ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IV July  - 2023
Anthology The Research
परम्परागत जलसंग्रहण संरचनाओं का निर्माण व जल की सतत् आपूर्ति का सीकर जिले के सन्दर्भ में भौगोलिक अध्ययन
Geographical Study Of Construction Of Traditional Water Storage Structures And Sustainable Supply Of Water In The Context Of Sikar District
Paper Id :  17827   Submission Date :  14/07/2023   Acceptance Date :  22/07/2023   Publication Date :  25/07/2023
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गिरधारीलाल शर्मा
सहायक आचार्य
भूगोल विभाग
पं. दीनदयाल उपाध्याय शेखावाटी विश्वविद्यालय,
सीकर,राजस्थान, ​भारत
दिव्या भारती
सहायक आचार्य
भूगोल विभाग
जम्भेश्वर महाविद्यालय,
रावतसर, भारत
सारांश जल इस पृथ्वी पर प्रकृति प्रदत्त अमूल्य संसाधन है। यह मानव व जीवों के जीवनयापन के लिए महत्वपूर्ण ही नहीं वरन उनकी एक जरूरत भी है। वर्तमान विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विज्ञान व तकनीकी विकास के कारण भूजल व सतही जन का कृषि उद्योग व पेयजल के लिए अनियंत्रित दोहन करने से भूजल व सतही जल की मात्रा में गिरावट आई है वरन् इनके वैज्ञानिक तरीकों से उपयोग करने से प्रदूषण में भी बढ़ोत्तरी हुई है। इससे जल की गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। सीेकर जिला थार की मरूभूमि में अवस्थित होने के कारण यहां जलसंकट की परिस्थिति हमेशा बनी रही है। यहां के पूर्वजों ने वातावरण की शुष्क दशाओं के साथ बुद्धिमतापूर्ण व विवेकपूर्ण ढंग से समायोजन करके बावड़ी, टांका आदि का निर्माण किया। इससे जल की संपोषणीय आपूर्ति करना संभव हुआ। लेकिन वर्तमान में नगरीयकरण व शहरीकरण के कारण इन पर अतिक्रमण व उपयोग न होने से ये जर्जर अवस्था में पहुँच गई है। यदि समय रहते इनका पुर्नरूद्धार नहीं किया गया तो जलसंकट के गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Water is an invaluable resource provided by nature on this earth. It is not only important for the survival of humans and animals but is also a necessity for them. In the present world, due to increasing population, development of science and technology, uncontrolled exploitation of ground and surface water for agriculture, industry and drinking water has led to decline in the quantity of ground water and surface water, but due to their use in scientific ways, pollution has also increased. The quality of water has been badly affected by this. Due to Sikar district being situated in the Thar desert, there is always a situation of water crisis here. The ancestors here built stepwells, tanks etc. by adjusting to the dry conditions of the environment in an intelligent and judicious manner. This made it possible to provide sustainable supply of water. But at present, due to urbanization, they have reached a dilapidated state due to encroachment and lack of use. If they are not rehabilitated in time, they will have to suffer serious consequences due to water crisis.
मुख्य शब्द संपोषणीय = निरन्तर आपूर्ति बिना गुणवत्ता प्रभावित किये। जलसंग्रहण संरचना = जन एकत्रित करने की तकनीक। समायोजन = प्रकृति के साथ अनुकूलन व रूपांतरण। पुनर्रूद्धार = पुनः निर्माण करना। जलसंकट = कृषि, उद्योग व पेयजल के लिए जल का अभाव की भयानक समस्या।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sustainable, Water Storage Structure, Adjustment, Revival, Water crisis, Industry and Drinking Water.
प्रस्तावना

