ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- V August  - 2023
Anthology The Research

समाज, संस्कृति, राजनीति एवं भारतीय नारी

Society, Culture, Politics and Indian Women
Paper Id :  18085   Submission Date :  2023-08-14   Acceptance Date :  2023-08-22   Publication Date :  2023-08-25
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सुमन यादव
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय महाविद्यालय
कृष्ण नगर नारनौल,महेन्द्रगढ, हरियाणा
सारांश

किसी भी राष्ट्र राज्य अथवा क्षेत्र का विकास उसकी उपलब्ध मानव शक्ति की कार्यक्षमता, सामथ्र्य, गुणवता एवं शिक्षा आदि बातों पर निर्भर करता है। आज की विशेष परिस्थितियों में महिलाओं का राष्ट्रीय विकास में योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी स्तरों पर देश की प्रगति में भारतीय स्त्रियों ने निर्विवाद रूप से सहयोग किया है। भारतीय संस्कृति की जीवंत परम्परा की निरन्तरता हमें सुदूर अतीत से जोड़ती है तथा इसमें अन्तर्निहित एकता विशाल जन समूह में विविधता होते हुए भी समरसता का भाव विकसित करती है। ऋग्वेद से लेकर समस्त वैदिक अथवा लौकिक साहित्य में नारी का अभिचित्रण उसके कर्मठ जीवन, त्याग, उत्सर्ग आदि गुणों को ध्यान में रखते हुए उसके गौरव के सवर्था अनुरूप रहा है। वह पुरुष की सहयोगिनी के रूप में चित्रित हुई। उसके साथ सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक कार्यों में भी भाग लेती थी

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The development of any nation, state or region depends on the efficiency, quality and education etc. of its available manpower. In today's special circumstances, the contribution of women in national development is very important. Indian women have contributed unquestionably in the progress of the country at all levels, social, economic and political. Continuity of the living tradition of Indian culture connects us with the distant past and the inherent unity in it develops a sense of harmony in spite of diversity in a large group of people. From Rigveda to all Vedic or cosmic literature, the portrayal of women has been fully consistent with her pride keeping in mind the qualities of her hardworking life, sacrifice, sacrifice etc. She is depicted as a companion of man. She used to participate in social, religious and political activities along with him.
मुख्य शब्द समाज, संस्कृति, राजनीति एवं भारतीय नारी।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Society, Culture, Politics and Indian Women.
प्रस्तावना

प्राचीन काल को स्त्रियों की दृष्टि से स्वर्णिम युग माना जाता है। मध्ययुग में परतंत्र और पतनोन्मुख स्थिति की चर्चा की जाती है। आधुनिक युग के साथ ही पुर्नजागरण का प्रारम्भ, कुरीतियों का उन्मूलन एवं शिक्षा के प्रसार का उल्लेख मिलता है। इतिहास में ऐसे दृष्टान्तों का अभाव नहीं है जहां स्त्रियों ने राज्य के कार्य की बागडोर संभाली, उन्होंने युद्ध के समय शौर्य, 2 साहस और संकल्प के साथ नेतृत्व किया। मध्यकाल में राजनीतिक क्षेत्र मैं महिलाओं की कई अवसरों पर सक्रिय भागीदारी रहती थी। पुत्र के संरक्षक के रूप में तथा राजमाता की स्थिति में स्त्रियों की राजनीतिक सक्रियता और कौशल के कई प्रमाण मिलते है। राजपूत स्त्रियां सदैव अपने पति के युद्ध में विजयी होने अन्यथा वीरगति प्राप्त करने की कामना करती है। राजपूत स्त्रियां कायर पति को तिरस्कृत करती है और पति के वीरगति पा जाने पर स्वयं सती हो जाती है। राजपूत काल में अनेक शिक्षित एवं वीरागनां नारियों की जानकारी मिलती है। जैसे जीजाबाई, अहिल्याबाई। राजपूत काल में सामान्य शिक्षा के साथ-साथ युद्ध का ज्ञान भी दिया जाता था।[1]

