ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IV July  - 2023
Anthology The Research

देवकीनंदन शर्मा के चित्रों में कलात्मक सौंदर्य: एक अध्ययन

Artistic Beauty in the Paintings of Devkinandan Sharma: A Study
Paper Id :  17865   Submission Date :  12/07/2023   Acceptance Date :  20/07/2023   Publication Date :  25/07/2023
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कमल कुमार मीना
शोधार्थी
दृश्यकला विभाग
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय
उदयपुर,राजस्थान, भारत
सारांश

कल्पना की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति या ऐसे कहें की मानवीय भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति ही कला है। भारतीय परंपरा में आरंभ से ही कहा गया है कि जो कला परम आनंद प्रदान करती है वही सच्ची व श्रेष्ठ कला है और वही कल्याणकारी भी होती है। कला का लक्ष्य आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार तथा परमतत्व की ओर उन्मुख होना है। यह सही है कि प्राचीन काल से ही भारतीय कला मुख्यतः धर्म एवं आध्यात्मिक चिंतन को समर्पित रही है। परंतु इसके साथ ही उसमें तत्कालीन सामाजिक जीवन भी विभिन्न स्तरों पर स्पंदित हुआ है। कुल मिलाकर कला में कल्पना की अभिव्यक्ति ही महत्वपूर्ण होती है। यही अभिव्यक्ति विविध प्रकार से एवं विभिन्न माध्यमों के द्वारा हो सकती है। कलाऐं मानव संस्कृति का आरंभ से ही एक अविभाज्य अंग रही है। विशेष रूप से चित्रकला की बात करें तो यह कहा जा सकता है कि उसका मूल उत्स संवेदनशील मानवीय चेतना है इधर जटिलता और दुरुहता के दोष से मुक्त होकर आधुनिक कला सर्जनशीलता में अत्यधिक समृद्ध हो गई है। कला की नई मान्यताओं ने उसमें नई संभावनाओं से इतना भर दिया है कि उलझन के रहते हुए भी निराशा के भाव पैदा नहीं होतें है। कलाओं को हमारे यहां रूप की दृष्टि भी शायद इसलिए कहा गया है कि वहां दृश्य का ही नहीं जो कुछ अदृश्य है, उसका भी अनुकरण करते रूप को उभारा जाता है। पार्कर ने इसलिए कभी कला को इच्छा के काल्पनिक व्यक्तिकरण की संज्ञा दी थी। और वर्तमान में कला कैनवास तक ही सीमित नहीं रह गई है, उसके अभिव्यक्त सरोकार भी बदल गए हैं।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Art is the aesthetic expression of imagination or to say that the spontaneous expression of human feelings. It has been said in the Indian tradition from the very beginning that the art which gives ultimate pleasure is the true and best art and it is also beneficial. The goal of art is to realize the nature of the soul and to be oriented towards the Supreme. It is true that since ancient times, Indian art has mainly been devoted to religion and spiritual thought. But along with this, the contemporary social life has also vibrated in it at different levels. Overall, expression of imagination is important in art. This expression can be done in different ways and through different mediums.
Arts have been an inseparable part of human culture since the beginning. Especially talking about painting, it can be said that its origin is the sensitive human consciousness, where modern art has become very rich in creativity by being free from the defect of complexity and complexity. The new concepts of art have filled it with new possibilities so much that despite the confusion, there is no feeling of despair. Arts have also been said to have a vision of form here, perhaps because there the form is raised by imitating not only the visible, but also that which is invisible. Parker therefore sometimes called art the imaginary personification of desire. And at present art is not confined to canvas, its expressive concerns have also changed.
मुख्य शब्द सौंदर्य, छुद्र, लालित्य, आध्यात्मिक, मोरध्वज, केली-क्रीडा, खंजन, अलौकिक, नैसर्गिक, अठखेलियां, प्रस्फुटित, श्रंगार, वैशिष्ट्य आदि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Beauty, Subtlety, Elegance, Spiritual, Mordhwaj, Kelly-play, Khanjan, Supernatural, Natural, Athkheliyon, Blooming, Adornment, Specialty etc.
प्रस्तावना

