ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IV July  - 2023
Anthology The Research
दिव्यांगों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : एक अवलोकन
Historical Background of Handicapped : An Overview
Paper Id :  17894   Submission Date :  01/07/2023   Acceptance Date :  18/07/2023   Publication Date :  22/07/2023
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अनुपमा पटेल
सहायक प्राध्यापक
विधि विभाग
शासकीय पालूराम धनानिया, वाणिज्य एवं कला महाविद्यालय
रायगढ़,छत्तीसगढ़, भारत
सारांश दिव्यांग लोगों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार के लंबे और विविध इतिहास का एक संक्षिप्त लेखा-जोखा है और स्थितियों को बेहतर बनाने के कई प्रयास भी इसमें शामिल हैं, परंतु (नेवर फॉरगेट और नेवर अगेन Never Forget and Never Again)  दो नारे हैं जो हमें यह याद रखने में मदद करते हैं कि क्या था और क्या होना चाहिए। दिव्यांग भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूहों में से एक हैं। उन्हें लंबे समय से उपेक्षा, अभाव, अलगाव और बहिष्कार झेलना पड़ा है। भारत में दिव्यांग लोग अब भी उत्पीड़ित और हाशिए पर हैं और उन्हें बेहतर गुणवता वाला जीवन और पूर्ण नागरिकता से जुड़े अवसर भी नहीं मुहैया कराए गए। दरअसल, उनको लेकर समाज का दकियानूसी और पूर्वग्रह भरा रवैया रहा है, जिसके तहत दिव्यांगों को हीन, अक्षम, अपर्याप्त और परिवारिक संसाधनों और समाज पर बोझ माना जाता है। अब आधिकारिक तौर पर इस बात को स्थापित किया जा चुका है कि बाकी लोगों की तरह दिव्यांग लोगों की भी आर्थिक, भावनात्मक, शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जरूरतें हैं। इस मामले में हमने लंबा सफर तय कर लिया है, लेकिन अभी भी हमें दिव्यांगों को सशक्त बनाने के तहत उनके लिए समावेशी, बाधा-रहित और अधिकार संपन्न समाज बनाने की खातिर काफी कुछ करना है। सामाजिक सशक्तीकरण सामाजिक कार्यों और सामुदायिक विकास के सिद्धांतों और चलन का व्यापक दायरा है। इतिहास हमें यह याद दिलाने का काम करता है कि न्याय और समानता सुनिश्चित करने का काम पूरा नहीं हुआ है। हमारे कर्तव्य का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि फिर कभी दिव्यांगों को भेदभाव, दुर्व्यवहार, यातना, अलगाव और मानवीय और नागरिक अधिकारों के सबसे बुनियादी अधिकारों से वंचित करने का अनुभव ना हो और दिव्यांगों के सशक्तीकरण के मामलों में व्यावहारिक रूख अपनाने होगा , तब जाकर हमारा मूल उद्देश्य पूरा हो पाएगा ।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद A brief account of the long and varied history of discrimination and abuse of people with disabilities and the many attempts to improve conditions, but Never Forget and Never Again are the two slogans we remember help to keep what was and what should be. Persons with disabilities are one of the largest minority groups in India. They have long suffered neglect, deprivation, isolation and exclusion. People with disabilities in India are still oppressed and marginalized and denied access to a better quality of life and opportunities associated with full citizenship. In fact, there has been a conservative and prejudiced attitude of the society regarding them, under which the disabled are considered inferior, incompetent, inadequate and a burden on family resources and society. It is now officially established that people with disabilities have economic, emotional, physical, intellectual, spiritual, social and political needs just like everyone else. We have come a long way in this regard, but we still have a lot to do to create an inclusive, barrier-free and empowered society for persons with disabilities under their empowerment. Social empowerment is a broad spectrum of theories and practices of social work and community development. History serves to remind us that the job of ensuring justice and equality is far from done. The basic objective of our duty is to ensure that never again PwDs experience discrimination, abuse, torture, segregation and deprivation of the most basic of human and civil rights and take a pragmatic approach in matters of empowerment of PwDs, then by our main objective will be fulfilled.
मुख्य शब्द दिव्यांग, भेदभाव, समाज पर बोझ, सामाजिक सशक्तीकरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Disability, Discrimination, Burden on Society, Social Empowerment
प्रस्तावना