अध्ययन का उद्देश्य

भारत में नारी आंदोलन का विकास आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है। अनेक विदुषियों ने स्वतन्त्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कालान्तर में जब नारीवाद का आंदोलन अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में वैचारिक, संघटनात्मक व क्रियात्मक रूप से उभर कर आने लगा, तब उसका स्पष्ट प्रभाव महानगरीय महिलाओं में प्रमुख रूप से देखा गया। नारी सगंठनों ने क्रिया के स्तर पर अनेक मुद्दों को समुदाय व सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके आंदोलन प्रभावशाली भी रहे व राज्य से नारी को स्थिति को सरकारी कार्यक्रम योजना व नीति के रूप में स्वीकार कराने में सफल रहें। यह प्रश्न कभी-कभी उठायें जाते है कि भारतीय नारी आन्दोलन से वर्ग विशेष की आवाज तो उठी है परन्तु सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रतिमानों में परिवर्तन के आयाम अछूते रह गये हैं। इस अध्ययन का उद्देश्य नारी आंदोलन व नारी संबंधित नीतियों को अलग-अलग क्षेत्रों में क्षेत्रीय सामाजिक आकलन के माध्यम से निर्धारित करना चाहिए। कोई भी जन आन्दोलन सामान्य के नाम पर विशिष्ट वर्ग के हितों की रक्षा करें। यह सही दिशा व विचार नहीं हो सकता।

साहित्यावलोकन

भारतीय स्त्री सांस्कृतिक सन्दर्भ पुस्तक में संगीता शर्मा व प्रतिभा जैन के विचार है कि आरक्षण के माध्यम से सत्ता व शक्ति में भागीदारी नारी की स्थिति को परिवर्तित करने का एक साधन मात्र है। साध्य नहीं है। मैं उनके विचारों से सहमत हूँ क्योकि आरक्षण प्राप्त कर लेने मात्र से नारी की सत्ता व शक्ति में भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो जाती अपितु जो उद्देश्य नारी लेकर चली हैं। उस उद्देश्य को प्राप्त करने का एक साधन मात्र है। मेरा ऐसा मानना है कि एक बार नारी को मौका मिले तो वह अपनी क्षमता व प्रतिभा से महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

वर्षा जोशी द्वारा लिखित पुस्तक: चारण साहित्य में राजपूत नारियों में वीरांगना के रूप में राजपूत नारी, शौर्य की भावना जागृत करती है। इनके विचार तर्क संगत है कि राजपूत नारी का एक वीरांगना के रूप में चित्रण भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय नारियों के लिए, देश के लिए त्याग व बलिदान की प्रेरणा का स्त्रोत बन गया है। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राजपूत वीरांगनाओं का यह शौर्य महिलाओं को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोडने के लिए प्रोत्साहित करता था। यह विचार पूर्णतः तर्क संगत है।

मुख्य पाठ

भारतीय राजनीति में नारी

भारतीय प्रारूप की सरंचना हमारे समाज की सरंचना व संस्कृति के ऐतिहासिक व परम्परागत आयामों में आधार पर निर्मित व स्थापित की जा सकती है। लघुस्तरीय कार्य, जो कि स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा किये जा रहे है, अनेक स्थानों पर प्रभावी रहे है। प्रश्न यह है कि नारी के सबलीकरण की प्रक्रिया को व्यक्तिपरक न होकर के समूह व समाज परक होनी चाहिए। साथ ही नारी व पुरुष के संबंधों की समानता सामाजिक संरचना की प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकता के रूप में स्थापित होनी चाहिए। जब-जब समझ व सबलीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति अथवा विशिष्ट वर्ग का निर्माण करती है। तब उपेक्षित वर्ग की नारी अपनी स्थिति को बदलने में अपने आप को असमर्थ पाती है। अतः सत्ता व शक्ति के तत्व को व्यक्ति से अलग कर सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्तरों पर स्थापित करने को आवश्यकता है।

