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जुलाहा ही परमात्मा | |||||||
God Is The Weaver | |||||||
Paper Id :
17996 Submission Date :
2023-08-14 Acceptance Date :
2023-08-22 Publication Date :
2023-08-25
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सारांश |
कबीर हो जाना आसान नहीं है। लेकिन कबीर तो आसान हैं। इतने ज्यादा साधारण हैं, जितने की उसके राम। दोनों ही जुलाहे, एक थोड़ा छोटा जुलाहा, एक थोड़ा बड़ा जुलाहा। काम दोनों का एक ही। अपने राम के भरोसे सब कुछ छोड़ने वाले। जीवन से भागने वाले नहीं जीवन को अपने राम की मरजी पर जीने वाले। कबीर जैसी समझ, समझ से ही लानी पड़ेगी।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | It is not easy to become Kabir. But Kabir is easy. He is as simple as his Ram. Both the weavers, one a little smaller weaver, one a little bigger weaver. The work of both is the same. Those who leave everything in the trust of their Ram. Those who don't run away from life, live their life according to the wish of their Ram. Understanding like Kabir has to be brought through understanding only. | ||||||
मुख्य शब्द | जुलाहे, भरोसे, मरजी, समझ, कबीर। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Weavers, trust, will, understanding, Kabir. | ||||||
प्रस्तावना | कबीर अनूठे हैं।
प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। कबीर से ज्यादा साधारण आदमी
खोजना कठिन है। कबीर निपट गंवार हैं। गंवार के लिए भी आशा हैं,
क्योंकि वे पढ़े-लिखे हैं। पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी
सम्बन्ध नहीं है। कबीर के जाति-पाँति का कोई ठिकाना नहीं है। यही कारण है कि
जाति-पाँति से परमात्मा का कुछ लेना देना नहीं है। कबीर जीवन भर गृहस्थ
रहे-जुलाहे। बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे। घर छोड़ हिमालय नहीं गए। घर पर ही
परमात्मा आ सकता है। हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी नहीं छोड़ा और सभी
कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती। कबीर के जीवन में कोई भी
विशिष्टता नहीं है। यही कारण है कि विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी। आत्मा का
सौन्दर्य नहीं। कबीर न धनी है, न ज्ञानी है, समादृत हैं न शिक्षित हैं। न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परम
ज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई
जरुरत नहीं। इसलिए कबीर में बहुत आशा है। यही बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं
किया तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी क्योंकि बुद्ध की बड़ी
उपलब्धियाँ हैं, पाने के पहले। बुद्ध सम्राट है। धन से
छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास धन है, उसे उस सबकी व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब की बड़ी कठिनाईयाँ है। धन
से छूटना। जिसके पास है ही नहीं उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा बुद्ध को पता चल