मानव ने अपने विकासक्रम के दौरान अपने आस-पास के परिवेश को अपने अनुकूल बदलना चाहा जो उसे कठिन लगती थी, सामान्यीकृत तौर पर हम ये कह सकते हैं कि सुख-सुविधा हमेशा से मानव सभ्यता के विकास का एक आवश्यक अंग रहा है और इंसानों द्वारा किये जाने वाले हर परिवर्तन के मूल में यही छिपा होता है कि कैसे जीवन को आसान बनाया जाए। पहले आग की खोज हुई, जिससे एक तो जंगली जानवरों से सुरक्षा प्राप्त हुई और दूसरे भोजन को भी पकाकर खाया जाने लगा। फिर उसके बाद पहिये की खोज से मानव जीवन में गति आई और फिर परिवर्तन का यह सिलसिला चलते हुए आज क्वांटम कंप्यूटर तकनीकी के विकास तक पहुंच गया है। ये सारे बदलाव या यूं कहें मानव विकास की यह प्रक्रिया जीवन को आसान बनाने के लिये ही तो हुई। लेकिन अब सवाल यह है कि इससे किसका जीवन आसान हुआ? या फिर इन बदलावों के केंद्र में मानव का कौन सा ढाँचा स्थित था? जाहिर है कि हमारे मन में मानव कहने के साथ जो तस्वीर उभरती है वो है दो हाथ, दो पैर, दो आंख आदि। अतः जो भी परिवर्तन जीवन को आसान बनाने के लिये हुए उनके केंद्र में मानव शरीर का यही ढांचा था और जो अल्पसंख्यक समूह किसी कारणवश इस ढाँचे से अलग था उनके लिये सारे बदलाव कोई महत्व के नहीं रहे। इस तरह परिवहन के साधनों से लेकर मनोरंजन की विधियों तक, सब उन्हीं स्वस्थमानवों के अनुकूल थी, जिसे स्वाभाविक रूप से होना भी था, किंतु इस स्वाभाविक परिवर्तन का लाभ उन लोगों को नहीं मिल पाया जो हमारे निर्धारित शारीरिक स्वास्थ्य के पैमाने के अनुसार अस्वस्थ हैं। मनुष्य चाहे किसी भी युग का हो रोग मुक्त नहीं रहा है, परंतु रोग चाहे शारीरिक हो या मानसिक इनके संदर्भ में हर युग में अलग-अलग धारणाएं रहीं हैं। इस लेख में दिव्यांगजनों की प्राचीन युग से वर्तमान तक की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

अध्ययन का उद्देश्य

1. दिव्यांग बच्चों की दशा एवं अवस्था को प्रकाश मे लाने हेतु अध्ययन करना।

2. दिव्यांग बच्चों की प्राचीन काल से वर्तमान परिपेक्ष्य तक दिव्यांगता की स्थिति पर प्रकाश डालना।

साहित्यावलोकन

बकेर क्रिसटन (1977) ने अपने अध्ययन मे दिव्यांग बच्चों के सामाजिक अनुभवो पर सामाजिक पर्यावरण के असर को रेखांकित किया है । अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर लेखक ने बताया है कि नि:शक्त बच्चो के प्रति सामान्य व्यवहार उनमे आत्मविकास की भावना को प्रोत्साहित करते है। नि:शक्त बच्चो से सामान्य बच्चो का मेलजोल नि:शक्त बच्चो की हीन भावना को कम करता है ।

डोलोन लिनडा (1999) ने अपने अध्ययन मे प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि वे परिवार जहां  कि निःशक्त बच्चे है उन परिवारों के अपेक्षा जहां स्वस्थ्य बच्चे है कई तरह की सामाजिक असमानता के शिकार होते है।

जुलिन और मेलमार्गनरोमबर (2001) ने अपने अध्ययन मे निःशक्तजनो को मिलने वाले उन व्यवसायिक प्रशिक्षण पर प्रकाश डाला हैजो गंभीर रूप से निःशक्त बच्चो को उनके हम उम्र सामान्य बच्चों के साथ मेलजोल व मित्रता करने मे सहायता प्रदान करते है। लेखक ने अपने पुस्तक मे सामान्य बच्चों व नि:शक्त बच्चों के मेलजोल से नि:शक्त बच्चों में आत्मविश्वास मे वृद्धि होने की बात की है।

मुख्य पाठ

दिव्यांगता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को हम चार अवस्थाओं में विभाजित करते हैं:-
1. प्राचीन युग
2. मध्य युग
3. आधुनिक युग
4. वर्तमान परिदृश्य

