ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IV July  - 2023
Anthology The Research
उत्तराखंड की समकालीन कविताओं का शिल्प
Craft of Contemporary Poems of Uttarakhand
Paper Id :  17905   Submission Date :  2023-07-13   Acceptance Date :  2023-07-21   Publication Date :  2023-07-25
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शीला आर्या
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
डी. एस. बी. कैम्पस, कुमाऊं यूनीवर्सिटी
नैनीताल,उत्तराखण्ड, भारत
सारांश
उत्तराखंड की समकालीन कविता शिल्प की दृष्टि से सशक्त और सार्थक है। इन कवियों ने आंचलिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक तथा मिथकीय प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से इन विविध संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया है। दैनिक प्रयोग की सहज सामान्य भाषा को नये उपमानों और प्रतीकों द्वारा अर्थपूर्ण बनाकर इन्होंने गहन चिंतन की सरल अभिव्यक्ति करते हुए कविता को सुन्दर और संप्रेषणीय बनाया है। इनकी कविताओं में लयात्मकता के साथ ही गद्य की लय भी दृष्ट्व्य है। इन कवियों ने अपने पूर्ववर्ती कवियों की भाँति अलंकारों को ही काव्य का अनिवार्य अंग न मानते हुए भी अलंकारों को काव्य में सहज और आवश्यक स्थान दिया है।ये कवि छंदों की परम्परागत लीक से हटकर गद्य मे अथवा मुक्तक छंद में काव्य रचना करते हैं। लोकोक्तियों तथा मुहावरों के प्रयोग से इनके काव्य में रोचकता स्वाभाविकता तथा प्रभावोत्पादकता का समावेश होता है। इनकी आंचलिक भाषा उत्तरांचल की सांस्कृतिक पहचान कराती है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Contemporary poetry of Uttarakhand is powerful and meaningful from the point of view of craft. These poets have expressed these varied sensibilities through regional, cultural, natural and mythological symbols and images. By making the simple common language of daily use meaningful with new similes and symbols, he has made the poem beautiful and communicative by giving a simple expression of deep contemplation. Along with the lyricism in his poems, the rhythm of the prose is also visible. Unlike their predecessors, these poets, despite not considering ornaments as an essential part of poetry, have given a comfortable and necessary place to ornaments in poetry. These poets create poetry in prose or in free verse, moving away from the traditional flow of verses. By the use of proverbs and idioms, interestingness, naturalness and effectiveness are included in his poetry. Their regional language gives the cultural identity of Uttaranchal.
मुख्य शब्द उत्तराखण्ड के समकालीन कवियों की भाषा, शब्द चयन, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Language, Word Selection, Images, Symbols, Ornaments of Contemporary Poets of Uttarakhand.
प्रस्तावना

कविता के मूल कथ्य को अभिव्यक्ति देने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। इसी तरह भावों की अभिव्यक्ति में बिंब, प्रतीक, शैली छंद आदि स्वतः समाहित होते जाते है। कविता का मूल कथ्य उसकी अंतर्वस्तु या भाव पक्ष है तथा अंतर्वस्तु जिस माध्यम या आधार को लेकर प्रकट होती है, वह काव्य का शिल्प या रूप पक्ष है। इन्द्रिय बोध भाव और विचार द्वारा कविता अपनी अंतर्रात्मा का संस्कार करती है और शिल्प से अपना बाहरी रूप संवारती है। अतः भाव आरै शिल्प एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों का असमन्वय काव्य की अनिवार्य शर्त है। कविता में शिल्प के प्रमुख घटक के रूप में भाषा, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, छंद और काव्य रूप आदि माने जाते हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में उत्तराखंड की समकालीन कविता की इन घटको का क्रमशः अध्ययन किया जाएगा।

अध्ययन का उद्देश्य

1. समकालीन उत्तराखण्ड के कवियों की रचनाओं में समसमायिक संदर्भाें पर गंभीर चितंन के साथ-साथ जीवन विषयक दार्शनिक अभिव्यक्ति प्रदान करना।

2. समकालीन कविता के काव्य और भाषा में आने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करना।

