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ऋग्वेद में आर्यों की सामाजिक स्थिति | |||||||
Social Status of Aryans in Rigveda | |||||||
Paper Id :
17907 Submission Date :
2023-07-13 Acceptance Date :
2023-07-19 Publication Date :
2023-07-25
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सारांश |
वेद आर्यो की सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य का आदि स्रोत तथा उद्गम स्थान है। यह भारत की अमूल्य निधि है। मानव सभ्यता, संस्कृति एवं ज्ञान का आदि सूर्योदय वेद से ही हुआ है। भारत के धर्म, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, विद्या, कला सभी के विकास एवं अभ्युदय में वेदों का सबसे महत्वपूर्ण अनुदान रहा है। इन सबका मूल आधार वेद को ही माना जाता है। वेद आधुनिक विज्ञान का भी उत्स है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाएं वेद से अपना सम्बन्ध जोड़कर अपने को धन्य मानती हैं। ज्ञान अनन्त है, अखण्ड है, आत्मज्योति है, वेद भी अनादि अनन्त है। वेद शब्द रूप अखण्ड ज्ञानराशि है, शब्द ब्रह्म है, अतः प्रत्यक्ष ब्रह्म है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Vedas are the original source and origin of Aryan's civilization, culture and literature. This is a priceless treasure of India. The beginning of human civilization, culture and knowledge has come from the Vedas only. Vedas have been the most important grant in the development and progress of India's religion, civilization, culture, language, literature, learning, art. The basic basis of all these is considered to be the Vedas. Vedas are also the source of modern science. All the branches of Indian knowledge-science consider themselves blessed by connecting their relation with Vedas. Knowledge is eternal, unbroken, self-lighting, Vedas are also eternal. The word form of Vedas is the form of unbroken knowledge, the word is Brahman, therefore it is visible Brahman. | ||||||
मुख्य शब्द | ऋग्वेद आर्यो की सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य भाषा, साहित्य, विद्या, कला। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Civilization, Culture and Literature of Rigveda Aryans Language, Literature, Learning, Art. | ||||||
प्रस्तावना | वैदिक साहित्य में
हमें उन शाश्वत सत्य सिद्धान्तों के दर्शन होते हैं जो कि मानव जाति के अभ्युदय और
निःश्रेयस् की प्राप्ति में हेतु हैं। ऋग्वेदकाल का सामाजिक जीवन अति महत्वपूर्ण
था। उस समय समाज में पृथक-पृथक परिवार होते थे। साथ ही आर्यों का समाज ब्राह्मण,
क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विभक्त था। ऋग्वेद के
दशम् मण्डल के पुरुष सूक्त के 12वें मन्त्र में यह बतलाया
गया है कि ये वर्ण परब्रह्म के अंगों से उत्पन्न हुए है- ब्राह्ममणेऽस्य
मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः। ऊरु तदस्य यद्वैष्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।[1]
ऋृग्वेद में जातिप्रथा एक विवाद का विषय है। फिर भी यह
निश्चितप्राय है। कि उत्तर वैदिक काल में जाति प्रथा पूर्णरूप से विकसित हो गई थी-
“The development of caste has been a Progressive one & that we
should not expect in the Rigveda the picture of the caste system which is
presented even in the yajurveda” |
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अध्ययन का उद्देश्य |
ऋग्वेद आर्यो की सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य भाषा। |
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साहित्यावलोकन | वैदिक समाज उपलब्ध साहित्य के अनुसार विश्व का अतिप्राचीन समाज है। इस समाज के
प्रति जिज्ञासा होना सर्वथा स्वाभाविक है। ऋग्वेद को आदिग्रन्थ माना है। वैदिक समाज
अपनी अनेक मौलिक विशेषताओं से विभूषित है। इसमें तत्कालीन वर्णाश्रम, संस्कार,
पुरुषार्थ चतुष्टय व्यक्तिगत, परिवार, पारिवारिक आचार-विचार, विवाह,
स्त्रियों की स्थिति, राजा एवं राज्य की स्थिति, दण्डनीति, न्यायनीति, कूटनीति,
धर्म, शिक्षा एवं अन्य विविध सामजिक विषयों का
सहज संदर्शन हुआ है। ऋग्वेद में हमें विकसित आश्रम व्यवस्था के दर्शन होते है। आर्य
ऋषियों ने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ
और सन्यास इन चार आश्रमों की व्यवस्था मानव जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिए की गयी
थी । डॉ राधा कृष्णन् ने धर्म और समाज नामक पुस्तक में इसी ज्ञान को दर्शाया है। कि
हम अपने धर्म मार्ग पर चलकर एक अखण्ड समाज की स्थापना करें जो सबके लिए श्रेष्ठ हो। डॉ देवराज ने भी भारतीय संस्कृति में संस्कारों कर्तव्य
परायणता की महत्ता को बताया है। |
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मुख्य पाठ |
ऋग्वेद में हमें मुख्य रूप से ब्रह्मचर्य की सुन्दर प्रशस्ति मिलती है। गुरु