राजस्थान के मूर्धन्य चित्रकार देवकीनंदन शर्मा की कैनवास रची प्रकृति दृश्यावलियाँ उनके कैनवास पर जैसे जीवंत हो उठती हैं। लोक एवं पौराणिक आख्यानों पर आधारित उनके चित्र भी सर्वथा अलग पहचान लिए हैं। यही नहीं फ्रेस्को तकनीकी को उन्होंने नई पहचान ही नहीं दी बल्कि इस तकनीकी में बने उनके भित्ति चित्रों ने अपनी सर्वथा अलग शैली में परंपरा और आधुनिकता का सांगोपांग मेल भी जैसे किया। कला के विभिन्न माध्यमों में काम करते उन्होंने चित्रों में प्रकाश और छाया प्रभाव के जो नवीन प्रयोग किए, वे ऐसे हैं जो कला में उनकी अलायदा पहचान बनाते हैं।[1] देवकीनंदन शर्मा राजस्थान के कला जगत में विशेष स्थान रखते हैं।स्नेहशील व्यवहार तथा सादगीपूर्ण जीवन से सभी साथी कलाकारों से आपके आत्मीय संबंध थे। तार्किक परिप्रेक्ष्य तथा पशु व पक्षियों के विविध रूपों से परिपूर्ण चित्रण के कारण कला जगत में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की।[2]

अध्ययन का उद्देश्य

देवकीनंदन शर्मा ने अपने चित्रों में परंपरागत सांस्कृतिक स्वरूप को सहेजा। यहां रहते हुए आपने अनेक विषयों पर चित्रों का निर्माण किया, जिसमें ऐतिहासिक गाथाएं, तीज त्यौहार, पौराणिक गाथाएं जनजीवन, बैलगाड़ी की यात्रा, ग्वाल कृष्ण, ढोला मारू, जुब्बेनिशा, स्नान, देवी-देवता, दृश्य चित्र और पशु चित्र को चित्रित करना प्रमुख उद्देश्य रहा है। शर्मा ने सभी जातियों की पक्षियों मोर, कबूतर, कोयल, गिरगिट, बबूल को बहुत नजदीकी से देखा, अध्ययन किया है। मोर की अनेक मुद्राओं, रूपों व भावों को बड़ी कुशलता के साथ चित्रित करते हुये उन्होंने दृश्य कला का सर्वथा नया मुहावरा गढा है। यह नया मुहावरा ऐसा है जिसमें मोर के मनोभाव को बेहद आसानी से समझा जा सकता है। मोर किस प्रकार से पंख फैलाकर नृत्य करता है, कैसे वह घूमता है, कैसे किसी दूसरे को देखने का उपक्रम करता है, कैसे वह उड़ता है, कैसे झुकता है, कैसे गर्दन घुमाता है, कैसे विश्राम करता है और कैसे मानसून का इंतजार करता उल्लासित होता है- इस सब को विभिन्न कोणों से उकेरते उन्होंने मोर को अपनी समग्रता में कैनवास में समाया है। 

साहित्यावलोकन

देवकीनंदन शर्मा जी राजस्थानी चित्रकला में लोक एवं धार्मिक दृश्य का क्या महत्व है। इसके बारे में व्याख्या करते हैं वो कहते हैं कलाओ पर जो सबसे बड़ा आपेक्ष होता है उनमें लोक एवं धार्मिक अपेक्षित रहता है। वह कहते हैं हमारी कलाएं धर्मों से दूर राजाश्रेयों में पली-पोसी दरबारी कलाएँ हैं और वह धर्म परक है अतः उनका लोक एवं धार्मिक जीवन से उनका कोई संबंध नहीं है। यह अभिव्यक्ति करने का साधन था।

साहित्य की भांति सभी कलाओं का उद्गम लोक एवं धार्मिक ही है, प्राचीन कला तो लोक एवं साहित्य दृश्य का अक्षय भंडार है। अपनी संस्कृति में कहीं भी लोक एवं साहित्य की अपेक्षा नहीं उनका अपना वर्ग मिलता है जिसे देशी कहते हैं और जो नागर कलाओं मार्ग से कई दृष्टियों से भिन्न है हमें जिन कलाओं के अवशेष प्राप्त है। उनमें बरबस झांक सा उठता होता है।

शर्मा जी कहते हैं कि प्राचीन चित्रकला लोक एवं धार्मिक दृश्य का अक्षय भंडार है यह जीवन से किसी भी प्रकार से दूर नहीं मानी जा सकती है अजंता के भित्ति चित्र इसके सबसे बड़े उदाहरण है। उदाहरण के रूप में भगवान बुद्ध ने अपने उपदेशों को लोक के लिए सुगम कर दिया है। अजंता में जो जातक कथाएं चित्रित हुए हैं उनमें से विशिष्ट पात्र बोधिसत्व के रूप में रखते नहीं तो सारा दृश्य लोक एवं धार्मिक कथाओं के चित्रण का ही मिलेगा। अजंता के चित्रकारों ने राज महल से मुक्ति पाई और लोक एवं धार्मिक दृश्य प्रस्तुत किए हैं। इसका एक उदाहरण छः दंतक जातक कथा का दृश्य है जिसमें उसका अत्यंत सुंदर चित्रण किया गया है।

