ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- VI September  (Part-1) - 2021
Anthology The Research

रामविलास शर्मा के दांपत्य प्रेम में आदर्श और जीवन-मूल्य

Ideal and Values in Marital Life in Literature of Ram Vilas Sharma
Paper Id :  18121   Submission Date :  16/09/2021   Acceptance Date :  22/09/2021   Publication Date :  25/09/2021
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जसवीर त्यागी
एसोसिएट प्रोफे़सर
हिंदी विभाग
राजधानी कॉलेज, राजा गार्डन
नई दिल्ली,भारत
सारांश

उत्तर आधुनिकता के दौर में पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला है। जिसके कारण परिवार और दांपत्य जीवन प्रभावित होकर विघटन की ओर अग्रसर है। समाजशास्त्रियों के लिए यह चिंता और चिंतन का विषय है। आज दांपत्य जीवन कलह, मनमुटाव, बिखराव और टूटन के कगार पर है। विचारों में भिन्नता और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास आदि अनेक कारण हैं, जो दांपत्य जीवन की आधारशिला को खोखला कर रहे हैं। पति-पत्नी के बीच तनाव उत्पन्न होता है जिससे दांपत्य जीवन की मधुरता तिक्तता में बदल जाती है। भारतीय परिवार की नींव है दांपत्य जीवन। पति-पत्नी के संबंध से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया विकसित होती है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the era of post-modernity, western culture has had a deep impact on Indian culture. Due to which family and married life is getting affected and moving towards disintegration. This is a matter of concern and contemplation for sociologists. Today married life is on the verge of discord, discord, disintegration and breakdown. There are many reasons like difference of opinions and distrust towards each other, which are hollowing the foundation of married life. Tension arises between husband and wife due to which the sweetness of married life turns into bitterness. Married life is the foundation of the Indian family. Through the relationship between husband and wife, the process of family building, family through society and society through nation building develops.
मुख्य शब्द रामविलास शर्मा, जीवन-मूल्य, दांपत्य प्रेम, पाश्चात्य संस्कृति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Ram Vilas Sharma, Values of Life, Marital Love, Western Culture
प्रस्तावना

डॉ॰ रामविलास शर्मा हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकार हैं। हिंदी साहित्य को जानने, समझने के लिए उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। वे हिंदी आलोचना के आधार स्तम्भों में एक हैं। आलोचना की परंपरा, प्रवृत्ति, विकास-यात्रा और उसके महत्त्व में रामविलास जी का उल्लेखनीय योगदान रहा है।

अध्ययन का उद्देश्य

रामविलास शर्मा का दांपत्य जीवन स्नेह, सहयोग, स्वतंत्रता, समानता और परस्पर सामंजस्यता पर आधारित है। उनका जीवन सहज आकर्षित करता है। रामविलास शर्मा के दांपत्य प्रेम में आदर्श और जीवन-मूल्यप्रस्तुत विवेचन के केंद्र में है, ताकि पाठक उन आदर्शों और जीवन मूल्यों से परिचित हो सकें, जिनसे उनका प्रेरक व्यक्तित्व विकसित हुआ है।

साहित्यावलोकन

उनका जन्म 10 अक्टूबर 1912 में ऊँच गाँव-सानी जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ। वे छह भाई और एक बहन थे। जब वे आठवें दर्जे में पढ़ रहे थे, और 14साल की उम्र भी पूर्ण नहीं हुई थी, उनका विवाह उत्तर प्रदेश के जबरौली गाँव की कैलासकुमारी से कर दिया गया। रामविलास जी अपनी आत्मकथा अपनी धरती अपने लोगखण्ड-1 में लिखते हैं - सन् 1926 में मेरा ब्याह हो गया। मैं झांसी में था। दउवा ने बताया कि तुम्हारा ब्याह होगा। मैं अभी आठवें दर्जे में पढ़ रहा था और 14 साल का भी न हुआ था। इतना जानता था कि बचपन में ब्याह होना ठीक नहीं है। भैया का जल्दी ब्याह हो गया था। वह बताते थे, जल्दी ब्याह से यह हानि होती है। मैंने दउवा से कहा, मैं ब्याह न करूँगा। उन्होंने कहा, बाबा ने बुलाया है, तुम्हें जो कहना है उनसे कहना। तब मुझे फरवरी में सूरजबली भैया के साथ झांसी से गाँव आना पड़ा। घर पहुँचने पर बाबा ने कहा - तुम्हारी अम्मा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। अजिया बूढ़ी हैं। अब हमारी सेवा के लिए यहाँ एक और स्त्री की ज़रूरत है। तुम्हारा ब्याह हो जाएगा तो तुम्हारी स्त्री यहाँ रहेगी। तुम झांसी में रहोगे और वह यहाँ रहेगी। तुम आगे पढ़ना चाहते हो तो उसमें कोई बाधा न पडे़गी। मेरे पास बाबा की बात का कोई जवाब न था।”[1]

