P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- XI , ISSUE- I September  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika

बहुमुखी प्रतिभा का प्रेरक: धम्मपद 

Inspiration of Versatility: Dhammapada
Paper Id :  18086   Submission Date :  10/09/2023   Acceptance Date :  16/09/2023   Publication Date :  17/09/2023
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DOI:10.5281/zenodo.8363439
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धर्मेन्द्र कुमार तिवारी
विषय विशेषज्ञ
प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ,उत्तर-प्रदेश, भारत
सारांश

निश्चय ही, सामान्य से गौतम में अनायास ही बुद्ध का आविर्भाव नहीं हो जाता, यह सतत् क्रियाशील मन-मस्तिष्क की प्रेरणा होती है कि वह पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी के दुःख में दुःख और सुख में सुख की अनुभूति करे तभी संसार के समस्त ऐश्वर्य में निरंतर रत मन भी उससे विरत होने लगता है। सामान्य जनों की दुःख मुक्ति के उपायों के अन्वेषक मन की अकुलाहट जब उसे एक दिन सांसारिक सुख वैभव से बाहर निकालती है, तभी वृद्ध, रोगी और श्मशान की ओर ले जाते हुए शव में संसार में व्याप्त समस्त कष्टों की व्यापकता का आभास होता है। उस विचलित मन को शान्ति तभी मिल पाती है जब एक साधक, संन्यासी और त्यागी पुरुष के मुख पर असीम संतोष, शान्ति और हर्ष का भाव दिखाई देता है। एक साधक के मुख पर छाए यही हर्ष के भाव ही सामान्य से गौतम को बुद्धत्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं और तभी बुद्धत्व की प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध के मुख से निकले हुए एक-एक वचन सामान्य मानव के जीवन में पग-पग पर प्रेरक बनकर उसे घोर अंधकार में आशा की एक किरण के रूप में निरंतर पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं। उनके दिए हुए दिव्य ज्ञान की आभा से जब मानव मन आप्लावित हो उठता है तभी उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ता है कि - ’’बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।’’ यह बुद्ध, धम्म और संघ की शरण ही महात्मा बुद्ध के वचन ’’अत्त दीपो भव’’ का पहला सोपान है। धम्मपद (धर्मपद) त्रिपिटक के खुद्दक निकाय विभाग के 15 ग्रन्थों में से एक है। इसमें भगवान गौतम बुद्ध के मुख से समय-समय पर निकली 423  उपदेश गाथाओं का संग्रह है। जिसमें सर्वाधिक उपदेश श्रावस्ती में दिए गए हैं। मूल पालि में रचित धर्मपद एक विविध और प्रकीर्ण संग्रह प्रतीत होते हैं।  चीनी, तिब्बती आदि भाषाओं के पुराने अनुवादों के अतिरिक्त आधुनिक दुनिया की लगभग सभी सभ्य भाषाओं में इसके अनुवाद मिलते हैं। चीनी त्रिपिटक में धर्मपद के चार अनुवाद प्राप्त होते हैं। धर्म के लिए पालि में दूसरा शब्द सुत्त’ (सूक्त,सूत्र) या सुत्तन्तभी आया है। वस्तुतः धर्म शब्द धृधातु से बना है, जिसका तात्पर्य है- धारण करना, आलम्बन देना या पालन करना। 