नारी आन्दोलनों में प्रायः पुरुष की भागीदारी को नकारा गया है। उसका एक कारण तो यह है कि अनुभव के स्तर पर जो ज्ञान नारी को विशिष्ट रूप से प्राप्त होता है। उसे पुरुष प्राप्त करने में असमर्थ हैं पुरुष की भागीदारी, भारतीय संदर्भ में समीचीन प्रतीत होती है। एक तो इस कारण कि नारी व नर के प्रश्न को एक दूसरे के विरोधात्मक आधार पर न देखकर समन्वयात्मक आधार पर देखा जा सकता है।[1]

आरक्षण के माध्यम से सत्ता व शक्ति में भागीदारी नारी की स्थिति को परिवर्तित करने का एक साधन है न कि साध्य इस भेद को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि राजनैतिक संस्कृति व सत्ता की शतरंज के नियम अलग होते हैं जिसमें प्रवेश कर व्यक्ति स्वयं की पहचान एक रूप में खो देता है। सामाजिक व सांस्कृतिक आकलन के माध्यम से नारी सम्बन्धी योजनाओं को निर्मित करने से नारी और अधिक सबल होगी। नीतिगत परियोजनाओं में नारी की भागीदारी तथ्यों को एकत्रित नियोजित व विश्लेषित करने से लेकर क्रियान्वित करने के स्तर तक प्रभावी रूप से होनी चाहिए। सौ वर्ष पूर्व नारी चुनाव में मत देने के लिए लड़ रही थी। लेकिन उन अधिकारों से उसे मात्र अपने परम्परागत भूमिकाओं को अधिक असरदार रूप से सम्पन्न करने की क्षमता प्राप्त हुई। आधुनिक नारीवाद महिलाओं की परम्परागत भूमिका की पुनः परिभाषा की मांग कर रहा है। महिलाएं उन शक्तियों व स्थितियों को समाप्त करना चाहती है, जिनसे उन्हें समानता के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं और वे इच्छाओं की पूर्तियों के अधिकार से वंचित हो जाती है[2]

नारी समाज की आधारशिला है मानव सभ्यता के विकास में उसकh सृजनात्मक भूमिका रही है। प्रकृति को संस्कृति का रूप देने में और उसे विकृतियों से बचाने में उसका अनुपम योगदान रहा है। भारतीय परम्परा को प्रारम्भिक शताब्दियों का इतिहास नारी की मर्यादा एवं प्रतिष्ठा के प्रति संतुलित एवं सहिष्णु दृष्टिकोण को प्रमाणित करता है। यह अलग बात है कि भारतीय परम्परा के दीर्घकालीन इतिहास में नारी की छवि सदैव एक जैसी नहीं रहीं और उसमें उतार-चढ़ाव आते रहे। यह भी सही है कि उनकी मर्यादापूर्ण स्थिति में एक बार जब विकृतियों का क्रम प्रारम्भ हुआ तो उसको गति तीव्र और उसका स्वरूप वीभत्स होता चला गया।

भारतीय चिन्तन की मूलभूत मान्यताओं में एक अवधारणा जो प्रारम्भ से विद्यमान है उसके अनुसार जी आत्मा पुरुष में विद्यमान है। वही आत्मा स्त्री में विद्यमान है जब एक ही आत्म तत्व पुरुष व स्त्री दोनों में है तो मूलतः दोनों एक ही है। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में समाज की कल्पना एक विराट पुरुष के रूप में की गयी और उसके अवयवों को समाज के चार वर्णों के रूप में देखा गया किन्तु पुरुष व स्त्री का कोई भेद नहीं किया गया।[3]

बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया कि अद्वितीय परमात्मा को दो होने की इच्छार हुई वह ऐसा हो गया जैसे स्त्री और पुरुष सम्यक रूप में सम्युक्त हो। रामायण के अनुसार वेदों और विभिन्न शास्त्रों का निष्कर्ष यहीं है कि नारी का मूल रूप पुरुष से भिन्न नहीं है। महाभारत में स्त्री को धर्म, अर्थ और काम का मूल कहा गया है। वैदिक यज्ञों तथा हिन्दुओं के धार्मिक अनुष्ठानों में पति के बायें आसन पाने की प्रथा प्रचलित हुई उसका आधार यही सिद्धांत है कि स्त्री आत्मतत्व के नाम भाग में उत्पन्न हुई है और इसीलिए उसे वायागंना कहा गया है। मनु के अनुसार जहां स्त्रियां पूजी जाती है यहां देवता रमण करते हैं और जिस कुल में स्त्रियां अपमानित होती है वह कुल विनाश को प्राप्त होता है। मनु के अनुसार पिता का पद 100 आचार्य पद के बराबर होता है और माता का पद 100 पिता से भी श्रेष्ठ होता है। महाभारत के शान्तिपर्व में माता की प्रतिष्ठा देवी के रूप में की गई और उसे सबसे बड़ा गुरु माना गया।[4]

भारतीय समाज में नारी

राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद मध्यकालीन समाज संगठित था, जातियाँ उपजातियों में विभाजित समाज, जाति पंचायतों के नियन्त्रण में था। स्त्रियां परदे में अवश्य रहती थी पर सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में अवश्य भाग लेती थी। पारिवारिक व सामाजिक प्रतिबन्धों और नियन्त्रण के बावजूद स्त्रिया अपनी क्षमता के अनुसार सामाजिक कार्यों में योगदान करती थी। राजकाज में महिलाओं का दखल रहता था और उत्तराधिकारी के अवयस्क होने की स्थिति में तो राजमाता ही राजकार्य संभालती थी। इस संबंध में पृथ्वीराज की माता कर्पूर देवी का नाम उल्लेखनीय है। राजस्थान की महिलायें अपनी वीरता और सम्मान के लिए तो प्रसिद्ध  थी ही दानशीलता और कलाओं को प्रोत्साहन करने में भी अग्रणी थी।[5]

प्रारम्भ से ही राजपूत कन्या को मानसिक रूप से तैयार किया जाता था कि युद्ध में वीरगति को प्राप्त करना ही पौरूप है। पाणिग्रहण के अवसर पर भी वह यह कामना करती थी कि उसका पति या तो युद्ध में विजय होकर लौटे अथवा वीरगति को प्राप्त करे। राजपूत नारी एक ऐसे पति की कामना करती थी जिसके युद्ध में उतरते ही शत्रुओं मैं आंतक जाये। माँ के रूप में उनका हृदय वीरों को जन्म देना है और पत्नी के रूप में पति को युद्ध में वीरगति प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना था। राजपूत नारी अपने पति के साथ सती होने को बड़े आनन्द की घड़ी मानती थी। जब पति युद्ध में जाता था तो पत्नी सती होने की कामना करती थी अर्थात उसका पति युद्ध भूमि में वीरता के साथ अपने प्राण न्यौछावर कर देगा। वीरांगना के रूप में राजपूत  नारी में शौर्य की भावना जागृत करती है। राजपूत पुरुष तब ही एक बहादुर यौद्धा बन सकता था

