ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- V August  - 2023
Anthology The Research

व्याकरणदर्शन में प्रथमाविभक्त्यर्थविचार

Prathamavibhaktyarthavichara in Grammar Philosophy
Paper Id :  17983   Submission Date :  14/08/2023   Acceptance Date :  22/08/2023   Publication Date :  25/08/2023
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दीपक व्यास
शोधछात्र
संस्कृत विभाग
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय
जोधपुर,राजस्थान, भारत
सारांश

भर्तृहरी द्वारा रचित वाक्यपदीय ग्रन्थ में तीन कांड है । इसके तृतीय कांड 'पदकांड' में चौदह समुद्देश हैं जिसमे साधनसमुद्देश सप्तम स्थान पर आता है । यह साधन ही कारक है जो क्रिया का जनक है 'क्रियाजनकत्वम् कारकत्वम्' । संस्कृत व्याकरण में छः कारक है और सात विभक्ति हैं। 'विभक्तिश्च' सूत्र के अनुसार सुप् और तिङ् प्रत्ययों की विभक्ति संज्ञा होती है। प्रथमा विभक्ति विधायक सूत्र है- 'प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा'वचनशब्द संख्यावाचक है अतः एक’ ‘द्विइत्यादि संख्यावाचक पदों से प्रथमा का विधान होता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Vakyapada text composed by Bhartrihari has three Kandas. Its third Kanda, 'Padakanda', contains fourteen Samuddhes, of which the Sadhana Samuddhes comes in the seventh position. This means is the cause which is the cause of the action 'kriyajanatvam karakatvam' Sanskrit grammar has six factors and seven inflection. According to the formula 'vibhaktisch', the suffixes sup and ting have inflectional nouns. The first inflection is the constitutive formula - 'the first in the pronoun-meaning-gender-quantity-word only' The word ‘word’ is numeral and therefore the first is prescribed by numeral terms like ‘one’ and ‘two’.
मुख्य शब्द कारक, प्रातिपदिक प्रथमाविभक्ति, कर्ता, उक्त, अनुक्त।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Agent, Pronoun First Inflection, Subject, Said, Unsaid.
प्रस्तावना

संस्कृत व्याकरण में छः कारक है और सात विभक्ति हैं। जिनमें प्रथमा विभक्ति विधायक सूत्र है - 'प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा'। जिसका यहाँ विस्तार से वर्णन है।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रकृत शोधपत्र का उद्देश्य है वाक्यपदीय के साधनसमुद्देश में प्रथमाविभक्त्यर्थ विषय का दार्शनिक एवं तात्विक दृष्टि से स्पष्टीकरण करने का प्रयास करना।

साहित्यावलोकन

वाक्यपदीय- 
संस्कृत व्याकरण का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसे त्रिकाण्डी भी कहते हैं। वाक्यपदीय, व्याकरण शृंखला का मुख्य दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता नीतिशतक के रचयिता महावैयाकरण तथा योगिराज भर्तृहरि हैं। इनके गुरु का नाम वसुरात था। भर्तृहरि को किसी ने तीसरी, किसी ने चौथी तथा छठी या सातवी सदी में रखा है। वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने भाषा (वाच्) की प्रकृति और उसका वाह्य जगत से सम्बन्ध पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। यह ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है जिन्हें "कांड" कहते हैं। यह समस्त ग्रंथ पद्य में लिखा गया है।
महाभाष्य-
पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखी जिसे व्याकरणमहाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। व्याकरण महाभाष्य में कात्यायन वार्तिक भी सम्मिलित हैं जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर कात्यायन के भाष्य हैं। कात्यायन के वार्तिक कुल लगभग 1400 हैं जो अन्यत्र नहीं मिलते बल्कि केवल व्याकरणमहाभाष्य में पतञ्जलि द्वारा सन्दर्भ के रूप में ही उपलब्ध हैं। इसकी रचना लगभग ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में हुई थी।
प्रकीर्णकप्रकाशटीका- 
वाक्यपदीय पर भूतिराज के पुत्र हेलाराज ने बहुत सुंदर तथा विस्तृत प्रकीर्णक टीका लिखी
अष्टाध्यायी-
अष्टाध्यायी (अष्टाध्यायी = आठ अध्यायों वाली) महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ (8वी ई पू) है।[1] इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं; प्रत्येक पद में 38 से 220 तक सूत्र हैं। इस प्रकार अष्टाध्यायी में आठ अध्याय, बत्तीस पद और सब मिलाकर लगभग 4000 सूत्र हैं।

