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संस्कृत वांग्मय में राजधर्म |
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Rajdharma in Sanskrit Vangmaya | |||||||
Paper Id :
18094 Submission Date :
2023-09-12 Acceptance Date :
2023-09-22 Publication Date :
2023-09-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.8409904 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
प्राचीनकाल से ही
भारत में राजतंत्र स्थापित रहा है। राजतंत्र में राजा की भूमिका क्या होगी, उसके अधिकार
एवं कर्तव्य, कार्यप्रणाली एवं जनता के साथ सम्बन्ध कैसे होंगे। इन सब प्रश्नों पर
विचार करने के साथ-साथ राजा एक आदर्श पिता की भांति जीवन जिए, राजधर्म की संकल्पना अस्तित्व
में आई। वस्तुत: राजधर्म राजा की शक्तियों पर अंकुश लगाने एवं शासन सत्ता का प्रवाह
जनता की ओर करने के लिए ऋषियों; मुनियों द्वारा बनाए गए नियम उपनियम थे । जिनकी विस्तृत व्याख्या वेदो;
पुराणों, सूत्र ग्रन्थों, स्मृतियों, एवं लौकिक साहित्य में दृष्टिगत होती है। महाभारत के शांतिपर्व में
भीष्म पितामह के माध्यम से राजधर्म की सांगोपांग विवेचना युधिष्ठिर से किए गए
संवाद के माध्यम से की गई है। महाविनाश के बाद जब युधिष्ठिर संन्यास लेने का मानस
बनाते हैं तब उन्हें समझाने के अर्थ में राजधर्म की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है।
राजधर्म का अन्तिम लक्ष्य प्रजा का सुख और कल्याण है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Monarchy has been established in India since ancient times. What will be the role of the king in the monarchy, what will be his rights and duties, functioning and relations with the public. Along with considering all these questions, the concept of Rajdharma came into existence so that the king lived like an ideal father. In fact, Rajdharma is the work of sages to curb the powers of the king and to make the ruling power flow towards the people; The rules made by the sages were by-laws. Whose detailed explanation is in the Vedas; It is visible in Puranas, Sutras, Smritis, and secular literature. In the Shanti Parva of Mahabharata, the Sangopaang discussion of Rajdharma has been done through Bhishma Pitamah's dialogue with Yudhishthir. After the great destruction, when Yudhishthir makes up his mind to take up renunciation, the need for Rajdharma has been propounded in order to convince him. The ultimate goal of Rajdharma is the happiness and welfare of the people. | ||||||
मुख्य शब्द | राजधर्म, वांग्मय, आचार संहिता, राजशास्त्र प्रणेतार, धर्मसूत्र, नृपत्व, धर्मानुशासन, अपौरुषेय प्रणयन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Rajdharma, Wangmay, Code of Conduct, Rajshastra Pranetar, Dharmasutra, Nriptva, Dharmadiscipline, Apaurusheya Pranayaan. | ||||||
प्रस्तावना | राजधर्म एक अति प्राचीन राजनीतिक अवधारणा है। जो राजा के कर्तव्यों को रूपायित
करती है। राजधर्म का साधारण शब्दों में अर्थ है-राजा का धर्म। अभिप्राय यह है कि
राजा शासन का संचालन करते समय न्याय करते समय, एवं विभिन्न विषयों में प्राथमिकताओं का