जब उसको पत्नी को सैनिक गतिविधियों में प्रोत्साहन प्राप्त हो तथा वह उसे विलासिता की ओर आकर्षित करने की बजाय वीरता के लिए प्रेरित करे इतिहास में एक ऐसा समय था जब लगातार युद्ध में व्यस्त रहने के कारण पुरुष अपनी जागीरों से दूर रहते थे। उनकी अनुपस्थिति में कोई संकट हो जाये तो राजपूत नारी उस विपत्ति का सामना करने की क्षमता रख सके हमें अनेक ऐसे उदाहरण मिलते है जब राजपूत नारियों ने युद्ध और शासन चलाये। जब भी किसी राजपूत परिवार में कन्याजन्म होता था तो कोई समारोह नहीं मनाया जाता लेकिन जब अपने पति की लाश के साथ सती होने के लिए जाती है तो उसे दुल्हन की तरह सजाकर उसका जुलूस गाजे बाजों के साथ निकाला जाता था राजपूत नारी का एक वीरागंना के रूप में चित्रण भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीय नारियों के लिए देश के लिए त्याग और बलिदान की प्रेरणा का स्त्रोत बन गया। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान राजपूत वीरांगनाओ का यह शौर्यमहिलाओं को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए प्रोत्साहित करता था।[6]

भारतीय संस्कृति में नारी

सभ्यता के प्रारम्भ से ही मानवता के विकास में महिलाओं ने भी पुरुषों के समान महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में सती सावित्री आदर्श जो एक पतिव्रता, त्यागमयी एवं निष्ठावान पत्नी का धोतक है, चिरकाल से भारतीय महिलाओं के लिए स्त्रीत्व के महानतम आदर्श के रूप में रहा है भारतीय इतिहास में vusd नारियों का उदाहरण मिलता है। जिसमें ये नारियां सम्मान आदर तथा जय जयकार की पात्र रही है। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते है जिसमें कश्मीर से दक्षिण भारत तथा राजस्थान से आसाम और पूर्वी क्षेत्रों को जनजातियों में अनेक ऐसी महिलायें हुई है जिन्होंने अपने कौशल, शौर्य, वीरता, साहस का परिचय देते हुए अपने व्यक्तिगत व राजनीतिक कर्तव्यों का निर्वाह किया है। उत्तराधिकारी का अभाव अथवा अयोग्यता, उन्हें राजनीतिक व सैनिक सत्ता तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करता है, इसी प्रकार संकट की स्थितियों में तब जब कि बाहाशत्रु चुनौती दे रहा हो, इन महिला योद्धाओं ने अपने साम्राज्यों के राजनीतिक भविष्य को निर्णायक रूप से प्रभावित किया है। वीरांगना की इस सांस्कृतिक निरन्तरता के कारण यह स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम था कि राष्ट्रीय ताकतों ने वीरांगना की इस छवि को एक सशक्त प्रतीक के रूप में अपने आप में समाहित कर औपनिवेशिक आधिपत्य और साम्रज्यवादी प्रभुत्व के साथ-साथ नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण तथा दमनात्मक विचारों को भी जबरदस्त चुनौती दी।

ब्रिटिश राज के समर्थकों ने राज को जारी रखने के पक्ष में अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता और भारतीय सामाजिक बुराईयों जैसे सती प्रथा, पर्दा प्रथा, शिशु हत्याओं व लिंगभेद के मामलो को भारतीयों की स्वशासन की मांग के विरोध में उद्धत किया। नारी से जुड़े प्रश्न भारतीय राष्ट्रवादियों एवं समाज सुधारकों के सामने अपरिहार्य रूप से विशेष महत्व के बन गये। जो यह कहते नहीं थके थे कि चाहे वर्तमान में नारी को स्थिति कुछ भी हो, प्राचीन भारत बहुत सी विशिष्ट नारियों ने इतिहास में अपनी छाप छोड़ी है। भारतीय राष्ट्रवादियों ने समसामयिक समाज में नारी की दुर्दशा की तुलना में प्राचीन भारतीय नारी के स्वरूप को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि गांधी ने अहिंसा की आदर्श परिकल्पना, निःस्वार्थ व स्वेच्छा से दी गई कुर्बानी के माध्यम से ही राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों को बड़ी संख्या में आकर्षित किया। 1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ और स्वदेशी आन्दोलन शुरू किया गया तो उत्तरोत्तर बढ़ती हुई स्त्रियों की संख्या ने यह महसूस किया कि उनके सामाजिक शोषण का प्रश्न भी औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ वृहद राजनीतिक संघर्ष से परस्पर मिला हुआ है तथा इन स्त्रियों ने औपनिवेशिक दासता और साम्राज्यवादी तानाशाही के खिलाफ सशस्त्र विरोध का समर्थन किया। भारत स्त्री महा मण्डल' नाम से स्त्रियों के एक नये संगठन की शुरूआत की। इसी प्रकार सिस्टर निवेदिता, जो विवेकानन्द की शिष्या थी और आयरलैण्ड से आई थी, ने क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों की राजनैतिक और सशस्त्र संघर्ष के लिए प्रेरित किया। बम्बई की पारसी महिला, मैडम भीखाजी रुस्तम कामा, जिन्होंने लंदन, पेरिस, बर्लिन से साम्राज्यवाद की तीव्र निन्दा की। उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज का प्रारम्भिक विवरण व रूपरेखा तैयार की। इतना ही नहीं, उन्होंने क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों के लिए अस्त्र-शस्त्र गोलाबारूद, क्रान्तिकारी साहित्य भी उपलब्ध कराने में गहरी रुचि ली।