शर्मा जी ने यह भी अवगत कराया है की लोक एवं धार्मिक कला का चित्रण प्राचीन काल से शुरू होकर, अपभ्रंश, पाल, राजस्थानी शैली में इसका बहुत चित्रण हुआ है और बाद में जब यहां मुगल शैली का प्रचलन था तब इस कला का प्रभाव उसको भी अछूता नहीं छोड़ा इस लोक एवं धार्मिक कला का प्रभाव मुगल शैली के बहुत चित्रों में देखने को मिल जाता है इसके अलावा लोक एवं धार्मिक शैली का प्रभाव मुगल शैदेवकीनंदन शर्मा जी राजस्थानी चित्रकला में लोक एवं धार्मिक दृश्य का क्या महत्व है। इसके बारे में व्याख्या करते हैं वो कहते हैं कलाओ पर जो सबसे बड़ा आपेक्ष होता है उनमें लोक एवं धार्मिक अपेक्षित रहता है। वह कहते हैं हमारी कलाएं धर्मों से दूर राजाश्रेयों में पली-पोसी दरबारी कलाएँ हैं और वह धर्म परक है अतः उनका लोक एवं धार्मिक जीवन से उनका कोई संबंध नहीं है। यह अभिव्यक्ति करने का साधन था।

साहित्य की भांति सभी कलाओं का उद्गम लोक एवं धार्मिक ही है, प्राचीन कला तो लोक एवं साहित्य दृश्य का अक्षय भंडार है। अपनी संस्कृति में कहीं भी लोक एवं साहित्य की अपेक्षा नहीं उनका अपना वर्ग मिलता है जिसे देशी कहते हैं और जो नागर कलाओं मार्ग से कई दृष्टियों से भिन्न है हमें जिन कलाओं के अवशेष प्राप्त है। उनमें बरबस झांक सा उठता होता है।

शर्मा जी कहते हैं कि प्राचीन चित्रकला लोक एवं धार्मिक दृश्य का अक्षय भंडार है यह जीवन से किसी भी प्रकार से दूर नहीं मानी जा सकती है अजंता के भित्ति चित्र इसके सबसे बड़े उदाहरण है। उदाहरण के रूप में भगवान बुद्ध ने अपने उपदेशों को लोक के लिए सुगम कर दिया है। अजंता में जो जातक कथाएं चित्रित हुए हैं उनमें से विशिष्ट पात्र बोधिसत्व के रूप में रखते नहीं तो सारा दृश्य लोक एवं धार्मिक कथाओं के चित्रण का ही मिलेगा। अजंता के चित्रकारों ने राज महल से मुक्ति पाई और लोक एवं धार्मिक दृश्य प्रस्तुत किए हैं। इसका एक उदाहरण छः दंतक जातक कथा का दृश्य है जिसमें उसका अत्यंत सुंदर चित्रण किया गया है।

शर्मा जी ने यह भी अवगत कराया है की लोक एवं धार्मिक कला का चित्रण प्राचीन काल से शुरू होकर, अपभ्रंश, पाल, राजस्थानी शैली में इसका बहुत चित्रण हुआ है और बाद में जब यहां मुगल शैली का प्रचलन था तब इस कला का प्रभाव उसको भी अछूता नहीं छोड़ा इस लोक एवं धार्मिक कला का प्रभाव मुगल शैली के बहुत चित्रों में देखने को मिल जाता है इसके अलावा लोक एवं धार्मिक शैली का प्रभाव मुगल शैली के बहुत चित्रों में देखने को मिल जाता है। इसके अलावा लोक एवं धार्मिक शैली का प्रभाव पंजाब की पहाड़ियों में भी अलौकिक रूप से प्रस्फुटित हुई और पहाड़ी शैली के नाम से लोकविश्रुत हुई। इस लोक एवं धार्मिक कला के अनेक दृश्य नायक- नायिका भेद वाले चित्रों में तथा कृष्ण लीला में आसानी से देखे जा सकते हैं।देवकीनंदन शर्मा जी राजस्थानी चित्रकला में लोक एवं धार्मिक दृश्य का क्या महत्व है। इसके बारे में व्याख्या करते हैं वो कहते हैं कलाओ पर जो सबसे बड़ा आपेक्ष होता है उनमें लोक एवं धार्मिक अपेक्षित रहता है। वह कहते हैं हमारी कलाएं धर्मों से दूर राजाश्रेयों में पली-पोसी दरबारी कलाएँ हैं और वह धर्म परक है अतः उनका लोक एवं धार्मिक जीवन से उनका कोई संबंध नहीं है। यह अभिव्यक्ति करने का साधन था।