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Certainly, Buddha does not spontaneously emerge from an ordinary Gautama, it is the inspiration of the continuously active mind and brain that it experiences sorrow in the sorrow of every living being on earth and happiness in the happiness, only then there is continuous prosperity in all the opulence of the world. At night even the mind starts turning away from it. When the restlessness of the mind, searching for ways to get rid of the sorrows of the common people, one day takes him out of the worldly happiness and splendor, then he realizes the vastness of all the sufferings prevailing in the world in the old, sick and dead body being taken to the crematorium. That disturbed mind gets peace only when a feeling of immense satisfaction, peace and joy is visible on the face of a seeker, a monk and a renunciant. It is these expressions of joy on the face of a seeker that inspire ordinary Gautam to move towards enlightenment and only then, after attaining Buddhahood, each and every word coming from the mouth of Lord Buddha becomes a part of every step in the life of an ordinary human being. By becoming an inspiration, he acts as a constant guide and a ray of hope in the utter darkness. When the human mind gets filled with the aura of divine knowledge given by him, then spontaneously comes out from his mouth - "Buddha saranam gachhami, Dhamma saranam gachhami, Sangham saranam gachhami." This is the refuge of Buddha, Dhamma and Sangha. This is the first step of Mahatma Buddha's words "Att Deepo Bhava". Dhammapada (Dharmapada) is one of the 15 texts of the Khuddaka Nikaya section of Tripitaka. It contains a collection of 423 sermons that came from the mouth of Lord Gautam Buddha from time to time. In which most of the teachings have been given in Shravasti. The Dharmapadas written in the original Pali appear to be a diverse and scattered collection. Apart from the old translations of Chinese, Tibetan etc., its translations are available in almost all the civilized languages of the modern world. Four translations of Dharmapada are found in the Chinese Tripitaka. Another word for religion in Pali is ‘Sutta’ (Sukta, Sutra) or ‘Suttanta’. In fact, the word religion is derived from the root ‘Dhri’, which means to hold, support, or follow.
मुख्य शब्द धम्मपद, भगवान बुद्ध, बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, खुद्दक निकाय।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Dhammapada, Lord Buddha, Buddham Sharanam Gachchami, Dhamma Sharanam Gachchami, Sangham Sharanam Gachchami, Khuddaka Nikaya.
प्रस्तावना

भगवान बुद्ध ने सारे उपदेश मौखिक दिए थे, तो भी शिष्य उनके जीवनकाल में ही कंठस्थ कर लिया करते थे। ये उपदेश दो प्रकार के थे, एक साधारण धर्म-दर्शन के विषय में और दूसरे भिक्षु-भिक्षुणियों के नियम। पहले को पालि में धम्मकहा गया है और दूसरे को विनय।[2] पालि वांग्मय में त्रिपिटक नाम का जो ग्रन्थ समुदाय प्रमुख है, उसके तीन भेद हैं-

1. सुत्त पिटक

 2. विनय पिटक

3. अभिधम्म पिटक।

सुत्त पिटक में प्रधानतया बुद्ध और उनके अग्र शिष्यों के उपदेशों का संग्रह है। सुत्त पिटक निम्नलिखित पांच निकायों में विभक्त है- 1. दीघ निकाय 2. मज्झिम निकाय 3. संयुक्त निकाय 4. अंगुत्तर निकाय 5. खुद्दक निकाय। खुद्दक निकाय के 15 ग्रन्थ हैं, जिसमें दूसरे स्थान का ग्रन्थ धम्मपदहै। प्रायः खुद्दक निकाय शब्द से खुद्दक पाठ आदि सन्दर्भ ही सूचित होते हैं।  सामान्यतयः खुद्दक निकाय का अर्थ है- छोटे प्रकरणों का संग्रह

अध्ययन का उद्देश्य

धम्मपद को पढ़ने वाला मूढ़ व्यक्ति भी सुविज्ञ, प्रमादी भी उद्यमी और दुष्चरित्र भी सुचरित्रवान होने की ओर प्रेरित हो सकता है इसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। भगवान बुद्ध द्वारा उपदेशित और भिक्षुओं द्वारा यत्नपूर्वक संग्रहीत धम्मपद में पूर्णतः प्रेरित करते हुए उल्लेख मिलता है कि- ’’सजगता अमरता का पथ है, असजगता मरण का पथ है जो सजग रहते हैं, वे कभी नहीं मरते और जो सजग नहीं हैं वे पहले ही मर चुके हैं।साथ ही धम्मपद हमें निरंतर सचेत रहने की प्रेरणा देते हुए शिक्षित करता है।

साहित्यावलोकन

दक्षिण भारत के मंदिरसंस्करण-अष्टम्, 2022, महावंश, धम्मपदं-अनु0, सांकृत्यायनराहुल, धम्मपदं-अनु0, स्थविर ग0 प्रज्ञानन्द, धर्मशास्त्र का इतिहास, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, भगवान बुद्ध: जीवन और दर्शन, जातक (प्रथम खण्ड), बुद्धचर्या।