मुख्य पाठ

विभक्तिश्च'[1]  सूत्र के अनुसार सुप् और तिङ् प्रत्ययों की विभक्तिसंज्ञा होती है।[2]  सुप्प्रत्यय इक्कीस हैं। विभक्तियां प्रथमादि के भेद से सात मानी गयी हैं। प्रत्येक विभक्ति में तीन-तीन सुप्प्रत्यय होते हैं। प्रत्ययः[3] तथा परश्च[4] एवम् ङ्याप्प्रातिपदिकात्'[5] इन अधिकारसूत्रों के नियम से स्वादिप्रत्यय प्रातिपदिकादि से परे प्रयुक्त होते हैं। प्रथमा विभक्ति और सम्बोधन में क्रमशः सु औजस् इन तीन प्रत्ययों का एकवचनद्विवचन और बहुवचन में द्वयेकयोद्र्विवचनैकवचने'[6]  तथा बहुषु बहुवचनम्'[7] इन सूत्रों से यथावसर प्रयोग होता है।

प्रथमा विभक्ति के प्रयोग हेतु प्रमुख सूत्र है - प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा'[8] इसका अर्थ है प्रातिपदिकार्थमात्र मेंलिङ्गमात्र की अधिकता मेंपरिमाण की अधिकता में तथा संख्यामात्र की अधिकता में प्रथमाविभक्ति होती है।[9] जिस शब्द से एक निश्चित अर्थ निकलता है उस अर्थवान् शब्द को प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। परिमाण का अर्थ है द्रोण इत्यादि मात्रा वाचक शब्द। वचन संख्या[11के अनुसार वचन शब्द संख्यावाचक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। एकद्विइत्यादि शब्द संख्या-वाचक होते हैं। ज्ञान शब्द प्रातिपदिकार्थ है क्योंकि इस शब्द का एक नियत अर्थ प्रकाश है। अतः इस शब्द से प्रथमाविभक्ति के सु प्रत्यय का प्रयोग करने पर नपुंसकलिङ्गङ्ग के एक वचन में ज्ञानम् पद बनता है।

कारक की आत्मा विभक्त्यर्थ है।[12प्रथमा विभक्ति का प्रयोग दो स्थलों पर होता है कृष्णः इत्यादि प्रातिपदिकों में (कृष्णः) और सम्बोधनवाची राम इत्यादि में (हे! राम) यद्यपि रामम् इत्यादि कर्मवचाक पद भी प्रातिपदिकार्थ हैं क्योंकि इन पदों से एक नियत अर्थ निकलता है किन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि का कहना है कि आचार्य पाणिनि की प्रवृत्ति बतलाती है कि कर्मादि से विशिष्ट पदों में प्रथमा विभक्ति नहीं होती।[13उक्त प्रातिपदिकार्थों में प्रथमाविभक्ति होती है।[14प्रदीपकार के मतानुसार अभिहित (उक्त या कथित) संख्या में भी प्रथमा विभक्ति होती है -

एवं प्रातिपदिकार्थमात्रेऽभिहितेपि एकत्वादौ प्रथमा भवति। अन्ये त्वाहुः-भीयते अनयेति मात्रा संख्योच्यते। समाहारद्वन्द्वे नपुंसकत्वाच्च ह्रस्वत्वं कृतम्। तेनाभिहितायामपि संख्यायां प्रथमा भवति।[15]

अथवा अभिहिते प्रथमा इत्येतल्लक्षण करिष्यते।[16]