प्रस्तुत शोध का अध्ययन सीकर जिला है। शेखावाटी प्रदेश की हृदय स्थली सीकर जिला इतिहाससंस्कृतिभूगोलपुरातत्व एंव दर्शनीय स्थलों के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखता है। जयपुर राज्य की तोरावाटी निजामत एंव सवाई रामगढ तहसील का मुख्यालय नीमकाथाना सांभर निजामत की दांतारामगढ श्रीमाधोपुरखण्डेला ठिकाने प्राचीन समय से ही राजनीतिकसांस्कृतिकधार्मिक विरासत के धनी रहे है। सीकर जिला उत्तरी राजस्थान में 2721’ उत्तर से 2812’ उत्तरी अक्षांश तथा 7444’ पूर्व से 7525’ पूर्वी देशान्तर के मध्य अर्द्धचन्द्राकार आकृति में अवस्थित है। समुद्रतल से औसत उचांई 432.51 मीटर है। इसके उत्तर में झुंझुनूदक्षिण-पूर्व में जयपुरउत्तर-पूर्व में महेन्द्रगढ़(हरियाणा)दक्षिण-पश्चिम में नागौर तथा उत्तर-पश्चिम में चुरू जिलों की सीमायें लगती है। भारतीय सर्वेक्षण विभाग डिग्री सीट 44 तथा 54 के मध्य 7732 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल है। इससे वर्षा जलसंरक्षण हेतु टांकोंएनीकट आदि को निर्माण की जानकारी प्राप्त की गई है तथा यह समझाया गया है कि कैसे वर्षा जल का अधिकतम प्रयोग किया जाता है। सीकर जिले में प्राचीनकाल में टेथिस सागर के अवशेष प्राप्त होते हैं। इसके प्रमाण रैवासा की खारे पानी की झील से मिलते हैं। यह अरावली पर्वत का प्रदेश पूर्व में टेथिस सागर का किनारा था। यहाँ लम्बे समय के अन्तराल के बाद में यह रेत का महासागर में बदल गया है। आज भी अरावली के कई भागों में नमकीन पानी के भण्डार मौजूद हैं। जैसेः- मोहनपुराभोजपुरपदमपुरारामगढ आदि में अनेक कुओं में खारेपानी के भण्डार हैं।

अध्ययन का उद्देश्य

सीकर जिला मरूपारिस्थतिकीतंत्र में होने से यहां जलसंकट की समस्या हमेशा बनी रहती है। अतः यहां के लोगों ने जलापूर्ति बनाए रखने के लिए पुराने समय से ही प्रयास किये हैं। जो यहां के पारिस्तिकी दशाओं के अनुरूप थे। यह सामान्य तथ्य है कि आम आदमी जल का उपभोक्ता है तो इसके बारे मे प्रत्येक नागरिक को जागरूक करना आवश्यक है इस संदर्भ में प्रस्तुत अध्ययन के प्रमुख उद्देश्य होंगे।

1. जिले में उपलब्ध जल संसाधनों का आंकलन एवं अध्ययन करना।

2. असमान जलापूर्ति एंव वितरण का अध्ययन करना।

3. पारंपरिक जल स्रोतों की वर्तमान परिप्रे़क्ष्य में प्रासंगिकता एंव जलापूर्ति में योगदान का मूल्यांकन सुदूर संवेदन तकनीक द्वारा करना।

4. पारंपरिक जल संग्रहण के स्रोतों की उपलब्धता का आंकलन करना व अध्ययन करना।

5. बढ़ते जल संकट के समाधान हेतु पांरपरिक जल स्रोतों की उपयोगिता पर सुझाव एवं योजना प्रस्तुत करना।

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों, शोधपत्रों आदि का अध्ययन किया गया है  जिनमे से Biswas A.K. Jellali M. and Stout (1993) की Water for sustainable development in 21st century, S.Chandra की Planning for integrated water resources development project with special reference to conjunctive use of surface and groundwater resources, एस. सी गुप्ता तथा आर. पी विजया (2005) पश्चिमी राजस्थान में भूजल गुणवत्ता से सम्बन्धित समस्याएं आदि प्रमुख हैं

मुख्य पाठ

ऐसे कठोर जलवायु वाले भूभाग में यहाँ के निवासियों ने जल के बेहतरीन तरीकों को अपनाकर वातावरण के साथ समायोजन का साहसिक कार्य अपनाये गये थे। बारिश के पानी को रोकने तथा उपलब्ध भूजल को उन्नत प्रविधियों से काम में लेने के उपाय अपनाये गये थे। सीकर जिले में नाडी तैयार करने के लिए आगोर तैयार किया जाता था।

यह पानी के ढाल के समकोण पर मृदा की दीवार बनाकर किया जाता था। इसके लिए मिट्टी खोदकर कच्ची मृदा की दीवार बनाई जाती थी। इसमें पानी का भराव दो से तीन माह तक रहता था। यहाँ आस-पास के खेतों से पानी बहता हुआ संग्रहित हो जाता था। इसका उपयोग पशुओं को पेयजल अथवा नहलाने से किया जाता था।