निर्धारण करते समय कौन-कौनसे सिद्धान्तों को अपने समक्ष दृष्टिगत रखेगा ।
चूंकि भारतीय राजदर्शन में राजा ईश्वर का अंश माना जाता है। इसलिए उससे ईश्वरीय
आचरण अर्थात समदृष्टि या सम्यक आचरण की अपेक्षा की जाती है। संस्कृत वांग्मय का स्वरूप अत्यन्त प्राचीन एवं गूढ है। क्योंकि यह तथ्य
सर्वविदित है कि वेद अपौरूषेय हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि वेदों में इतना अधिक
उच्च कोटि के ज्ञान एवं दर्शन का प्रणयन किया गया है, कि ऐसा
प्रतीत होता है मानों वे किसी साधारण इंसान के मस्तिष्क की उपज नहीं हो सकते।
वेदों में मानवता के जिन उच्चतम आदर्शों का प्रतिपादन किया गया है, उनकी प्राप्ति का प्रयास आज भी मानव समुदाय कर रहा है। यथा : “आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वत:” वैदिक ऋषि परब्रह्म से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु सब ओर से कल्याणकारी
विचार प्राप्त हों| “अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम् उदार चरीतानाम् तु वसुधैव. कुटुम्बकम्।।”
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, सत्यमेव जयते, सर्वे भवन्तु
सुखिन: जैसे आदर्श मात्र संस्कृत ग्रंथों में ही उद्धृत नहीं थे बल्कि भारतवर्ष
के ऋषियों-मुनियों ने, बड़े-बड़े राजाओं ने इन्हें अपने
आचरण में उतार कर पूरी दुनियां को यह संदेश दिया कि अपने लिए नहीं वरन् पूरी
दुनिया के लिए जिओ| समाज में उच्च आदर्शों की व्यावहारिक
संस्थापना के लिए स्वयं के जीवन का बलिदान कर दो। समाज कल्याण के लिए आदर्शों की
स्थापना का दायित्व जहाँ एक ओर ऋषियों-मुनियों को दिया गया, वहीँ
दूसरी ओर राजा को राजधर्म का पालन करने की शिक्षा बचपन से दी जाती थी ताकि जब वह
बड़ा होकर राजा बने तो राजधर्म के पालन के लिए किसी भी सीमा तक त्याग करने को सदैव
तत्पर रहे। “रघुकुल रीत सदा चलि आई, प्राण जाय पर वचन न जाइ।” यह उक्ति इसी
राजधर्म की ओर संकेत कर रही है। अब प्रश्न यह उठता है कि राजधर्म क्या है? उसकी समग्र संकल्पना का अध्ययन- विश्लेषण आगे सविस्तार किया जाएगा| |
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अध्ययन का उद्देश्य | “संस्कृत वांग्मय में राजधर्म”
का अध्ययन करने के पीछे शोधार्थी का उद्देश्य यह है कि वर्तमान
लोकतान्त्रिक राज्य व्यवस्था में समय के प्रवाह के परिणामस्वरूप आने वाली
चुनोतियों एवं मूल्यों के क्षरण के कारण राज व्यवस्था स्वयं को कभी-भी असहाय सा
महसूस करती है। अत: ऐसे संकटों के निवारणार्थ राज्य व्यवस्था एवं प्रजा के लिए एक
दिशा-निर्देशिका प्रस्तुत की गई है। |
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साहित्यावलोकन | “संस्कृत वांग्मय में राजधर्म” विषय का
सांगोपांग अध्ययन करने के लिए सर्वप्रथम वेदो का अनुशीलन किया गया है। जिसके
अन्तर्गत राजधर्म राजा का निर्वाचन एवं शासन सम्बन्धी धारणाओं का गहन ज्ञान मिलता
है। परवर्ती वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण ग्रंथों विशेष रूप से ऐतरेय
ब्राह्मण, तैतरीय ब्राह्मण, शतपथ
ब्राह्मण भी राजधर्म के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध कराते हैं। मानव धर्म के
प्रणेता आचार्य मनु द्वारा रचित मनुस्मृति, कौटिल्य
रचित अर्थशास्त्र, शुक्रनीति सार, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि में भारतीय जनता जिन नियमों एवं कानूनों से शासित
