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व्याकरणदर्शन में
प्रथमाविभक्त्यर्थविचार |
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Prathamavibhaktyarthavichara in Grammar Philosophy | |||||||
Paper Id :
17983 Submission Date :
2023-08-14 Acceptance Date :
2023-08-22 Publication Date :
2023-08-25
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सारांश |
भर्तृहरी द्वारा
रचित वाक्यपदीय ग्रन्थ में तीन कांड है । इसके तृतीय कांड 'पदकांड' में चौदह समुद्देश हैं जिसमे
साधनसमुद्देश सप्तम स्थान पर आता है । यह साधन ही कारक है जो क्रिया का जनक है 'क्रियाजनकत्वम् कारकत्वम्' । संस्कृत व्याकरण
में छः कारक है और सात विभक्ति हैं। 'विभक्तिश्च' सूत्र के अनुसार सुप् और तिङ् प्रत्ययों की विभक्ति संज्ञा होती है।
प्रथमा विभक्ति विधायक सूत्र है- 'प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे
प्रथमा'। ‘वचन’ शब्द संख्यावाचक है अतः ‘एक’ ‘द्वि’ इत्यादि संख्यावाचक पदों से प्रथमा का
विधान होता है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The Vakyapada text composed by Bhartrihari has three Kandas. Its third Kanda, 'Padakanda', contains fourteen Samuddhes, of which the Sadhana Samuddhes comes in the seventh position. This means is the cause which is the cause of the action 'kriyajanatvam karakatvam' Sanskrit grammar has six factors and seven inflection. According to the formula 'vibhaktisch', the suffixes sup and ting have inflectional nouns. The first inflection is the constitutive formula - 'the first in the pronoun-meaning-gender-quantity-word only' The word ‘word’ is numeral and therefore the first is prescribed by numeral terms like ‘one’ and ‘two’. | ||||||
मुख्य शब्द | कारक, प्रातिपदिक प्रथमाविभक्ति, कर्ता, उक्त, अनुक्त। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Agent, Pronoun First Inflection, Subject, Said, Unsaid. | ||||||
प्रस्तावना | संस्कृत व्याकरण में
छः कारक है और सात विभक्ति हैं। जिनमें प्रथमा विभक्ति विधायक सूत्र है - 'प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा'।
जिसका यहाँ विस्तार से वर्णन है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रकृत शोधपत्र का
उद्देश्य है वाक्यपदीय के साधनसमुद्देश में प्रथमाविभक्त्यर्थ विषय का दार्शनिक
एवं तात्विक दृष्टि से स्पष्टीकरण करने का प्रयास करना। |
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साहित्यावलोकन | वाक्यपदीय-
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मुख्य पाठ |