साम्राज्यवादी उत्पीड़न और सामाजिक नियंत्रण के बावजूद बहुत सी महिलाओं ने अपनी प्राण और प्रतिष्ठा को दांव पर लगा कर भी अद्वितीय और प्रभावशाली साहसिक कार्य किये। दिसम्बर 1931 में शांति और सुनीति नाम की कोमिला की दो स्कूल छात्राओं नै मजिस्ट्रेट स्टेवेन्स को गोली मार कर हत्या कर दी। सन् 1932 के प्रारम्भ में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में बीनादास ने बंगाल के गवर्नर को गोली मार कर हत्या करनी चाही। इसी तरह चिटगाँग को एक अध्यापिका प्रीति बड्डेदार पुरुषों के एक दल का नेतृत्व कर, चिटगाँग क्लब पर हमला किया और जब भाग निकलना सम्भव नहीं हुआ तो प्रीतिलता ने जहर खाकर आपने प्राण दे दिये और मातृभूमि के लिए शहीद हो गयी। इन महिला क्रान्तिकारियों ने राष्ट्र की आजादी के लिए करो या मरो के नारे के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन को इतना जोशीला और भावोत्तेजक बना दिया था कि जब साधारण और विशेषकर युवा वर्ग और महिलाओं के लिये ये आकर्षण का केन्द्र बन गई थी। राष्ट्रीय युग की इन साहसी युवतियों ने अपनी सामरिक कार्यवाही और साम्राज्यवादी शत्रु से सीधी टक्कर लेने की उत्सुकता ने इन्हे ऐतिहासिक भारतीय वीरांगनाओं की मौटे तौर पर पुरानी परम्परा का स्मरण करा दिया। इन महिला क्रान्तिकारियों का राजनीतिक स्वतन्त्रता की तलाश में सामरिक संहिता के प्रति लगाव और अत्याचार के खिलाफ शस्त्र उठाने की इच्छा काफी कुछ पुराने युग की वीर महिलाओं से समानता दर्शाती है, जिससे इन्हें पुराने समय की वीरांगना के रूप में देखा जा सकता है।