होती थी, उन सभी का सम्पूर्णता में विश्लेषण करता है।
इसके साथ साथ यद्यपि राजा को दैवीय अंश माना गया लेकिन उसके ऊपर इतना अधिक कठोर
अंकुश लगा दिया गया था कि प्रजा के हित के विपरीत आचरण करने का विचार स्वप्न में
भी नहीं ला सकता था | महाकाव्य काल के अन्तर्गत वाल्मीकि कृत रामायण एवं महाभारत का शान्ति पर्व
विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस समय तक राजनीतिक व्यवस्था अत्यन्त परिष्कृत हो चुकी
थी। राजधर्म के सिद्धान्त एवं मानदण्ड निर्धारित हो चुके थे । राज्य संस्था को
पवित्र धरोहर मानते हुए एक ट्रस्टी की भाँति रक्षा करने का आदर्श स्थापित हो चुका
था। शान्ति पर्व में पितामह भीष्म ने हस्तिनापुर के सम्राट युधिष्ठिर को राजधर्म
की परिकल्पना समग्रता में समझाई है। राजधर्म के पूर्व में प्रचलित समस्त
सिद्धान्तो को तत्कालीन समय की प्रासंगिकता के अनुरूप भीष्म पितामह ने सारगर्भित
तरीके से राजधर्म को स्पष्ट किया है।
डॉ. केदार शर्मा द्वारा लिखित विश्लेषणपरक ग्रंथ, प्राचीन
संस्कृत साहित्य में राजधर्म का स्वरूप निस्सन्देह मार्गदर्शक रहा है। यह ग्रंथ
राजधर्म के सन्दर्भ में निरीक्षणात्मक दृष्टि प्रदान करता है। पी.वी. काणे द्वारा
लिखित “धर्मशास्त्र का इतिहास” भी उल्लेखनीय ग्रंथ है। डॉ. कुसुम दत्ता की कृति “महाभारत के शान्ति पर्व में धर्म का स्वरूप” राजधर्म के अंग-प्रत्यंगों का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता है। भृर्तहरि का नीतिशतक एवं वैराग्य
शतक, डॉ. राधा शर्मा का कालिदास का राजतंत्र भी इस
सन्दर्भ में महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। |
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मुख्य पाठ |
राजधर्म की संकल्पना- राजधर्म धर्मशास्त्र का एक महत्वपूर्ण विषय है। धर्म शास्त्र में राजधर्म का
विशद् विवेचन उसकी प्राचीनता के साथ किया गया है । ब्रह्मा, महेश्वर, स्कन्द, इन्द्र, प्राचेतस
मनु, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, वेदव्यास एवं गौरशिरा राजधर्म के
व्याख्याता थे, जिन्हें राजशास्त्र प्रणेतार कहा गया
है। ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों का राजशास्त्र लिखा जिसे उपर्युक्त मुनियों ने
क्रम से संक्षिप्त किया तथा गौरशिरा एवं व्यास ने उसे क्रम से पाँच सौ एवं तीन सौ
अध्यायों में लिखा।[1] इन्ही तथ्यों का
प्रतिपादन महाभारत के शान्तिपर्व में भी किया गया है।।[2] प्राचीन भारतीय मनीषियों ने राजनीति में शुचिता को जीवित रखने एवं प्रजा को
सर्वोपरि स्थान देने के लिए राजा पर एक अंकुश के रूप में राजधर्म की संकल्पना दी।
वैदिक ऋषियों की मान्यता थी कि प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित (प्रजानानुरंजन) है तथा प्रजा के हित में ही उसका हित निहित है। यहीं कारण है कि कानून के
निर्माण का अधिकार राजा के पास नहीं था बल्कि वह तो मात्र निर्मित कानूनों का पालन
सुनिश्चित करता था, तथा उनके अनुसार न्याय करता था।
प्राचीन संस्कृत वांग्मय में राजधर्म के दो रूप समष्टिपरक एवं व्यष्टिपरक स्पष्ट
रूप से परिलक्षित होते हैं। व्यष्टिपरक राजधर्म के अन्तर्गत राजा के स्वयं के
कर्तव्य या आचरणीय कृत्य और समष्टिनिष्ठता में जन जीवन के विकास, संरक्षा और कर्तव्य पालन का नियमन समाहित होता है। वस्तुत: यही राज धर्म की अन्तिम सीमा है, इससे आगे वह