प्राचीन युग (Ancient Era)

प्राचीन युग में धारणा यह थीकि रोग पाप का परिणाम हैजो मनुष्य के कर्मों के अनुरूप उसे प्राप्त होती है और देवताओं द्वारा प्रदत्त विपत्ति के समान होती है। अतः दिव्यांग पैदा हुए बालकों को शैशवकाल में ही मार दिए जाने की प्रथा थी। जिसकी जानकारी विभिन्न शोधों एवं अध्ययनों से प्राप्त हुई है। एक धारणा यह भी थी कि प्रेतात्माएँ जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर उसे रोगी बना देती है। देवता जब किसी से रूष्ठ होते हैतो उसके शरीर में अशुभ प्रेतात्मा भेज देते हैंजिससे वह बालक शारीरिक या मानसिक रुप से दिव्यांग बन जाता हैजो दूसरे व्यक्तियों के लिए भी हानिकारक बन जाता हैयही कारण था कि अधिकांश विकृत बच्चों को जन्म लेते ही हत्या कर दिए जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पाषाण युगीन घटनाओं का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दिव्यांग अवस्था वाले व्यक्तियों को जादू-टोनाडायनों की प्रार्थना शोरगुल आदि के द्वारा उपचार किया जाता था।

सेलिंग के मतानुसार प्रगैतिहासिक युग में खोपड़ी में नुकीले पत्थर से छेद यानी ट्रिफाइन (Trephine) किया जाता थाजिससे बुरी प्रेतात्मा ग्रसित व्यक्ति के शरीर से बाहर निकल जाए। इस तथ्य का प्रमाण पाषण युग की खोपड़ियोंजिनके सुराखों के किनारे घाव भरने के चिन्ह पाए गए हैंसे मिलता है।

पाषाण युग की पिशाच विद्या (Demonology) का संशोधित रुप चीनियों यहुदियोंमिस्त्रियों और यूनानियों में भी मिलता हैं। मनुसंहिता में जड़बुद्धिदृष्टिहीन और विकृत व्यक्तियों को घृणा और हेय की दृष्टि से देखे जाने का विवरण प्राप्त होता है साथ ही दिव्यांगता को पूर्व जन्म के पाप का परिणाम माने जाने का उल्लेख भी मिलता है। वेदों में दृष्टि डालें ऋगवेद में दिव्यांगों से सद्भावना और सहृदयता के साथ व्यवहार किए जाने की समाज से अपेक्षा की गई है। अतः स्पष्ट हैकि दिव्यांग के उपचार की परम्परा आदिकाल और वैदिक काल में भिन्न-भिन्न रही हैपरंतु अंधविश्वास इन प्रथाओं का अभिन्न अंग रहा है।

मध्य युग (Medieval Period)

200 ई0 में एक नये युग का आरंभ हुआजो 200 ई0 से 1500 ई0 तक चलाजिसे मध्य युग (Medieval Period) कहा जाता है। मध्य युग की शुरुआत में दिव्यांगो की स्थिति गंभीर थीउन्हें तिरस्कार और डर का सामना करना पड़ रहा था। यहीं नहीं शहरों में मनोरंजन के लिए दिव्यांगो को जहाज से भिन्न-भिन्न स्थानों में ले जाया थाजहां उन्हें पिंजरे में रखकर प्रदर्शित किया जाता था और दर्शकों से पैसे कमाए जाते थे। 787 ई0 में अनाथ दिव्यांगों हेतु शरणस्थल बनाया गया परंतु उसकी स्थिति खराब होने के कारण अधिकांश बच्चे जीवित नहीं रह पाते थे। सब परिस्थितियो के कारण ही कुछ इतिहासकार इसे अन्धकार युग (Dark Age) की संज्ञा भी देते है।

15 वीं शताब्दी में पुनः भूत-पिशाच एवं जादू-टोने पर विश्वास तेजी से बढ़ गया थापरिणामतः मानसिक दिव्यांगो को भी जलाकर मार दिया जाता थामार्टिन लूथर (Martin Luther) जैसे समाज सुधारक भी इस अंधविश्वास पर यकीन रखते थेजिसके कारण अंधविश्वास तेजी से व्याप्त हो रहा थाहिप्पोक्रेटीज एवं गेलेन द्वारा आर्युविज्ञान और प्रकृतिवाद की उपलब्धियों को पूर्णतः भुला दिया गया था।