साहित्य की भांति सभी कलाओं का उद्गम लोक एवं धार्मिक ही है, प्राचीन कला तो लोक एवं साहित्य दृश्य का अक्षय भंडार है। अपनी संस्कृति में कहीं भी लोक एवं साहित्य की अपेक्षा नहीं उनका अपना वर्ग मिलता है जिसे देशी कहते हैं और जो नागर कलाओं मार्ग से कई दृष्टियों से भिन्न है हमें जिन कलाओं के अवशेष प्राप्त है। उनमें बरबस झांक सा उठता होता है।

शर्मा जी कहते हैं कि प्राचीन चित्रकला लोक एवं धार्मिक दृश्य का अक्षय भंडार है यह जीवन से किसी भी प्रकार से दूर नहीं मानी जा सकती है अजंता के भित्ति चित्र इसके सबसे बड़े उदाहरण है। उदाहरण के रूप में भगवान बुद्ध ने अपने उपदेशों को लोक के लिए सुगम कर दिया है। अजंता में जो जातक कथाएं चित्रित हुए हैं उनमें से विशिष्ट पात्र बोधिसत्व के रूप में रखते नहीं तो सारा दृश्य लोक एवं धार्मिक कथाओं के चित्रण का ही मिलेगा। अजंता के चित्रकारों ने राज महल से मुक्ति पाई और लोक एवं धार्मिक दृश्य प्रस्तुत किए हैं। इसका एक उदाहरण छः दंतक जातक कथा का दृश्य है जिसमें उसका अत्यंत सुंदर चित्रण किया गया है।

शर्मा जी ने यह भी अवगत कराया है की लोक एवं धार्मिक कला का चित्रण प्राचीन काल से शुरू होकर, अपभ्रंश, पाल, राजस्थानी शैली में इसका बहुत चित्रण हुआ है और बाद में जब यहां मुगल शैली का प्रचलन था तब इस कला का प्रभाव उसको भी अछूता नहीं छोड़ा इस लोक एवं धार्मिक कला का प्रभाव मुगल शैली के बहुत चित्रों में देखने को मिल जाता है इसके अलावा लोक एवं धार्मिक शैली का प्रभाव मुगल शैली के बहुत चित्रों में देखने को मिल जाता है। इसके अलावा लोक एवं धार्मिक शैली का प्रभाव पंजाब की पहाड़ियों में भी अलौकिक रूप से प्रस्फुटित हुई और पहाड़ी शैली के नाम से लोकविश्रुत हुई। इस लोक एवं धार्मिक कला के अनेक दृश्य नायक- नायिका भेद वाले चित्रों में तथा कृष्ण लीला में आसानी से देखे जा सकते हैं।ली के बहुत चित्रों में देखने को मिल जाता है। इसके अलावा लोक एवं धार्मिक शैली का प्रभाव पंजाब की पहाड़ियों में भी अलौकिक रूप से प्रस्फुटित हुई और पहाड़ी शैली के नाम से लोकविश्रुत हुई। इस लोक एवं धार्मिक कला के अनेक दृश्य नायक- नायिका भेद वाले चित्रों में तथा कृष्ण लीला में आसानी से देखे जा सकते हैं।

मुख्य पाठ

जन्म

प्रो. देवकीनंदन शर्मा का जन्म 17 अप्रैल सन् 1919 ईस्वी को अलवर में हुआ। आप राज्य के उन वरिष्ठतम चित्रकारों में से एक थे, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन कला साधना में बिताया। आपके पिता व पितामह अलवर तथा जयपुर रियासत के प्रतिष्ठित राज्य कवियों में से थे जो मोहनप्रसादके नाम से प्रसिद्ध थे।[3] 

शिक्षा

शर्मा ने महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट जयपुर से 1936 ईस्वी में कला डिप्लोमा प्राप्त किया। आपको अपने अध्ययन काल में शैलेंद्र नाथ डे का निर्देशन मिला जिसका प्रभाव आपकी कला में परिलक्षित होता है। शांतिनिकेतन से आपने फ्रेस्को  तकनीकी का विशेष अध्ययन नंदलाल बोस तथा विनोद बिहारी मुखर्जी के सानिध्य में किया।[4]