गया था। तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है,
इसे जानने से पहले, कम से कम उसका अनुभव
तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है
कहाँ? तुम हमेशा अभाव में जिये हो तुम हमेशा झोपड़े में
रहे हो। महलों में आनन्द नहीं है। तुम कैसे कहोगे तुम कहते भी रहो, यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज नहीं होगी। यह दूसरों से सुना हुआ सत्य
होगा। गहरे में सब तुम्हें पकड़े ही रहेगा। |
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अध्ययन का उद्देश्य | शोध लेख का उद्देश्य
जुलाहा की परमात्मा है। आत्मा-परमात्मा में कोई भेद नहीं है। उनका ईश्वर परमात्मा
अलख निरंजन है। उनका राम वह है जो सनातन तत्व है। गोरख वह जो ज्ञान से गम्य है।
महादेव जो मन को जानता है। सिद्ध वह है जो इस चराचर दृश्यमान जगत का साधक है। नाथ
वह है जो त्रिभुवन का एक मात्र यतिया योगी है। जगत के जितने साधक है सिद्ध हैं,
पैगम्बर हैं, वे इस एक की पूजा करते
हैं। अनन्त हैं, उसके नाम अपरंपार। उसका स्वरुप वही कबीर
दास का भगवान है यानी कबीर के राम को हर कोई अपनी भावना, अपनी
कल्पना के अनुसार अपना सकता है। उदाहरणार्थ-सागर में तैरते मटकै से देते हैं। मटके
में भी वहीं जल है जो सागर मैं है। कबीर के इष्ट जुलाहा हैं। जुलाहा निर्गुण
ब्रह्म है। ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है। ब्रह्म अपनी सृष्टि में निर्गुण है।
लोहू झूठ है, चाम झूठ है, सच्चा
है वह- ‘‘राम’’ जो इस सारे शरीर
में रम रहा है। |
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साहित्यावलोकन | कबीर गरीब हैं। सत्य को जान गये। धन व्यर्थ है। कबीर के पास साधारण सी पत्नी
है। जान गये कि सब राग-रंग, सब वैभव-विलास सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है। कबीर के पास
गहरी समझ है। वैसे बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है। बात, कबीर की तो समझ से ही लानी पड़ेगी। कबीर ने कहा,
जब परमात्मा इतना बड़ा ताना-बाना बुनता हैं। संसार का और लज्जित नहीं
होता तो मैं गरीब छोटा सा ही काम करता हूँ। क्यों लज्जित होऊँ। जब परमात्मा इतना
बड़ा संसार बनाता है- जुलाहा ही परमात्मा। मैं भी जुलाहा, मैं
थोड़ा छोटा जुलाहा, वह जरा बड़ा जुलाहा। और जब वह छोड़ के नहीं
भाग गया, मैं क्यों भागूं। मैंने उस पर ही छोड दिया है। जो
उसकी मरजी। अभी उसका आदेश नहीं मिला कि बंद कर दो। वे जीवन के अंत तक, बूढ़े हो गये तो भी बाज़ार बेेंचने जाते रहे। लेकिन उनके बेचने में बड़ा भेद
था। साधुता थी। कपड़ा बुनते थे। तो वे बुनते वक्त राम की धुन करते रहते। इधर से
ताना उधर से बाना डालते, तो राम की धुन करते। कबीर जैसे व्यक्ति जब कपड़े के ताने-बाने में राम की धुन करें,
तो उस कपड़ें का स्वरुप ही बदल गया। उसमें जैसे कि राम को ही बुन
दिया। इसलिए कबीर कहते हैं- झीनी-बीनी रे चदरिया। और कहते है बड़ी लगन से और बड़ी
प्रेम से बीनी है। और जब जाते बाजार में, तो ग्राहकों से
कहते कि राम, तुम्हारे लिये ही बुनी है। बहुत सम्भाल के बुनी
है। उन्होंने कभी किसी ग्राहक को राम के सिवा और दूसरा कोई सम्बोधन नहीं किया। वे