मध्य युग के मध्य में धार्मिक संस्थाओं का दिव्यांगो की स्थिति की ओर ध्यानाकर्षण हुआ। इसी दौरान पोप ग्रगरी प्रथम ने धर्मादेश जारी कर अपने अनुयायियों को दिव्यांगो की सहायता एवं उपचार के लिए निर्देश जारी किए। ईसाई चर्च के द्वारा दिव्यांगो की सेवा हेतु अनाथालयों की व्यवस्था भी की गई थी। वहीं दूसरी ओर दिव्यांगो की स्थिति सुधारने हेतु महर्षि पतंजलि एवं चिकित्सक चरक द्वारा दिव्यांगता के कारणों पर शोध कर उपचार किया जाने लगाजिससे आर्युविज्ञान के क्षेत्र में पुनः प्रगति आई। मध्य युग के अंत तक विश्व एवं भारत के कई दिव्यांगजनों ने समाज एवं संस्कृति में अपना उल्लेखनीय योगदान दियाजिसे विश्व एवं समाज के द्वारा सम्मानपूर्वक स्वीकारा भी गया।

आधुनिक युग (Modern Era)

आधुनिक युग 16वीं शताब्दी में आरंभ हुआ। 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में पश्चिमी देशों में बधिरों के नियमित शिक्षण एवं प्रशिक्षण के जरिए विशिष्ट शिक्षा की शुरुआत की। धार्मिक दृष्टि से कैथोलिकवाद की प्रतिष्ठा में कमी आयी तथा भौतिक विज्ञान एवं जीव विज्ञान ने इस युग में काफी प्रगति कर ली थी। शिक्षित एवं विद्वान वर्ग अंधविश्वास से ऊपर उठ रहा थापिशाच विद्याजादू-टोना का अस्तित्व समाप्त हो रहा था।

17वीं शताब्दी तक मानसिक रुप से दिव्यांग व्यक्तियों को जलाने की प्रथा का पूर्णतया खात्मा हो चुका था। परिणामस्वरुप इस आधुनिक युग को पुर्नजागरण युग (Renaissance Era) कहा जाता है। दिव्यांगों के पुर्नवास संबंधी जागरुकता की शुरुआत 18वीं शताब्दी से मानी गई है। 18वीं शताब्दी में ही थॉमस हॉकिन्स गैलॉडेट (Thomas Hopkins Gallaudet), जो अमेरिका में प्राध्यापक थेइन्होंने श्रवण दिव्यांगता के संबंध में विचार व्यक्त किया कि वे अंगुली की सहायता से संचार एवं संप्रेषण का कार्य कर सकते हैं। परिणामस्वरुप मूक-बधिर दिव्यांगों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। 19वीं शताब्दी में दिव्यांगजनों की विशेष शिक्षा की अवधारणा का जन्म यूरोप में हुआ, 19वीं सदी में ही लुईस ब्रेल (Louis Braille) (1809-1908) के द्वारा भी दिव्यांगो की शिक्षा में दृष्टिहीन दिव्यांगो की शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक सराहनीय कार्य रहा। एलेक्जेण्डर ग्राहम बेल (Alexander Graham Bell), जिन्होने फोन का अविष्कार किया थाइन्होने मूक-बधिर दिव्यांगों हेतु प्रयास किया कि यदि उनके सुनने की शक्ति बढ़ाई जाए तोवे बोलना आसानी से सीख सकते हैंइनका प्रयास सार्थक रहा।

सन् 1826 ई. में बनारस में विशेष शिक्षा का शुभारंभ हुआजिसका श्रेय राजा काली शंकर को जाता हैजिन्होंने दृष्टिहीनों के लिए पाठशाला की स्थापना कर विशेष शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1841 ई0 में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया गयाइसमें मांसिक दिव्यांग वर्गों को पागलखाने से पृथक कर उनके लिए आश्रम की व्यवस्था की गई। इसके अलावा भारत में बधिरों की शिक्षा हेतु पहला विद्यालय मुंबई में खोला गया एवं सन् 1887 में बनारस में एनिशार्प (Annie Sharp) मिशनरी संस्थापिका द्वारा दृष्टिहीन दिव्यांगो हेतु एक आश्रम की व्यवस्था की गईजिसका मुख्य उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों की सेवा करना था। 

