ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- VI September  - 2023
Anthology The Research
वर्तमान समय में अहिंसात्मक आंदोलन की प्रासंगिकता
Relevance of Non-violent Movement in Present Times
Paper Id :  18148   Submission Date :  13/09/2023   Acceptance Date :  22/09/2023   Publication Date :  25/09/2023
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DOI:10.5281/zenodo.10203768
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नीतू शर्मा
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
(विद्या सम्बल) राजकीय महाविद्यालय
पिपाड़, जोधपुर,राजस्थान, भारत
सारांश

अहिंसात्मक आंदोलन वह आंदोलन है जिसमें आंदोलनकर्ता आत्मबल के आधार पर स्वयं कष्ट सहकर विरोधी को झुकाता है और अपनी मांगों को मनवाता है। अहिंसात्मक आंदोलन नैतिक बल से युक्त, पवित्र उद्देश्य की पूर्ति हेतु जन भावनाओं से भरा हुआ आंदोलन होता है। यह आंदोलन हिंसक व रक्त-रंजित आंदोलन से भी ज्यादा प्रभावी होता है। स्वतंत्र भारत में नये राज्यों के गठन, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन, जयप्रकाश नारायण का समग्र क्रांति से संबंधित आंदोलन, नर्मदा बचाओं आंदोलन, चिपको आंदोलन, अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव का भ्रष्टाचार व काले धन के विरूद्ध लोकपाल  बिल से संबंधित आंदोलनमध्यप्रदेश के गुना एवं हरदोई का जल सत्याग्रह, कुड़न-कुलम में परमाणु रिएक्टर के विरूद्ध आंदोलन आदि आंदोलन अहिंसात्मक आंदोलन रहे है। इन आंदोलनो में से कई आंदोलन पूर्णतया सफल रहे, कुछ आंशिक सफल रहे तो कुछ असफल रहे। कई आंदोलन ऐसे रहे जो जब तक अहिंसक रहे उसकी मांगे पूरी नहीं हुई किन्तु जैसे ही आंदोलन ने हिंसक रूप लिया मांगे पूरी कर ली गई। इस प्रकार की घटनाऐं अहिंसात्मक आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते है। वर्तमान समय में भारत में कई समस्याऐं एवं मांगे समय-समय पर उठती रहती है और आंदोलन भी होते रहते है। नक्सलवाद जैसे हिंसक आंदोलन मानव अधिकारों को रौंदते नजर आते है और अहिंसक आंदोलन की दिशा में सोचने को मजबूर करते है। स्वतंत्र भारत में शुरू में अहिंसक आंदोलनों का शासकों पर ज्यादा प्रभाव दिखाई देता था, किन्तु आज इसके प्रभाव में कमी आई।

अहिंसक आंदोलन ज्यादा प्रभावी हो इसके लिये आवश्यक है कि आंदोलनकर्ताओं की मांगे जायज हो और जन भावना उनके साथ हो। साथ ही शासक वर्ग का ऐसे आंदोलनों के प्रति संवेदनशील होना जरूरी है और हिंसक आंदोलनों के प्रति उनका कठोर रवैया होना चाहिए। कुल मिलाकर कहा जा सकता हैं कि स्वतंत्र भारत में भी अहिंसक आंदोलनों की प्रासंगिकता बनी हुई है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Non-violent movement is a movement in which the agitator, on the basis of self-confidence, makes the opponent bow down by suffering hardships and gets his demands met. Non-violent movement is a movement with moral strength and filled with public sentiments to fulfill a sacred objective. This movement is more effective than any violent and bloody movement. Formation of new states in independent India, Vinoba Bhave's Bhoodan Movement, Jaiprakash Narayan's movement related to Samagra Kranti, Narmada Bachao Movement, Chipko Movement, Anna Hazare and Baba Ramdev's movement related to Lokpal Bill against corruption and black money, Madhya Pradesh's Water Satyagraha of Guna and Hardoi, movement against nuclear reactor in Kudan-Kulam etc. have been non-violent movements. Many of these movements were completely successful, some were partially successful and some were unsuccessful. There were many movements whose demands were not fulfilled as long as they remained non-violent, but as soon as the movement took a violent turn, the demands were fulfilled. Such incidents raise questions on the relevance of non-violent movements. In the present time, many problems and demands arise from time to time in India and movements also take place. Violent movements like Naxalism are seen trampling human rights and force us to think in the direction of non-violent movements. In independent India, initially non-violent movements had more influence on the rulers.
मुख्य शब्द आत्मबल रक्त-रंजित समग्र क्रांति नक्सलवाद आंदोलनकर्ता संवेदनशील प्रासंगिकता पवित्र उद्देश्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Self-confidence, Blood-stained Total Revolution, Naxalism, Agitator, Sensitive Relevance, Sacred Purpose.
प्रस्तावना