ग्राहक राम हैं। यह इसी राम के लिए बुनी है। वे ग्राहक नहीं है और कबीर कोई
व्यवसायी नहीं है। कबीर व्यवसाय करते रहे और सादे हो गये। उन्होंने सादगी को अलग
से नहीं साधा। अलग से साधोगो तो जटिल हो जायेगी सादगी साधी नहीं जा सकती। समझ
सादगी बन जाती है। कबीर अपने को परमात्मा की मरजी पर छोड़ दिया। सुबह लोग भजन के
लिए इकक्ठ्ठे हो जाते, तो कबीर उनसे कहते कि ऐसे मत चले जाना,
खाना लेकर जाना। पत्नी बच्चे परेशान थे। कहाँ से इतना इन्तजाम करें।
उधारी बढ़ती जाती है। कर्ज़ में दबते जाते है। रोज रात में कमाल कबीर का लड़का,
उनसे कहता कि अब बस हो गया। अब कल किसी से मत कहना। कबीर कहते हैं जब तक वह कहलाता है, तब तक हम क्या करें। जिस दिन वह बंद की
देगा, कहने वाला कौन! हम अपनी तरफ से कुछ करतेे नहीं और तुम
क्यों परेशान हो? जब वह इतना इन्तज़ाम करता है यह भी करेगा।
इसी तरह कबीर की नज़र में धर्म है। धर्म के वर्चस्व को चुनौती देने
वाला दूसरा तत्व हैं, स्त्री! स्त्री पुरुष का प्यार,
प्यार धर्म, जाति और समाज की हर वर्जना को
तोड़कर विद्रोह की घोषणाएं करता रहा है। लैला-मंजनूं, शीरी-फरहाद,
हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट जैसों की न जाने
कितनी ऐसी कहानियाँ हैं, जहां प्रेमियों ने एक-दूसरे के साथ
मृत्यु का वरण किया है। औरतें संगसार हुई हैं। आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में न
जाने कितनी जोड़ियों पर जाति की मर्यादाओं के कुल्हाड़े पड़े हैं। इस कहते हैं ऑनर
किलिंग (इज्ज़त के लिए हत्या) ऐसी घटनाएँ सारे देश में रोज घटित होती रहती हैं।
जिनकी सूचनाएँ बाहर नहीं आ पातीं, मैं इसे धर्म का शत्रु
मानता हूँ। अपने अनजाने ही स्त्री ने पुरुष के साथ मिलकर धर्म के वर्चस्व को जो
चुनौती दी है, उसी का दूसरा नाम प्यार है। सारे धिक्कार
इसीलिए शायद नारी के ही खाते में है कि पुरुष को अपने जाल में फँसाकर ईश्वर के
खिलाफ खड़ाकर देती है। भले की इसके लिए स्वयं उसे मर मिटना पड़े। सारे महा युद्धों
की जड़ में स्त्री ही है। हिन्दू धर्म में तो स्त्री त्याग को ही सर्वोच्च साधना का
नाम दिया गया है। रामकृष्ण से लेकर बुद्ध भागीरथ सभी स्त्रियों से भागकर ही महान
बने हैं। हांलाकि देव शिव हमेशा पार्वती के साथ हैं। उसी के लिए दक्ष का राज्य
ध्वस्त कर देते है। इतिहास में तो ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जब
स्त्री के लिए राजाओं ने युद्ध किये हैं-पद्मावत या पृथ्वीराज रासो का उदाहरण के
लिए देखा जा सकता है। हो सकता है स्त्री सिर्फ बहाना हो और युद्ध राज्यगीत ने के
लिए किये गये हों जैसा कि वाल्मिकी रामायण में लंका विजय के बाद राम सीता से कहते
हैं- हे सीते मैंने तुम्हारे लिये लंका विजय नहीं की। आर्य धर्म की स्थापना के लिए
रावण बध किया है। वैसे भी जोरु के लिए ही जर जमीन की जरुरत पड़ती है। अपनी नस्ल की
शुद्धता और उत्तराधिकार के लिए स्त्री अनिवार्य है, प्यार
ऐसा विद्रोह है जो न जाति देखता है न धर्म, न देश, देखता है, न समाज, वह इन सबके
पार जाने वाली हवा है। वह हर मर्यादा को तोड़ता है, सामन्ती
व्यवस्था अर्थात् धर्म से व्यक्ति का विद्रोह आगे जाकर समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व की घोषणा के रुप में बदलता विकसित होता है।