मुख्य पाठ

भगवान बुद्ध जिन्हें सिंहली अनुस्रुतियों में पंचनेत्र’[1] (मांस चक्षु, दिव्य चक्षु, प्रज्ञा चक्षु, बुद्ध चक्षु, समन्त चक्षु) कहा गया है। इस पृथ्वीलोक के समान्य मानव के लिए उनका सम्पूर्ण जीवन ही प्रेरणास्रोत है। उनके जीवन के एक-एक प्रसंग मानव जीवन के लिए प्रेरक के रूप में हैं। उनकी जीवन यात्रा ने इस संसार के प्रत्येक प्राणी में उत्साह का संचार किया है। राजघराने के सुख-वैभव में पला हुआ वह राजकुमार जब समस्त ऐश्वर्य को त्याग कर अर्द्धरात्रि के घने अंधकार में अपनी पत्नी और इकलौते पुत्र के मोह को विस्मृत कर संसार में व्याप्त दुःख के कारणों की अन्वेषणा में अकेले निकल पड़ता है, तभी संसार में एक सामान्य से पुरुष गौतम में बुद्धत्वका जन्म होता है।

क्रियाशील मन-मस्तिष्क की प्रेरणा होती है कि वह पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी के दुःख में दुःख और सुख में सुख की अनुभूति करे तभी संसार के समस्त ऐश्वर्य में निरंतर रत मन भी उससे विरत होने लगता है। सामान्य जनों की दुःख मुक्ति के उपायों के अन्वेषक मन की अकुलाहट जब उसे एक दिन सांसारिक सुख वैभव से बाहर निकालती है, तभी वृद्ध, रोगी और श्मशान की ओर ले जाते हुए शव में संसार में व्याप्त समस्त कष्टों की व्यापकता का आभास होता है। उस विचलित मन को शान्ति तभी मिल पाती है जब एक साधक, संन्यासी और त्यागी पुरुष के मुख पर असीम संतोष, शान्ति और हर्ष का भाव दिखाई देता है। एक साधक के मुख पर छाए यही हर्ष के भाव ही सामान्य से गौतम को बुद्धत्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं और तभी बुद्धत्व की प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध के मुख से निकले हुए एक-एक वचन सामान्य मानव के जीवन में पग-पग पर प्रेरक बनकर उसे घोर अंधकार में आशा की एक किरण के रूप में निरंतर पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं। उनके दिए हुए दिव्य ज्ञान की आभा से जब मानव मन आप्लावित हो उठता है तभी उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ता है कि - ’’बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।यह बुद्ध, धम्म और संघ की शरण ही महात्मा बुद्ध के वचन ’’अत्त दीपो भवका पहला सोपान है।

भगवान बुद्ध ने सारे उपदेश मौखिक दिए थे, तो भी शिष्य उनके जीवनकाल में ही कंठस्थ कर लिया करते थे। ये उपदेश दो प्रकार के थे, एक साधारण धर्म-दर्शन के विषय में और दूसरे भिक्षु-भिक्षुणियों के नियम। पहले को पालि में धम्मकहा गया है और दूसरे को विनय।[2] पालि वांग्मय में त्रिपिटक नाम का जो ग्रन्थ समुदाय प्रमुख है, उसके तीन भेद हैं- 1. सुत्त पिटक 2. विनय पिटक 3. अभिधम्म पिटक। सुत्त पिटक में प्रधानतया बुद्ध और उनके अग्र शिष्यों के उपदेशों का संग्रह है।[3] सुत्त पिटक निम्नलिखित पांच निकायों में विभक्त है- 1. दीघ निकाय 2. मज्झिम निकाय 3. संयुक्त निकाय 4. अंगुत्तर निकाय 5. खुद्दक निकाय। खुद्दक निकाय के 15 ग्रन्थ हैं, जिसमें दूसरे स्थान का ग्रन्थ धम्मपदहै।[4] प्रायः खुद्दक निकाय शब्द से खुद्दक पाठ आदि सन्दर्भ ही सूचित होते हैं।[5]  सामान्यतयः खुद्दक निकाय का अर्थ है- छोटे प्रकरणों का संग्रह[6]

 धम्मपद (धर्मपद) त्रिपिटक के खुद्दक निकाय विभाग के 15 ग्रन्थों में से एक है। इसमें भगवान गौतम बुद्ध के मुख से समय-समय पर निकली 423  उपदेश गाथाओं का संग्रह है।[7] जिसमें सर्वाधिक उपदेश श्रावस्ती में दिए गए हैं। मूल पालि में रचित धर्मपद एक विविध और प्रकीर्ण संग्रह प्रतीत होते हैं।[8] चीनी, तिब्बती आदि भाषाओं के पुराने अनुवादों के अतिरिक्त आधुनिक दुनिया की लगभग सभी सभ्य भाषाओं में इसके अनुवाद मिलते हैं।[9] चीनी त्रिपिटक में धर्मपद के चार अनुवाद प्राप्त होते हैं।[10] धर्म के लिए पालि में दूसरा शब्द सुत्त’ (सूक्त,सूत्र) या सुत्तन्तभी आया है।[11] वस्तुतः धर्म शब्द धृधातु से बना है, जिसका तात्पर्य है- धारण करना, आलम्बन देना, या पालन करना।[12]