साहसी नारियों और उनके वर्तमान समसामयिक सांस्कृतिक प्रतिरूपों के जीवन वृत्तों से स्पष्ट होता है कि ये वीरागंनायें देशभक्ति, साहस, वीरता, शारीरिक क्षमता, और सैन्य पराक्रम से औत-प्रोत है इन बहादुर स्त्रियों के साहसिक कृत्यों ने जन साधारण के दिलों- दिमाग में एक खास जगह बनायी है और उनकी उपलब्धियों और कामयाबियों को भारत की लोक संस्कृति में अनेक प्रकार के समारोह व उत्सवों के माध्यम ये से मनाया जाता है। लोकप्रिय संस्कृति की ये बहादुर स्त्रियां एक कृतसंकल्प और दृढ़ निश्चय स्त्री की तस्वीर प्रस्तुत करती है। इन असाधारण बहादुर स्त्रियों का अनुकरणीय साहस महान और न्यायोचित कार्य के प्रति उनका शारीरिक और सशस्त्र पराक्रम, मानसिक, परिपक्वता, और उनकी स्थायी आस्था और प्रतिबद्धता यह सुनिश्चित करता है कि बहादुर व त्यागमयी स्त्रियों की प्रतिभा न केवल एक अद्भुत सांस्कृतिक आदर्श है, अपितु इसे सामाजिक स्वीकृति के साथ ही साथ बड़े पैमाने पर जनसाधारण में लोकप्रियता मिली है।

भारतीय महिलायें सामाजिक प्रतिमान और सांस्कृतिक आदर्शों की एक अत्यन्त विरासत की उत्तराधिकारी है। हमे केवल उन सांस्कृतिक परम्पराओं को ही रेखांकित नहीं करना चाहिए जो भारतीय स्त्रियों को आज भी जकड़े हुऐ है, अपितु उन भूमिकाओं को भी उजागर करना चाहिए, जिन्होंने स्त्री को स्वतन्त्रता तथा सक्रियता प्रदान की है। भारत में महिला आन्दोलन के समर्थकों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि वे देशी सांस्कृतिक परम्पराओं को पुनः परिभाषित करें और उन्हें समकालीन आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित भी करें। इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की सृजनशील व्याख्या अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार के प्रयास के द्वारा ही भारतीय महिलाऐं अपने उस आवश्यक स्वरूप को साकार कर सकती है जिससे वे सांस्कृतिक उपयुक्तता और सामाजिक सम्मान की परिधि में रहते हुए प्रभावी स्वतन्त्रता और कार्यकारी स्वायत्तता प्राप्त कर सकेंगी।[7

निष्कर्ष

वैदिक युग में नारी को अत्यन्त आदर का स्थान प्राप्त था। वेदों की अनेक ऋचाएं नारी ऋषियों के हृदय से उद्भूत हुई है। ज्ञानार्जन में ही नहीं अपितु आर्थिक राजनीतिक धार्मिक एवं सार्वजनिक सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। पारिवारिक जीवन की वे आधारशीला मानी जाती थी। सामाजिक जीवन में भी उनका विशिष्ट स्थान था।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. महेशचन्द्र सिंघल : भारतीय शिक्षा की वर्तमान समस्याएं राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 1971, पृ.सं. 45

2. प्रतिभा जैन, संगीता शर्मा भारतीय स्त्री सांस्कृतिक सन्दर्भ, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर एवं नई दिल्ली, 1998, पू.सं. 49, 65, 66, 68

3. ऋग्वेद 10.90

4. रामायण, किष्किन्धा काण्ड 24 38 शास्त्र प्रयोगाद विविधान्य वेदादनन्यरूपा पुरुषस्य द्वारा।

5. प्रतिभा जैन, संगीता शर्मा भारतीय स्त्री सांस्कृतिक सन्दर्भ, मध्यकालीन राजस्थान,स्त्रियों का सांस्कृतिक योगदान चन्द्रमणि सिंह रावत पब्लिकेशन, जयपुर एवं दिल्ली, 1998, पृ.सं. 155-156

6. वर्षा जोशी: चारण साहित्य में राजपूत नारियां, भारतीय स्त्री सांस्कृतिक सन्दर्भ संपा

(प्रतिभा जैन, संगीता शर्मा), रावत पब्लिकेशन जयपुर, 1998, पृ.सं. 176-180

7. प्रतिभा जैन, संगीता शर्मा भारतीय नारी सांस्कृतिक सन्दर्भ, भारतीय संस्कृति में वीरांगना प्रतिमान, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, 1998, पू.सं. 191,193, 194, 196