ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- V August  - 2023
Anthology The Research

सूर्य मन्दिर का स्वरूप: भविष्यपुराण के विशेष सन्दर्भ में

Form of Sun Temple: With Special Reference to Bhavishyapuran
Paper Id :  18073   Submission Date :  14/08/2023   Acceptance Date :  21/08/2023   Publication Date :  25/08/2023
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DOI:10.5281/zenodo.8363478
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धर्मेन्द्र कुमार तिवारी
विषय विशेषज्ञ
प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

हिन्दू धर्म में मन्दिरों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। मन्दिर आम-जनमानस की आस्था के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। हिन्दू मन्दिरों को प्रतीक अथवा प्रतीकों का समन्वय माना गया है। मन्दिरों को मनुष्य का प्रतिरूप मानते हुए उसके शरीर के विभिन्न अंगों के नाम के अनुरूप ही, शिखा से लेकर पाद तक, मन्दिर के अंगों का नामकरण किया जाता है। भारत में प्राचीन काल से वर्तमान तक निरंतर मन्दिर बनवाने की परम्परा प्रचलन में रही, जिनमें लगभग सभी प्रमुख देवताओं (विष्णुु, शिव, शक्ति, सूर्य आदि) के सम्मान में बनवाए हुए मन्दिर आज भी भारत के सभी दिशाओं से प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत लेख में प्राचीन भारत में सूर्य के सम्मान में बनवाए गए मन्दिरों का संक्षिप्त उल्लेख करते हुए भविष्यपुराण में वर्णित सूर्य-प्रासाद लक्षण अथवा सूर्य मन्दिर के स्वरूप का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Temples have an important place in Hindu religion. Temples have been the main centers of faith of the common people. Hindu temples are considered symbols or coordination of symbols. Considering temples as the replica of man, the parts of the temple are named according to the names of various parts of his body, from the crest to the foot. The tradition of building temples has been continuously prevalent in India from ancient times to the present, in which temples built in the honor of almost all the major deities (Vishnu, Shiva, Shakti, Surya etc.) are still available from all directions of India.
In the presented article, a detailed description of the Surya-Prasad Lakshan or the nature of the Sun Temple described in the Bhavishya Purana has been presented, giving a brief mention of the temples built in honor of the Sun in ancient India.
मुख्य शब्द भविष्यपुराण, सूर्य-प्रासाद लक्षण, सूर्य मन्दिर, मूलस्थान, अग्नि पूजक मग, विष्णुु, शिव, शक्ति, सूर्य, साम्ब, मन्दसौर शिलालेख, पूर्वाभिमुख, पश्चिमाभिमुख।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Bhavishyapuran, Surya-Prasad signs, Sun temple, Moolsthan, fire worshipper's mug, Vishnu, Shiva, Shakti, Surya, Samba, Mandsaur inscription, east-facing, west-facing.
प्रस्तावना

वैदिक समाज में सूर्य और उनके रूपों की महत्ता स्थापित हो चुकी थी, किन्तु वैदिक धर्म में मन्दिरों का कोई स्थान नही था। भविष्य, साम्ब तथा बाद के अन्य पुराणों में मूलस्थान (मुल्तान) के सूर्य मन्दिर का उल्लेख मिलता है, जिसमें ईरान के सूर्य-अग्नि पूजक मगों की विशेष भूमिका थी।[1] गया जिले के गोविन्दपुर के (शक संवत् 1059) अभिलेख में भी साम्ब द्वारा मगों को देश में लाए जाने का वर्णन है। यह मग प्राचीन ईरान के सूर्य उपासक मगिथे। इस तथ्य से परिचित अल्बेरूनी ने भी लिखा है कि-’’प्राचीन ईरानी पुरोहित भारत आए और वे यहां मग नाम से जाने गए।’’[2] इससे स्पष्ट होता है कि सूर्य मन्दिरों के विकास में विदेशी प्रभाव की प्रमूख भूमिका थी।