धम्मपद वास्तव में केवल बौद्ध साहित्य का ही नही वरन् प्राचीन विश्व साहित्य में प्रेरक ग्रन्थ के रूप में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। भन्ते आनन्द ने धम्मपद के अपने अनुवाद की भूमिका में लिखा है कि- ’’एक पुस्तक और केवल एक पुस्तक जीवन भर साथी बनाने की यदि आपकी इच्छा हुई है तो विश्व के पुस्तकालय में आपको धम्मपद से बढ़कर दूसरी पुस्तक मिलना कठिन है।’’ एक राजकुमार के रूप में जीवन के आरम्भिक समय में भोगे गए अपने सुखों के द्वारा भगवान बुद्ध ने जाना कि यदि मानव को जीवन में किसी श्रेष्ठ कार्य की ओर लगना है तो सर्वप्रथम अपने चंचल मन को ही अपने वश में करना पड़ेगा। इसी को सन्दर्भित करते हुए धम्मपद के प्रथम श्लोक में ही लिखा है कि- ’’मन सभी धर्मों अर्थात कर्मों, प्रवृत्तियों या अनुभूतियों का अगुआ है। यदि कोई व्यक्ति बुरे मन से बोलता या काम करता है तो दुःख उसका पीछा उसी प्रकार करता है जैसे रथ का पहिया वाहन अर्थात बैल या घोड़े के पैरों    का।’’[13]

आज संसार का प्रत्येक व्यक्ति आपस में बढ़ती जा रही कटुता और हिंसा से भयग्रस्त है। भगवान बुद्ध ने इसी कटुता और हिंसा को समाप्त करने का भरसक प्रयत्न किया था। इसी संदर्भ में श्रावस्ती के जेतवन विहार में काली (यक्खिनी) को दिए गए उपदेश में भगवान बुद्ध ने जो कहा, उसको सन्दर्भित करते हुए धम्मपद में उल्लेख है कि- 

                  ’’न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।

                   अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो।।’’

अर्थात संसार में वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, वह अवैर से शान्त होता है। यही सनातन धर्म है।[14] अधिकांश वर्तमान युवा पीढ़ी असंयमी और प्रमादी होकर दिशाहीन होती जा रही है। इसके प्रत्येक कार्य में लक्ष्यहीनता दिखाई देती है। ऐसे दिशाहीन समाज को लक्षित करते हुए धम्मपद में उल्लेख मिलता है कि- ’’जिसका इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता, प्रमादी और उद्योगहीन है, ऐसे व्यक्ति को मार (काम या मोह) वैसे ही डिगा देता है जैसे वायु दुर्बल वृक्ष को। वहीं जिसका इन्द्रियों पर संयम है, श्रद्धावान और उद्योगी है, ऐसे व्यक्ति को मार ;काम या मोहद्ध वैसे ही नहीं डिगा सकता जैसे वायु हिमालय पर्वत को।“[15]

वर्तमान समाज में कुसंग एक व्याधि के समान है जो किसी भी सज्जन को दुर्जन बना देने में क्षण भर भी समय नहीं लगाता। इससे हमारे मन के भीतर पल रहे सुविचार भी दूषित हो जाते हैं। वहीं ज्ञानी और श्रेष्ठजनों की संगति से हमारे विचारों में शुचिता और दृढ़ता आती है, मन निर्मल होकर पाप रहित हो जाता है। इन्हीं श्रेष्ठ और गुणीजनों की संगति को इंगित करते हुए धम्मपद में उल्लेख मिलता है कि- ’’यदि विचरण करते हुए अपने से श्रेष्ठ या समान व्यक्ति न मिले तो दृढ़ता के साथ अकेला ही विचरण करे क्योंकि मूर्ख (दुष्ट) की संगति अच्छी नही होती।’’[16] अल्पज्ञानता अज्ञानता से अधिक हानिकारक होती है। अल्पज्ञानी व्यक्ति वाचाल होता है और वह अपने कुतर्कों के बल पर ज्ञानी व्यक्ति की बातों को भी निराधार सिद्ध करने प्रयास में अपना ही हानि करता रहता है। इसी को लक्ष्य करते हुए धम्मपद में उल्लिखित है कि- ’’दुर्बुद्धि अपना शत्रु स्वयं होकर निरंतर पापकर्म में ही लीन रहता है, जिसका फल कडु़वा होता है।’’[17] ज्ञानी और अल्पज्ञानी के संक्षिप्त अंतर का उल्लेख करते हुए धम्मपद में परिभाषित किया गया है कि- ’’जो मूर्ख अपनी मूर्खता को समझता है, वह पण्डित ;ज्ञानीद्ध  है। जो मूर्ख हो स्वयं को पण्डित समझता है, वही यथार्थ मूर्ख है।’’[18]