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान अहिसात्मक आन्दोलन ने प्रभावकारी भुमिका निभाई। सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा जैसे अहिंसात्मक साधनो ने भारत को स्वतंत्र करवाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

अध्ययन का उद्देश्य

इस शोध पत्र का उद्देश्य वर्तमान समय में जबकि हिंसक आंदोलन ज्यादा हो रहे है, यह पता लगाना है कि अहिंसक आंदोलन कितने प्रासंगिक है। अहिंसक आंदोलनों में क्यों कमी आ रही है।

साहित्यावलोकन

इस शोध पत्र को लिखने के लिए निम्नांकित सन्दर्भ ग्रन्थों का अध्ययन किया गया। जिनका उल्लेख शोध पत्र में है।  

मुख्य पाठ

अहिंसात्मक आन्दोलन वह आन्दोलन हैजिसमें आन्दोलनकर्त्ता आत्मबल के आधार पर अपनी मांगों को मनवाता है। महात्मा गांधी के शब्दों में, ‘‘अहिंसा का तात्पर्य अत्याचारी के प्रति नम्रतापूर्ण समर्पण नहीं हैंवरन् इसका तात्पर्य अत्याचारी की मनमानी इच्छा का आत्मिक बल के आधार पर प्रतिरोध करना है।‘‘ अहिंसात्मक आन्दोलन नैतिक बल से युक्तपवित्र उद्देश्य की पूर्ति हेतु जन-भावनाओं से भरा हुआ आन्दोलन होता है। यह आन्दोलन हिंसक व रक्त-रंजित आन्दोलन से भी ज्यादा प्रभावी होता है। ‘‘महात्मा गांधी का दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य और समाज की स्थिति में रक्तपूर्ण क्रान्ति के आधार पर नहीं वरन् अहिंसात्मक पद्धति के आधार ही सुधार संभव है। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मनुष्य में चैतन्य शक्ति होती है और नैतिक प्रभाव द्वारा इस चैतन्य शक्ति को जाग्रत करकेउसका हदय परिवर्तन किया जा सकता है।”[1] भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाए गए अहिंसक आन्दोलनों के परिणाम स्वरूप  देश स्वतन्त्र हुआ। स्वतन्त्र भारत में भी समय-समय पर कई अहिंसक आन्दोलन हुए किन्तु क्या ये वर्तमान में प्रासंगिक हैहम इसी प्रश्न पर विचार करने की कोशिश करेंगे।

लोकतन्त्र में लोक’ की मजबूती उसकी सफलता के लिये आवश्यक है। यह मजबूती तभी आती हैं जब शासन जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरे और जन-भावनाओं का सम्मान करे। यदि इसमें कहीं कमी दिखाई देती है तो जनता का हक है कि वह अहिंसक आन्दोलन के माध्यम से अपनी बात शासन तक पहॅुचाए। महात्मा गांधी के शब्दों में ‘‘प्रजातन्त्र में लोगों को चाहिये कि वे सरकार की कोई गलती देखेंतो उनकी तरफ उसका ध्यान खीचें और सन्तुष्ट हो जाए। अगर वे चाहें तो अपनी सरकार को हटा सकते हैंमगर उसके खिलाफ आन्दोलन करके उसके कामों में बाधा न डाले। हमारी सरकार जबरदस्त जल सेना और थल सेना रखने वाली कोई विदेशी सरकार तो है नहीं। उसका बल तो जनता ही है।‘‘[2] महात्मा गांधी का यह कथन जहॉं एक और स्वतन्त्र भारत में अहिंसक आन्दोलन को प्रासंगिक बताता है, वही दूसरी ओर इन आन्दोलनों से राज-काज में पड़ने वाली बाधा के कारण और निर्वाचन द्वारा सरकारों को बदलने के अधिकार के आधार पर, इनकी तीव्रता को गैर जरूरी भी बताता है।