इस प्रदेश में बड़े कुओं को जौहर कहा जाता है। इन पर पूरे समुदाय का अधिकार होता है। इनका निर्माण व्यक्तिगत अथवा सामूहिक किया जाता है। कुएं बनाने का मानव का सबसे पुराना रूप, जमीन में गड्डा खोदकर पानी को बाहर निकाला जाता था। इसमें कई बार भूमि में मृदा के धँसाव होने से कुआ अनुपयोगी हो जाता था। अतः भूजल गहरा होने से कच्चे कुओं के स्थान पर पक्के कुओं का प्रचलन शुरू हुआ। पुराने समय में यहाँ उभली नाल के कुएँ हुआ करते थे।

इनकी पहले वृत्ताकार रूप में ईंट, चूना या पत्थर से चिनाई करते थे। इसके बाद में नीचे से भूमि को खुरेदकर उसे नीचे की ओर गालते (रोपण करना) जाते थे। यह कुए बनाने का पुराना रूप था। इसमें मेहनत, समय, व लागत अधिक आती थी।

इसके बाद मे मानव के कुओं का ज्ञान बढने के बाद से कुओं के निर्माण में परिवर्तन आने लगे। अतः चूना व पत्थर से बने पक्के कुओं की गहराई की ओर चिनाई करने लगे। इसमें 5 से 6 माह का समय लग जाता था। सीकर जिले के निवासियों ने पानी की गहराई में वृद्धि के साथ अपनी तकनीकियों में भी परिवर्तन किया। यहाँ सीमेण्ट व कंक्रीट से कुओं का निर्माण होने से लागत व समय की बचत होने लगी।

इसके लिए लोहे के फर्मे (साँचे) तैयार करके सीमेण्ट बजरी का मिश्रण तैयार करके भर दिया जाता था। फिर लकड़ी के टुकड़ों के सपॉट (सहारा) लगाकर खुदाई करते थे। मृदा निकालने के लिए कुए के किनारे पर पाट (पट्टी), लकड़ी का भूण (चक्र), तथा पानी के लिए ढाणा (पक्का कुण्ड) बनाया जाता था। इसके बाद रस्सी की सहायता से ऊँट या बैल की सहायता से खींचकर निकालते थे।

सीकर जिले में भूजलस्तर की गहराई में बढ़ोत्तरी के बाद में कुओं में पानी की शैलों में क्षैतिज रूप में नालियों का प्रचलन आया। ये नालियाँ जलभरा में बनाई जाती थी। इन्हें यहाँ स्थानीय भाषा में आडा दर की संज्ञा दी गई थी।

विद्युत मोटरों के आविष्कार के बाद में भूमिगत जल का दोहन करने में तीव्रता आ गई। इससे जल के भण्डार सूखते चले गए, परिणामतः 20 वीं शताब्दी में मशीनों का प्रयोग बढ़ने से कुओं के निर्माण में भी बड़ा बदलाव आया। बड़ी ड्रिल मशीनों का प्रयोग करके न केवल मृदा में ही पाईप डालकर मॉडर्न कुए बनाना सरल हो गया, वरन् पत्थर को भी काटकर गहराई से पानी दोहन करना संभव बना दिया। इससे 1000 फीट तक कुओं की खुदाई को संभव बना दिया हैं।

एक ही दिन में कुएं का निर्माण करना संभव हो गया। इससे खेतों में पानी के अभाव में एक ही खेत में 4 से 5 नलकूप बनाए जाने लगे। इससे पानी का दोहन करना भी आसान कर दिया।

इसमें 20 एच पी की मोटरें काम में ली जाने लगी। इससे पानी का अधिक दोहन करने से भूमि के पेट में पानी की मा़त्रा घटती चली गई है। कुएं पूरी तरह से सूख चुके है। तथा नलकूप भी आधे से अधिक दम तोड़ चुके है।