शिक्षण

अध्ययनोंपरांत आपने संन् 1937 ईस्वी में वनस्थली विद्यापीठ में एक कला शिक्षक के रूप में पद ग्रहण किया और कला शिक्षक के रूप में सेवाएं देना प्रारंभ किया। शर्मा को 1946-1947 ईसवी में शांतिनिकेतन जाने का अवसर मिला। आपको अपने अध्ययन काल में शैलेंद्र नाथ डे का निर्देशन मिला जिसका प्रभाव आपकी कला में परिलक्षित होता है।शांति निकेतन से आपने फ्रेस्को, टेंपरा, वॉस व भित्ति चित्र पद्धति में तकनीकी बारीकियों का प्रशिक्षण लिया। यहां भारतीय इतिहास पुरुषों प्रोफेसर विनोद बिहारी मुखर्जी व प्रोफेसर नंदलाल बोस का सानिध्य मिला। शांतिनिकेतन से लौटने के पश्चात देवकीनंदन जी अपने गुरुजनों के आग्रह पर वनस्थली विद्यापीठ में सन 1953 ईस्वी में प्रत्येक ग्रीष्मावकाश में भित्ति चित्रण प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करते रहे हैं। आज सैकड़ों देश-विदेशी कलाकार शर्मा से इस श्रम-साध्य विधा को सीख चुके हैं व वनस्थली विद्यापीठ की विधियों पर जयपुर फ्रेस्को विधि आलागीला, आराइस, इतावली व टेंपरा विधा में सुंदर चित्राकृतियां देखी जा सकती हैं। जयपुर के पांच सितारा होटल, क्लार्क आमेर एवं जयपुर के रेलवे स्टेशन पर आपके द्वारा बनाया भित्ति चित्र इस पद्धति में कलात्मक दक्षता का सटीक उदाहरण प्रस्तुत करता है।खैरागढ़ छत्तीसगढ़ तथा दयालबाग, आगरा में भी फ्रेस्को शिविर आयोजित किये । फ्रेस्को शिविर की परंपरा आज भी वनस्थली विद्यापीठ मे विद्यमान हैं। वनस्थली विद्यापीठ में कला विभाग की स्थापना से लेकर उसको विकासोन्मुख करने का श्रेय इन्हीं को है। वस्तुतः आपने राजस्थान में फ्रेस्को पद्धति को मरणासन्न अवस्था से जीवित किया। शर्मा यहीं से प्रोफेसर व अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए थे।

सम्मान एवं पुरस्कार

1. शर्मा को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उनके कला के योगदान के फलस्वरूप उन्हें प्रोफ़ेसर अमेरीटसकी उपाधि से सम्मानित किया।

2. उसके बाद शर्मा को शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालय ने सीनियर फेलोशिपभी प्रदान की।

ऽ अपनी कला उपलब्धि के फलस्वरुप ही 1981 में शर्मा को राजस्थान ललित कला अकादमी ने अपने सर्वोच्च सम्मान कलाविद्से विभूषित किया।

3. इसके अलावा आपको सन 1959 ,1962 1967,1968 व 1969 ईस्वी के उत्कृष्ट चित्रों के लिए राज्य की कला वार्षिक प्रदर्शनी में पुरस्कार भी मिले।

4. राजस्थान दिवस, जयपुर आइफेक्स, नई दिल्ली से भी सम्मानित हुए।

कला यात्रा


वनस्थली विद्यापीठ प्रोफेसर शर्मा की कर्मभूमि रही है। शर्मा ने अपने चित्रों में परंपरागत सांस्कृतिक स्वरूप को सहेजा। यहां रहते हुए आपने अनेक विषयों पर चित्रों का निर्माण किया, जिसमें ऐतिहासिक गाथाएं, तीज त्यौहार, पौराणिक गाथाएं, जनजीवन, बैलगाड़ी की यात्रा, ग्वाल कृष्ण, ढोला मारू, जुब्बेनिशा, स्नान, देवी-देवता, दृश्य चित्र और पशु चित्र प्रमुख है। शर्मा ने सभी जातियों की पक्षियों मोर, कबूतर, कोयल, गिरगिट, बबूल को बहुत नजदीकी से देखा, अध्ययन किया है। मोर की अनेक मुद्राओं,रूपों व भावों को बड़ी कुशलता के साथ चित्रित करते हुये उन्होंने दृश्य कला का सर्वथा नया मुहावरा गढा है। यह नया मुहावरा ऐसा है जिसमें मोर के मनोभाव को बेहद आसानी से समझा जा सकता है। मोर किस प्रकार से पंख फैलाकर नृत्य करता है, कैसे वह घूमता है, कैसे किसी दूसरे को देखने का उपक्रम करता है, कैसे वह उड़ता है, कैसे झुकता है, कैसे गर्दन घुमाता है, कैसे विश्राम करता है और कैसे मानसून का इंतजार करता उल्लासित होता है- इस सब को विभिन्न कोणों से उकेरते उन्होंने मोर को अपनी समग्रता में कैनवास में समाया है।[5]

राजस्थान के कलाकारों द्वारा आपको मोर का चितेरासंज्ञा प्रदान की गई है। आपने विभिन्न पक्षियों को सूक्ष्म व स्थूल तरंगों के साथ उनकी मूल, वृत्तियों को भी उजागर किया है।