1926 की गरमियों में रामविलास जी का ब्याह हो गया। भारतीय समाज में पहले अधिकांश ब्याह-शादी गरमियों के मौसम में ही होते थे। उसका मुख्य कारण था बहुतांश समाज का कृषि केंद्रित होना। किसानी-जीवन में ग्रीष्म में विवाह करना सुविधाजनक रहता था। रामविलास जी अपने बाल-विवाह के बारे में बताते हैं- गाड़ियों में बारात चली, जबरौली पहुँची, वहाँ तीन दिन टिकी रही। बारात बिदा हो गई, लेकिन मेरी पत्नी मायके में रहीं। दो साल बाद गौना हुआ। बाबा ने कहा था, ‘अम्मा की मदद के लिए स्त्री आ जाएगी, यह बात कट गई।.. जब मैं दसवे दर्जे में था तब बिदा कराने मेरे साथ दउवा भी गए। जबरौली से बिदा कराके चले तो मेरी छोटी-सी पत्नी जिन्हें हम बाद में मालकिन कहने लगे, बहुत रो रही थीं। मैंने दउवा से कहा, ये इतना रोती हैं, इन्हें क्यों ले चल रहे हैं? इनको यहीं छोड़ दें। दउवा कहने लगे- तुम अभी कुछ समझते नहीं हो। खैर! मालकिन घर आ गई और कुछ दिन बाद वापस चली गईं।”[2]

प्रस्तुत उद्धरण से यह तो स्पष्ट होता है कि रामविलास जी का विवाह बाल्यकाल में हो गया था। यह प्रसंग तत्कालीन सामाजिक युगबोध को भी व्यक्त करता है। सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने अपनी पुस्तक भारतीय ग्राम’[3] में परिवेश, सामाजिक गठन, अर्थ-व्यवस्था, धार्मिक गतिविधियाँ, पारिवारिक संबंध-सूत्र, जीवन-स्तर, सामुदायिक जीवन बदलता स्वरूप आदि पर विस्तार से चर्चा की है।

दसवें दर्जे में पढ़ते हुए रामविलास जी ने पहली बार अपनी पत्नी का मुँह देखा था। उनकी पत्नी विधिवत तरीके़ से स्कूल नहीं गयी थीं। स्कूल जाने की उम्र में उनका विवाह हो गया    था। स्वाधीनता पूर्व भारतीय समाज में लड़कियों की शिक्षा बहुत कम थी। रामविलास जी ने अपनी पत्नी को स्वयं घर पर ही लिखाया-पढ़ाया, उन्हें साक्षर बनाया। अपने बड़े भाई भगवानदीन शर्मा को 30 मार्च, 1933 के पत्र में वे लिखते हैं- अभी स्थिति यह है कि मित्रों की पत्नियों और उनके संबंधियों से अपनी पत्नी और बच्चों का परिचय कराते थोड़ी शर्म लगती है। लेकिन ऐसा हमेशा न होगा। मैं उन्हें पढ़ाऊँगा और दिखा दूँगा कि जो अपने रूप पर फूले हुए उनकी हेठी करते हैं, वे उन्हें सीस नवाते और पूजते हैं। मैं समझता हूँ कि ऊँची शिक्षा पाने योग्य मस्तिष्क उनके पास है।”[4] रामविलास जी पुरातन-पंथी, रूढ़िवादी विचारों के घोर विरोधी थे। वे प्रगतिशील वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जीवन में प्रश्रय देते थे। रामविलास शर्मा लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के प्रथम पीएच॰डी॰ धारक थे। उन्होंने निर्मल कुमार सिद्धांत के निर्देशन में कीट्स एण्ड द प्रिरफेलाइट्सविषय पर शोध-ग्रंथ लिखा, तथा अपना थीसिस स्वयं टाइप किया था। सन् 1940 में उन्हें पीएच॰डी॰ की उपाधि मिली। वे लिखाई-पढ़ाई को बहुत अहमियत देते थे। उन्होंने परिवार की स्त्रियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। रामविलास जी की पत्नी कैलासकुमारी का मालकिननाम उनके (जेठ) बड़े भैया भगवानदीन शर्मा ने झांसी में रखा था। तब से रामविलास जी भी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे। उन्होंने बड़े भाई को लिखे पत्र में अपनी पत्नी को पढ़ा-लिखाकर शिक्षित करने का जो संकल्प लिया था, उसे पूर्ण कर दिखाया। धीरे-धीरे निरंतर प्रयास और पति के अटूट समर्पित सहयोग से मालकिनहिंदी-अंग्रेज़ी पढ़ने में सक्षम हो गयीं। 