सीकर जिले में बावड़ी का निर्माण भी लम्बे समय से हो रहा हैं। बावड़ी का निर्माण पहाड़ी कठोर भूमि के लिए अधिक उपयोगी रहता है। यहाँ कठोर धरातल पर पानी शीघ्रता से बह जाता है। बरसात के बाद में यहाँ पानी का अभाव हो जाता है। अतः इस समस्या को दूर करने के लिए बावड़ी का निर्माण करना प्रारम्भ किया गया। इसमें लागत अधिक आने के कारण राजा अथवा गाँव के सेठ ही पुण्य कमाने के उद्देश्य से बावड़ियों का निर्माण किया गया।

इसका निर्माण पानी के ढाल के नीचे किया जाता है। बावडी में पत्थर की सीढ़ियों का निर्माण कुएं के जलस्तर तक किया जाता था। चूना पत्थर से इनका निर्माण भूजल तक होता था। इनके पास में रानियों के लिए स्नानघर बनाए जाते थे। राजा-रानी अथवा महाजन लोगों की याद में इनकी सीढ़ियों को कलात्मक बनाया जाता था। इनमें अनेक मूर्तियों का अलंकरण इनकी सुन्दरता को चार चाँद लगा देता था।

यहाँ पर ग्रामीण भागों के पशुचारण के लिए चारागाहों का निर्माण किया गया था। यहाँ जोहड़ों की खुदाई करके जलभराव के प्रयास किये गये। इससे पशुओं के लिए पानी उपलब्ध हुआ। भूमि में जल की मात्रा भी बढ़ जाती थी। इनका निर्माण चारागाह में सबसे नीची भूमि में खुदाई करके किया गया। इनकी पाल को चीका मृदा से बाँधकर बरसात के जल का संचय किया जाता था।

बरसात होने से पानी छोटी-छोटी अवनलिकाओं से बहता हुआ गड्डे में भर जाता था। इस पानी का उपयोग 4 से 5 माह तक किया जाता था। वर्तमान में मानव बसाव तथा कृषि क्रियाओं से इनका भौगोलिक क्षेत्र छोटा होता जा रहा है। इससे भूमिगत जल में भी अत्यधिक गिरावट दर्ज की गई।

पुराने समय में झालरा भी एक जोहडे़ के समान जलसंचय का साधन था। इसका निर्माण जलस्रोत बाँध अथवा झील के नीचे के भाग में किया जाता था। इससे झील का पानी मृदा में रिसाव होकर झालरा में एकत्रित किया जाता था। यह पानी के ढाल के समकोण पर बनाया जाता था।

इसे पक्की दीवार खींचकर बनाते थे। ग्रामीण भागों में जोहड़ों के पास भी पानी का संग्रह करके पक्की पाल से झालरा बनाये गये हैं। टाँका या कुण्ड एक प्रकार का छोटा कुआ होता है। इसमें फर्श को पक्का करके जल को स्थायी रूप से भरा जाता है।

बेरी भी एक जल संरक्षण का विशेष प्रकार है। सीकर जिले में जल स्तर जिन भागों में उँचा था। वहाँ बेरियों का निर्माण किया जाता था।

ये सूखे के समय में पानी की आपूर्ति करती हैं। जिन भागों में नदी-नाले होते हैं। वहाँ बेरी का निर्माण करना आसान होता है। बेरी एक प्रकार का कुएं का छोटा रूप होता है। पुराने समय के लोग बेरियाँ चूना व पत्थर से बनाते थे। नदी घाटी के भाग में बनाने से इसमें बरसात के बाद में पानी भरा रहता हैं।

इस प्रदेश में सभी नदियाँ मौसमी होती थी। अतः शीतकाल में नदियों के सूख जाने के बाद बेरियाँ ही पेयजल का स्रोत होती थी। यह वृत्ताकार रूप में कुए के समान निर्मित की जाती थी। इसमें पत्थरों से भूजल बेरी में संग्रहित होता रहता था। यहाँ के पुराने लोग भूमि में पानी का ढाल का ज्ञान रखते थे। ऐसे भागों में कुए बनाना आसान कार्य था। अतः इन कुओं को भी बेरियों के नाम से जाना जाता था।

एनीकट भी प्राचीन जलसंग्रहण योजना का ही एक भाग था। इसमें पानी के ढाल के समकोण पर सीमेण्ट व कंक्रीट से बनाया जाता था। इसका आकार अंग्रेजी भाषा के एच के समान होता है। इसमें भी बारिश के पानी को रोककर सिंचाई अथवा पेयजल के रूप में काम मे लिया जाता था। एनीकट बरसात के पानी को भरने का साधन ही था। इसमें पानी भरने से मृदा के कटाव में कमी आती है। भूजलस्तर में पानी का अवशोषण होने से बढोतरी होती है।

