ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- V August  - 2023
Anthology The Research

जनसंख्या वृद्धि का प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ता दबाव : एक भौगोलिक अध्ययन

Population Growth Increasing Pressure on Natural Resources: A Geographical Study.
Paper Id :  18046   Submission Date :  14/08/2023   Acceptance Date :  21/08/2023   Publication Date :  25/08/2023
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DOI:10.5281/zenodo.8354918
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जगदेव
एसोसिएट प्रोफेसर
भूगोल विभाग
संत गणिनाथ राजकीय पी०जी० कॉलेज
मोहम्मदाबाद गोहना,मऊ, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

प्रायः प्रकृति प्रदत्त वे सभी बहुमूल्य पदार्थ (तत्व) मानव के लिए अर्थपूर्ण है, जिनका उपयोग वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु करता है। प्रकृति के साथ मित्रवत संबंध बनाये रखना मानव जीवन के सामाजिक–आर्थिक व राजनैतिक जीवन का प्रमुख आयाम है। वर्तमान समय मे द्रुत गति से बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का लगातार दोहन किया जा रहा है, जिसमें महासागर से लेकर प्राकृतिक वनस्पतियों तक सभी जैविक-अजैविक पदार्थ शामिल हैं। संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन करना स्वयं के लिए समस्याओं को आमंत्रित करने जैसा हैं। प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी पर वातावरणीय संतुलन को बनाये रखते हैं लेकिन मानव द्वारा इनका तेजी से दोहन किया जाना पृथ्वी पर सबसे बड़े प्रलय का सूचक है। अत: शीघ्र ही इन समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया तो आने वाली भावी पीढ़ी के आगे का जीवन बहुत ही कष्टप्रद हो जायेगा। इसलिए इनके संरक्षण (बचाव) व कुशल प्रबंधन के प्रति जागरूकता में तेजी लानी होगी जिससे समय रहते इनको संरक्षित किया जा सके।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Generally, all those valuable substances (elements) provided by nature are meaningful for man, which he uses to fulfill his needs. Maintaining friendly relations with nature is a major dimension of the socio-economic and political life of human life. At present, as a result of rapidly increasing population, natural resources are being continuously exploited, which includes all organic and inorganic substances from oceans to natural vegetation. Over-exploitation of resources is like inviting problems. Natural resources maintain the atmospheric balance on Earth, but their rapid exploitation by humans is an indicator of the biggest disaster on Earth. Therefore, if attention is not focused on these problems soon, then the life ahead of the coming generations will become very painful. Therefore, awareness regarding their conservation and efficient management will have to be increased so that they can be conserved in time.
मुख्य शब्द प्राकृतिक संसाधन, जनसंख्या वृद्धि, पर्यावरण अनुकूलन, दबाव, संरक्षण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Natural Resources, Population Growth, Environmental Adaptation, Pressure, Conservation.
प्रस्तावना

प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी पर पर्यावरणीय अनुकूलन को बनाये रखते हैं। यह मानव जीवन के लिए अत्यधिक उपयोगी है। पृथ्वी पर यह संसाधन प्रचुर मात्रा में निःशुल्क उपलब्ध है, किन्तु मानव अपने विकास की होड़ में इनका अंधाधुंध दोहन करता जा रहा है, परिणाम स्वरूप ये संसाधन सीमित होते जा रहे हैं। विश्व की बढ़ती आबादी एवं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक मात्र स्रोत प्राकृतिक संसाधन ही है। जनसंख्या वृद्धि व उसकी बढ़ती भौतिक सुख–सुविधाओं ने मानव व प्रकृति के बीच अंत:संबंध को खत्म कर दिया है। मानव तेजी से  संसाधनों का उपयोग कर रहा है। मानव द्वारा दिन-प्रतिदिन संसाधनों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है जैसे, बाध बनाना, सड़क, पुल, भवन निर्माण, उद्योग व कल-कारखानों की स्थापना, रासायनिक खादों, कीट नाशक दवाओं का प्रयोग तथा नये-नये परीक्षण, अनुसंधान कार्य किये जा रहें हैं जिससे पर्यावरण में असंतुलन की स्थिति पैदा हो गयी है। यहीं कारण है कि तापमान में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, वर्षा की अनिश्चतता, भूस्खलन आदि प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि होती जा रही है। यदि संसाधनों का ऐसे हि अविवेकपूर्ण दोहन होता रहा तो पृथ्वी जीवधारियों के जीवनयापन योग्य नही बचेंगी। अत: हमे प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर व संसाधनों का मितव्ययिता पूर्ण उपयोग पर बल देना अति आवश्यक है। तभी हम स्वयं का एवं आने वाली पीढ़ी के भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकेंगे।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोध पत्र का प्रमुख उद्देश्य बढ़ती जनसंख्या का प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले दबाव के परिणामतः उत्पन्न समस्याओं व उसके प्रभाव का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना है।