अध्ययन का उद्देश्य प्राचीन भारत के विभिन्न राजवंशों द्वारा निर्मित करवाए गए सूर्य मन्दिरों की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करते हुए भविष्यपुराण में वर्णित सूर्य-प्रासाद लक्षण अथवा सूर्य मन्दिर के स्वरूप का विस्तृत विवरण प्राप्त करना ही इस लेख का प्रमुख उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

पुराण, उत्तर भारत के मन्दिर, दक्षिण भारत के मन्दिर, सूर्योपासना और ग्वालियर का विवस्वान मन्दिर, खजुराहो की देव प्रतिमाए, सन् वर्शिप इन एन्शेन्ट इन्डिया।

मुख्य पाठ

भारत में सूर्य मन्दिरों के निर्माण का निर्विवाद प्रमाण गुप्तकाल से मिलने लगता है। इन मन्दिरों का निर्माण विदेशी प्रभाव परिणाम स्वरूप ही हुआ ज्ञात होता है।[3] गुप्तकालीन शासक कुमारगुप्त प्रथम और बन्धुवर्मन के मन्दसौर शिलालेख में दशपुर के जुलाहों की एक श्रेणी द्वारा सूर्य मन्दिर निर्मित किए जाने का उल्लेख है। स्कन्दगुप्त काल के इन्दौर ताम्रपत्र अभिलेख से विदित होता है कि इन्द्रपुर (बुलन्दशहर, उ.प्र.) में एक सूर्य मन्दिर था। हूण शासक मिहिरकुल के ग्वालियर शिलालेख में गोप (ग्वालियर) पहाड़ी पर मातृचेट द्वारा निर्मित किए गए एक अन्य सूर्य मन्दिर का उल्लेख हुआ है। मगध के उत्तरगुप्त शासक जीवितगुप्त द्वितीय के समय के देववर्णाक अभिलेख से भी आरा (बिहार) से पचासी मील दक्षिण-पश्चिम में एक सूर्य मन्दिर के होने की सूचना मिलती है।[4] राष्टकूट शासक गोविन्द के काम्बे लेख में कालप्रियनाथ का सन्दर्भ आया है, जो सम्भवतः कालपी (जालौन, उ.प्र.) के प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर को ही इंगित करता है। कायरा प्लेटों (684 ई.) में भारद्वाज गोत्रीय आदित्य रवि को सूर्य मन्दिर के निमित्त दान दिए जाने का उल्लेख है तथा संखेड़ा प्लेट (642 ई.) सूर्य के निमित्त, भारद्वाज गोत्रीय एवं वाजसनेयी मध्यान्दिन शाखा के सूर्य नामक ब्राम्हण को दान दिए जाने का उल्लेख करती है।[5]