स्वतन्त्र भारत में विनोबाभावे के नेतृत्व में संचालित "भूदान आन्दोलन" समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में बदलाव के उद्देश्य से चलाया गया सशक्त अहिंसक आन्दोलन कहा जा सकता है। जय प्रकाश नारायण के अनुसारः- "स्वतन्त्रता के बाद हमारे दिल और दिमागों में जो यह अंधकार छा गया था, जो यह  निराशा पैदा  हो गई थी कि अहिंसा के रास्ते से समाज का रूप नहीं बदलने जा रहा है, क्योंकि अहिंसा के पुजारी सत्तारूढ़ थे और समाज को बदलने का कोई नक्शा, कोई कार्यक्रम उनके सामने नहीं था, तब महात्मा गांधी विहीन समाज में अहिंसा का अर्थ सिर्फ इतना समझा जाता था कि हम किसी को मारे-पीटे नहीं। इससे अधिक कोई अर्थ अहिंसा के प्रति हमारे पास नहीं था। मतलब शोषण, दरिद्रता, विषमता का अन्त कैसे हो, हमारे पास कोई जवाब नहीं था। इसीलिए देश में अंधकार छाया हुआ था और चारों और हिंसा के बादल घिरे हुए थे। इतने में ही वह प्रकाश सामने आया। जैसे-जैसे वह प्रकाश फैलता गया, वैसे-वैसे बादल हटते गये। मैं मानता हूँ कि देश में जो एक सर्वांगीण क्रान्ति होने जा रही है, आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति उसका उद्घोष भूदान यज्ञ है। भूदान यज्ञ नये समाज का शिलान्यास है।"[3] भूदान आन्दोलन की सफलता और इस सम्बन्ध में जय प्रकाश नारायण के विचार अहिंसात्मक आन्दोलन की प्रासंगिकता को परिलक्षित करते है।

‘‘स्वतन्त्र भारत में सर्वप्रथम 1952 में भाषागत आधार पर पृथक राज्य के निर्माण के लिए सशक्त आन्दोलन तेलुगु नेता पोट्टी श्री रामुलु ने प्रारम्भ किया। उन्होंने तेलुगु भाषी राज्य आन्ध्रप्रदेश की स्थापना के लिए आमरण अनशन किया और 56 दिन के उपवास के बाद 15 दिसम्बर, 1952 को उनकी मृत्यु हो गई। इसके परिणाम स्वरूप तेलुगु भाषा-भाषी क्षेत्र में हिसंक आन्दोलन प्रारम्भ हो गए। अन्ततः पं. नेहरू ने आन्ध्रप्रदेश की स्थापना की घोषणा की। 1 अक्टूबर, 1953 को विधिवत् रूप से आन्ध्रप्रदेश का उद्घाटन कर दिया गया।‘‘[4] अहिंसक आन्दोलन के हिसंक रूप ग्रहण करने के पश्चात् शासन द्वारा मांगों को माना जाना, अहिंसक आन्दोलनों की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।

जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में संचालित समग्र क्रान्ति से सम्बन्धित आन्दोलन, मेधा पाटेकर का नर्मदा बचाओं आन्दोलन, सुन्दरलाल बहुगुणा का चिपकों आन्दोलन जैसे अहिंसक आन्दोलनों की आंशिक सफलता भी स्वतन्त्र भारत में अहिंसक आन्दोलनों की प्रांसगिकता को प्रकट करती है।