साहित्यावलोकन

मानव एवं प्रकृति के बीच अटूट संबंध है, लेकिन मानव की संख्या में लगातार वृद्धि होना विश्व स्तर पर चिंतनीय विषय बन गया है। अतएव भूगोलवेत्ताओं, पर्यावरणविदो, वैज्ञानिकों एवं शोधार्थियों द्वारा इस विषय पर प्रत्येक स्तर से अनुसंधान कार्य किये जा रहे हैं। पुस्तक लेखन, शोधग्रंथ, शोध पत्र, पत्रिकाओं, रिपोर्टों एवं समाचार पत्रों आदि के प्रकाशन के माध्यम से जन जागरुकता फैलायी जा रही है।

जॉन आई० क्लार्क (1965) पुस्तक, ‘जनसंख्या भूगोल’ में इन्होंने बताया कि "जनसंख्या का संबंध उसके वितरण, संघटन, प्रवास, और वृद्धि में पायी जाने वाली क्षेत्रीय विभिन्नताओं से किस प्रकार संबंधित है।" जे. बी. गार्नियर (1966) इन्होंने पर्यावरण के संदर्भ में भूतल पर जननांकीय विशेषताओं का अध्ययन प्रस्तुत किया।

भारत के संदर्भ में जनसंख्या भूगोल के अंतर्गत क्रमबद्ध रूप से शोध कार्य 19560 से प्रारंभ हुआ, जिसमें गोसल, ट्रीवार्था, आर. एल. सिंह, कृष्णन (1968), नाथ (1970) ने प्राकृतिक संसाधनों एवं आर्थिक विकास के संदर्भ में भारत की जनसंख्या पर अध्ययन प्रस्तुत किया। गोपाल कृशन ने उत्तर प्रदेश में जनसंख्या के दबाव की समस्याओं का अध्ययन किया एवं जनसंख्या दबाव को मापने की तकनीकी विकसित किये जो विकासशील क्षेत्रों के लिए उपयोगी है।

चांदना एवं राजबाला (1979) गोसल (1984) रानाडे प्रभा एस. (1990) पुस्तक, "भारत में जनसंख्या की गतिशीलता"। मिश्रा बी.डी.(1995), हसन एम. आई (2009), भेंडे ए.ए. और कनिटकर तारा (2010), रॉय देबजानी (2015), मो. एस अंसारी (मार्च 2016) शोध पत्र" जनपद गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) की जनसंख्या वृद्धि एवं पर्यावरण अवनयन।" इन्होंने बताया कि "प्राकृतिक पर्यावरण के हाल में जनसंख्या वृद्धि एक महत्त्वपूर्ण कारक है।" बढ़ती जनसंख्या हेतु सुख-सुविधा जुटाने को प्रकृति पर अनुदारपूर्ण दबाव बढ़ता जा रहा है।

हाल ही में 21 अप्रैल 2023 संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) ने विश्व जनसंख्या स्थिति रिपोर्ट 2023 जारी की हैजिसमें भारत के संदर्भ में बताया गया है कि वर्ष 2023 के मध्य तक भारत विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश हो जायेगा और यहां की जनसंख्या चीन से भी अधिक हो जायेगी । अत: उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत की अर्थव्यवस्थासामाजिक स्थितिपर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के बीच संतुलन के विषय पर अधिकाधिक शोध कार्य की अतिशीघ्र आवश्यकता है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध पत्र में द्वितीयक आंकड़ों का प्रयोग किया गया है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों पर जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्पन्न समस्याएँ व उनका समाधान, कुशल प्रबंधन, एवं संरक्षण आदि विषय पर प्रकाशित तात्कालिक सूचना आंकडे, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तको, शोध ग्रंथो तथा शोध पत्रों आदि का सहारा लिया गया है।
विश्लेषण