साहित्यावलोकन

1. डॉ0 आर0 पी0 वर्मा (2014) ने अपने शोध पत्र लीलाधर जगूडी के काव्य में राजनीतिक छद्ममें उत्तराखण्ड के विख्यात कवि लीलाधर जगूडी की कविताओं की विशेषताओं का चर्चा की है। उन्होने बताया कि जगूडी की कविताओं में अनुभव एवं सार्थकता दृष्टिगोचर होती है। उन्होने राजनीतिक चेतना को भी अपने काव्य में पर्याप्त स्थान दिया है तथा उनकी कविताएं भयावह समाज एवं अस्तित्व से साक्षात्कार करती प्रतीत होती हैं।

2. कैलाश चन्द्र (2018) ने अपने शोध अध्ययन उत्तराखण्ड की समकालीन हिन्दी कविता में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतनामें उत्तराखण्ड के साहित्य एवं काव्य की विस्तृत रूप से चर्चा की है। उन्होन उत्तराखण्ड के प्रमुख कवियों के परिचय के साथ ही उत्तराखण्ड की समकालीन हिन्दी कविता में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतना का भी विस्तृत रूप में वर्णन किया है।

3. विजेता साव (2014) ने अपने अध्ययन मंगलेश डबराल का काव्य: संवेदना और शिल्पमें उत्तराखण्ड के समकालीन कवि मंगलेश डबराल की कविताओं पर विस्तृत चर्चा की है। उन्होने बताया कि मंगलेश डबराल की कविताओं में समकालीन जीवन से सम्बन्धित विभिन्न सामाजिक समस्याएं दिखाई देती हैं जिनमें मुख्यतः आम आदमी के अन्दर की पीडा, तनाव, विवशता, अकेलापन, समाज एवं राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, जन संघर्ष एवं घोर विद्रोह की भावना आदि शामिल हैं।

मुख्य पाठ

कविता का आदर्श ऐसी भाषा है, जो एक ओर तो कवि के भावों और अनुभूतियों को अच्छे ढंग से व्यक्त कर सके पर साथ ही साथ दूसरी ओर जिसे उसके पाठक सरलता से समझ भी   सके।[3] भाषा के माध्यम से कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। इस अभिव्यक्ति से तथ्यों (बाह्य यथार्थ) और भावनाओं (आंतरिक यथार्थ) को जाना समझा जा सकता है। समकालीन कवियों की भाषिक संरचना नये बिम्ब, प्रतीक और उपमानों से युक्त होकर सशक्त और कलात्मक बनी है, इसलिए हिंदी की समकालीन कविता में इन कवियों का योगदान उल्लेखनीय माना जाता है। लोकजीवन से गृहीत आंचलिक शब्दों का प्रयोग इनकी भाषा की अर्थक्ता में वृद्धि करता है; जिससे कविता में जीवन्तता आ जाती है।

शब्द चयन

उत्तराखण्ड के समकालीन हिंदी कवियों ने अपनी लेखनी में साधारण बोलचाल की भाषा को प्रयुक्त करके विशिष्ट शब्दावलियों का परित्याग किया है। ये कवि यथा-संभव जाने पहचाने शब्दों को सहज ग्राह्य अनुक्रम में ही रखते हैं। इन्होंने तत्सम शब्दों के अतिरिक्त अरबी, फारसी, अंग्रेजी एवं देशज शब्दों का प्रयोग किया है। उत्तराखंड  की समकालीन कविता की भाषिक संरचना में शब्द चयन, कहावते, मुहावरे, नीतिगत वाक्य, मार्मिक संवाद नापरक संवाद आरै शब्दों की अर्थव्याप्ति का विशेष महत्व है। वे पारम्परिक शब्द में नया अर्थ भरते हैं, लोक शैली की तरह संवादों में कहावतों का इस्तेमाल करते हैं।