अन्ना हजारे की अगुवाई वाले भ्रष्टाचार के विरूद्ध जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर चलाए गए अहिंसक आन्दोलन, उसे मिला जन समर्थन और शासन का उसके आगे मजबूर हो जाना भी इस बात का द्योतक हैं कि जनता जायज माँगों हेतु अहिंसक आन्दोलनों को पूर्ण समर्थन देती है।

एम.जे. अकबर इस बारे में लिखते हैं कि "अन्ना हजारे और उनके युवा किसी सम्राट की कुर्बानी या कि संसदीय लोकतंत्र के उन्मूलन की मांग नहीं कर रहे थे। वे तो एक ऐसे कैंसर के ईलाज की बात उठा रहे थे, जो कि हमारी राजनीति को ही खाए जा रहा है।"[5]

बाबा रामदेव के कालेधन के विरूद्ध दिल्ली की रामलीला मैदान में किए गए आन्दोलन और उसको सरकार द्वारा कुचला जाना ऐसे आन्दोलनों की प्रासंगिकता के प्रति सोचने को मजबूर करता है।

अगस्त-सितम्बर 2012 को मध्यप्रदेश के "खण्डवा" और "हरदा" जिलों में हुए जल सत्याग्रह भी अहिंसक आन्दोलनों की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में अलग-अलग कहानी कहते नजर आते है। "एक सी समस्या, एक-सी मांग, विरोध का तरीका भी एक जैसा लेकिन हश्र अलग-अलग। खण्डवा जिले के "घोघल" गांव में जल-सत्याग्रह के 17 वें दिन प्रदेश सरकार ने प्रदर्शनकारियों के आगे घुटने टेक दिए, लेकिन हरदा जिले के ‘‘खरदना‘‘ गांव में प्रदर्शन के 15 वें दिन सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया।"[6]

"अतिक्रमण, प्रदुषण और खनन से गंगा नदी को मुक्त करने की मांग को लेकर 19 फरवरी 2011 से अनशन कर रहे मातृ सदन हरिद्वार के 34 वर्षीय संत निगमानन्द की देहरादून स्थित हिमालयन हॉस्पिटल में मई 2011 को हुई मौत भी हमें अहिंसक आन्दोलन की प्रासंगिकता पर सोचने को विवश करती है, 19 फरवरी से अनशन कर रहे निगमानन्द को 68 दिनों बाद 27 अप्रेल को गिरफ्तार कर अस्पताल में भर्ती कराया गया था।"[7]

हाल ही में "दिल्ली में तेईस वर्षीय एक युवती से सामुहिक दुष्कर्म की जघन्य-घटना के बाद सडकों पर आम लोगों, खासकर नौजवानों के उमड़ें गुस्से से सकारात्मक परिणाम हासिल हुए है। सरकार कुछ ठोस प्रशासनिक एवं विधि संबंधी कदम उठाने पर मजबूर हुई। इसी बीच आन्दोलन में घुसपैंठ करने वाले तत्वों द्वारा हिंसा पर उतर आने से दिल्ली में इडिया गेट के पास पुलिस को सख्त कार्रवाई करने का मौका मिला, जिसमे अनेक जायज प्रदर्शनकारी  भी जख्मी हुए। यह घटनाक्रम देश के राजनीतिक नेतृत्व की बड़ी विफलता है, जो एक वाजिब मुद्दे पर उभरे ईमानदार जनाक्रोश को सही दिशा नहीं दे सका।"[8]

"वर्ष 2012 के अन्त में यह साफ है कि दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र उबाल पर है। देश भर में लोग सडकों पर उतरते हुए शासन व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश का इजहार कर रहे है और ऐसा करने में उन्होंने पारम्परिक राजनीतिक दलों को दरकिनार कर दिया है। वे खुद को हर संभव बेहतर तरीके से संगठित करते हुए यह साफ संदेश दे रहे है कि मौजूदा पार्टियों पर उन्हें कोई भरोसा नहीं है।"[9] 