बीसवीं सदी के पांचवे दशक में दो वृहद और महत्वपूर्ण घटनाऐं घटी थीएक द्वितीय विश्व युद्ध एवं दूसरा भारत की स्वतंत्रता। पश्चिम मेंद्वितीय विश्व युद्ध के बाद चीजें बदलने लगींजब घर लौट रहे हजारों सैनिकों को कई तरह की अक्षमताओं के साथ छोड़ दिया गया। ये सैनिक डीआरएम के प्रारंभिक स्रोत बन गए और उन्होंने अपने अधिकार प्राप्त करने में कुछ सफलता भी देखीक्योंकि इन सैनिकों को युद्ध के नायक माना जाता था और इस प्रकार उनकी मांगों को भारी जन समर्थन मिला। भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। भारतीय समाज की ओर से अपनी दिव्यांग आबादी के लिए सहायता के अधिकांश प्रस्तावों को अधिकार प्रदान करने के बजाय दान के रूप में देखा गया। यहां तक कि एक दिव्यांग व्यक्ति से जुड़े परिवारों को भी उनके रिश्तेदारों और पड़ोसियों द्वारा कई तरह से नीचा दिखाया जाता था और उनकी जांच की जाती थी। कई मामलों मेंइसके कारण परिवारों ने अपने दिव्यांग परिवार के सदस्यों को त्याग दिया दिव्यांग बच्चों को अक्सर अनाथालयों में छोड़ दिया जाता था। एक गंभीर प्रकार की ‘‘शर्म‘‘ दिव्यांगता से जुड़ी थी। परिणाम यह हुआ कि अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय दोनों ही स्तर पर दिव्यांगों की शिक्षा एवं विकास संबंधी प्रयास पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। समाज का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ कि दिव्यांग बालकों की शिक्षा को सामान्य विद्यालय में मुख्य धारा पर जोड़ने पर बल दिया जाये।

यूनेस्को ने सन् 1981 ई0 को दिव्यांग वर्ष घोषित कियाजिसमें दिव्यांगो की आवश्यकताओं को एवं उनकी समस्याओं को गहन एवं विस्तारपूर्वक देखा गया। जब संयुक्त राष्ट्र ने 1982-1993 को दिव्यांग व्यक्तियों के दशक के रूप में घोषित कियातो इसने पुनर्वास के लक्ष्यों पर पूरी बहस में एक और बदलाव को चिह्नित किया। दिव्यांग व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए प्रशिक्षण नीतियों और कार्यक्रमों को विनियमित और मानकीकृत करने के लिए 1986 में भारत सरकार द्वारा पुनर्वास परिषद की स्थापना की गई थी। अगले ही वर्ष मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम (1987) अस्तित्व में आया। मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम एक नागरिक अधिकार कानून है जो मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों में मानकों को विनियमित करने पर केंद्रित है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा राष्ट्रीय संस्थान बनाए गए। मुक-बधिरों हेतु मुंबईअस्थि दिव्यांगो हेतु कलकत्ता एवं दृष्टिहीनों के लिए देहरादून में संस्थान बनाए गए।

इस दिव्यांग वर्ष का नारा था ‘‘पूर्ण भागीदारी और समानता’’ पूर्ण भागीदारी से तात्पर्य दिव्यांगो को भी अन्य सभी व्यक्तियों की तरह सामाजिक जीवन और विकास में यथासंभव योगदान करने का पूर्ण अवसर मिला। अंतराष्ट्रीय वर्ष उच्च आदर्श देकर समाप्त हो गयाजिससे दिव्यांगजनों की स्थिति में सकारात्मक सुधार हुआ।

1985 में निःशक्त बालक शिक्षा हेतु जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम शुरु किया गयाजिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि शिक्षा का सर्वव्यापीकरण तभी किया जा सकता हैजब दिव्यांगों को पूर्ण भागीदारी दी जा सके। सन् 1986 ई0 में सामान्य दिव्यांगो को मुख्यधारा में जोड़ने पर बल दिया गयाअतः 1987 में एकीकृत दिव्यांग शिक्षा परियोजना की शुरुआत हुईयह परियोजना आसपास के सभी स्कूलों को इस बात द्वारा प्रोत्साहित करती है कि दिव्यांग बच्चों को दाखिला दें। इसके साथ ही सन् 1987 ई0 में मानसिक दिव्यांगता वाले व्यक्तियों का उपचार एक अधिनियम द्वारा शासित किया गया हैजिसे मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 कहा जाता है। अतः बीसवीं सदी दिव्यांगो की शिक्षास्वास्थ्य एवं अधिकार के साथ-साथ समाज मुख्य धारा में जोड़ पाने हेतु महत्वपूर्ण रही है।

