाजन तथा 1947 से 1976 तक पंथनिरपेक्ष पर संवैधानिक अस्पष्टता व भ्रमपूर्ण स्थिति, ये दोनों साम्प्रदायिक तनाव का प्रमुख कारण बने है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि पंथनिरपेक्षता के स्थान पर धीरे-धीरे बुद्धिजीवियों ने धर्मनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग अपने लेखों में करना शुरू कर दिया। क्या पंथ के स्थान पर धर्म शब्द का प्रयोग सही है? माईकल डानिनो के शब्दों में ‘‘धर्म एक संस्कृत भाषा का शब्द है, हिन्दी भाषा में इसे रीलिजन के समकक्ष मान लिया गया है जो इस शब्द व धारणा के साथ बडा अन्याय है। धर्म में विश्वास व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है जैसा कि रीलिजन में।’’ भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री जवाहर लाल नेहरू, जो पंथनिरेपक्षतावादियों को अति प्रिय है, ने संविधान सभा में बोलते हुए कहा था कि जो भद्र जन सेक्यूलरिज्म शब्द का प्रयोग कर रहे है उन्हें इसके अर्थ को जानने के लिए अंग्रेजी शब्द कोश को देखना चाहिए। आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्सनरी के अनुसार सेक्यूलरिज्म का अर्थ है राज्य व रीलिजन को पृथक करना। फ्रांस के फिलोसोफर वाॅल्टेयर ने इसको राज्य के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तावित किया, जो राज्य को कैथोलिन चर्च के प्रभाव से मुक्त करना चाहते थे। मुस्लिम जगत में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने तुर्की में राजनीतिक आन्दोलन से एक सेक्यूलर रिपब्लिक की स्थापना की। रीलिजस आधार पर बटवारे के बावजूद भारत में ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं थी। शायद तत्कालीन संविधान सभा ने भारतीय संविधान में सेक्यूलरिज्म शब्द को जोडने की जरूरत नहीं समझी होगी। बस इतना अवश्य स्वीकार किया कि राज्य का कोई रीलिजन नहीं होगा तथा स्वेच्छानुसार नागरिकों को रीलिजन अपनाने की स्वतन्त्रता होगी। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि राज्य का कोई रीलिजन नहीं, तो भारतीय राज्य के सन्दर्भ में सेक्यूलरिज्म पर चर्चा ही क्यों की जाये? लेकिन चर्चा को तो छोडिए, भारत में 1976 में आपातकाल लगाकर संविधान की प्रस्तावना में संशोधन कर सेक्यूलरिज्म शब्द जोडा गया। जबकि उसी संविधान सभा में चर्चा रखते हुए ड्राफ्टिंग कमैटी के अध्यक्ष डा॰ भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि संविधान की प्रस्तावना, जो संविधान की मूल भावना को अभिव्यक्त करती है, में संशोधन नहीं होने चाहिए। परन्तु ऐसा किया गया। क्यों?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना रीलिजियस, जातिगत तथा लैंगिक समानता की गारन्टी देती है परन्तु भाषागत व रीलिजियस अल्पसंख्यक समुदाओं को अपने हितों की रक्षा हेतु, अनुच्छेद 28, 29 तथा 30 विशेषाधिकार भी प्रदान करता है विशेषकर पूजा/प्रार्थना स्थलों व शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्धन में! जबकि दूसरी ओर बहुसंख्यक समाज के हजारों मन्दिरों का प्रबन्धन व प्रशासन राज्य सरकारों के अधीन है तर्क दिया जाता है कि बहुसंख्यक असंगठित है अर्थात् बंटे हुए है। ईसाइयों, मुस्लिमों, यहूदियों, पारसियों, जैन, सिक्ख व बौद्धों को अपने प्रार्थना/पूजा स्थलों के प्रबन्धन का अधिकार है परन्तु प्रतिवर्ष हजारों करोड़ की आय देने वाले मन्दिरों पर सरकारी नियन्त्रण है। यह कैसा सेक्यूलरिज्म है? सम्भवतः भारत ही नहीं वरन् दक्षिण एशिया की सम्पत्ति के मामले में सबसे धनी मालाबार चर्च है। क्या राज्य उसे अपने नियन्त्रण में ले सकता है? नहीं, क्योंकि भारतीय संविधान इसकी अनुमति नहीं देता है। वहीं क्या संविधान मन्दिरों पर सरकारी नियन्त्रण की अनुमति देता है? भारतीय सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की याचिका लम्बित है। जब राज्य का कोई रीलिजन नहीं है तो वह मन्दिरों का प्रबन्धन क्यों करता है?। यही भारतीय पंथ निरपेक्ष राज्य की पहचान है? यहीं नहीं, जब एक ट्रस्ट द्वारा सोमनाथ के मन्दिर का संरक्षण व पुर्ननिर्माण कराया गया, जिसके तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल पदाधिकारी