के समीप विद्याध्ययन के लिये आने वाले विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहलाते थे।
निम्नलिखित मन्त्रों में ब्रह्मचर्य की प्रशस्ति गायी गयी है- आचार्ये ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापतिः। प्रजापतिर्विराति विराइन्द्रो
भवेद्वेषी।। ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं नियच्छति। आचार्ये ब्रह्मचर्येण
ब्रहाचारिणमिच्छते।। ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। उनड्वान्
ब्रह्चर्येणाष्वो घासं जिगीशति। ब्रह्चर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाध्य। इन्द्रो ह
ब्रह्चर्येण देवेभ्याः स्वराभरत्।।[2] ऋग्वेद में ही हमें सुव्यवस्थित विवाहप्रथा के दर्शन मिलते हैं । वर और कन्या ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए युवावस्था प्राप्त करने पर ही विवाह के अधिकारी होते थे। साथ ही स्त्री जाति का समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था। ऋग्वेद में गृहणी को गृहलक्ष्मी माना गया है पत्नी के बिना पति यज्ञादि धार्मिक कार्यों में प्रवृत्त नहीं हो सकता था। पिता के घर में कन्यायें अत्यधिक स्नेह व सम्मान पाती थीं। महाकवि भवभूति ने अपने प्रसिद्ध नाटक में उत्तररामचरित में यह संकेत किया है कि स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार था- अस्मिन् नगस्त्यप्रमुखा प्रदेशे भूयांस उद्गीथविदो वसन्ति। तेभ्योऽधिगन्तुं निगमान्तविद्यां वाल्मीकिपार्ष्वादिह पर्यटामि।।[3] अपने लिए योग्य पति के वरण करने में पूर्ण स्वतन्त्र थी। विवाह के पश्चात्
स्त्रियों का पति के घर पर पूरा अधिकार हो जाता था। वे पति को उसके प्रत्येक कार्य
में सहायता करती थीं। ऋग्वेद में कहा गया है कि पत्नी को अपने पति के प्रति प्रेम
करने वाली एकनिष्ठ और प्रत्येक कार्य में सहभागिनी होना चाहिए। पति से द्वेष करने
वाली, कुपथगामिनी, असती नारी की निन्दा की गई है। कतिपय स्त्रियॉं अत्यधिक
सम्मानित हुई है। घोषी, लोपामुद्रा, अपाला आदि स्त्रियॉं दार्शनिक जगत की अप्रतिमरत्न हैं। डा0
दास लिखते हैं- ‘The ancient
Aryans never looked upon women as the cause of human downfull.’ ऋग्वेद में आर्यों से भिन्न जातियों को दास कहा गया है। आर्यो ने इन जातियों पर विजय पाकर उनको अपने अधीन कर रखा था। वे उन्हें अपने से हीन समझते थे और उनसे अपनी सेवा करवाते थे। दास अच्छे शिल्पी थे, जो कि भव्य भवनों और प्रासादों का निर्माण करते थे। ऋग्वेद के काल में शिक्षा की अच्छी व्यवस्था थी। उस समय पठन पाठन की क्रिया मौखिक थी। गुरुजन वैदिक पाठ सुनाया करते थे जिसे वे लोग ग्रहण करते थे। संहिताएं ही अध्ययन का प्रमुख विषय थी। विद्यार्थीजन गुरूजनों का पर्याप्त आदर करते थे। प्रायः शिक्षक अपने आश्रम में ही छात्रों को मौखिक रूप से शिक्षक देते थे। वैदिक एज नाम की पुस्तक में लिखा है- ‘Literary
education was transmitted orally by work of mouth from teacher to pupil.’ आर्यो का निवास स्थान प्रायः ग्रामीण क्षेत्र था। घरों को बनाने में बॉंस, मिट्टी, लकडी और पत्थरों का उपयोग
होता था। ऋग्वेद में गृह, हर्म्य, वास्तु, परत्या, आयतन आदि शब्दों का
उल्लेख हुआ है। इससे पता चलता है कि उस
समय गृह-निर्माण कला विकसित हो चुकी थी। बलदेव उपाध्याय के अनुसार घरों के चार भाग
होते थे- अग्निशाला, हविर्धान, पत्नीनां सदन व सदस्। कई एक गृहों को मिलाकर एक ग्राम बनता था। उस समय के लोग स्वावलम्बी होते थे।
इसी में आर्येतरों के बडे-बडे नगरों का उल्लेख भी मिलता है।
आर्यजनों का भोजन सीधा-सादा और पौष्टिक होता था। ये लोग घी, दूध दही का प्रचुर प्रयोग करते थे। अनाजों में यव और चावल
का प्रयोग करते थे। भोजन मे मांस का प्रयोग भी करते थे। गौयें इन्हे विशेष प्रिय
थी। साथ ही इस काल में ऊन के वस्त्रों की प्रचुरता थी। सिन्धु को ऊर्णावती इसीलिए
कहते थे कि वहॉं ऊनी वस्त्रों का प्राचुर्य था। तपस्वी लोग तथा ऋषिजन मृगचर्म तथा
वल्कल वस्त्र भी धारण करते थे। आर्यजन आभूषण के अत्यन्त शौक़ीन थे तथा स्त्रियॉं
चार तरह से अपनी वेणी को सजाती थी। आर्यजनों को घुडदौड तथा रथ दौड विशेष प्रिय थे। |
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निष्कर्ष |
आर्यधर्म वैदिक धर्म
के नाम से प्रसिद्ध है। आर्यजन वेदों को ही अपने धर्म का मूल मानते थे। वेदों मे
अनेक देवताओं की स्तुति की गई है। यज्ञों की प्रधानता थी। ऋग्वेद में हमें भारतीय
दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धान्त मिलते हैं। वेद में एक ही पराशक्ति की अनेक रूपों
में उपासना की गई है जो कि इस विश्व का मूल है यही पराशक्ति परमात्मा ईश्वर या
ब्रह्म है। यहॉं असत् से सत् की सृष्टि की ओर संकेत किया गया है। वेदों में ईश्वर,
जीव और प्रकृति इन तीनों की सत्ता स्वीकार की गई है। जीव और
प्रकृति के संयोग से ही सृष्टि होती है। प्रकृति के माया जाल में जकड़ा हुआ जीव
जन्म-मरण के चक्र में फॅंसा रहता है। तत्वज्ञान के द्वारा जन्म-मरण से छूट जाता है
और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. ऋग्वेद 10/90/12 |