1990 का दशक सहस्राब्दी का अंतिम दशक भारत के दिव्यांगता क्षेत्र में भारी बदलाव लाया। दिव्यांग लोगों का एक अलग स्व-समर्थन आंदोलनजो 1970 के दशक के दौरान शुरू हुआने उनके मानवाधिकारों की सुरक्षा और मान्यता के लिए अभियान शुरू किया। इसने सामाजिक और आर्थिक अधिकारों पर विशेष बल देते हुए अधिकार-आधारित दृष्टिकोण के साथ एक व्यापक कानून बनाने की वकालत की। लेकिन चूंकि दिव्यांगता के संबंध में विधायी शक्ति को राज्य सूची में रखा गया थाइसलिए इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। एशियाई और प्रशांत क्षेत्र में दिव्यांग लोगों की समानता और पूर्ण भागीदारी की घोषणा पर हस्ताक्षर के साथपीडब्ल्यूडी अधिनियम 1995 में संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था। पीडब्ल्यूडी अधिनियम अधिकारों पर अधिक केंद्रित था। अधिनियम के मूल प्रावधान रोकथाम और प्रारंभिक पहचानशिक्षारोजगारसकारात्मक कार्यवाहीगैर-भेदभाव/बाधा मुक्त पहुँचअनुसंधान और जनशक्ति विकासऔर गंभीर दिव्यांग व्यक्तियों के लिए संस्थानों से संबंधित हैं। पीडब्ल्यूडी अधिनियम, 1995 के लागू होने के बादशैक्षणिक संस्थानों और सरकारी सेवाओं में पीडब्ल्यूडी श्रेणी के लिए 3 प्रतिशत आरक्षण (चलने की अक्षमतासुनने की अक्षमता और दृश्य अक्षमता वाले प्रत्येक के लिए 1 प्रतिशत आरक्षण शामिल) की पेशकश की गई थी। अधिनियम में विभिन्न प्रकार की दिव्यांगता को चिकित्सा आधार पर वर्गीकृत किया गया है न कि दिव्यांगता की सामाजिक धारणा के आधार पर। पीडब्ल्यूडी अधिनियम के आलोचकों का कहना है कि यह अधिनियम कई खामियों से भरा हुआ हैक्योंकि इसे संसद द्वारा पूरी लंबी बहस के बिना पारित किया गया था। दिव्यांगता के आधार पर भेदभाव की औपचारिक मान्यता एक हालिया विकास है। 20 साल पहले बनाए गए कानूनों में आम तौर पर भेदभाव के निषिद्ध प्रमुखों की सूची में दिव्यांगता शामिल नहीं थी। उदाहरण के लिएहालांकि भारतीय संविधान अपने अनुच्छेद 15 और 16 में धर्मनस्लजातिलिंग और जन्म स्थान के आधार पर रोजगार और सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुंच के मामले में भेदभाव को प्रतिबंधित करता हैलेकिन यह दिव्यांगता पर चुप है। वास्तव में, 1995 तक सेवा नियमों ने दिव्यांग व्यक्तियों को सेवा के उच्च ग्रेड में प्रवेश पर रोक लगा दी थी।