लोकतंत्र की अवधारणा, धार्मिक दमनकारी व्यवस्था को तोड़ती है
चूंकि धर्म एक सामंती व्यवस्था में ही फलता-फूलता है इसलिए सारा सामाजिक ढ़ाँचा उसी
गैर बराबरी की वकालत में बना है। सही है ईश्वर राजा की निगाह में सब बराबर हैं।
मगर धर्म राज्य में कोई भी दो व्यक्ति बराबर नहीं है। वे अपनी गैर बराबरी में ही
में ही बराबर हैं। शासक और शासित, शोषक-शोषित के अधिकार और कर्म क्षेत्र एक ही नहीं है, हिन्दू धर्म में तो इसे गैर बराबरी को कर्मों के फल और परलोक से जोड़ दिया
गया है। वहाँ व्यक्तिगत प्रयासों की कोई गुजांइश की नहीं है। सब कुछ पहले से ही तय
है। इस्लाम या दूसरे धर्मों में दास अपनी कीमत देकर सम्मानित नागरिक बन सकता है।
मालिक की क्षमा भी उसे इस अभिशाप से मुक्ति दे सकती है। मगर हिन्दू धर्म में
व्यक्ति और समाज दोनों असहाय और निरुप्राय हैं। प्रारम्ध दोनों को जन्म-जन्मांतर
की बेड़ियों में बाधे हैं। अपने धर्म निर्धारित कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन
करने पर ही दास या शूद्र अगले जन्म में इस योनि से मुक्त हो पाता है। हाँ हिन्दू
धर्म में सांस लेने की थोड़ी सी जगह यह है कि वह एक किताब या व्यक्ति द्वारा
निर्धारित, नियंत्रित नहीं है। इसलिए वहाँ विविधताओं के लिए
सहिष्णुता और स्थान है। जब किताब और व्यक्ति धर्म के स्रोत होते हैं तो तानाशाही
या डिक्टेटरशिप की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। दरअसल 21वीं सदी के दौर में जिस तरह समाज में धर्म, जाति, नस्ल, सम्प्रदाय को लेकर
कट्टरता और विद्वेष की भावना फल-फूल रही है। यह मसला गंभीर है। जैसा कि कबीर कहते
हैं- हमरा झगरा रहा न कोऊ। प्रंडित मुल्ला छाड़ै दोऊ।। यह परिवर्तन बाह्य नहीं अपितु, आंतरिक था। मानवता विरोधी कबीर की चेतना
थी। अपनी लुकाठी लेकर निशाना साधा। एक निर्भीक योद्धा की भांति कबीर मैदान में डटे
रहे, उन्होंने भय से अपने पाँव कभी पीछे नहीं खीचें, निरन्तर प्रश्नों की बौझार करते रहे। एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा। वे अपने तर्क से समस्त भेद को अस्वीकृत कर देते हैं। वह चाहे वेद कुरान हो या
स्त्री पुरुष, ब्राह्मण-शूद्र इत्यादि भेद को स्वीकार नहीं करते। क्योंकि वे
एक ही ज्योति से सबको उत्पन्न हुआ मानते है। कबीर तत्कालीन समाज में व्याप्त समस्त
बाह्याडंबरों, रूढ़ियों की विशेष खबर ली- मन न रंमायें,
रंगाये जोगी कपड़ा उनका मानना हैं कि अन्तःकरण करना की पवित्रता और
परिवर्तन शीलता से है। जैसे बगुले और हंस में होता है। उनके राम सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अनंत, अखण्ड है जो
घर घर में व्याप्त हैं। जिससे सारा झगड़ा अलगाव-विलागव यही पर समाप्त हो जाता है।
बात बहुत सहज है। इस बात को न उनके समय में स्वीकार किया जा सका न वर्तमान में।
उनके प्रश्न विचार, दर्शन सभी प्रश्चचिन्ह की भांति आज भी
लटकेे हुए हैं। मनुष्य उनके सभी प्रश्नों का हल कर सकता है। किन्तु वहां से जाकर
वह लौट आता है। अनेकानि लोभ, लाभ भ्रम, कट्टरता एवं विद्वेष की भावना से ग्रसित होने के कारण वह सही को सही नहीं