 महाभाष्यकार के इन वचनों से सिद्ध होता है कि तिङादि से उक्त कत्र्रादि में प्रथमा विभक्ति होती है -

तिङ्कृत्तद्धितसमासैरभिहिते कत्र्रादौ प्रथमेत्यर्थः। ततश्च वीरः पुरुष इत्यत्रर्थाधिक्येप्यभिहितत्वमात्राश्रयां प्रथमा भविष्यति।[17]

हेलाराज के अनुसार तिङादि से उक्त कर्मादि कारकों में भी प्रथमा का प्रयोग होता है।[18] तिङ् द्वारा कर्म की अभिधानता अथवा उक्तता का उदाहरण है देवदत्तेन ओदनः पच्यते (देवदत्त द्वारा भात पकाया जाता है) यहाँ प्रत्यय कर्म अर्थ में प्रयुक्त होने से कर्मवाचक उक्त ओदन में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। अतिथिः गोध्नः (अतिथि गायों को मारने वाला है) यहाँ गो पदपूर्वक हन् धातु से प्रत्यय सम्प्रदान अर्थ में प्रयुक्त है। अतः सम्प्रदानवाची उक्त अतिथि में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। औपगवः (उपगु की सन्तान) यहाँ तद्धित वाले अण् प्रत्यय द्वारा सम्बन्ध का कथन किया गया है। अतः उक्त औपगव में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ है। राज्ञः पुरुषः (राजा का आदमी) यहाँ राजा और पुरुष में स्वस्वामिभावसम्बन्ध है। सम्बन्ध द्विष्ठ होता है। वाक्य की दृष्टि से राजन् गौणपद है। षष्ठी विभक्ति गौण पद से होती है। पुरुष क्रिया के साथ अन्वित होने से प्रधान है और षष्ठी तत्पुरुषसमास से उक्त पुरुष में अभिहित लक्षणा प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है-

औपगवःइत्यत्र तस्येदमित्यणा तद्धितेन सम्बन्धाभिधानम्। चित्रगुःइत्यत्र समासेनापि सम्बन्धाभिधानमेव। इदञ्च प्रवृत्तिनिमित्तं प्रातिपदिकार्थ इति पक्षे। द्रव्यं प्रातिपदिकार्थ इति पक्षे तूभयत्रापि सम्बन्ध्यभिधानमेव। राज्ञः पुरुषःइत्यत्र परस्परापेक्षयोः राजपुरुषयोः सम्बन्धमात्रे वाक्यपर्यवसानेऽन्यतरपदनिबद्धया षष्ठ्या द्विष्ठसम्बन्धाभिधानेऽपि प्रागुक्तरीत्या पूर्वस्मात् पदादप्रधानं वाचकादेव षष्ठीपरस्मात् पदात्तु प्रधानवाचकादभिहितलक्षणा प्रथमैव।[19]

वृक्षः’ ‘पर्वतःइत्यादि स्थलों में तिङादि से अनभिहित कारकों में क्या प्रथमाविभक्ति का प्रयोग उचित हैइस शंका का समाधान यह है कि ऐसे स्थलों पर अस्तिक्रिया का अध्याहार करके तिप् प्रत्यय को कर्ता अर्थ में मानकर उक्त कर्ता वृक्ष इत्यादि में प्रथमाविभक्ति मानना उचित है।[20] अस्तिक्रिया का अध्याहार इसलिए उचित है क्योंकि अस्तिक्रिया सत्तावाचक है। कोई भी पदार्थ सत्तावान् अवश्य होता है। सत्ता का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकता -

क्रियासम्बन्धं विना पदार्थो व्यवहार्यो भवतीति सामान्यरूपेणाव्यभिचरितसम्बन्धा सर्वत्र अस्तिक्रिया सन्निधीयत इति। वृक्षोऽस्ति इति वाक्यप्रयोगात् तिङाऽभिहिते कर्तरीयं प्रथमा। तदुक्तं भाष्ये - ‘‘ सत्तां पदार्थो व्यभिचरित’’ इति सत्तयाऽवधृत पदार्थे तद्वाचकशब्दप्रयोगो भवतिइति सतां विनाऽवधारणस्यासम्भवादुपचार-सत्तासमाविष्टः=व्यावहारिकसत्तासमाविष्टः सर्वोऽपि पदवाच्योऽर्थ इति प्रकृतभाष्यवाक्यार्थः। तथा चात्रैव प्रागुक्तम् -