नहीं जा सकता।[3] राजधर्म: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य- सर्वप्रथम वैदिक साहित्य में तत्कालीन राजनैतिक विकास का ज्ञान होता है। वेदों
में राजा एवं राजवंशों का राजा के उदगम् सिद्धान्तों का, चुनाव, सभा, समिति एवं राज्य कार्य का उल्लेख मिलता है। 'राजा', राजन एवं राजन्य शब्द वेदों में[4] बहुधा प्रयुक्त है एवं उसका अभिप्राय विभिन्न स्थलों पर राष्ट्रनायक,
भद्र व्यक्ति[5] एवं राजवंशीय क्षत्रिय
माना गया है। प्रायः राजा वंश परम्परा से ही हुआ करता था, वेदों में प्रजाजन एवं विश् द्वारा राजा के निर्वाचन के संकेत भी वेदों
में पाये जाते हैं। राजा को राज्य प्राप्त कराने में सहायक लोगों को 'राजकृत' कहा गया है, जिनको प्रमुख रूप से सूत , ग्राम, मुखिया, रथकार, कुशल धातु निर्माता जनो की गणना की गई है।[6] महते ज्येष्ठाय, महते जान, राज्याय, शब्द जनराज्य एवं प्रजातन्त्र की सूचना देते है। वहीं विराट, सम्राट, जनराट, स्वराट्
शब्दों का प्रयोग राजा के लिए किया गया है। अथर्ववेद में राजा के लिए इन्द्र के
समान विश्व में सुस्थिर रहने तथा राज्य धारण करने की कामना की गई हैं। प्राचीन ग्रन्थों में राजधर्म के अन्तर्गत राज्य के सात अंगो का विवेचन किया
जाता था। वे सात अंग हैं- 1. राजा 2. अमात्य 3. जनपद या राष्ट्र 4. दुर्ग सुरक्षित नगर 5. कोश 6. दण्ड (सेना) 7. मित्र।[7] राज्य के इन
सप्तांगों की तुलना शरीर के विभिन्न अंगो से की गई है, यथा
राजा सिर है, मन्त्रीगण आँखे हैं, मित्र कान हैं, कोश मुख है, बल मन है, दुर्ग एवं राष्ट्र हाथ तथा पैर हैं।[8] सभी अंगों को एक दूसरे का पूरक माना गया है
इन सबके परस्पर सहयोग से ही राष्ट्र पुष्ट एवं समृद्ध होता है । ब्राह्मणों ग्रन्थों में भी राजत्व के उद्गम के संकेत मिलते हैं। युद्ध
सम्बन्धी आवश्यकताओं ने राजत्व को जन्म दिया। "असुरों द्वारा देवो की पराजय
होने पर उन्होंने एक मत होकर राजा के चुनाव का निश्चय किया।[9] ब्राह्मण ग्रन्थों में भी राजनीति के समानार्थक शब्दों का 'अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, महाराज, अधिपति व एकराट् उल्लेख मिलता है।
"समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट कहलाता था।[10] तैतिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि रत्नी लोग राजा को राज्य प्रदान
करते थे।[11] सूत्र ग्रन्थों में भी राजा के विषय में कहा गया है कि राजा को त्रयी (तीनों
वेद) तथा आन्वीक्षिकी विद्या से युक्त होना चाहिए।[12] सूत्र ग्रन्थों में "राजा में
दैवी अंशों की कल्पना की गई है व उसको सर्वोच्च सत्ता माना गया है। पर
सर्वसम्मान्य होते हुए भी राजा प्रजा का सेवक माना जाता था व राजा का मुख्य
कर्तव्य प्रजा को संरक्षण प्रदान करना था।[13] धर्मसूत्रों
में राजा को प्रजारक्षार्थ युद्ध करने के लिए प्रेरित किया गया है।[14] आदिकाव्य रामायण में राजधर्म की विशद् चर्चा की गई है। रामायण में उल्लेखित
राजधर्म को भारतीय जनमानस में एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता है। रामायण
में राजा के महत्व को स्वीकारते हुए कहा गया है कि "राजा सभी प्राणियों का
रक्षक तथा धर्म का प्रवर्तक है।" अयोध्या नरेश राम ने बताया था "कि जब
कोई नागरिक राजमुकुट धारण कर एक राजा की पदवी स्वीकार कर लेता है तो वह अपना
संपूर्ण जीवन प्रजा हित के लिए, न्यौछावर कर देता है एक राजा के लिए निजी सुख दुःख, राय, परिवार इत्यादि कुछ मायने नहीं रखता,