कह पाता है। जैसा कि- जुगन जुगन समुझावा हारा कही न
मानत कोई रे। कबीर ने कभी भी मध्य मार्ग को नहीं अपनाया। समाज एवं धर्म के ठेकेदारों से
समझौता नहीं किया। भले ही वे अपने इस रणक्षेत्र में अकेले खडे़ रहे। किन्तु पूरी ऊर्जा के साथ आजीवन अध्यात्मिक, सामाजिक क्षेत्र की रूढ़ बेड़ियों को तोड़ने
में लगे थे। दरअसल कबीर के व्यक्तित्व का ‘‘बागी पक्ष’’ उन्हें
अकेला खड़ा कर देता है, उनके अंदर इनकार की पराकाष्ठा है,
जैसे- पंडितमुल्ला जो लिखदिया छाड़ि चले हम कछू न लिया। कबीर भले ही
कहीं पर ‘‘जाति जुलाहा’’ से स्वयं का
परिचय करवाते हैं, किन्तु वह परिचय मात्र समाज में व्याप्त
जातिगत दंभ के समक्ष स्वाभिमान की चेतना को जाग्रत करता है, जहाँ
पर कोई ही न भावना नहीं है, ‘‘जाति जुलाहा’’ उनके कर्म की एक पहचान है उससे ज्यादा
कुछ नहीं। इसलिए जुलाहा की परमात्मा है। यही कारण है कि कबीर की निर्भीकता बेजोड
थी। इन सूली चढ़ने का डर था, न एकांकीपन का तनाव, वे अदम्य साहस और उत्साह को धारण किये हुए थे। जो किसी परिस्थिति में
उन्हें झुकने नहीं देती थी। कबीर को झुकना वही पसंद था, जहाँ
प्रेम और सच्ची मानवता हो। आज के समय में कबीर तमाम आघातों, और
प्रतिरोधों से घिरे नजर आयेंगे। जिन समस्याओं के खिलाफ उन्होंने तत्समय मुठभेड़
किया, वह आज भी गहरी जड़े जमाए हुए हैं। जिसे उखाड़ना या कमजोर
करना दुष्कर और दुरुह है। धर्मगत, संप्रदायगत, और जातिगत मदांधता मनुष्य को मानवीय गुणों से हीन कर देता है। वर्तमान
समाज निरतंर रसातल की तरफ अग्रसित है। जबकि कोई भी धर्म किसी का अहित करने के
उद्देश्य से नहीं बना है। न किसी को नीचा दिखाने के लिए आज धर्म का उपयोग राजनीति
के सीढ़ी की तरह किया जा रहा है। विभिन्न राजनीतिक दल धर्म और जाति का स्टीकर लगाकर
वोट बैंक बना रही है। उन्हें वास्तविक रूप से समाज से कोई लेना देना नहीं है।
अपितु अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। भारतीय संस्कृति की जो थाती थी, वह हमसे विलग हो रही है। कबीर सहज में आस्था रखने वाले मानवता वादी व्यक्ति
थे। इस्लाम को स्वीकारने पर भी मजहबी कट्टरता से वह कोसों दूर थे। हृदय की स्वच्छ
कसौटी पर विवेक की जो खरी लीक बनती उसे ही कबीर साहब सही मानते। अनुभव की तुला पर
तथ्य और सत्य की परख कर ग्रहण या त्याग की पद्धति ही उनका जीवन क्रम बन गया था।
संत कबीर उत्तर भारत में ऐेसे अनोखे और विलक्षण संत थे, जो
नकार और प्रतिरोध के साथ जन सामान्य में अपना अमिट छाप छोड़ते हैं। संत कबीर नकार और प्रतिरोध के साथ जनसामान्य में अपना अमिट छाप छोड़ते हैं। यह
छाप पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुई है। इसका उदाहरण वर्तमान समय है। कबीर को सुनना
नहीं चाहता, अपितु सुनकर भी मनुष्य उसे आत्मसात नहीं करना चाहता, क्योंकि ऐसा करने में समस्त विवाद स्वयं सूलझ जाएंगे कहते हैं- ‘‘जन धंधा रे जग धंधा’’, कबीर ने चिल्ला-चिल्लाकर हाथ
में लुकारी लेकर चेताया, इससे बात नहीं बनी तो रोकर दयनीय
भाव से जाग्रत करने का प्रयास किया। कबीर अपने विचार को इतनी स्पष्टता के साथ
इसीलिए रख पाए, क्योंकि वह किसी भी खेमे में शामिल नहीं थे।