प्रवृत्तिहेतुं सर्वेषां शब्दानामौपचारिकीम्।

एतां सत्तां पदार्थो हि कश्चिदतिवर्तते।।[21]

घटो नास्ति’ (घड़े की सत्ता नहीं है) यहाँ घट की सत्ता का अभाव होने पर भी अन्य किसी पटादि पदार्थों की सत्ता का बोध सामान्यतया अवश्य होता है। नास्तिसे असद्भाव की अपेक्षा सद्भाव को मानना उचित है।[22] तिङादि से अभिहित अथवा अनभिहित दोनों ही दशाओं में प्रथमाविभक्ति हो सकती है। प्रासादआस्ते (महल खड़ा है या महल पर कोई बैठा है) यहाँ आसनक्रियाकी अपेक्षा से अधिकरणशक्तिका कथन नहीं किया गया है अपितु सत्क्रियाकी अपेक्षा से प्रत्यय कत्र्ताअर्थ में होने से उक्त कर्ता प्रासादमें प्रथमा का अभिधान करके अभिहित लक्षणा प्रथमा का प्रयोग किया है -

एवमपि अभिहितानभिहिते प्रथमाभावःइति चोदितम्। अस्यार्थः - केनचिदभिहिते केनचिच्चानभिहिते प्रथमाया भावः सत्त्वमुत्पत्तिः प्राप्नोति। ‘‘प्रासादे आस्ते’’ इत्यादौ। इह हि प्रासादगताऽधिकरणशक्तिः घञाभिहितातिङा चानभिहिता इति अभिहिते प्रथमा प्राप्नोति। कि॰चासिक्रियापेक्षाधिकरणशक्तिर्नाभिहितासदिक्रियापेक्षात्वभिहिता कृता प्रत्ययेन। ततश्चाभिहितलक्षणा प्रथमा प्राप्नोति।[23]

वनस्पतयः फलिताः’ (वनस्पतियां फलों से लदी हुई हैं) यहाँ समानाधिकरण सम्बन्ध में प्रातिपदिकार्थभिन्नता का अभाव होने से कोई भी अभिहित होने से अभिहितलक्षणा प्रथमा का प्रयोग नहीं है -

तथा फलिता वनस्पतयःतारस्वराः परभृताःइत्यादौ समानाधिकरणसम्बन्धे = समानाधिकरणयोः अभेदसम्बन्धे प्रातिपदिकार्थव्यतिरेकाभावात् प्रातिपदिकार्थदधिकस्य प्रतीत्यभावात्= किञ्चित् केनचिदभिहितमिति अभिहितलक्षणा प्रथमा प्राप्नोति।[24]

उच्चैः’ (ऊँचाई पर) इत्यादि स्थलों में अस्तिपद के अध्याहार से अधिकरणशक्ति की प्रधानता से निश्चित होने पर भी प्रथमा का प्रयोग क्यों किया गया हैइसका उत्तर यह है कि उच्चैस्को प्रातिपदिकार्थ मानकर प्रथमा का प्रयोग किया गया है।[25] अध्यागच्छति (वह आता है) यहाँ अनर्थकनिपात अधि की प्रातिपदिकसंज्ञा करके प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है-