इनके अतिरिक्त समस्त मध्ययुगीन भारत में अनेक सूर्य मन्दिरों का निर्माण हुआ। ऐेसे अनेक मन्दिर विशेषकर पश्चिम भारत में मुल्तान से कच्छ एवं उत्तरी गुजरात तक पाए गए हैं, जिनमें मोढेरा (गुजरातद्ध का मन्दिर) (1026-1027ई.) विशेष दर्शनीय है। इसी प्रकार भारत के पूर्वी छोर में प्रचलित सूर्य मन्दिरों की इस परम्परा का प्रत्यक्ष उदाहरण कोणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर है। मध्यभारत के पूर्वमध्ययुग के दो सूर्य मन्दिर दर्शनीय हैं- एक है मंखेरा (जि. टीकमगढ़) में जिसका निर्माण प्रतीहार शासकों ने करवाया था और दूसरा है खजुराहो (चित्रगुप्त मन्दिर) में जो चंदेल शासकों द्वारा निर्मित हुआ था। दक्षिण भारत में भी मध्यकालीन सूर्य मन्दिर उपलब्ध हैं, किन्तु वहां विदेशी प्रभाव युक्त सौर सम्प्रदाय का उत्तर भारतीय रूप प्रचलित हुआ नहीं प्रतीत होता है।[6] भविष्यपुराण चार मुख्य पर्वों ब्राम्ह, मध्यम, प्रतिसर्ग और उत्तर में विभाजित है। इसके ब्राम्ह पर्व (अध्याय-130) में सूर्य-प्रासाद (मन्दिर) लक्षण (स्वरूप) का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसमें नारद जी साम्ब को बताते हैं कि- ’’वर्षा ऋतु के प्रारम्भ और समाप्ति के पश्चात भी जो स्थान जल से परिपूर्ण रहता हो उसी जलाशय के तट पर स्थित देव मन्दिर में यश और धर्म की वृद्धि हेतु[7] देवताओं का निवास होता है।’’[8] चौसठ पग (पैरद्ध का लम्बा) विशाल प्रासाद जिसके मध्य भाग में चौकोर दरवाजा स्थित हो, सूर्य के लिए उत्तम माना जाता है।[9] प्रासाद (मन्दिर) की उंचाई विस्तार से दो गुनी और तिहाई भाग के समान ऊँचाई वाला उसका कटि (मध्य) भाग होना चाहिए।[10] विस्तार के पहले आधे भाग में मन्दिर का गर्भगृह और दूसरे भाग में चारों ओर की दीवाल होनी चाहिए। गर्भगृह के चौथाई भाग के बराबर की ऊँचाई अथवा उसके दूने ऊँचाई का दरवाजा होना चाहिए।[11] सूर्य के लिए बीस प्रकार के भवन बनाए जाने का उल्लेख है।[12] इनमें मेरु, कैलाश, विमान, समुद्र, पद्म, गरुड़, नन्दिवर्द्धन, कुंजर, वृष, हंस, सर्वतोभद्र, घट, सिंह, चतुष्कोण, मन्दर और नन्दन प्रकार प्रमुख हैं।[13] इन प्रासाद प्रकारों में गृहराज और सर्वतोभद्र प्रकार सूर्य के लिए सर्वोत्तम माने जाते हैं।[14] गृहराज नामक प्रासाद सोलह हांथ लम्बा और चन्द्रशालाओं से युक्त होता है।[15] जबकि सर्वतोभद्र नामक प्रासाद चार दरवाजे, अनेक शिखरों एवं रुचिर चन्द्रशालाओं से पूर्ण और छब्बीस हांथ की लम्बाई युक्त होता है।[16] सूर्य मन्दिर निर्माण के पूर्व नगर के मध्य भाग या दिशा के पूर्व भाग में अथवा पूरब वाले दरवाजे के समीप वाली भूमि का परीक्षण करना चाहिए।[17] जिस प्रकार मेघ और नगाड़े की भांति शब्द सुनाई पड़ने वाली, जहां सभी प्रकार के बीज अंकुरित हो सकें और सुगन्ध रस से युक्त भूमि मन्दिर हेतु प्रशस्त मानी जाती है। इसी प्रकार रेह, तुष (भूसी), केश, अस्थि, खार, कोयले वाली भूमि अप्रशस्त मानी जाती है।[18] सूर्य मन्दिर निर्माण हेतु शुक्ल, रक्त, पीत और काली भूमि क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए उत्तम मानी गई है।[19] प्रासाद (मन्दिर) का दरवाजा पूर्वाभिमुख होना चाहिए, परन्तु किसी कारणवश यदि ऐसा सम्भव न हो तो पश्चिमाभिमुख भी कर लेना चाहिए किन्तु प्रयत्न पूरब दिशा की ओर ही होना चाहिए।[20] सूर्य प्रासाद के दाहिने पार्श्व में स्नानगृह और उत्तर की तरफ अग्निहोत्र गृह का निर्माण होना चाहिए।[21] सूर्य के पश्चिम की तरफ ब्रम्हा और उत्तर की तरफ विष्णु की स्थापना करनी चाहिए।[22] सूर्य के दाहिने पार्श्व में निम्ब (निक्षु) और बाएं पार्श्व राज्ञी को स्थापित करना चाहिए। उसी प्रकार दाएं-बाएं पार्श्व मे क्रमशः पिंगल और दण्ड की भी स्थापना होनी चाहिए। सूर्य के सम्मुख श्रीमहाश्वेता को स्थापित करना चाहिए।[23] प्रासाद के बाहर अश्विनी कुमार, दूसरी कक्षा में राजा स्रौव और तीसरी कक्षा में कल्मास तथा पक्षी की स्थिति होनी चाहिए।[24] दक्षिण दिशा में जड़ (जानु) एवं कामचर और उत्तर की तरफ कुबेर, पुनः उसके उत्तर में विनायक सहित रैवत को स्थापित करना चाहिए।[25] इसके पश्चात किसी भी दिशा में जहां स्थान दिखाई पड़े स्कन्द (गुह) सहित अन्य देवताओं को स्थापित करना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर दिशा में (दाएं-बाएं पार्श्व में) अर्ध्य हेतु दो मंडल भी बनाने चाहिए।(26) मन्दिर के भीतर सूर्य की चक्राकार प्रतिमा चार शुभ कलशों के साथ किसी पीठ स्थापित करना चाहिए।[27] सूर्य-प्रासाद के अग्रभाग में चार श्खिर एवं चौकोर व्योम और उसके मध्य भाग में सूत्र द्वारा उनका मंडल बनाना चाहिए। तत्पश्चात आदित्य के सामने दिंडी की स्थापना करनी चाहिए। इसे ही सर्वदेवमय व्योम कहा जाता है।[28] यहीं पर जो स्थान रुचिकर हो, वहां कथावाचक का भी स्थान बनाना चाहिए।[29]