और न किसी रूढ़, विचार, धर्म, सम्प्रदाय ने उन्हें स्पर्श कर पाया, न पचा पाया।
मध्यकाल और नैराश्य और अंधकार का युग था। जो आततियों के गुलामी से जकड़ा हुआ था। इस
बीच हम अपनी उर्वर अमूर्त-तत्वों की अनदेखी करते जा रहे हैं। ऐसी अवधारणाओं के बीच
घिसे जा रहे हैं। जिसे कबीर दास ने बिना गांठ का फंदा
कहा। कबीर ने कितना साहस किया होगा, इन दोनों पंथों से परे
हटने का और यह निर्णय उन्होंने तभी लिया होगा, जब इन्हें
खोजने पर भी दूसरा मार्ग न मिला होगा। इन्होंने समाज को चेताया, समझाया, डॉटा, फटकारा किन्तु
जब असर होते न देखा तब जाकर इन दोनों की धर्म के ठेकेदारों से नाता तोड़ लेते हैं।
इसके बाद झगड़ा की किस बात का रहता। वर्तमान समय में
लोभ, लालच, ईर्ष्या, अहिंसा, काम, क्रोध, अनैतिकता व्याप्त है। जिसकी कबीर और अन्य भक्त संतों ने मानव आचरण में
निषेघ माना। कबीर कहते हैं- सुखिया यह संसार है खावे और सोवे। दुःखिया दास कबीर हैं, जागे अरू रोवे।। अर्थात् कबीर इस संसार को सुखी बताते हैं। इसमें रहने बोले मनुष्य निरतंर सुख
भोग रहे हैं। उन्हें खाने और सोने के अतिरिक्त कोई चिन्ता नहीं है। इस संसार में
दुखिया मात्र कबीर है, जो निरंतर जागकर समाज के लिए रो रहे हैं। कबीर का यह
रोना-जागना समाज के सामान्य मनुष्य का रोना जागना नहीं है। उनका रोना जागना तो
सम्पूर्ण विश्व को समेटे हुए है। सारे संसार में मुक्ति की चेतना, ही उनकी प्रसन्नता का द्वार है। कबीर कहते हैं- हम घर जाल्या आपर्णा,
लिया मुराड़ा हाथि। मैंने तो अपना घर जला दिया, तमाम विषमताओं, अवरोधों, लोक-लाज, ईर्ष्या, द्वेष से
मुक्त हो गया हूँ। अब उनका घर फूकूँगा जो इन सबसे मुक्ति की आंकाक्षा रखता है।
मेरे साथ चलना चाहता है। कबीर ने सत्य, सहज, सरल विशेष ध्यान दिया। कबीर मनुष्यों में प्रेम को प्रतिस्थापित करना चाहते थे। उसे स्नेह की डोर से
जोड़ना चाहते थे। क्योंकि प्रेम की ऐसा तत्व है। जिसके द्वारा हम तमाम उलझनों, आपसी
विद्वेष एवं बैर भाव से मुक्त हो सकते हैं। निःसंदेह
कबीर वाणी के हृदयंगम करने से हम तमाम अवरोधों-विरोधों से मुक्त हो सकते हैं।
जिससे समाज में नहीं चेतना भी शान्ति के स्थापना संभव हो पायेगी। |
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निष्कर्ष |
कबीर के निर्गुण राम
को प्राप्त करना जितना कठिन है उतना ही सरल भी! कबीर के राम की भक्ति के लिए आत्म
तत्व मन की पवित्रता विश्वास, उदारता की
आवश्यकता है। क्योंकि उनके राम मंदिर, मस्जिद, काबा योग साधना से नहीं मिलेंगे उनके इष्ट तो मन में हैं। हर प्राणी के
श्वास में हैं। जहाँ जीवन है वही राम हैं। जो सहज आनन्द की ओर अग्रसर करता है।
यानी जुलाहा है। परमात्मा हैं। यहाँ जुलाहा जाति नहीं है। जुलाहा सब जगह व्याप्त
हैं। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. नया हिन्दुस्तान, धर्मक्षेत्रे, वाराणसी 30 मई 2023, पृ0 13 कबीर
जयन्ती (4 जून) पर विशेष -ओशो 2. हंस- मई 2023, पृ0 5-6 धर्म के दुश्मन, राजेन्द यादव 3. साहित्य अमृत-हमरा झगरा रहा न
कोऊ, पंडित मुल्ला छाडै दोऊ, संतनवीर-
कविता सरोज, पृ0 56-57 4. वही, पृ0
57 5. वही, पृ0
58 6. वही, पृ0
59 7. आजकल जून 2023, पृ0 11 कबीर साहित्य में राम, अजयकुमार |