वास्तव में मानव जीवन के प्रादुर्भाव से देखा जाये तो मानव की सभ्यता एवं संस्कृति का विकास लगभग संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में हुआ है, क्योंकि जो क्षेत्र संसाधन सम्पन्न हैं वहां जनसंख्या का अधिक बसाव हुआ है। ज्ञातव्य हो कि विश्व की लगभग दो तिहायी जनसंख्या एशिया महाद्वीप के मानसूनी क्षेत्रों में निवास करती है। इसके अंतर्गत विश्व के प्रथम व द्वितीय सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश भारत और चीन शामिल हैं। भारत जनसंख्या वृद्धि के प्रमुख कारणों में कम उम्र में विवाह, साक्षरता का निम्न स्तर, परिवार नियोजन के प्रति विमुखता, गरीबी, बेरोजगारी एवं चिकित्सा सेवाओं का पर्याप्त न होना इत्यादि है।

यदि माल्थस के सिद्धांत के आधार पर देखा जाये तो जनसंख्या में गुणोत्तर अनुपात में वृद्धि  होती है जैसे, 1:2:4:8:16:32 तथा खाद्य पदार्थों में अंकगणितीय अनुपात में वृद्धि पायी जाती है जैसे, 1,2,3,4,5,6,7। अतः इस प्रकार दोनों में वृद्धि दर में अंतर के कारण जनसंख्या व जीविकोपार्जन युक्त संसाधनों में अंतर उत्पन्न हो जाता है। माल्थस का कथन है कि “ प्रकृति की खाने  की मेज सीमित अतिथियों के लिए है, अतः बिना निमंत्रण के आने वालो को अवश्य ही भूखे मरना पड़ेगा। ”

वर्तमान में जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उस गति से संसाधन नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि निरंतर घटते जा रहे है तथा कुछ संसाधन समाप्ति के कगार पर हैं।

भारत में जनसंख्या वृद्धि का स्वरूप

देश में स्वतंत्रता के पश्चात जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई जो इस प्रकार है-

वर्ष

जनसंख्या (करोड़ में)

दशकीय वृद्धि दर (प्रतिशत में)

1951

36.10

13. 31

1961

43.92

21. 54

1971

54. 81    

24.81 * जनसंख्या विस्फोट

1981

68.33

26.66

1991

84.64

23.81

2001

102.82

21.54

2011

121.08

17.70

भारत की अर्थव्यवस्था स्वतंत्रता से पूर्व निम्न स्तर की अल्प विकसित थी, जिसमें उद्योगों का विकास एवं प्रति व्यक्ति आय का स्तर बहुत कम था। यहां  तक कि आधारभूत संरचना भी पिछड़ी हुई थी। कृषि व आयातित संसाधनों पर ही अधिक निर्भरता थी। इसके साथ ही देश में गरीबी बेरोजगारी एवं साक्षरता का स्तर भी निम्न था। इस समय भारत की कुल जनसंख्या में आजादी के पूर्व तक पचास वर्षों में 12.3 करोड़ की वृद्धि हुई, जबकि 1951 से 2001 के मध्य भारत जनसंख्या में 66.7 करोड़ की बढ़ोत्तरी हो गई। वर्ष 2001 में देश की कुल आबादी 102.87 करोड़ तथा 2011 में यह स्थिति बढ़कर 121.08  करोड़ हो गयी। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि का देश में मुख्य कारण खाद्यान्न सामग्री व विकास कार्य में अपेक्षित सुधार एवं स्वास्थ्य सुविधा में वृद्धि जिससे शिशु मृत्यु दर में कमी आने लगी और देखते ही देखते जनसंख्या विस्फोट की अवस्था में पहुँच गयी।