रामविलास जी मालकिनशीर्षक से लिखे अपने संस्मरण में लिखते हैं- घर में फुरसत के समय वह हिंदी पढ़ती थीं। शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचंद घर मेंउन्हें बहुत पसंद थी। गोदानउन्होंने मेरे साथ पढ़ा था। उपन्यास के पात्रों से मिलते-जुलते गाँव के लोग उन्हें याद आ जाते थे और वह उनकी चर्चा करने लगती थीं। मैंने अंग्रेज़ी की शुरुआत किंग रीडरसे की थी। वह किताब मालकिन ने भी पढ़ी। किंग रीडरके अनेक शब्द उन्हें वैसे ही याद थे। कभी बातचीत में वह उनका प्रयोग भी करती थीं। मैं अपनी किताबें इधर-उधर रखकर भूल जाता था। मालकिन उन्हें ढूंढकर मेरे पास रख देती थीं।... अवधी की बहुत सी कहावतें उन्हें याद थीं। मानक हिंदी में बातें करते हुए वह बीच-बीच में इन कहावतों का प्रयोग भी करती थीं। भाषा विज्ञान पर पुस्तक लिखते समय कोई शब्द याद न आता था, तो मैं उनसे पूछ लेता था, इसे गाँव में क्या कहते हैं।”[5] कहते हैं कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है। वह स्त्री माँ, बहन, पत्नी कोई भी हो सकती है। रामविलास जी के जीवन और लेखन में उनकी पत्नी कैलास कुमारी का अविस्मरणीय योगदान रहा। उनकी देवरानी श्रीमती रक्षा शर्मा उन पर लिखे मेरी ममतामयी जेठानीसंस्मरण में कहती हैं -डॉ. साहब के प्रति उनकी भक्ति व अनुरक्ति तो अवर्णनीय है। डॉ॰ साहब को वह घर की किसी भी चिंता में नहीं डालती थी। यदि उनका लेखन कार्य चल रहा है या वह सो रहे हैं तो उनका यही प्रयत्न रहता कि कोई बाधा न आये।”[6]

रामविलास जी के तीन पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं। वर्तमान में उनकी एक संतान पुत्री शोभा जेटली हैं। अपनी अम्मा की स्मृतियों को याद करते हुए उन्होंने इन पंक्तियाँ के लेखक को बताया हम सब बच्चे अपने पिताजी को चाचा कहते थे। अम्मा चाचा का बहुत ध्यान रखती थीं। उनके लत्ते-कपड़े, जूते और ज़रूरत के अन्य सब सामान हमारी अम्मा ही खरीदती थीं। चाचा का अधिकांश समय लिखने-पढ़ने में ही जाता था। हमने अपने चाचा और अम्मा को कभी लड़ते-झगड़ते नहीं देखा।”[7]

रामविलास जी परिवार को बहुत तवज्जो देते थे। वे अपनी पत्नी का विशेष ध्यान रखते थे उनके दामाद (जामाता) आत्माराम शर्मा अपने संस्मरण ससुराल में आगमनमें लिखते हें - चाचा (रामविलास शर्मा) को अपने से ज़्यादा चिंता अम्मा की होती और उनके लिए सभी प्रिय चीज़ों को त्याग सकते हैं। चीनी, नमक, घी, मिठाई आदि ये सब चीजे़ं अम्मा की वजह से कम कर दी थीं।”[8] सरलता, सघनता और अनन्यता, प्रेम के तीन गुण माने गये हैं। रामविलास जी के व्यक्तित्व में इन तीनों गुणों का समन्वय था।