गत दशक में भारत ने निःशक्तता वाले अपने नागरिकों के लिए व्यापक वैधानिक ढाँचा प्रदान करने के लिये कार्य किया है। चार महत्वपूर्ण अधिनियम पारित किए गए हैं। इन अधिनियमों का उद्देश्य समान अवसर प्रदान करनासहभागिता बढ़ानाभेदभाव की समस्या से निपटना और सबसे महत्वपूर्ण बात निःशक्तता सहित व्यक्तियों को सभी मूल और मौलिक अधिकार सुनिश्चित करना हैं। इन कानूनों का अधिनियम दिव्यांगता संबंधित मुद्दों की अवधारणा में परिवर्तन भी लाया है तथा सोच बदलकर दान पर आधारित से हटकर अधिकार की अवधारणा पर आधारित हो गई है। भारत की पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992, निःशक्त व्यक्ति (समान अवसरअधिकारों का संरक्षण और पूर्ण सहाभागिता) अधिनियम 1995, मानसिक अवरंगमानसिक अल्पज्ञता वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय ट्रस्ट और बहुपक्षीय निःशक्तता अधिनियम, 1999 नामक इन अधिनियमों की कार्यप्रणाली और कार्यान्वयन की समीक्षा की। समीक्षा ने दर्शाया की इन अधिनियमों के धीमे और असमान कार्यान्वयन से दिव्यांग व्यक्तियों और उनके परिवारों में असंतुष्टी बढ़ी है। जानकारी ने कुछ सामान्य तथ्यों को भी उजागर किया है जिनके कारण राज्य और स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा इन कानूनों का कार्यान्वयन अवरोधित हुआ है। इस संबंध में ममता कुमारी बनाम बिहार और उड़ीसा राज्य   मामले में पटना उच्च न्यायालय के आदेश को पुनः स्मरण करना महत्वपूर्ण है जिसमें कहा गया था कि - ‘‘सरकार और लोग मोटे तौर पर दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है और निःशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 को कार्यान्वित करने में इच्छा की कमी दिव्यांग व्यक्तियों के लिए योजना बनाने में राज्य सरकारों की ओर से निष्क्रियता के रूप में देखा जा सकता हैं।’’

इस आदेश में न्यायालय ने गहरी चिंता व्यक्त की कि निःशक्तता अधिनियम के अंतर्गत अभिकल्पित योजनाओं के लिए आंबटित निधियां न तो पूरी तरह से वचनबद्ध है और न ही उनका पूरा उपयोग किया गया है। न्यायालय ने इसके बाद इस मामले को समुचित कार्रवाई के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को भेज दिया। इस आदेश के अनुसरण में दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के लिए योजनाओं को प्रारंभ करने से जुड़े कानून के अंतर्गत सभी उपबंधों को 5 प्रमुख शीर्षों अर्थात् दिव्यांगताशिक्षारोजगारसकारात्मक कार्रवाई और गैर भेदभाव का शीघ्र पता लगाने और उसके निवारण के अंतर्गत समूहबद्ध करके संकलित किया। आयोग इनके कार्यान्वयन में आई कमियों की जाँच करने और जहाँ आवश्यक हो उपचारात्मक कार्रवाई करने की दृष्टि से इन शीर्षों के अंतर्गत संबंधित प्राधिकारियों से विस्तृत सूचना एकत्र करने का प्रस्ताव करता है। इसी दौरान आयोग ने 27 दिसम्बर 2002 को भेजे अपने पत्र  के माध्यम से राज्य सरकारों को यह कहते हुए विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए हैं कि वे अपनी राज्य नीति तैयार करने के लिए कार्यबल गठित करें और दिव्यांग व्यक्तियों के बारे में राज्य की कार्य योजना तैयार करें।

वर्तमान परिदृष्य (Current Scenario)-

दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार विधेयक 2011 में मसौदा तैयार किया गया थाजिसका उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के तहत भारत के दायित्वों को संहिताबद्ध करना थाजिसे उसने बिना किसी आरक्षण के पुष्टि की थी। इस आशय के एक विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा 2009 में एक समिति का गठन किया गया था। यूएनसीआरपीडी के अनुसारसमिति ने इस बिल का मसौदा तैयार करने के लिए अलग-अलग दिव्यांग लोगों को शामिल किया। दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार विधेयक, 2014, पहली बार दिव्यांगता के अर्थ को परिभाषित करता है और इसे सात से 21 श्रेणियों तक बढ़ाता है। श्रेणियों में सिकल सेल रोगथैलेसीमियामस्कुलर डिस्ट्रॉफीऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डरअंधापनसेरेब्रल पाल्सीपुरानी न्यूरोलॉजिकल स्थितियांमानसिक बीमारी और कई अक्षमताएं शामिल हैं। महत्वपूर्ण संशोधनों के आधार परबिल ने पहली बार अधिकार-आधारित दिव्यांगता कानून का प्रतिनिधित्व किया। इसका फोकस दिव्यांगता के अर्थ को बदलनेइसकी परिभाषा को मौजूदा चिकित्सा ढांचे से सामाजिक रूप में विस्तारित करने पर है। संशोधनों में सरकारी नौकरियों का कोटा तीन से बढ़ाकर पांच प्रतिशत करना और दिव्यांग कर्मचारियों के लिए एक अनुकूल कार्यस्थल वातावरण बनाने के लिए निजी कंपनियों को जिम्मेदार बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करना शामिल है। दिव्यांगजन अधिकार विधेयकवर्ष 2016 के अंत में राज्यसभा द्वारा पारित होते ही दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 बन गया जो वर्ष 1995 के निःशक्त अधिकार अधिनियम को निरस्त करता है।
दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 में दिव्यांगता की परिभाषा में बदलाव लाते हुए हुए इसे और भी व्यापक बनाया गया है। दरअसलइस अधिनियम में दिव्यांगता को एक विकसित और गतिशील अवधारणा के अधार पर परिभाषित किया गया है और दिव्यांगता के मौजूदा प्रकारों को 7 से बढ़ाकर 21 कर दिया गया है। साथ ही केंद्र सरकार को इन प्रकारों में वृद्धि की शक्ति भी दी गई है।