‘विभक्तिश्च'[1] सूत्र के अनुसार सुप् और तिङ् प्रत्ययों की विभक्तिसंज्ञा होती है।[2] सुप्प्रत्यय इक्कीस हैं। विभक्तियां प्रथमादि के भेद से सात मानी गयी हैं। प्रत्येक विभक्ति में तीन-तीन सुप्प्रत्यय होते हैं। ‘प्रत्ययः[3] तथा ‘परश्च’[4] एवम् ‘ङ्याप्प्रातिपदिकात्'[5] इन अधिकारसूत्रों के नियम से स्वादिप्रत्यय प्रातिपदिकादि से परे प्रयुक्त होते हैं। प्रथमा विभक्ति और सम्बोधन में क्रमशः सु औजस् इन तीन प्रत्ययों का एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में ‘द्वयेकयोद्र्विवचनैकवचने'[6] तथा ‘बहुषु बहुवचनम्'[7] इन सूत्रों से यथावसर प्रयोग होता है। प्रथमा विभक्ति के प्रयोग हेतु प्रमुख सूत्र है - ‘प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा'[8]। इसका अर्थ है प्रातिपदिकार्थमात्र में, लिङ्गमात्र की अधिकता में, परिमाण की अधिकता में तथा संख्यामात्र की अधिकता में प्रथमाविभक्ति होती है।[9] जिस शब्द से एक निश्चित अर्थ निकलता है उस अर्थवान् शब्द को प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। परिमाण का अर्थ है द्रोण इत्यादि मात्रा वाचक शब्द। ‘वचन संख्या’[11] के अनुसार ‘वचन’ शब्द संख्यावाचक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। एक, द्वि, इत्यादि शब्द संख्या-वाचक होते हैं। ‘ज्ञान’ शब्द प्रातिपदिकार्थ है क्योंकि इस शब्द का एक नियत अर्थ ‘प्रकाश’ है। अतः इस शब्द से प्रथमाविभक्ति के ‘सु’ प्रत्यय का प्रयोग करने पर नपुंसकलिङ्गङ्ग के एक वचन में ‘ज्ञानम्’ पद बनता है। कारक की आत्मा विभक्त्यर्थ है।[12] प्रथमा विभक्ति का प्रयोग दो स्थलों पर होता है ‘कृष्णः’ इत्यादि प्रातिपदिकों में (कृष्णः) और सम्बोधनवाची ‘राम’ इत्यादि में (हे! राम) यद्यपि ‘रामम्’ इत्यादि कर्मवचाक पद भी प्रातिपदिकार्थ हैं क्योंकि इन पदों से एक नियत अर्थ निकलता है किन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि का कहना है कि आचार्य पाणिनि की प्रवृत्ति बतलाती है कि कर्मादि से विशिष्ट पदों में प्रथमा विभक्ति नहीं होती।[13] उक्त प्रातिपदिकार्थों में प्रथमाविभक्ति होती है।[14] प्रदीपकार के मतानुसार अभिहित (उक्त या कथित) संख्या में भी प्रथमा विभक्ति होती है - एवं प्रातिपदिकार्थमात्रेऽभिहितेपि एकत्वादौ प्रथमा भवति। अन्ये त्वाहुः-भीयते अनयेति मात्रा संख्योच्यते। समाहारद्वन्द्वे नपुंसकत्वाच्च ह्रस्वत्वं कृतम्। तेनाभिहितायामपि संख्यायां प्रथमा भवति।[15] ‘अथवा अभिहिते प्रथमा’ इत्येतल्लक्षण करिष्यते।[16] महाभाष्यकार के इन वचनों से सिद्ध होता है कि तिङादि से उक्त कत्र्रादि में प्रथमा विभक्ति होती है - तिङ्कृत्तद्धितसमासैरभिहिते कत्र्रादौ प्रथमेत्यर्थः। ततश्च वीरः पुरुष इत्यत्रर्थाधिक्येप्यभिहितत्वमात्राश्रयां प्रथमा भविष्यति।[17] हेलाराज के अनुसार तिङादि से उक्त कर्मादि कारकों में भी प्रथमा का प्रयोग होता है।[18] तिङ् द्वारा कर्म की अभिधानता अथवा उक्तता का उदाहरण है ‘देवदत्तेन ओदनः पच्यते’ (देवदत्त द्वारा भात पकाया जाता है)। यहाँ ‘त’ प्रत्यय ‘कर्म’ अर्थ में प्रयुक्त होने से कर्मवाचक उक्त ‘ओदन’ में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। ‘अतिथिः गोध्नः’ (अतिथि गायों को मारने वाला है)। यहाँ ‘गो’ पदपूर्वक ‘हन्’ धातु से ‘क’ प्रत्यय ‘सम्प्रदान’ अर्थ में प्रयुक्त है। अतः सम्प्रदानवाची उक्त ‘अतिथि’ में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है। ‘औपगवः’ (उपगु की सन्तान)। यहाँ तद्धित वाले ‘अण्’ प्रत्यय द्वारा