देश की आबादी विश्व की कुल आबादी का 2.4 प्रतिशत है जबकि यहाँ विश्व की लगभग 17.5 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। वर्ष 1991 से 2007 में जनसंख्या पांच गुना वृद्धि दर्ज की जिस कारण देश के प्राकृतिक संसाधनों पर चार गुना दबाव बढ़ जाने से सकल बोये गये क्षेत्र का लगभग 118 मिलियन हैक्टेयर से बढ़ाकर कर 142.8 मिलियन हेक्टेयर करना पड़ा और यह कार्य प्राकृतिक वन एवं वनस्पतियों को नष्ट कर के किया गया।

प्राकृतिक संसाधन        

प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर भारत विश्व का पांचवां सम्पन्न देश है किंतु यहां संसाधनों की उपलब्धता सर्वत्र समान नहीं है। पृथ्वी पर सभी संसाधनों का अपना एक विशिष्ट महत्व एवं योगदान है। कुछ संसाधन ऐसे है जिनकी पूर्ति प्रकृति द्वारा होती रहती है और कुछ संसाधनों के पुनः निर्माण में लाखों वर्ष भी लग जाते है जैसे, मृदा संसाधन, खनिज इत्यादि। प्रकृति से प्राप्त मे संसाधन जल, वायु मृदा, सौर ऊर्जा, वन, वनस्पति आदि हैं जिनका उपभोग हमें मितव्ययिता पूर्वक करना चाहिए ताकि ये लम्बी अवधि तक मानव के विकास कार्यों में अपना योगदान देते रहेंगें।

ज्ञातव्य हो कि मानव भी स्वयं एक संसाधन है जो इस पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान प्राणियों में एक है। यह अपने बौद्धिक ज्ञान द्वारा संसाधनों को उपयोगी बनाता है। वर्तमान में विलासिता पूर्ण जीवन, अत्यधिक तरक्की तथा भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत में इनके साथ उपेक्षा पूर्ण व्यवहार अपना लिया है तथा अविवेकपूर्ण इनका आवश्यकता से अधिक दोहन कर रहा है जिससे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।


जनसंख्या वृद्धि का संसाधनों पर प्रभाव

विश्व के लगभग सभी अल्प विकसित एवं विकासशील देश बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों की पूर्ति हेतु संसाधनों के अधिकाधिक उपयोग पर बल दे रहे हैं जिसका दुष्परिणाम वातावरण पर पड़ रहा है। अनेक जलवायविक परिवर्तन हो रहे हैं। जैसे, तापमान में वृद्धि, वर्षा की अनिश्चतता, सूखा, बाढ, चक्रवात, भूकम्प, आदि के साथ अनेकानेक भयंकर बीमारियों के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है। जन मानस के साथ आर्थिक एवं सांस्कृतिक, संसाधनों की भी क्षति हो रही है। जनसंख्या वृद्धि से प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले दुष्परिणाम इस प्रकार हैं–

1. जनसंख्या वृद्धि से सर्वाधिक ह्रास प्राकृतिक वनों का हुआ है। वर्ष 1951 से 1980 के मध्य कुल वन क्षेत्र का 62 फीसदी हिस्सा कृषि कार्य में इस्तेमाल कर लिया गया। इसके अलावा सड़क, भवन, बांध फैक्ट्रियों आदि के निर्माण में लगातार वनों का ह्रास होता जा रहा है जिस कारण ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। पौधे कार्बन डाईऑक्साइड जैसी विषैली गैसों का अवशोषण करने के साथ मृदा अपरदन, ध्वनि प्रदूषण, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं को रोकने में हमारी सहायता करते है। पेड़ पौधे है तो पृथ्वी पर जीवन अनुकूलन एवं जैवविविधता बनी है। अत: इनका संरक्षण करना मानव की सबसे अहम जिम्मेदारी है।

2. जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकताओं में सर्वोपरि खाद्यान्न सामग्री है। अतः अधिक पैदावार बढ़ाने के लिए मृदा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जा रहा है जिससे मृदा के पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे है एवं इनकी की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही जिस कारण भूमि ऊसर (बंजर) में परिवर्तित हो रही हैं।