बिम्ब

बिम्ब का शाब्दिक अर्थ है- चित्र, आकृति या रूप। रचनाकार की सौन्दर्यदृष्टि, इन्द्रियबोध क्षमता और कल्पनाशक्ति की अभिव्यक्ति बिम्ब द्वारा होती है।मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति भौतिक वस्तुआंे के सम्पर्क में आता है तब उसकी इन्द्रियाँ प्रभावित होती हैं व्यक्ति के मन में चेतन अचेतन रूप से एक रूप, छवि या चित्र अंकित हो जाता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है। रचनाकार की रचनाधर्मिता इस प्रक्रिया से प्रभावित होती है उसकी कल्पना शक्ति मन में चेतन अचेतन रूप से एकत्रित चित्रों या बिम्बों को ग्रहण करती है। उत्तराखंड  के समकालीन हिंदी कवियों ने अपनी कविताओं में प्रायः चाक्षुष, श्रव्य, स्पर्शिक, आस्वाद्य, समानुभूतिक एवं सह-संवेदनात्मक, संश्लिष्ट, भाव एवं विचार प्राकृतिक, कलात्मक, भयानक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक बिम्ब सभी बिम्बों का प्रयोग किया है।

प्रतीक

प्रतीक का शाब्दिक अर्थ है- चिह्न, संकेत प्रतिरूप या उपकरण। किसी अगोचर वस्तु, अप्रस्तुत विषय या अमूर्त भाव आदि को संप्रेषित करने के लिए ठोस, मूर्त, प्रस्तुत वस्तु का प्रयोग प्रतीक कहा जाता है। प्रतीक के द्वारा मर्म, विचार, अर्थ आदि की अभिव्यक्ति होती है। उत्तराखंड की समकालीन कविता में प्रतीकों का प्रयोग समकालीन अर्थों में हुआ है। इन प्रतीकों के द्वारा आधुनिक भावबोध, विचार एवं संवेदना की अभिव्यक्ति हुई है। ये प्रतीक मुक्तिबोध के जटिल प्रतीकों की तरह नहीं। इनका प्रयोग सादगी के साथ परंपरागत एवं नये रूपों में हुआ है। उत्तराखंड  के समकालीन कवियों ने व्यक्तित्व, स्वानुभूतिक सत्य, रचना प्रक्रिया और अपनी आस्था के संदर्भ में भिन्न-भिन्न प्रतीकों का प्रयोग किया है। मानसिक कुण्ठा अथवा सामाजिक अभिप्राय की व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए भी प्रतीकों का प्रयोग किया है।

प्राकृतिक प्रतीक- कवियों ने सदैव काव्य में सौन्दर्य वृद्धि और अर्थविस्तार करने हेतु प्रकृति के विभिन्न अवयवों को उपमानों और प्रतीकों के रूप में प्रयुक्त किया है। इनकी सहायता से मानव जीवन तथा मनोभावों की अभिव्यक्ति सार्थक और प्रभावोत्पादक हो जाती है।

सामाजिक प्रतीक- कवि अकसर सामाजिक जीवन की छोटी-बड़ी वस्तुओं और घटनाओं को प्रतीक के रूप में चित्रित कर उसके माध्यम से अप्रस्तुत भावों को प्रस्तुत करता है। मानव और उसकी मानवता को ग्रस रहा यह बाजारवाद धर्म-संस्कृति तथा नैतिकता के मूल्यों को निगलती राजनीति का उत्प्रेरक भी है और उस शोर का प्रतीक भी है, जिसमें मनुष्य की दूसरी समस्त आवाजें कुचली जा रही हैं, या बिखर रही हैं।

मिथकीय प्रतीक- मिथक शब्द का अर्थ है- परम्परागत, पौराणिक या लोक विश्वासमूलक सन्दर्भ। इन्हीं मनोवृत्तियों तथा सामाजिक विसंगतियों को स्पष्ट करने के लिए प्रायः सभी कवि पौराणिक प्रतीकों का प्रयोग करते हैं।

छंद विधान

वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से बम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना छनदकहलाती है। छंद कविता या गीत में वर्णों की संख्या और स्थान से सम्बंधित नियमों को कहते हैं जिनसे काव्य में लय और रंजकता आती है। उत्तरांचल के समकालीन कवियों ने अनेक छंदों का प्रयोग तो किया ही है, साथ ही मुक्तक छंद में भी रचनाएं की हैं। इनकी मुक्त छंद कविताओं में लयात्मकता दिखाई देती है। पारम्परिक छंद में नवीन भावबोध की अभिव्यक्ति के ऐसे प्रयोग पुराने छंद को भी नवीन बना देते हैं।