वर्तमान समाज में आत्मचिंतन और आत्मावलोकन की प्रवृत्ति का ह्रास होता जा रहा है। व्यक्ति को आत्मचिंतक होना चाहिए, परन्तु आज का व्यक्ति पर-दोषों की गणना में ही संलग्न है। आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करते हुए धम्मपद में वर्णित है कि- ’’न तो दूसरे के वचनों पर ध्यान दें, न दूसरों के कृत्याकृत्य को देखें, वरन् अपने ही कृत्याकृत्य का अवलोकन करें।’’[19]  व्यक्ति का सच्चरित्र होना उसका सबसे बड़ा धन है। यह ऐसा श्रेष्ठ धन है कि व्यक्ति को आजीवन प्रतिक्षण इसका संचय करते रहना चाहिए। दोष रहित चित्त वाले व्यक्ति का मन स्थिर व निर्भय होता है। सच्चरित्रता की ओर प्रेरित करते हुए धम्मपद में उल्लेख मिलता है कि- ’’जैसे फूलों के ढेर से एक-एक फूल चुनकर सुन्दर माला गूंथ ली जाती है उसी प्रकार अपने एक-एक अच्छे कार्यों द्वारा व्यक्ति को निरंतर सत्कर्मों की माला पिरोनी    चाहिए।’’[20]

श्रावस्ती में वर्षावास के समय भगवान बुद्ध ने भिक्षु आनन्द के के समक्ष सत्पुरुषों की महिमा का जो बखान किया था, उसका उल्लेख करते हुए धम्मपद में वर्णित है कि- ’’श्रेष्ठ फूलों की सुगन्ध भी वायु की विपरीत दिशा में नही जाती किन्तु सज्जनों की सुगन्ध विपरीत हवा में भी जाती है। सत्पुरुष दसों दिशाओं में सुगन्ध बिखेरता है। अतः शील की सुगन्ध समस्त श्रेष्ठ पुष्पों से भी उत्तम है।’’[21] प्राणियों में मनुष्य जीवन सर्वश्रेष्ठ है। इस जीवन की सार्थकता तभी है तब हम स्वयं को निरंतर सुविचारों से युक्त रखते हुए, अप्रमादी बनकर समाज के श्रेष्ठ कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखेंगे। इससे इतर यह श्रेष्ठ मनुष्य जीवन भी पशुवत बना रहता है। इसी श्रेष्ठ मनुष्य जीवन की सार्थकता को दृष्टि में रखते हुए धम्मपद में उल्लेख है कि- ’’आलसी और अनुद्योगी के सौ वर्ष के जीवन से दृढ़ उद्योगी का जीवन श्रेष्ठ है।’’[22]

धम्मपद का प्रत्येक वाक्य गूढ़ अर्थों से भरा हुआ है। इसके एक-एक वाक्य में जीवन का सार निहित है। मनुष्य को अपने मन की चंचलता को वश में करने से लेकर अपने चरित्र की सजगता से रक्षा करने की प्रेरणा देते हुए, निरंतर उद्यमी बनकर अप्रमादी होते हुए प्रतिक्षण हमें सजगता से अपने सत्कार्यों में रत रहना चाहिए। निश्चय ही धम्मपद को पढ़ने वाला मूढ़ व्यक्ति भी सुविज्ञ, प्रमादी भी उद्यमी और दुष्चरित्र भी सुचरित्रवान होने की ओर प्रेरित हो सकता है इसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। भगवान बुद्ध द्वारा उपदेशित और भिक्षुओं द्वारा यत्नपूर्वक संग्रहीत धम्मपद में पूर्णतः प्रेरित करते हुए उल्लेख मिलता है कि- ’’सजगता अमरता का पथ है, असजगता मरण का पथ है जो सजग रहते हैं, वे कभी नहीं मरते और जो सजग नहीं हैं वे पहले ही मर चुके हैं।’’ साथ ही धम्मपद हमें निरंतर सचेत रहने की प्रेरणा देते हुए शिक्षित करता है कि-