आज उनके संग्रह में 1000 से भी अधिक पक्षियों के चित्र हैं, जो उनकी विविध भाव-भंगीमाओं एवं क्रियाकलापों को दर्शाते हैं। ये चित्र छोटे-बड़े रूपों में मिलते हैं, पेन व स्याही से किये रेखांकन है, अपितु जलरंग व तैल रंग से निर्मित चित्र भी है। अन्य विषयों के चित्र, जलरंग व वॉस तकनीकी से बने हुए हैं, जिसमें सौम्यता, पारदर्शिता, शुद्धता एवं सूक्ष्मता प्रदर्शित हैं। आपने पारंपरिक टेंपरा का भी भरपूर उपयोग किया है। संन् 1952 ईस्वी में शर्मा की चित्रकृतियों से प्रभावित होकर हिंदी की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने कहा था कि शर्मा के चित्रों का आधुनिक भारतीय कला में महत्वपूर्ण स्थान हैं।

इस चित्र में मोर को पेड़ की शाखा पर बैठे हुए दिखाया गया हैं। मोर  कुहकना करता हुआ नाच रहा हैं। उसी पेड़ की दूसरी शाखा पर एक और मोर बैठा हुआ हैं। मोर को बहुत सुंदर चित्रित किया गया है तथा मोर के मोर पंखों को भी बहुत  सुंदरता से चित्रित किया गया हैं। मोर को जिस पेड़ पर बैठे हुए दिखाया गया है वह पेड़ भी बहुत ही हरा-भरा दिखाया गया है। तथा मोर की विभिन्न मुद्राओं को राज महल से राजकुमार व राजकुमारी देख रहे हैं। राजकुमारी को आभूषणों से अलंकृत व चुनरी ओड़े हुए दिखाया गया हैं  राजकुमार के बाल भी जुड़े में बंधे हुए हैं। मोर के चारों तरफ राज महल को चित्रित किया गया हैं। चित्र को देखने के बाद ऐसा लगता है कि यह दृश्य पूरा राज महल का ही चित्रित किया गया है। इस चित्र का शीर्षक मोर हैं। तथा यह चित्र जल रंग से बनाया हुआ हैं


इस चित्र में रानी शकुंतला को चौकी पर बैठे हुए दिखाया गया हैं तथा चौकी पर कुछ पुष्प रखे हुए हैं एवं पास में एक दासी खड़ी हुई हैं तथा तीन अन्य दासिया बैठी हुई हैं जो दासी खड़ी हुई हैं वह रानी शकुंतला के बालों में गजरे की माला का जुड़ा बना रही हैं और जो दासी पास में बैठी हुई हैं वह पैरों में मेहंदी लगा रही हैं। रानी शकुंतला आंखों में काजल लगाए हुए है तथा नाक में आभूषण पहने हुए तथा कानों में झुमका पहने हुए दिखाया गया हैं। रानी को गले में सोने व चांदी के हार व माला पहने हुए दिखाया गया हैं। रानी को हाथ में बाजू बंद पहने हुए दिखाया गया है। एक हाथ पैर पर रख रखा है और  उसी हाथ में कमल का फूल लिए हुए हैं और दूसरा हाथ दूसरे पैर पर रख रखा है रानी शकुंतला व अन्य वासियों को चोली व लहंगा पहने हुए दिखाया गया है। रानी को आभूषणों से अलंकृत दिखाया गया है चित्र को देखकर ऐसा लगता है कि यह रानी और दासिया उपवन में बैठे हुई हैं । चारों तरफ पेड़-पौधों व झाड़ियां हरियाली से आच्छादित हैं। चित्र के पृष्ठ भाग में दो हिरण चरते हुए दिखाए गए हैं। उपवन में केली के पेड़ भी दिखाए गए हैं। उपवन में चारों तरफ हरी-भरी घास को दिखाया गया है। यह चित्र बहुत ही मनोरम लग रहा हैं।


चित्र में कालिदास को पहाड़ों के बीच में एक बड़ी चट्टान पर बैठे हुए दिखाया गया है और चट्टानों को भी हल्के काले धूसर रंग में चित्रित किया गया है कालिदास अकेले ही बैठे हुए हैं कालिदास को गले में दुपट्टा डाले हुए एवं नीचे धोती पहने हुए दिखाया गया है इस चित्र को देखने के बाद ऐसा लगता है कि मानो वर्षा ऋतु हो बादलों को उमड़ते घुमड़ते हुए दिखाया गया है और चारों तरफ घनघोर घटा छा रही हो चारों तरफ अंधकार छाया हुआ है बादलों को हल्के काले पर हल्के नीले रंग मैं चित्रित किया गया है और चारों तरफ फूलों से आच्छादित झाड़ियों को दिखाया गया है झाड़ियों को रंग बिरंगे रंग में बनाया गया है।