रामविलास जी संयुक्त परिवार में रहते थे। संयुक्त परिवार में सबके साथ चलने और सबको साथ लेकर चलने की सोच केंद्र में रहती है। उनकी पत्नी ने संयुक्त परिवार की अवधारणा का सदा सम्मान किया, और उसे कभी टूटने-बिखरने नहीं दिया। वे बहुत कर्मठ और जीवट की महिला थीं। परिवार में सभी उनका सम्मान करते थे। छह भाईयों में रामविलास जी का नम्बर दूसरा था। उनके एक छोटे भाई रामशंकर शर्मा का पारिवारिक नाम अवस्थीथा। रामविलास जी के परिवार से सचेतकनाम का एक साहित्यिक-पत्र प्रकाशित होता है, यह पत्र सन् 1980 से बिना किसी अवरोध के आज तक निरंतर प्रकाशित हो रहा है। सचेतकका मुख्य लक्ष्य परिवार के सदस्यों का हिंदी-प्रेमरहा है। अवस्थीने रामविलास जी की पत्नी यानी अपनी बड़ी भाभी के बारे में लिखा- परिवार के इतिहास में उनकी एक विशेष भूमिका रही है। वह इस परिवार में उस समय आयीं थी, जब उसका केंद्र गाँव था। ग्रामीण परिवेश में उन्होंने अपने आपको अनुकूल पाया था। परिवार के युवा ग्रामीण वातावरण छोड़ विद्या अध्ययन के लिए बाहर निकल आये थे, इसी के साथ भाभी भी गाँव से शहर आयीं। पहले झांसी फिर लखनऊ, आगरा, दिल्ली तथा अंत में बनारस में रहीं।”[9]

मालकिन (रामविलास जी की पत्नी) बच्चों को अनन्य प्रेम करती थीं। बच्चे भी उन्हें खूब मानते थे। रामविलास जी के अनुज रामशरण शर्मा मुंशीके सुपुत्र मुकुल शर्मा अपने संस्मरण ताई जी : नज़दीक सेमें लिखते हैं- कई बार दोपहर को ताई जी हम लोगों के पास बैठ जातीं, सिर में तेल डालती और बाबा, दौआ, दादी चाचा और अम्मा के बारे में बतातीं। हमारी अम्मा की बहुत तारीफ़ करती थीं। उनकी कोई बुराई नहीं सुन सकती थी, चाहे वह चाचा (पिताजी) ही क्यों न कर रहे हो।”[10] परिवार परस्पर प्रेम, सौहार्द्र, आपसी सद्भाव से चलता है। मालकिन सबके प्रति सहयोग की भावना रखती थीं। अनेक साहित्यकार रामविलास जी के घर आते थे। उनके आदर-सत्कार का भार मालकिन पर रहता था। निराला जी, अमृतलाल नागर, पढ़ीस जी, केदारनाथ अग्रवाल आदि घर पर आया करते थे। सबके प्रति मालकिन का व्यवहार समान रहता था।

निराला रामविलास जी के प्रिय कवि रहे। दोनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना था। निराला रामविलास जी को बहुत मानते थे। उन्होंने रामविलास जी को पीएच॰डी॰ की डिग्री मिलने से पूर्व ही डॉक्टर संबोधन देना शुरू कर दिया था। रामविलास जी लिखते हैं - निराला जी कभी-कभी सवेरे आ जाते। चौबे से कहते, चौबे अपनी भाभी से कहना, दो रोटी हमारे लिए भी बना लें। खाकर तृप्त होने के बाद कहते, चौबे तुम्हारी भाभी के हाथ का भोजन दिव्य होता है। बात सही थी। निराला का प्रसंग आने पर मालकिन यह बात आम लोगों को ज़रूर सुनी देती    थीं।”[11] निराला जी के द्वारा भोजन की प्रशंसा करना किसी भी गृहिणी के लिए बड़े पुरस्कार से कम नहीं रहा होगा। मालकिन को दूसरों को खिलाने का बहुत शौक था। विवाह-शादी के अवसर पर किसने खाया, किसने नहीं, इसका उन्हें पूरा ध्यान रहता था। शादी-ब्याह की व्यवस्था वे ऐसे करती थी कि किसी को कोई कष्ट न हो।