अलंकार

शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए जिस प्रकार मनुष्य भिन्न-भिन्न आभूषणों का प्रयोग करता है, उसी प्रकार काव्य को सुन्दर एवं प्रभावपूर्ण बनाने के लिए रमणीयता का आश्रय लेना पड़ता है। उत्तराखंड  के समाकालीन कवियों के साहित्य में शब्दा तथा अर्था दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है। यहां पर  सहित्य में प्रयुक्त प्रमुख अलंकारों का वर्णन किया जा रहा है।

अनुप्रास अलंकार- जहां पर शब्दों की आवृत्ति हो वहां अनुप्रास अलंकार होता है।कवि मंगलेश ने काव्य की सौन्दर्य वृद्धि हेतु जरा-सातथा तारीखशब्द की आवृत्ति बार-बार करते हुए अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया है-

जरा-सा आसमान जरा-सी हवा

जरा-सी आहट

बची रहती है हर तारीख में

यहीं कहीं हैं वे लचीली तारीखें

उपमा अलंकार- अर्थालंकारों में उपमा अलंकार सर्व प्रमुख है। इसके बिना कविता अधूरी प्रतीत होती है सभी कवि इसका आश्रय अवश्य लेते हैं। उत्तराखण्ड के समकालीन कवियों ने भी काव्य की सौन्दर्य वृद्धि के लिए उपमा अलंकारों का प्रयोग किया है। कवि नये-नये उपमानों को लेकर प्राकृतिक परिवेश का चित्रण करता है। काव्य के उपमान प्रायः प्रकृति से लेने की परम्परा रही है, किंतु समकालीन कवि दैनिक जीवन की विविध वस्तुओं से उपमान गृहण कर उनमें नवीन चमत्कृति पैदा करता है।

उत्प्रेक्षा अलंकार- जहाँ उपमेय में किसी धर्म की समानता के कारण उपमान की संभावना की जाती है, वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है।उत्तराखण्ड के समकालीन हिंदी कवियों की कविताओं में भी उत्प्रेक्षा अलंकार प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुआ है। लीलाधर जगूड़ी के दूसरे शरीर की खोजशीर्षक कविता में उत्प्रेक्षा अलंकार दृष्ट्व्य है-

बूढ़ा बैल उठा और मारे डर के पोंकता हुआ ऐसा दौड़ा

जैसे कि जवान हो

रूपक अलंकार- जब उपमेय पर उपमान का भेद रहित आरोप होता है और उपमेय और उपमान एक रूप हो जाते हैं तो उपमेय को उपमान रूप कहा जाता है, तब वहाँ रुपक अलंकार की उत्पत्ति होती है।लीलाधर जगूड़ी एक दिनशीर्षक कविता में खेत और आलू के रुपक से शरीर और आत्मा के संबंध को स्पष्ट करते हैं-

शरीर के खेत में आत्मा को आलू की तरह उगना पड़ेगा।

पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार- जहाँ एक ही अर्थ वाले एक ही शब्द का काव्य की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए कई बार प्रयोग किया जाता है, वहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार होता है; जैसे-

बैठ-बैठ उड़ जाये, उड़-उड़ बैठ,उठाकर जैसे उसे जोड़ना

चाहते हों सब वही के वहीं, बार-बार कोहराम करते झुंड

उड़े-मुड़ें और मंडरायें।

उदाहरण अलंकार- जहाँ साधारण रूप से कही गयी किसी बात की ज्यों, जैसे, इव आदि शब्दों के माध्यम से किसी अन्य बात से समानता दिखाई जाय, वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।

इस विचित्र संसार के जटिल जीवन में भूखे जीवित रहना कितना कठिन है इसे जगूड़ी ने दंडस्वरूपकविता में विविध उपमानों, रुपकों के माध्यम से व्यक्त करता है-