यह चित्र शिव विवाह का हैं। भगवान शिव को नादिए पर सवार दिखाया गया हैं। भगवान शिव ने अपने सिर के बालों का जुड़ा बना रखा हैं तथा सिर पर चंद्रमा को दिखाया गया हैं भगवान शिव के मस्तक पर नेत्र को दर्शाया गया है और कानों में कुंडल पहन रखे हैं। गले में चारों तरफ सर्प को लिपटे हुए दिखाया गया है। दाहिने हाथ में शंख है और कमर में भी चारों तरफ सर्प लिपटा हुआ हैं। शिव के चारों तरफ देवताओं व राक्षसों चलते हुए को दिखाया गया हैं देवताओं को आभूषणों से सुसज्जित दिखाया गया  जो भगवान शिव की बारात में जा रहे हो कुछ देवताओं को ढोल नगाड़े बजाते हुए दिखाया गया हैं। कुछ राक्षसों के हाथ में कटोरे जैसा पात्र हैं इस चित्र में चारों तरफ पहाड़ की ऊंची ऊंची चट्टानों को दिखाया गया हैं तथा पास में सरोवर दिखाया गया हैं जिसमें कमल के फूल खिल रहे हैं और सरोवर के किनारे पर ही वृक्षों को दिखाया गया हैं पेड़ व सरोवर के चारों तरफ हरी-भरी घास को दिखाया गया हैं यह दृश्य बहुत ही सुंदर दिखाया गया हैं जो मन को लुभाने वाला हैं।

प्रदर्शनी

1. सन् 1963 ईस्वी में लंदन की ट्रायल कला विधि के संचालक ए.डी. ट्रायलने अंतरराष्ट्रीय पक्षी कलाकार के पक्षी चित्रों का अध्ययन किया। जिसमें 18 देशों के पक्षी कलाकारों के चित्र प्रदर्शनी के लिए चयनित किए गये। उनमें प्रो. शर्मा भी एक थे।

2. ब्रिटिश इंफॉर्मेशन सर्विसने आपको विश्व के 18 श्रेष्ठ पक्षी चितेरो में गिना।

3. संन् 1967 ईस्वी में प्रो शर्मा ने अपने देश में पहली बार मुंबई की नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटीमें पक्षी चित्र की प्रदर्शनी की

4. सन् 1968 ईस्वी में ललित कला, दिल्ली,

5. सन् 1969 ईस्वी में जहांगीर आर्ट गैलरी, मुंबई,


6. सन् 1985 ईस्वी में राजस्थान ललित कला अकादमी ने अतीत से अब तकप्रदर्शनी का आयोजन किया।

7. इसी प्रकार 1994 ईस्वी में अतित से अब तक117 चुने हुए चित्रों की प्रदर्शनी जयपुर के जवाहर कला केंद्र के चतुर्दिक कला दीर्घा में आयोजित की गई।

8. अखिल भारतीय ऐतिहासिक कांग्रेस और अभिलेख आयोग के 28वें सत्र ने जयपुर, 1951 में उनके वन- मैन शो को प्रायोजित किया।

9. AIFACS में शिक्षकों, सहकर्मियों और छास एक शो गैलरी, नई दिल्ली

10. इलाहाबाद की कला और साहित्य संघ ने इलाहाबाद -1952 में उनके वन- मैन शो को प्रायोजित किया।

11. मसूरी ऑटम फेस्टिवल कमेटी ने मसूरी-1958 में उनके वन- मैन शो को प्रायोजित किया

12. 1963 में अंतर्राष्ट्रीय पक्षी प्रदर्शनी में भारत का प्रतिनिधित्व किया, लंदन गैलरी।

13. द नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने हॉर्नबिल हाउस, बॉम्बे -1967, 1973 में उनके वन- मैन शो को प्रायोजित किया।

14. ललित कला अकादमी गैलरी- दिल्ली। जहांगीर आर्ट गैलरी, बॉम्बे- 1969 में चित्रों का वन- मैन शो

15. रवींद्र भवन, दिल्ली-1977 में शिक्षकों, सहकर्मियों और छात्रों के साथ एक शो।

16. कला मेला, नई दिल्ली-1978, 1982।

17. कला वीथी, बनस्थली-1979, 1985।

18. सरकारी संग्रहालय, चंडीगढ़-1980 द्वारा आयोजित अखिल भारतीय चित्रकला प्रदर्शनी।[6]

संग्रह

शर्मा के चित्र देश-विदेशों के विभिन्न संग्रहालयों एवं निजी संग्रहकर्ताओं के पास संग्रहित है।

स्वर्गवास

देवकीनंदन जीवनपर्यंत समर्पित भाव से सृजनरत रहे और 24 अप्रैल 2005 को वे इस कला जगत को सूना छोड़ गये।[7]