थे, तो सेक्यूलरिस्टों के प्रिय श्री जवाहरलाल नेहरू व उसके अनुयायियों ने इसे नकारात्मक राजनीति का मुद्दा बनाया। बहुसंख्यक समाज में इस बात का रोष है क्योंकि सरकारी धन का इस पुर्ननिर्माण से कोई सम्बन्ध नहीं था। लगभग 190 मिलियन से भी ज्यादा जनसंख्या वाला भारतीय मुस्लिम समाज, जो ब्रिटेन की जनसंख्या का तीन गुणा है, को अल्पसंख्यक का दर्जा है। इन्हीं संवैधानिक मानकों के अनुसार क्या जम्मू कश्मीर तथा कुछ अन्य राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जा सकता है? यह प्रश्न भारत की संसद व सुप्रीम कोर्ट के बीच फुटबाल बना हुआ है। यहीं नहीं धारणा बनायी गयी कि संस्कृत को पढ़ाना सेक्यूलरिज्म के विरूद्ध है। जिस पर सुप्रीम कोर्ट को कहना पडा कि संस्कृत को पढ़ाने में संविधान का उल्लंघन नहीं है। एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में एक भाषा के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? पंथ निरपेक्षता भारत की अतीत की संस्कृति व ज्ञान को नष्ट करने का माध्यम नहीं बन सकता, परन्तु प्रयास कुछ ऐसे ही दिखाई देते है। अतः जब राज्य का कोई रीलिजन ही नहीं तो संविधान में अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक की अवधारणा व प्रावधानों का औचित्य क्या है?

निष्कर्ष भारतीय पंथनिरपेक्षता की अस्पष्टता व भ्रमपूर्ण स्थिति के कारण जो प्रमुख प्रश्न उठाये गये है, वे निम्नवत् है- 1. यूरोप में राज्य व रीलिजन (चर्च) के टकराव के कारण पंथनिरपेक्षता के सिद्धान्त को अपनाया गया। भारत में कभी भी ऐसे टकराव देखने को नहीं मिले, शायद इसीलिए 1950 के भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता को नहीं जोड़ा गया। प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्या संकट आ गया था कि 29 वर्षों के बाद आपातकाल लगाकर बिना संसदीय विमर्श के भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इसे जोड़ा गया? 2. यदि यह मान लिया जाये कि 1976 के बाद भारत पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित हो गया। तो प्रश्न उठता है कि 1947 से 1976 तक 29 वर्षों में भारतीय राज्य का स्टेट्स क्या था? क्या वह पंथनिरपेक्ष था या नहीं, रीलिजियस विभाजन के बावजूद! 3. ज्ब 1950 में राज्य का कोई रीलिजन ही नहीं था तो पंथनिरपेक्षता पर चर्चा ही क्यों? पंथनिरपेक्षता को संविधान में जोड़ने का औचित्य क्या है? 4. जब 1950 के संविधान में राज्य का कोई रीलिजन नहीं था तो अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के विमर्श का औचित्य क्या है? अल्पसंख्यकों को अपने पूजा स्थलों व शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्धन का विशेषाधिकार क्यों? एक ओर अल्पसंख्यकों को अपनी रीलिजियस संस्थाओं के प्रबन्धन का विशेषाधिकार तो दूसरी ओर बहुसंख्यक समाज के हजारेां मन्दिरों पर राज्य का नियन्त्रण क्यों? ये कुछ ऐसे प्रश्न है, जो भारत के बहुसंख्यक समाज के जन मानस में रोष पैदा करते है तथा पंथनिरपेक्षता के प्रति नकारात्मक भावना पैदा करते है। भारतीय संसद व न्यायपालिका को चाहिए कि व इन प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार करें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. Rajmohan Gandhi (2020), ‘‘भारतीय पंथ निरपेक्षता का अभी भी भविष्य है’’ The Print, July 15, 2020, theprint.in 2. Faminism India (2022), ‘‘कर्नाटक में हिजाब प्रतिबन्द एवं भारतीय धर्मनिरपेक्षता’’ an article published in hindi.feminismindia.com, Feb 17, 2022. 3. Pawan Minoch (2022), One Nation One Religion. The Villanization of Secularism of India, an article published in times of India, Nov 29, 2022, timesofindia, indiatimes.com 4. Michel Danino (2018), “Is India a secular nation?” a lecture delivered of IIT Madras, April 23, 2018. 5. Pradeep Chawla (2018), “Panth Nirpekshta par niband,” published online on Oct 10, 2018, gkexams.com_delivered. 6. Subhash Kasyap (2013), “Indian constitution and secularism” A lecture delivered in seminar, Mon, Nov 11, 2013.