भूख ऐसी लगी हुई है जैसे गड्डे में पेड़

जैसे पेड़ में पत्तियाँ

जैसे पत्तियों में रंग

भूख ऐसी धंसकर लगी हुई है जैसे जमीन के नीचे जड़े

ऐसी फैली हुई है जैसे आकाश में हवा

ऐसी चुभी हुई है जैसे रिकार्ड पर सुई।

मानवीकरण अलंकार- मानवीकरण अलंकार में मानवेतर प्राणियों या पदार्थों पर मानवीय भावों का आरोपण किया जाता है; यह अंग्रेजी काव्य की विशेषता है। समकालीन हिंदी कवियों की कविताओं में अंग्रेजी के प्रभाव से ही मानवीकरण अलंकर का प्रचुर प्रयोग दिखाई देता है। क्या पताशीर्षक कविता में सब्जियों का मानवीकरण करते हुए हरीशचन्द्र पाण्डे कहते हैं-

आलू बल खा-खा कर हिल रहे थे ठेले में

टमाटर कुछ थम-थम कर

पलक चिपकी हुई थी ठेले से भीगी-भीगी

विरोधाभास अलंकार- जहाँ वर्ण्य विषय वस्तुतः विरोध न होते हुए भी विरोध-सा प्रतीत हो, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है। इस महादेश को चलाने के लिएशीर्षक कविता में विरोधाभास अलंकार दृष्ट्व्य है-

ज्यों-ज्यों बूढ़ा हुआ कलीउमल्ला खां

उसका विचार जवान होता गया

निष्कर्ष

उत्तराखंड के समकालीन कवियों का काव्य लोक संघर्ष का काव्य है। कविया ने अपनी बात उस लोकभाषा में कही है, जिसे हम सब बोलते और समझते हैं। तद्भव और देशज के साथ- साथ स्थानीय शब्दों का प्रयोग कवि ने भरपूर किया है। बिम्ब की सहायता से कवियों ने अपने कथ्य को और प्रभावशाली बनाते है। शैली की दृष्टि से कवि ने वक्तव्य, संवाद, वर्णन और विवरण का उपयागे किया है। उत्तराखंड के समकालीन कविता में आजादी के बाद आज भी हमारे सपने पूरे होते नहीं दिख रहे है ऐसे में कवियों ने अपने आक्रोश को व्यक्त किया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. वर्मा, डॉ0 आर0 पी0 (2014) “लीलाधर जगूडी के काव्य में राजनीतिक छद्मइण्टरनेशनल जरनल ऑफ साइन्टिफिक एण्ड इनोवेटिव रिसर्च स्टडीज, आई.एस.एस.एन.: 2454-1818
2. चन्द्र, कैलाश (2018) “उत्तराखण्ड की समकालीन हिन्दी कविता में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतनाशोध प्रबन्ध, कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल उत्तराखण्ड।
3. साव, विजेता (2014) “मंगलेश डबराल का काव्य: संवेदना और शिल्पशोध प्रबन्ध वर्द्धमान विश्वविद्यालय, वर्द्धमान प0 बंगाल।
4. जगन्नाथ पंडित, नागार्जुन का काव्य आरै युग: अंतः सम्बन्धो का अनुशीलन,
5. रामविलास शर्मा, मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य,
6. पांडे हरीशचन्द्र, भूमिकाएं खत्म नहीं होती
7. जगूड़ी लीलाधर भय भी शक्ति देता है,
8. डबराल मंगलेश, आधार चयन कविताएं,
9. भट्ट दिवा, उत्तराखंड के हिन्दी कवि,
10. जगूड़ी लीलाधर, ईश्वर की अध्यक्षता में,
11. पांडे; आधारशिला; 2007; वार्षिकांक; 324.5.1 शब्द समूह
12. जगूड़ी लीलाधर, इस यात्रा में,
13. सकलानी राजेश, पुश्तों का बयान,
14. मौर्य शिरीष कुमार, मुश्किल दिन की बात,
15. कुकरेती हेमन्त, कभी जल कभी जाल,