निष्कर्ष

आज का दौर प्रतिस्पर्धा का दौर माना जाता है, इस दौर में कलाकारों ने अपनी कलाभिव्यक्ति का चिंतन कर अपने सौंदर्य पूर्ण विचारों को अपनी पूर्ण लगन के साथ प्रस्तुत कर नई-नई शैलियों में उभार कर अपनी कला को संपूर्ण अभिव्यक्ति देने में जुट हुए हैं। कलाकार प्राचीन विषयगत बंधनों से मुक्त होकर नवीनतम आधार व सतहों का प्रयोग करके निरंतर बदलाव में नवीनता लाने का प्रयास कर रहे है, देवकीनंदन शर्मा ऐसे ही कई प्रकार के माध्यमों का प्रयोग कर अपने कार्य को विकसित करने में लग रहे हैं। वर्तमान समय में उनकी कलाकृति आधुनिकता का परिचय देने में सफल रही है। कला के शुरुआती दौर से देखे तो यह बात तो पूर्णत स्पष्ट हो गई की कलाकार अपने आसपास के दृश्य जगत को प्राथमिकता देकर उसे चित्रित करता आया हैं। कला के क्षेत्र में भारतीय कलाकारों को खूब सफलता प्राप्त हुई है, जहां कलाकारों के दृश्य यथार्थ के भीतर छुपे वस्तुनिरपेक्ष गुणधर्मों को पहचान कर उनके सौंदर्य को स्वीकारा है। वही देवकीनंदन शर्मा ने धार्मिक,सामाजिक पक्षों को चित्रित किया है और साथ में मोरों की विभिन्न मुद्राओं को भी चित्रित किया है, इनकी कला आधुनिक कला के क्षेत्र में विशेष स्थान रखती है। उनकी कला ने राजस्थान में ही नहीं, अपितु पूरे देश भर में अपनी पहचान बनाई है और सफलता प्राप्त की है। आपने नए कलाकारों को सृजनात्मकता के क्षेत्र में नए रास्ते दिखाए हैं, जिससे नए कलाकार आपकी कला से प्रभावित होकर स्वतंत्र रूप से सर्जन कर रहे हैं।

आभार लेखक सर्वप्रथम ईश्वर के प्रति अपना आभार प्रकट करता है जिनकी असीम कृपा से लेखक शोध पेपर सफलतापूर्वक पूर्ण कर पाया है । इस शोध कार्य के दौरान लेखक ने अपने आदरणीय गुरुजनों एवं शुभेच्छुओ से उपयुक्त मार्गदर्शन एवं भरपूर प्रोत्साहन मिला। लेखक अपने शोध-निदेशक प्रोफेसर हेमंत द्विवेदी, निर्देशक दृश्य कला विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर का आभार व्यक्त करता है । जिनके सतत मार्गदर्शन और अमूल्य सुझाव के कारण ही इस शोध पेपर की उत्कृष्टता एवं प्रमाणिकता बनी रही। वस्तुतः पूरे शोध कार्य के दौरान वह लेखक प्रेरणाओ एवं उत्साह का स्रोत बना रहे जिसके कारण लेखक अपना शोध पेपर निश्चित समय पर संपन्न कर सका।
लेखक मोहनलाल विश्वविद्यालय के दृश्य कला विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर मदन सिंह राठौड़ और वर्तमान विभागाध्यक्ष डॉक्टर धरमवीर वशिष्ठ, सहायक आचार्य डॉक्टर शाहिद परवेज और सहायक आचार्य डॉक्टर दीपिका माली को भी उनके बहुमूल्य सुझाव एवं सतत सहयोग के लिए, जो मुझे इस शोध कार्य के दौरान मिला, अपना आभार एवं कृतज्ञता ज्ञापित करता है। लेखक मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के सभी अध्यापकों, कर्मचारियों एवं पदाधिकारी गणों को उनके सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए अपना आभार एवं धन्यवाद ज्ञापित करता है ।
लेखक अपने मित्र रवि प्रसाद कोली जिन्होंने लेखक को इस शोध पेपर के लिए प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान किया, धन्यवाद देता है ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. भारतीय कला, डॉ राजेश कुमार व्यास पृ सं.- 6

2. कक्षा-12 चित्रकला भारतीय कला भाग-2 पृ.सं.-67

3. डॉ.रीता प्रताप भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास पृ. सं.- 19

4. डॉ. ममता चतुर्वेदी, समकालीन भारतीय कला, पृ. सं.- 07

5. भारतीय कला, डॉ राजेश कुमार व्यास पृ सं.- 6

6. प्रोफेसर भवानी शंकर शर्मा, प्रकाशक ललित कला अकादमी, नई दिल्ली

7.https://www.bhaskar.com/news/rajasthan-news-pro-online-celebrations-on-the-centenary-of-devkinandan-sharma-080657-7055239.html