अध्यागच्छतिपर्यागच्छति इत्यत्रानर्थकस्यापि निपातस्य प्रातिपदिकसंज्ञा उपसंख्याता वात्र्तिककृता। यद्येवं प्रातिपदिकसंज्ञाविधानसामथ्र्यादेवानर्थकात् प्रथमा भविष्यतीति किमनेनात्रत्येन प्रातिपदिकग्रहणेन हि विभक्तिविधानादन्यस्य प्रतिपदिककार्थस्यात्र सम्भवः। कि॰च ‘‘अधिपरी अनर्थकौ’’ (पा.1.4.93) इत्यनेन गतिसंज्ञां बाधितुं क्रियमाणात् कर्मप्रवचनीयसंज्ञाविधिरूपात् लिङ्गादेवामर्थवत्व-प्रयुक्तकार्यमधिपर्यादीनामनर्थकानामपि भवतीत्यनुमीयते। अन्यथा क्रियाविशेषद्योतकत्वाभावे गतिसंज्ञाप्राप्तिरेवैषां स्यात्।[26]

उच्चैः इत्यादि असंख्यावाचक अव्ययों से प्रथमा विभक्ति इन अव्ययों को प्रातिपदिक मानकर ही की जाती है।[27] वृक्षम् वृक्षेण इत्यादि शुद्ध प्रातिपदिक स्थलों में कर्मकरण इत्यादि विभक्त्यर्थ का अनुमान करके ही वृक्षादि की सत्ता का निश्चय किया जाता है क्योंकि बिना आधार के सत्ता संभव नहीं है। सत्ता का आधार द्रव्य ही है -

तत्र शुद्धस्य प्रातिपदिकस्य वृक्षं वृक्षेणइत्यादौ विभक्त्यनुगतस्य विभक्त्यर्थानुगमेऽपि उभयत्र सत्तामात्रानुगमात् = उभयत्र प्रातिपदिकार्थे केवलायाः सत्ताया विशेषणतयाऽनुगमात्=उभयत्र प्रातिपदिकार्थे केवलायाः सत्ताया विशेषणतयाऽनुगमात् सत्ताया एव प्रातिपदिकार्थत्वनिश्चयः। निराधिकरणा सत्ता सम्भवतीति द्रव्याधिकरणैव = द्रव्यनिष्ठतया = द्रव्यविशेषणतया प्रतीयमानैव सा प्रातिपदिकार्थः। यतस्तावत्यर्थे=सत्ताविशिष्टद्रव्यरूपेऽर्थे प्रत्ययनिरपेक्षः प्रातिपदिकरूपः शब्दः।[28]

निष्कर्ष

वचनशब्द संख्यावाचक है अतः एक’ ‘द्विइत्यादि संख्यावाचक पदों से प्रथमा का विधान होता है।[29] द्वितीयादि विभक्तियां क्रमशः कर्मादि अनुक्त कारकों में की जाती हैं। मात्रशब्द अवधारणवाचक है इसलिए कर्मादि से विशिष्ट द्रव्य में प्रथमा विभक्ति नहीं की जाती।[30]