"यह बात हमारे सत्ताधीशों या सियासी हलको में बैंठे लोगों को अच्छी तरह समझ में आ गई होगी कि जनता के गुस्से या आक्रोश को बाहर निकलने के लिए हर बार किसी समाजसेवी, राजनेता या आन्दोलन की जरूरत नहीं है। यह गुस्सा दुष्कर्म जैसे घिनौने आपराध के खिलाफ खुद निकलकर बाहर आ सकता हैं यदि सरकारे अब भी नहीं जागी तो ऐसा आगे भी हो सकता हैं"[10]

"सरकारों के लिए जरूरी है कि वे पारम्परिक लक्ष्मण रेखाओं से पार जाने का साहस और उत्साह जुटाएँ। महज शास्त्री भवन में प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करना कम्यूनिकेशन नहीं है। सत्ता तन्त्र के दायरे से बाहर निकले और मानवीय स्पर्श के पुनः तलाशें। हमारे देश के सबसे प्रभावी राजनीतिक कम्यूनिकेटर महात्मा गांधी ने यही किया होता। वे संभावतया प्रदर्शनकारियों के साथ सड़कों पर बैठते, उनकी बात सुनते, उन्हें एक तरह के नेतृत्व और दिशा का बोध कराते।"[11]

निष्कर्ष

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत में शुरू में अहिंसक आन्दोलनों का शासकों पर ज्यादा प्रभाव पड़ता था किन्तु आज इसके प्रभाव में कमी आई हैं। अहिंसक आन्दोलन ज्यादा प्रभावी हो इसके लिए आवश्यक है कि आन्दोलनकर्ताओं की मांगें जायज हो और जन-भावना उनके साथ हो। साथ ही शासक वर्ग का ऐसे आन्दोलनों के प्रति संवेदनशील होना जरूरी है और हिसंक आन्दोलनों के प्रति उनका कठोर रवैया होना चाहिए। अहिसंक आन्दोलन के नेतृत्व कर्ताओं को चाहिए की वे आन्दोलनों पर पूर्ण नियत्रंण रखे तथा उसमें असामाजिक तत्वों की घुसपेठ न होने दे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में अहिंसक आन्दोलनों की प्रासंगिकता बनी हुई है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. भारतीय राजनीतिक विचारक, ‘‘महात्मा गांधी‘‘, डॉ. पुखराज जैन, साहित्यभवन पब्लिकेशन्स, आगरा, पृष्ठ-279

2. दिल्ली डायरी पृ. 90, मेरे सपनों का भारत, गांधीजी, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद, पृष्ठ-21

3. जयप्रकाश, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, दि मैकमिलन कम्पनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, पृष्ठ-191

4. भारतीय शासन एवं राजनीति, डॉ. के.एस. सक्सैना, मा.शि. बोर्ड, राजस्थान, पृष्ठ-161

5. ‘‘एक झटके में ढीली अकड़‘‘, एम.जे. अकबर, इंडिया टुडे, 7 सितम्बर 2011, पृष्ठ-05

6. ‘‘कही जीत तो कही हार‘‘, जय नागडा, इंडिया टुडे, 26 सितम्बर 2012, पृष्ठ-36

7. ‘‘क्या अब बचेगी गंगा‘‘, इंडिया टुडे, 29 जून 2011, पृष्ठ-32

8. ‘‘जायज आन्दोलन में गलत मोड‘‘, संपादकीय, दैनिक भास्कर, पाली, 25 दिसम्बर 2012, पृष्ठ-6

9. ‘‘मध्यम वर्ग को चाहिए अपनी एक पार्टी‘‘, टोनी जोसेफ, दैनिक भास्क पाली, 31दिसम्बर 2012, पृष्ठ-6

10. ‘‘जनाक्रोश, कार्रवाई और समाधान‘‘, अभिज्ञान प्रकाश, दैनिक भास्कार, पाली, 25 दिसम्बर 2012, पृष्ठ-6

11. वी.आई.पी. भारत बनाम आम आदमी, राजदीप सरदेसाई, दैनिक भास्कर पाली, 28 दिसम्बर 2012, पृष्ठ-6