क्योंकि उसके लिए सम्पूर्ण प्रजा उसका परिवार होती है। पुत्रवत
प्रजा का रक्षण करना प्रजापालन में तत्पर रहना, प्रजा रंजन राजा
के प्रमुख धर्म कहे गये हैं। " प्रशासकीय कार्यों के अन्तर्गत मन्त्री व अन्य
वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति, उनके कार्यों का
निरीक्षण, आन्तरिक तथा बाह्य नीति निर्धारण, सैन्य संचालन, दूत और चर व्यवस्था भी राजा के
ही आश्रित थी।[15] रामायण में राज धर्म अपने
परिष्कृत रूप में विकसित हो चुका था एवं राजधर्म के प्रति जनमानस अथवा प्रजा का
आदर भाव था। महाभारत 'राजधर्म के विषय में महत्वपूर्ण एवं परमोपयोगी तथ्यों पर
प्रकाश डाला गया है। महाभारत के शान्तिपर्व में राज धर्म का स्वरूप बताते हुए “राज धर्म को सभी धर्मो का मूल कहा गया है।" इसमें राजधर्म जैसे गूढ
एवं सूक्ष्म विषय को विभिन्न उपाख्यानों, संवादों के
माध्यम से सुबोध्य बनाया गया है। शांतिपर्व में राजधर्म का अभिप्राय बताते हुए कहा
है- "राजा के प्रजा तथा राज्य के प्रति कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व ।” समाज में शान्ति एवं सुव्यवस्था राजा एवं राजधर्म पर ही आश्रित होती हैं। शांतिपर्व से वर्णन किया गया है 'राज धर्म ही
सभी मनुष्यों को संरक्षण प्रदान करता है जिससे मानव अपने धर्म का पालन करते हुए
परम पुरुषार्थ को प्राप्त करता है। "जैसे सूर्य उदय होकर घोर अन्धकार को नष्ट
कर देता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीव लोक के आधार स्वरूप' राजधर्म' द्वारा प्राणियों की अशुभ गति का
निवारण होता है।" राजधर्म में त्याग की परम भावना समाहित होती हैं। शान्ति
पर्व में वर्णन है कि पृथ्वी का संस्कार करने, राजसूय -
अश्वमेधादि यज्ञों में अवभृथ स्नान द्वारा प्रजापालन करते हुए दुष्टों के संहार
तथा धर्म की स्थापना के लिए युद्ध भूमि में अपने प्राणों का त्याग करना
सर्वश्रेष्ठ व्याग है। राजा रहित राज्य में धर्म का अस्तित्व नहीं रहता है, इसलिए समाज एवं राष्ट्र को सुव्यवस्थित रखने के लिए राजधर्म की महत्ता
अक्षुण्ण है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत काल तक एक व्यवस्थित राजधर्म की
स्थापना हो चुकी थी। भारतीय जीवन एवं साहित्य में जो कर्तव्य गणतंत्र में सरकार द्वारा पूरणीय माने
जाते हैं। उन सबके एकमात्र राजा पर आधारित होने के कारण राजा में ही सम्पूर्ण
महत्व और प्रभाव केन्द्रित हो गया। राजा ही अपने सेवक मण्डल सहित आज की सरकार का
स्थानापन्न हुआ और राजा की नीति, अधिकार और कृतव्यो में ही शासन प्रबन्ध समा गया।
"राजा को पृथ्वीपालन के कार्य में नियमित करने के लिए प्राचीन भारत में
प्रागैतिहासिक काल से ही राजनीतिशास्त्रों का निर्माण विभिन्न आचार्य द्वारा होता
रहा है।[16] उन सबके आधार पर एक महत्वपूर्ण प्रयत्न
अर्थशास्त्र' नाम से आचार्य चाणक्य ने किया है ।[17] राजा राज्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। " राजा और राज्य इन दो
में राजतंत्र की सब प्रकृतियां सिमट जाती है।[18] राज्य का केन्द्र होने के कारण सम्पूर्ण राज्य राजा पर ही निर्भर करता था।
सच्चे अर्थो में राजा युग प्रवर्तक होता था, इसलिए कालिदास ने कहा है" राजा
कालस्य कारणमा।[19] समय का निर्माता राजा ही होता है।
अश्वघोष के समय में राजा को दिव्य पुरुष के रूप में माना जाता था, वे कहते हैं- "नृपः प्रजाभाग्यगुणैः प्रसूयते।[20] "ईश्वर द्वारा देवी शक्तियों के अंश लेकर राजा का सृजन किया जाता है।[21] सभी प्राचीन साहित्य में राजा की अलौकिकता और महता स्वीकार की गई है।