       ’’दीघा जागरतो रत्ति दीघं सन्तस्सं योजनं।

        दीघो बालानं संसारो सद्धम्मं अविजानतं।।’’

अर्थात जागने वाले को रात लम्बी होती है, थके हुए को योजन लम्बा होता है। सच्चे धर्म को न जानने वाले मूढ़ों के लिए संसार (आवागमन) लम्बा होता है।[23] मौर्य शासक सम्राट अशोक ने अपने अभिलेखों में जिस धम्म की चर्चा की है वह धम्मपद के ही प्रारूप लगते हैं। अशोक और उसके पौत्र दशरथ द्वारा गया (बिहार) के आसपास स्थानीय अति कठोर चट्टानों को काटकर बाराबर तथा नागार्जुनी पहाड़ी में जो गुफाएं[24] आजीविक भिक्षुओं को प्रदान की गई हैं वह भी मानव कल्याण का ही भाव प्रदर्शित करती हैं। 

निष्कर्ष

अतः प्रतिक्षण सजगता ही हमें साधक, सुविज्ञ और आत्मचिंतक बना सकती है। वस्तुतः धम्मपद के उपर्युक्त वाक्यों का प्रतिपालन करना ही श्रेष्ठ जीवन का आधार है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. महावंश- अनुवादक, भदन्त आनन्द कौशल्यायन, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, संस्करण- प्रथम, 1942, पृ0 11
2. सांकृत्यायन, राहुल - बुद्धचर्या, भारतीय बौद्ध समिति, लखनउ-1995, ;भूमिका सेद्ध
3. कोसाम्बी, धर्मानन्द - भगवान बुद्ध: जीवन और दर्शन, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद 1982, ;भूमिका सेद्ध
4. जातक ;प्रथम खण्डद्ध - अनु0 भदन्त आनन्द कौशल्यायन, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 1941, पृ0 05
5. पाण्डेय, गोविन्द चन्द्र - बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, उ.प्र. हिन्दी संस्थान, संस्करण-षष्ठ, 2015, पृ0 185
6. कोसाम्बी, धर्मानन्द - उपर्युक्त
7. धम्मपदं - अनु0, सांकृत्यायन, राहुल- महाबोधि सभा, सारनाथ, प्रयाग, संस्करण - प्रथम, 1933, (प्रस्तावना से)
8. पाण्डेय, गोविन्द चन्द्र - उपर्युक्त
9. धम्मपदं - उपर्युक्त
10. पाण्डेय, गोविन्द चन्द्र - उपर्युक्त
11. सांकृत्यायन, राहुल - उपर्युक्त
12. काणे, पाण्डुरंग वामन - धर्मशास्त्र का इतिहास ;प्रथम खण्डद्ध उ.प्र. हिन्दी संस्थान, संस्करण-चतुर्थ, 1992, पृ0 03
13. धम्मपदं - अनु0, स्थविर ग0 प्रज्ञानन्द, भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद, लखनउ, संस्करण-द्वितीय,1983, पृ0 03,श्लोक.01
14. धम्मपदं - अनु0, सांकृत्यायन, राहुल- उपर्युक्त, पृ0 03, श्लोक.05
15. उपर्युक्त, पृ0 04,श्लोक. 7,8
16. धम्मपदं - अनु0, स्थविर ग0 प्रज्ञानन्द, उपर्युक्त, पृ0 21, श्लोक.61
17. उपर्युक्त, श्लोक.66
18. उपर्युक्त, श्लोक.63
19. उपर्युक्त, पृ0 17, श्लोक.50
20. धम्मपदं - अनु0, सांकृत्यायन, राहुल- उपर्युक्त, पृ0 25, श्लोक.53
21. उपर्युक्त, पृ0 25,26 श्लोक.54,55
22. धम्मपदं - अनु0, स्थविर ग0 प्रज्ञानन्द, उपर्युक्त, पृ0 37, श्लोक.112
23. धम्मपदं - अनु0, सांकृत्यायन, राहुल- उपर्युक्त, पृ0 03, श्लोक.05
24. श्रीनिवासन, के0 आर0 - दक्षिण भारत के मंदिर (अनु0, उमेश दत्त दीक्षित), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत। संस्करण-अष्टम्, 2022