सम्बन्ध का कथन किया गया है। अतः उक्त ‘औपगव’ में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ है। ‘राज्ञः पुरुषः’ (राजा का आदमी)। यहाँ राजा और पुरुष में स्वस्वामिभावसम्बन्ध है। सम्बन्ध द्विष्ठ होता है। वाक्य की दृष्टि से ‘राजन्’ गौणपद है। षष्ठी विभक्ति गौण पद से होती है। पुरुष क्रिया के साथ अन्वित होने से प्रधान है और षष्ठी तत्पुरुषसमास से उक्त ‘पुरुष’ में अभिहित लक्षणा प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है- ‘औपगवः’ इत्यत्र तस्येदमित्यणा तद्धितेन सम्बन्धाभिधानम्। ‘चित्रगुः’ इत्यत्र समासेनापि सम्बन्धाभिधानमेव। इदञ्च प्रवृत्तिनिमित्तं प्रातिपदिकार्थ इति पक्षे। द्रव्यं प्रातिपदिकार्थ इति पक्षे तूभयत्रापि सम्बन्ध्यभिधानमेव। ‘राज्ञः पुरुषः’ इत्यत्र परस्परापेक्षयोः राजपुरुषयोः सम्बन्धमात्रे वाक्यपर्यवसानेऽन्यतरपदनिबद्धया षष्ठ्या द्विष्ठसम्बन्धाभिधानेऽपि प्रागुक्तरीत्या पूर्वस्मात् पदादप्रधानं वाचकादेव षष्ठी, परस्मात् पदात्तु प्रधानवाचकादभिहितलक्षणा प्रथमैव।[19] ‘वृक्षः’ ‘पर्वतः’ इत्यादि स्थलों में तिङादि से अनभिहित कारकों में क्या प्रथमाविभक्ति का प्रयोग उचित है? इस शंका का समाधान यह है कि ऐसे स्थलों पर ‘अस्ति’ क्रिया का अध्याहार करके ‘तिप्’ प्रत्यय को ‘कर्ता’ अर्थ में मानकर उक्त कर्ता ‘वृक्ष’ इत्यादि में प्रथमाविभक्ति मानना उचित है।[20] ‘अस्ति’ क्रिया का अध्याहार इसलिए उचित है क्योंकि ‘अस्ति’ क्रिया सत्तावाचक है। कोई भी पदार्थ सत्तावान् अवश्य होता है। सत्ता का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकता - क्रियासम्बन्धं विना पदार्थो न व्यवहार्यो भवतीति सामान्यरूपेणाव्यभिचरितसम्बन्धा सर्वत्र अस्तिक्रिया सन्निधीयत इति। वृक्षोऽस्ति इति वाक्यप्रयोगात् तिङाऽभिहिते कर्तरीयं प्रथमा। तदुक्तं भाष्ये - ‘‘न सत्तां पदार्थो व्यभिचरित’’ इति सत्तयाऽवधृत पदार्थे तद्वाचकशब्दप्रयोगो भवति, इति सतां विनाऽवधारणस्यासम्भवादुपचार-सत्तासमाविष्टः=व्यावहारिकसत्तासमाविष्टः सर्वोऽपि पदवाच्योऽर्थ इति प्रकृतभाष्यवाक्यार्थः। तथा चात्रैव प्रागुक्तम् - प्रवृत्तिहेतुं सर्वेषां शब्दानामौपचारिकीम्। एतां सत्तां पदार्थो हि न कश्चिदतिवर्तते।।[21] ‘घटो नास्ति’ (घड़े की सत्ता नहीं है)। यहाँ घट की सत्ता का अभाव होने पर भी अन्य किसी पटादि पदार्थों की सत्ता का बोध सामान्यतया अवश्य होता है। ‘नास्ति’ से असद्भाव की अपेक्षा सद्भाव को मानना उचित है।[22] तिङादि से अभिहित अथवा अनभिहित दोनों ही दशाओं में प्रथमाविभक्ति हो सकती है। ‘प्रासादआस्ते’ (महल खड़ा है या महल पर कोई बैठा है)। यहाँ ‘आसनक्रिया’ की अपेक्षा से ‘अधिकरणशक्ति’ का कथन नहीं किया गया है अपितु ‘सत्क्रिया’ की अपेक्षा से ‘त’ प्रत्यय ‘कत्र्ता’ अर्थ में होने से उक्त कर्ता ‘प्रासाद’ में प्रथमा का अभिधान करके अभिहित लक्षणा प्रथमा का प्रयोग किया है - एवमपि ‘अभिहितानभिहिते प्रथमाभावः’ इति चोदितम्। अस्यार्थः - केनचिदभिहिते केनचिच्चानभिहिते प्रथमाया भावः सत्त्वमुत्पत्तिः प्राप्नोति। ‘‘प्रासादे आस्ते’’ इत्यादौ। इह हि प्रासादगताऽधिकरणशक्तिः घञाभिहिता, तिङा चानभिहिता इति अभिहिते प्रथमा प्राप्नोति। कि॰चासिक्रियापेक्षाधिकरणशक्तिर्नाभिहिता, सदिक्रियापेक्षात्वभिहिता कृता प्रत्ययेन। ततश्चाभिहितलक्षणा प्रथमा प्राप्नोति।