राजकीय जीवन के सुचारु संचालन के लिए राजा राजनीति का प्रयोग करता है। राजधर्म के
स्वरूप की विवेचना करते हुए भर्तहरि कहते हैं कि “राजनीति
नगरवधू की भांती है जो की अनेक रूपों वाली होती है यहाँ भर्तहरि ने सत्य असत्य,
कठोर-प्रिय, हिंसक-दयालु,आय-व्यय, आदि विरोधो के समावेश के कारण राजनीति को
एक वेश्या के रूप में देखा है। राजा का सम्पूर्ण व्यवहार राजनीति से ही निर्धारित
होता है इस प्रकार उपर्युक्त समस्त एतिहासिक परिप्रेक्ष्य इस बात के सूचक है कि बहुत प्रारंभ से ही राजधर्म चिंतन की धारा प्रवाहमान रही थी एवं राजधर्म की
संकल्पना का विकास भारत में समय के प्रवाह के साथ शनैः- शनैः हुआ है।[22] आचार संहिता के रूप में समावेशी राजधर्म- संस्कृत वांग्मय में राजधर्म की संकल्पना राजा के लिए एक आचार संहिता के रूप
में की गई। यह एक ऐसी आचार संहिता थी जो राजा की व्यक्तिगत इच्छाओं को स्पष्ट रूप
से नकारती थी। इसमें राजा की सभी गतिविधियो पर कठोर अंकुश स्थापित किया गया था। शासन की राजधर्म की दृष्टि से राजा और उसके अधीनस्थ राज्य शामिल थे।
धर्मशास्त्र, स्मृति के प्रावधानों में संविधान और राज्य संस्थानों, राजशाही, राजा की प्रक्रिया, राजा की आचार संहिता, राजा की विरासत युवा
राजकुमारों की शिक्षा और केबीनेट नियुक्तियों सहित विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला
शामिल है। सभी धर्मो को राजधर्म में समाहित माना गया है। इसलिए इसे सर्वोच्च धर्म
की संज्ञा दी गई।[23]
महाभारत के शांतिपर्व में राजधर्म के समावेशी रूप की स्पष्ट रूप से व्याख्या
की गई है। शांतिपर्व में भीष्म पितामह सम्राट युधिष्ठिर से कहते हैं कि जैसे हाथी
के पदचिन्ह में सभी प्राणियों के पदचिन्ह विलीन हो जाते हैं, उसी
प्रकार सब धर्मों को सभी अवस्थाओं में राजधर्म के भीतर ही समाविष्ट हुआ समझना
चाहिए।[24] |
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निष्कर्ष |
संस्कृत वांग्मय में
राज धर्म से सम्बन्धित साहित्य का विहगावलोकन यह स्पष्ट करता है कि वर्ष वैदिक
ऋषियों का युग शक्ति एवं स्फूर्ति का युग था, जब
भारत ने अपने अमर विचारों की घोषणा की थी। एकैव मानुषि जाति "का उद्घोष करने
वाला भारत सार्वभौम मानव धर्म की बात करता था। यही कारण है कि भारतवर्ष में
विचारों की सहस्रधाराएँ चहुँ दिशा में फैली और उन्होंने राजधर्म के न केवल ऐसे
सिद्धान्त दिए बल्कि उन्हें कार्यान्वित करके भी दिखाया जिन्हें आज का मानव एक
प्रकार से अकल्पनीय मानता है। ऐसा नहीं है कि राजधर्म एक प्राचीन विषय है और इसकी
वर्तमान समय मे कोई प्रासंगिकता नहीं है क्योंकि यदि यथार्थ में ऐसा ही होता तो
गोधरा दंगों (2002) के बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी
वाजपेयी ने गुजरात के दौरे पर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपना संदेश देते हुए
कहा था कि - वे राजधर्म का पालन करें। राजा के लिए, शासक
के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न सम्प्रदाय के आधार पर।
यही सच्चा राजधर्म है जिसकी बात सदियों पूर्व महाभारत में पितामह भीष्म कहते हैं
कि युधिष्ठिर प्रजा को यह स्मरण कराना होगा कि वह राजा हो गई है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. (क) नीति प्रकाशिका, |