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. अष्टाध्यायी, 1.4.104
2. सुप्तिङौविभक्तिसंज्ञौ स्तः। तत्र सु’ ‘’ ‘जस्इत्यादीनां सप्तानां त्रिकाणां प्रथमादयः सप्तम्यन्ताः प्राचां संज्ञा ताभिरिहापिव्यवहारः - वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी, अजन्तपुलिङ्गप्रकरण, पृष्ठ-16
3. अष्टाध्यायी, 3.1.1
4. अष्टाध्यायी, 3.1.2
5. अष्टाध्यायी, 4.1.1 6. अष्टाध्यायी, 1.4.2
7. अष्टाध्यायी, 1.4.21
8. अष्टाध्यायी, 2.3.46
9. प्रातिपदिकार्थमात्रेलिङ्गमात्राद्याधिक्ये संख्यामात्रे च प्रथमा स्यात्। - वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी, कारकप्रकरण, 2.3.46, पृष्ठ-57
10. नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थः। - वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी, कारकप्रकरण, 2.3.46, पृष्ठ-57
11. वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी, कारकप्रकरण, 2.3.46, पृष्ठ-57
12. एवं तावत् कारकात्मा विभक्त्यर्थो विचारितः। - वाक्यपदीय, 3.7.162, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-409
13. अथवाचार्यप्रवृत्तिज्र्ञापयति - न कर्मादिविशिष्टे प्रथमा भवतीति। यदयं संबोधने प्रथमा शास्ति। - व्याकरणमहाभाष्य, 2.3.46
14. उक्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा यथा स्यात् - एको द्वौ बहव इति - वही, 2.3.46
15. व्याकरणमहाभाष्यप्रदीप, 2.3.46
16. व्याकरणमहाभाष्य, 2.3.46
17. व्याकरणमहाभाष्यप्रदीप, 2.3.46
18. तिङादिभिरभिहिते कर्मादौ कारके प्रथमा। - वाक्यपदीय, 3.7.162, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-409
19. वाक्यपदीय, 3.7.162, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-409
20. ‘वृक्षः, पर्वतइत्यादौतिङादिभिरनभिहिते कस्मिंश्चत् कारके प्रथमा न प्राप्नोति विधेयेत्यर्थः। अत्र परिहारः - ‘‘अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्ति’’ इत्युक्तः। क्रियानुषङ्गमन्तरेणाव्यवहार्यः पदार्थ इति सामान्यरूपाव्यभिचरितसम्बन्धा सर्वत्रास्तिक्रिया सन्निधीयत इति वृक्षोऽस्तीति वाक्यप्रयोगादभिहितेतिङा कर्तरीयं प्रथमा। - वाक्यपदीय, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-410
21. वाक्यपदीय, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-410
22. नास्ति वध्यते नीयते इत्याद्यनुषङ्गोऽपि निरूपितस्य सतो भवति इत्यौत्सर्गिकी सर्वत्रेयं सत्ता। तथा च विरोधिभिरविरोधिभिश्च धर्मैरेतस्यामवस्थित एव शब्दः समन्वेतीति प्रागेवोक्तं तत्रैव च निर्णीतम्। - वाक्यपदीय, 3.7.162, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-411
23. वाक्यपदीय, 3.7.162, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-411
24. वाक्यपदीय, 3.7.162, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-411
25. तदेवं लक्षणान्तरे प्रत्याख्याते प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा (पा. 2.3.46) इत्याद्याचार्योयमेव लक्षणं न्याय्यमवस्थापितम्।’ - वही, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-412
26. वाक्यपदीय, 3.7.162, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-412, 413
27. एवं च कृत्वाव्ययेभ्यो निःसंख्येभ्यः स्वादयोविद्यन्त इत्युच्चैर्नीचैरित्यप्यत्रनोदाहृतम्। अव्ययाल्लुगवचनमप्यत्र ज्ञापकमस्ति। क्रमव्यतिक्रमे च प्रयोजनाभावात् पाठक्रमायाता प्रथमैवात्र। तस्मादर्थविशेषणमेव प्रातिपदिग्रहणम्। सामथ्र्यलब्धमपि व्याप्त्यर्थं प्रातिपदिकमात्रार्थे प्रथमां विधत्ते। - वाक्यपदीय, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-413
28. वाक्यपदीय, 3.7.62, अथ परिशिष्टः प्रथमार्थविचारः, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-414
29. एवं विंशत्यादीनां गुणिनि वृतौ। वचनशब्देन पूर्वाचार्यप्रसिद्ध्या सङ्ख्योच्यते। तेन संख्यायामभिहितायामपि प्रथमानेन विधीयते। - वाक्यपदीय, प्रकीर्णकप्रकाशटीका, पृष्ठ-417
30. द्वितीयादयस्तु यथायथं कर्मादिष्वेभ्यः = एकादिशब्देभ्यः सिद्धाः। कर्मादिविशिष्टानामेकत्वादीनामेतै एकादिशब्दैः अप्रत्यायनात्। प्रातिपदिकार्थमात्रे इत्यत्र मात्रशब्दोऽवधारणार्थक इति कर्मादिविशिष्टे प्रथमा न भवति। द्वितीयादयो वा तत्र = कर्मादिविशिष्टे प्रथमाया बाधकाः। - वाक्यपदीय, अम्बाकत्र्रीटीका, पृष्ठ-417