[23] ‘वनस्पतयः फलिताः’ (वनस्पतियां फलों से लदी हुई हैं)। यहाँ समानाधिकरण सम्बन्ध में प्रातिपदिकार्थभिन्नता का अभाव होने से कोई भी अभिहित न होने से अभिहितलक्षणा प्रथमा का प्रयोग नहीं है - तथा ‘फलिता वनस्पतयः, तारस्वराः परभृताः’ इत्यादौ समानाधिकरणसम्बन्धे = समानाधिकरणयोः अभेदसम्बन्धे प्रातिपदिकार्थव्यतिरेकाभावात् प्रातिपदिकार्थदधिकस्य प्रतीत्यभावात्=न किञ्चित् केनचिदभिहितमिति अभिहितलक्षणा प्रथमा न प्राप्नोति।[24] ‘उच्चैः’ (ऊँचाई पर) इत्यादि स्थलों में ‘अस्ति’ पद के अध्याहार से अधिकरणशक्ति की प्रधानता से निश्चित होने पर भी प्रथमा का प्रयोग क्यों किया गया है? इसका उत्तर यह है कि ‘उच्चैस्’ को प्रातिपदिकार्थ मानकर प्रथमा का प्रयोग किया गया है।[25] ‘अध्यागच्छति’ (वह आता है)। यहाँ अनर्थकनिपात ‘अधि’ की प्रातिपदिकसंज्ञा करके प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है- ‘अध्यागच्छति, पर्यागच्छति’ इत्यत्रानर्थकस्यापि निपातस्य प्रातिपदिकसंज्ञा उपसंख्याता वात्र्तिककृता। यद्येवं प्रातिपदिकसंज्ञाविधानसामथ्र्यादेवानर्थकात् प्रथमा भविष्यतीति किमनेनात्रत्येन प्रातिपदिकग्रहणेन? न हि विभक्तिविधानादन्यस्य प्रतिपदिककार्थस्यात्र सम्भवः। कि॰च ‘‘अधिपरी अनर्थकौ’’ (पा.1.4.93) इत्यनेन गतिसंज्ञां बाधितुं क्रियमाणात् कर्मप्रवचनीयसंज्ञाविधिरूपात् लिङ्गादेवामर्थवत्व-प्रयुक्तकार्यमधिपर्यादीनामनर्थकानामपि भवतीत्यनुमीयते। अन्यथा क्रियाविशेषद्योतकत्वाभावे गतिसंज्ञाप्राप्तिरेवैषां न स्यात्।[26] ‘उच्चैः’ इत्यादि असंख्यावाचक अव्ययों से प्रथमा विभक्ति इन अव्ययों को प्रातिपदिक मानकर ही की जाती है।[27] ‘वृक्षम्’ ‘वृक्षेण’ इत्यादि शुद्ध प्रातिपदिक स्थलों में कर्म, करण इत्यादि विभक्त्यर्थ का अनुमान करके ही वृक्षादि की सत्ता का निश्चय किया जाता है क्योंकि बिना आधार के सत्ता संभव नहीं है। सत्ता का आधार द्रव्य ही है -
तत्र च शुद्धस्य प्रातिपदिकस्य ‘वृक्षं वृक्षेण’ इत्यादौ विभक्त्यनुगतस्य च विभक्त्यर्थानुगमेऽपि उभयत्र सत्तामात्रानुगमात् = उभयत्र प्रातिपदिकार्थे केवलायाः सत्ताया विशेषणतयाऽनुगमात्=उभयत्र प्रातिपदिकार्थे केवलायाः सत्ताया विशेषणतयाऽनुगमात् सत्ताया एव प्रातिपदिकार्थत्वनिश्चयः। निराधिकरणा च सत्ता न सम्भवतीति द्रव्याधिकरणैव = द्रव्यनिष्ठतया = द्रव्यविशेषणतया च प्रतीयमानैव सा प्रातिपदिकार्थः। यतस्तावत्यर्थे=सत्ताविशिष्टद्रव्यरूपेऽर्थे प्रत्ययनिरपेक्षः प्रातिपदिकरूपः शब्दः।[28] |
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निष्कर्ष |
‘वचन’ शब्द
संख्यावाचक है अतः ‘एक’ ‘द्वि’
इत्यादि संख्यावाचक पदों से प्रथमा का विधान होता है।[29]
द्वितीयादि विभक्तियां क्रमशः कर्मादि अनुक्त कारकों में की जाती
हैं। ‘मात्र’ शब्द अवधारणवाचक है
इसलिए कर्मादि से विशिष्ट द्रव्य में प्रथमा विभक्ति नहीं की जाती।[30] |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. अष्टाध्यायी, 1.4.104 |