रामविलास जी अपनी पत्नी का बड़ा ख़्याल रखते थे। सामाजिक समारोह में उन्हें साथ लेकर जाते। पत्नी की सुख-सुविधा, ज़रूरत का उन्हें निरंतर ध्यान रहता था। स्नेह, साहचर्य, सहयोग, समानता, समर्पण रामविलास जी के दांपत्य- जीवन के आदर्श मूल्य थे। रामविलास जी की भतीजी सोना शर्मा 22.1.80 को आगरा से अपनी बड़ी बहन कादम्बरी शर्मा को पत्र में लिखती हैं - आजकल मैं ताऊजी व ताईजी के साथ रह रही हूँ। ताऊजी व ताईजी का आपसी सहयोग और शांत जीवन एक अद्भुत साधना की उपलब्धि लगता है। सुखी वैवाहिक जीवन की समस्या आज के साहित्य की शायद प्रधान समस्या हो गयी है। कारण है बदला हुआ युग व बदलती परिस्थितियाँ। एक ऐसा स्थायित्व जो सुख दे सके अथवा कह सकते हैं कि सुख या सुखानुभूति का स्थायित्व - यही शायद यांत्रिक युग के भावना-संपन्न मनुष्य की आकांक्षा है। इस सुख को इसी युग में पाने में ताऊजी, ताईजी सफल हुए हैं।”[12] सफल दांपत्य जीवन पति-पत्नी के बीच परस्पर स्नेह, सहयोग और समानता पर आधारित होता है। नारी न तो पुरुष की दासी है और न ही पुरुष नारी का गुलाम है। दोनों स्वतंत्र व्यक्तित्व हैं। पति-पत्नी अपने अहंकार को लेकर सुखी नहीं रह सकते और न ही बहुत अधिक महत्त्वाकांक्षी होकर जीवन में खुशी पा सकते हैं। एक सहज, सरल और उद्देश्यपूर्ण ज़िंदगी ही वास्तविक ज़िंदगी है। अस्मिता, स्वतंत्रता, समानता और सामाजिकता स्त्री-पुरुष के दांपत्य जीवन के सार शब्द हैं। इस अर्थ में रामविलास जी का दांपत्य जीवन सफल, आदर्श जीवन कहा जा सकता है।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ मालकिन का स्वास्थ्य ख़राब रहने लगा। रामविलास जी उनकी सेहत के प्रति सजग-सावधान रहते थे। साहित्य अकादमी, दिल्ली में 11 जनवरी, 1994 को बोलते हुए उन्होंने अपने भाषण में कहा - लगभग 25 वर्ष पहले मेरी पत्नी बीमार रहने लगीं। मैं आगरे में था और अकेले उनकी सेवा करता था। उन्हें छोड़कर जाने में बहुत कठिनाई थी। कभी-कभी लोग कहते थे, किसी को यहाँ बिठा दे, आप चलिए। मैंने कहा, मेरा मन नहीं करता, कहीं बाहर जाकर बोलने को फिर ऐसा नियम बन गया मैंने बाहर जाना बंद कर    दिया।” [13]

रामविलास जी के वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि उनके लिए प्रसिद्धि प्रचार से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण अपनी बीमार पत्नी की देखरेख और सेवा करना था। पत्नी के प्रति प्रेम, श्रद्धा, सम्मान, त्याग और अटूट समर्पण उनकी चारित्रिक उज्ज्वलता के परिचायक हैं। मालकिन मधुमेह की मरीज़ थीं, और एक-दो छुटपुट रोग उन्हें घेरे रहते थे। रामविलास जी बीमारी में सदा उनके पास रहते थे। यहाँ तक कि मालकिन के चाय छोड़ देने पर रामविलास जी ने भी चाय पीना छोड़ दिया था। रामविलास जी अपनी पत्नी को कितना मानते थे, इसका प्रमाण 17 अप्रैल, 1975 को कवि केदारनाथ अग्रवाल के नाम लिखे पत्र से लगाया जा सकता है -आजकल मैं भी घूमने नहीं जा पाता सवेरे मालकिन के साथ रसोईघर में नाश्ता बनवाता हूँ।”[14]  प्रस्तुत पत्रांश पति-पत्नी के प्रेम, अटूट सहयोग, समानता और समर्पण का साक्षी है। साहित्य और विचारधारा किसी लेखक के सिर्फ़ लेखन से ही व्यक्त नहीं होते, वे उसके व्यक्तित्व और आचरण के अभिन्न अंग भी होते हैं।