शोध विधि एंव आंकड़ों के स्त्रोत Research methodology and sources of data

शोध क्षेत्र का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए क्षेत्र की सूचनाएं जिला एवं तहसील स्तर पर एकत्रित कर विश्लेषित की गई हैं। किसी के शोधकार्य के लिए शोधकर्ता को तथ्यों के संकलन तथा संकलन विधियों व आंकडों के वर्गीकरण एवं विश्लेषण, शोध के प्रतिवेदन के लेखन आदि के लिए एक निश्चित विधि का निर्धारण करना होता है। इस संपूर्ण शोध कार्य मे 2 प्रकार की शोध प्रविधियां अपनाई गई है। प्रथम अनुभव जन्य तथा द्वितीय तकनीक।

अध्ययन क्षेत्र का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए प्रथम शोधकर्ता द्वारा ग्रामस्तर पर प्राथमिक आंकड़े एकत्रित किये गये हैं। तत्पश्चात तहसील एंव जिला स्तर पर द्वितीयक आंकडे़ प्राप्त कर संश्लेषित कर विश्लेषित किये किये गये हैं। प्राथमिक आंकडों का संग्रह प्रत्यक्ष साक्षात्कार एंव अनुसूची करवाकर दोनों रूपों में किया गया है।

पारम्परिक जल संग्रह एंव अनुसूची करवाकर दोंनो रूपों में किया जाएगा। पारम्परिक जल संग्रह पद्धतियों का व्यक्तिगत अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। इनके अतिरिक्त शोधकार्य के लिए आवश्यक द्वितीय आंकड़ो का संग्रह निम्नलिखित कार्यालयों से भी किया गया है।

1. केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान, जोधपुर।
2. राज्य भूजल विभाग, जयपुर।
3. सिंचाई विभाग एंव जल विभाग सीकर।
4. भारतीय मौसम विभाग, क्षेत्रीय कार्यालय, जयपुर।
5. भारतीय सर्वेक्षण विभाग, शाखा कार्यालय, जयपुर।
6. बिड़ला तकनीकी संस्थान, जयपुर।
7. वन विभाग राजस्थान सरकार, जयपुर।
8. उद्यान विभाग राजस्थान सरकार, जयपुर।
9. तहसील मूख्यालय एंव पटवार भवन, सीकर।
10. भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान, देहरादून।

शोध के तकनीकी भाग में अध्ययन क्षेत्र के सर्वे ऑफ इण्डिया के प्रकाशित एंव सॉफ्ट कॉपी की सहायता से मानचित्र तैयार किये गये हैं जिनके आधार पर क्षेत्र का कृषि एंव सामाजिक आर्थिक परिवेश का भावी मानचित्रण प्रस्तुत किया गया है।

शोधकार्य के लिए प्राथमिक व द्वितीयक आंकड़े संग्रहित किये गये है। इसके लिए विविध गांवों का प्रतिचयन की विधियों के द्वारा चयन करके वहां के वरिष्ठ नागरिकों, सरपंच, पटवारी तथा ग्रामविकास अधिकारी से व्यक्तिगत सम्पर्क करके वार्तालाप के द्वारा आंकड़ों का संग्रहण किया गया है।

इसके लिए शोधकर्ता ने स्वयं जाकर व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी जोहड़ों, तालाबों तथा बावड़ियों का प्रत्यक्ष निरीक्षण किया है। अनुभव के आधार पर भी आंकड़ों का संग्रहण किया गया है। 

निष्कर्ष

उपरोक्त शोध अध्ययन से स्पष्ट है कि किसी भी शुष्क प्रदेश में वहां की परम्परागत जलसंग्रहण संरचनाओं को पुनर्जीवित करना अतिआवश्यक है क्योंकि ये भौगोलिक परिस्थितियों के मध्य विकसित होने के कारण सुगम व सस्ती होती हैं। यदि इनका उपयोग वर्तमान वैज्ञानिक तरीकों के सामंजस्य के साथ किया जाए तो जल संसाधनों की संपोषणीय आपूर्ति लम्बे समय तक की जा सकती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

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