निष्कर्ष भविष्यपुराण के अनुसार उपर्युक्त प्रकार से सूर्य की स्थापना करके उन्हें नित्य अर्ध्य प्रदान करना चाहिए।[30] आगे वर्णित है कि उपर्युक्त प्रकार से उत्तम स्थान का चयन करके जो व्यक्ति सूर्य हेतु प्रासाद (मन्दिर) का निर्माण करता है उसे निःसंदेह सूर्यलोक की प्राप्ति होती है।[31] इस प्रकार भविष्यपुराण के उपर्युक्त संदर्भों से यह स्पष्ट होता है कि सूर्य मन्दिर निर्माण हेतु स्थान परीक्षण के साथ-साथ उपयुक्त दिशाओं का चयन भी अत्यन्त आवश्यक था जिससे भगवान सूर्य और उनके मन्दिर के प्रति श्रद्धालुओं की आस्था निरंतर बनी रहे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. चर्तुवेदी, श्रीनारायण-सूर्योपासना और ग्वालियर का विवस्वान मन्दिर, पृ.23
2. अवस्थी, रामाश्रय- खजुराहो की देव प्रतिमाएं, पृ. 163-164
3. उपर्युक्त- पृ. 164
4. उपर्युक्त
5. श्रीवास्तव, वी.सी.- सन् वर्शिप इन एन्शेन्ट इन्डिया, पृ. 376-377
6. अवस्थी, रामाश्रय- उपर्युक्त- पृ. 165
7. भविष्य महापुराणम् (अनु. पं. बाबूराम उपाध्याय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग) - 1/130/8
8. उपर्युक्त- 1/130/10
9. उपर्युक्त- 1/130/17 10. उपर्युक्त- 1/130/18
11. उपर्युक्त- 1/130/19
12. उपर्युक्त- 1/130/26
13. उपर्युक्त- 1/130/23ख-35
14. उपर्युक्त- 1/130/63
15. उपर्युक्त- 1/130/32
16. उपर्युक्त- 1/130/34
17. उपर्युक्त- 1/130/41-42
18. उपर्युक्त- 1/130/42ख-43
19. उपर्युक्त- 1/130/44
20. उपर्युक्त- 1/130/48
21. उपर्युक्त- 1/130/49
22. उपर्युक्त- 1/130/50
23. उपर्युक्त- 1/130/51
24. उपर्युक्त- 1/130/52-53
25. उपर्युक्त- 1/130/53ख-54
26. उपर्युक्त- 1/130/55
27. उपर्युक्त- 1/130/57
28. उपर्युक्त- 1/130/59-60
29. उपर्युक्त- 1/130/62
30. उपर्युक्त- 1/130/62
31. उपर्युक्त- 1/130/6