रामविलास जी ने अपनी बातचीत में कई बार इस सच्चाई को स्वीकार किया कि उनकी लिखाई-पढ़ाई में बहुत बड़ा योगदान उनकी पत्नी का रहा। उनके त्याग, समर्पण, सहयोग के बूते ही वे जीवन में कुछ सार्थक लिख-पढ़ सके। रामविलास जी के अध्ययन-कक्ष में उनके पलंग के सिरहाने पर मालकिन और निराला जी की फ़ोटो रखी रहती थी। 1 दिसंबर, 1967 को अपने छोटे भाई रामशरण शर्मा मुंशीको दिये अपने एक इंटरव्यू में वे कहते हैं - अक्सर ऐसा होता है कि उन्होंने कहा -बैठो तो एक बात बतायें तो’, हम बैठने से पहले ही कहते हैं - तुम यही कहोगी।एक तरह का Telepathic communication- जो हफ़्ते में एक बार ज़रूर होता है। शकुंतला ने दुष्यंत को डाँटते हुए कहा था कि मैं तुम्हारी पत्नी नहीं, तुम्हारी माँ भी हूँ। यह पंक्ति मुझे अक्सर याद आती है। एक होमर की पंक्ति ज़िंदगी के अनुभवों के आधार पर बहुत मीठी लगती है - "I will not exchange my old wife for immortality."[15]  रामविलास जी की बातचीत के इस उद्धरण से अपनी पत्नी के प्रति उसकी अनन्य आत्मीयता और अटूट समर्पण का सहज परिचय मिलता है। रामविलास जी के मंझले सुपुत्र भुवनमोहन शर्मा काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बी॰एच॰यू॰) में थे। उनकी माता जी वहीं पर उनके साथ थीं। रामविलास जी उस समय अपने छोटे सुपुत्र विजयमोहन शर्मा के पास जनकपुरी, दिल्ली में थे। 14 अगस्त, 1983 को रामविलास जी को मालकिनके सख़्त बीमार होने की सूचना मिली। वे दिल्ली से बनारस के लिए रवाना हुए। वहाँ पहुँचकर उन्हें ज्ञात हुआ कि मालकिन नहीं रहीं। रामविलास जी ने स्वयं को लेखन के प्रति समर्पित कर दिया और पत्नी को अपने शब्द और कर्म में सदा के लिए अमर कर दिया। रामविलास जी के बड़े भाई भगवानदीन शर्मा ने मालकिनके न रहने पर 15 नवंबर, 1983 के सचेतक में लिखा - मालकिन नहीं रहीं, एक युग नहीं रहा। वास्तव में मालकिन एक साक्षात आदर्श गृहणी की मूर्ति थीं। उनकी आत्मा की शांति का तो प्रश्न ही क्या। वह तो अनेक रूपों में अब भी विद्यमान है, और आशा है आगे भी रहेगी।”[16] 

प्रस्तुत टिप्पणी से मालकिनएक आदर्श गृहणी का सम्मान पाती है और संसार से विदा हो जाने के बाद भी अपने सद्गुणों के द्वारा दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनती हैं। संसार में किसी भी इंसान के जीवन की यह बड़ी सार्थकता और उपलब्धि मानी जा सकती है। 

सर्वनामपत्रिका के संपादक विष्णुचंद शर्मा ने रामविलास जी से अपनी पत्नी पर लिखने का निवेदन किया। रामविलास जी ने मालकिनपर लिखना आरंभ किया। कुछ अंश लिखने के बाद क़लम थम गयी, गला अवरुद्ध हो गया। आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। ऐसे में रामविलास जी ने विष्णुचंद्र शर्मा को अपने आत्मीय मित्र अमृतलाल नागर का 26 अगस्त, 83 का लिखा हुआ वह पत्र दिया जो उन्होंने मालकिनके देहांत के बाद रामविलास जी को लिखा था -