3. जनसंख्या वृद्धि के परिणामतः जल स्रोतों पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है। अधिक आबादी और विकास की होड़ में आस पास के छोटे-बड़े तालाब, पोखर, नदी, झील, यहां तक कि महासागरों को भी पाटा जा रहा है। बाकी शेष जल स्रोत लगभग कूड़ेदान में परिवर्तित होते जा रहें। वर्तमान में स्वच्छ जल की आपूर्ति में कठिनाई उत्पन्न होने लगी है। स्वच्छ जल के अभाव में मानव के साथ जलीय जीवन का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।

4. बढ़ती जनसंख्या के परिणाम स्वरूप यातायात के साधनों में वृद्धि, कल–कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं तथा खेत– खलिहानों में जलाए जा रहे पुआल आदि से वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।

5. बढ़ती आबादी की निरंतर बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूर्ण रूप से प्रकृति का ही विनाश किया जा रहा है। खनिज उत्खनन से प्राकृतिक वनस्पतियों को विनष्ट किया जाता है। पशुओं की अत्यधिक चराई से मृदा की पकड़ कमजोर हो जाती है। आधुनिकता की होड़ में नित्य नये-नये प्रयोग आविष्कार, अनुसंधान कार्य, अंतरिक्ष में आणविक परीक्षण किये जा रहे है अर्थात् मानव ने अपनी आवश्यकता व बौद्धिक ज्ञान से परे जाकर प्रकृति के विरुद्ध कार्य करना प्रारंभ कर दिया है।

जनसंख्या वृद्धि से बेरोजगारी, महगाई व अज्ञानता के कारण लूट-पाट, पारिवारिक कलह आदि अनेक प्रकार की बुराइयों में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है।

निष्कर्ष

मानव एवं प्रकृति का एक साथ सद्भाव से रहना आदि काल से चला आ रहा है। लेकिन वर्तमान में चिकित्सा सुविधा में सुधार होने से जनसंख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। यहीं कारण है कि संसाधनों की मांग में भी तेजी से वृद्धि हो रही है। अत: उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम सभी का प्रकृति के प्रति कर्तव्य बनता है हम उसका रक्षक बने भक्षक नहीं क्योंकि पृथ्वी पर इन्हीं संसाधनों के परिणाम स्वरूप जीवन संभव है। संसाधनों पर आवश्यकता से अधिक दबाव मानव जीवन के लिए खतरा बनता जा रहा है, अतः इनका प्रबंधन सावधानी पूर्वक दीर्घकाल के लिए किया जाये ताकि आने वाली कई पीढ़ियों तक उनका उपयोग संभव हो सके। यदि हम वृक्ष काटे तो वृक्षारोपण अवश्य करें, जल के उपयोग के साथ वर्षा जल संरक्षण भी आवश्यक है। इस प्रकार हम प्रकृति का पोषण करे, शोषण नहीं तथा संपोषणीय विकास की संकल्पना को अपनाएं जिससे मानव एवं प्रकृति दोनों में सामंजस्य बना रहे।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. कौशिक, एस. डी., गौतम, अलका, ‘संसाधन भूगोलरस्तोगी पब्लिकेशन्स मेरठ,पृ.–178

2. मौर्या,एस.डी., ‘संसाधन भूगोलप्रवालिका पब्लिकेशन्सप्रयागराज, पृ.–377

3. अंसारी, मो. सालेह, ‘जनसंख्या एवं पर्यावरण अवनयनशोध पत्र,2020

4. दीक्षित, डा. आशीष कुमार, ‘जनसंख्या वृद्धि एवं कृषि की अनिवार्यताशोध पत्र, जून-2020

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6. मौर्या एस. डी. 'जनसंख्या भूगोल' शारदा पुस्तक भवन 'पब्लिशर्स' प्रयागराज, पृ. - 2,3

7. नेपाल महतो, यादव शिव मुनी, (शोध पत्र)जनसंख्या वृद्धि के आधार पर वितरण एवं घनत्व के प्रभावित करने वाले कारक।