निष्कर्ष

यह दिव्यांग लोगों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार के लंबे और विविध इतिहास का एक संक्षिप्त लेखा-जोखा है और स्थितियों को बेहतर बनाने के कई प्रयास भी इसमें शामिल हैं। परंतु नेवर फॉरगेट और नेवर अगेन ÞNever Forget and Never AgainÞ दो नारे हैं जो हमें यह याद रखने में मदद करते हैं कि क्या था और क्या होना चाहिए। दिव्यांग भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूहों में से एक हैं। उन्हें लंबे समय से उपेक्षा, अभाव, अलगाव और बहिष्कार झेलना पड़ा है। भारत में दिव्यांग लोग अब भी उत्पीड़ीत और हाशिए पर हैं और उन्हें बेहतर गुणवता वाला जीवन और पूर्ण नागरिकता से जुड़े अवसर भी नहीं मुुहैया कराए गए। दरअसल, उनको लेकर समाज का दकियानूसी और पूर्वग्रह भरा रवैया रहा है, जिसके तहत दिव्यांगों को हीन, अक्षम, अपर्याप्त और परिवारिक संसाधनों और समाज पर बोझ माना जाता है। दिव्यांग जनों के पुनर्वास के क्षेत्र में अब पेशेवरों का फोकस दिव्यांगों के अधिकारों, अवसरों की समानता और मुख्यधारा के समाज में उनके एकीकरण पर है। अब आधिकारिक तौर पर इस बात को स्थापित किया जा चुका है कि बाकी लोगों की तरह दिव्यांग लोगों की भी आर्थिक, भावनात्मक, शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जरूरतें हैं। इस मामले में हमने लंबा सफर तय कर लिया है, लेकिन अभी भी हमें दिव्यांगों को सशक्त बनाने के तहत उनके लिए समावेशी, बाधा-रहित और अधिकार सम्पन्न समाज बनाने की खातिर काफी कुछ करना है। सामाजिक सशक्तीकरण सामाजिक कार्यों और सामुदायिक विकास के सिद्धांतों और चलन का व्यापक दायरा है। इतिहास हमें यह याद दिलाने का काम करता है कि न्याय और समानता सुनिश्चित करने का काम पूरा नहीं हुआ है। हमारे कर्तव्य का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि फिर कभी दिव्यांगों को भेदभाव, दुर्व्यवहार, यातना, अलगाव और मानवीय और नागरिक अधिकारों के सबसे बुनियादी अधिकारों से वंचित करने का अनुभव ना हो और दिव्यांगों के सशक्तीकरण के मामलों में व्यावहारिक रूख अपनाने होगा, तब जाकर हमारा मूल उद्देश्य पूरा हो पाएगा।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. भसीन, अनीश असमर्थ व्यक्ति अधिकार घोषणा, ‘‘जानिए मानव अधिकार को’’ प्रभात प्रकाशन, 1 संस्करण 2018
2. माथुरए डॉ डी0 एस0 मानव विकास एवं पारिवारिक संबंध डॉ वृन्दा सिंह
3. निःशक्त व्यक्ति (सामान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995
4. शर्मा, महेश कुमार दिव्यांग जन अधिकार अधिनियम 2016, इण्डिया पब्लिशिंग कंपनी 2016
5. संविधान की उद्देशिका, भारत का संविधान, 2013 संस्करण कानून प्रकाशक
6. बाबेल बसन्ती लाल (2016) निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का बालकों को अधिकार अधिनियम एवं नियमसेन्ट्रल लॉ एजेन्सी, इलाहाबाद