प्रिय रामविलास,

तुम्हारी जिस चिट्ठी को पाने का डर पिछले दो वर्षों से मेरे मन में समाया हुआ था वह कल शाम आ पहुँची। सुन्दरबाग लखनऊ में एकाध बार देखी हुई घूंघट वाली भाभी फिर आगरे की मर्दानी भाभी फिर रुग्णा भाभी - जनकपुरी में अंतिम बार देखी हुई भाभी तक - जाने कितनी तस्वीरें जीवंत होकर मन में नाच रही हैं, मानो इस ख़बर को झुठलाना चाहती हों कि भाभी नहीं रहीं। तुम्हारी सत्तरवी सालगिरह के बहाने जीवन में प्रथम और अंतिम बार उनके चरण छूने का सौभाग्य प्राप्त किया था। तपस्विनीं थीं। बड़ी भाग्यशालिनी थीं। रामजी उनकी फुलवारी सदा हरी भरी रखें, भाभी अब उनमें ही जीवित हैं। तुम्हारे द्वारा किये गये सारे लेखन कार्य में वे समाई हैं। दिल्ली में तुम से कहा था कि अब लेखनी को विश्राम दो, लेकिन अब यह कहने को जी चाहता है कि कोई ऐसा काम मन से उठा लो जिससे वे फिर आठों प्रहर तुम्हारे मन में जागती जोत-सी चमकती रहे।”[17]  कथाकार अमृतलाल नागर का यह पत्र बहुत महत्वपूर्ण और मार्मिक है। इस पत्र में मालकिन के व्यक्तित्व पर एक सार्थक टिप्पणी है। 

निष्कर्ष

सार रूप में कह सकते हैं कि पत्र की अंतिम पंक्ति मन में जागती जोत-सी चमकनामालकिन को रामविलास जी के लेखन में एक प्रेरक शक्ति के रूप में स्थापित करती है। परिवार राष्ट्र की लघु इकाई है। जब परिवार रूपी पौधा अपनी जड़ों के द्वारा गहराई से जुड़ा होता है, तभी राष्ट्र रूपी वृक्ष छाया, फूल, फल देने में सामर्थ्यवान बनता है। कोई भी इंसान, परिवार व राष्ट्र आदर्श और जीवन मूल्यों के बिना कभी भी प्रगति-पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। रामविलास जी के दांपत्य प्रेम को हम एक आदर्श दंपति के रूप में देख सकते हैं। उनके प्रगतिशील जीवन-मूल्यों को आत्मसात कर समाज में एक स्वस्थ दांपत्य प्रेम का प्रतिमान स्थापित किया जा सकता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. शर्मा, रामविलास, अपनी धरती अपने लोग (खण्ड-1), (1996, प्रथम संस्करण), किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-47
2. वही, पृष्ठ-47
3. दुबे, श्यामाचरण, देखें - भारतीय ग्राम, (1996), वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 1996
4. शर्मा, रामविलास, अपनी धरती अपने लोग (खण्ड-1), पृष्ठ-34
5. शर्मा, विजयमोहन/त्यागी, जसवीर, सचेतक और डॉ॰ रामविलास शर्मा (खण्ड-1) (संस्करण 2012), शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-65-66
6. शर्मा मुंशी’, रामशरण, संपा॰, सचेतक - (15 नवंबर, 1983), डॉ॰ रामविलास शर्मा का पारिवारिक पत्र, पृष्ठ-7
7. शोभा जेटली से 10 अक्तूबर, 2015 को हुई बातचीत से उद्धृत।
8. शर्मा, रामविलास, घर की बात, (2014 संस्करण), वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-273
9. सचेतक - 15 नवंबर, 1983, पृष्ठ-2
10. वही, पृष्ठ-5
11. शर्मा, विजयमोहन/त्यागी, जसवीर, सचेतक और डॉ॰ रामविलास शर्मा (खण्ड-1) पृष्ठ-64
12. शर्मा, रामविलास, घर की बात, पृष्ठ-345
13. शर्मा, रामविलास, अपनी धरती अपने लोग (खण्ड-2), पृष्ठ-217
14. शर्मा रामविलास, त्रिपाठी, अशोक संपा॰, मित्र संवाद, (1992, प्रथम संस्करण), परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ-399
15. सचेतक - 15 नवंबर, 1983, पृष्ठ-1
16. सचेतक, 15 नवंबर, 1983, पृष्ठ-1
17. शर्मा, विजयमोहन/नागर, शरद, संपा॰, अत्र कुशलं तत्रास्तु (रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर के पत्र) (2004), किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-234