ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IV July  - 2023
Anthology The Research

ओशो का हिन्दी साहित्य में प्रदेय

Oshos Contribution to Hindi literature
Paper Id :  16920   Submission Date :  2023-07-09   Acceptance Date :  2023-07-19   Publication Date :  2023-07-25
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उषा शर्मा
सहप्राध्यापक हिन्दी
हमीदिया कला
वाणिज्य महाविद्यालय
भोपाल, भारत
सारांश

आदिकाल से मनुष्य जीवन के रहस्यों, उसकी अनन्त संभावनाओं, तथा शाश्वत्ता को पाने के लिए विभिन्न विधाओं और कला के माध्यम से जीवन को खोजता रहा है। मनुष्य अपने जीवन के विविध आयामों से जीवन को समझने, जीवन को समृद्ध करने के लिए सदैव आतुर रहा है इसीलिए वह चिन्तन मनन से जिन निष्कर्षों पर पहुँचा उस सार तत्व को समाज में बांटने के लिए भी उतना ही तत्पर रहा है। जीवन का मर्म साहित्य में देखने को मिलता है। कहानी कविता आलेख उपन्यास संस्मरण यहाँ तक कि पत्रों के द्वारा जो भावनात्मक संवाद मनुष्यों के मध्य हुआ है और उनमें जो जीवन दर्शन प्रकट हुआ है, वह सब साहित्य में समाहित हो गया है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Since ancient times, man has been exploring life through various genres and arts to attain its mysteries, its infinite possibilities, and eternity. Man has always been eager to understand life from various dimensions of his life and to enrich his life, that is why he has been equally ready to share the essence of the conclusions he reached through contemplation in the society. The essence of life can be seen in literature. The emotional dialogue that has taken place between humans through stories, poems, articles, novels, memoirs and even letters and the philosophy of life expressed in them has all been incorporated in literature.
मुख्य शब्द आदिकाल, हिन्दी साहित्य, कहानी, कविता, आलेख, उपन्यास, संस्मरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Ancient times, Hindi literature, stories, poems, articles, novels, memoirs.
प्रस्तावना

मानव जीवन की अर्थवत्ता, जीवन के रहस्यों में जीवन की खोज करते हुए जीवन जीने के लक्ष्य जीवन जीने की कला और जीवन में आनंद की प्राप्ति को खोजते हुए कहीं न कहीं उस शाश्वत जीवन की चाह से भी मनुष्य भरता रहा है जहाँ उसका अंत नहीं होगा। विचार की इस चिन्तन प्रक्रिया में वैचारिक रसानुभूति सर्जक को जन्म देती है और उसके साहित्य को शाश्वत् बनाती है। यह वैयक्तिक रसानुभूति और सामाजिक रसानुभूति पाठक व सर्जक के बीच साधारणीकरण कर साहित्य को जन्म देती है अरविंद ने कहा है अस्मिता का विस्तार ही कला है अस्मिता से मुक्ति ही कविता है। चूंकि ओशो में कला और कविता दोनों का समन्वय है अतः अस्मिता के विस्तार और फिर उससे उपजा साहित्य ही सबके हित या कल्याण की भावना का प्रसार करता है। 

अध्ययन का उद्देश्य
हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने मे ओशो का क्या अवदान है यह तथ्य खोजकर समाज ओर साहित्य प्रेमियों के सम्मुख रखना ही लेखिका के शोध का लक्ष्य है।
साहित्यावलोकन

संस्कृत की इस उक्ति के अनुसार ओशो की प्रत्येक पुस्तक में समाज के हित की चिंता दृष्टिगत होती है जो व्यक्ति को आनंदमय जीवन जीने का आधार देती है।मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को ओशों ने अपने प्राणों की गहराई से अनुभूत किया है। उन्होनें जिस पक्ष पर भी अपने विचार दिये हैं वे जीवंत और ज्वलंत है। गोरक्षनाथ, कबीर, दादू, रैदास, मीरा, दरिया, पलटु, पीपा जी, चरणदास, सहजो मलूकदास, नानक आदि पर उनका चिन्तन सर्वथा मौलिक एवं अनूठा है। ओशों ने अपनी हिन्दी भाषा शैली के माध्यम से कबीर की उलटवासियों में निहित ब्रह्म जैसे गूढ़ विषयों का सरलीकरण किया है।ओशो ने संतो के पदों की व्याख्या से हिन्दी साहित्य से समृद्ध किया है। ओशो के साहित्यिक अवदान पर महान लेखिका अमृता प्रीतम का कहना है कि "ओशो महान शब्दों के चितेरे थे। शैली के राजकुमार थे जादूगर थे।" मैंने यह शोध आलेख ओशो के महत्वपूर्ण अवदान को देखते हुए ही लिखा है ताकि साहित्य को अध्येता इस अवदान को हिन्दी साहित्य की समृद्धि में एक महत्वपूर्ण योगदान का अनुभव ही न करें अपितु उनके नाम का भी उल्लेख करें।

मुख्य पाठ

साहित्य आदिकाल से मनुष्य जीवन के रहस्यों उसकी अनन्त संभावनाओं, और शाश्वत्ता को पाने के लिए विभिन्न विधाओं और कला के माध्यम से जीवन खोजता रहा है। समस्त आयामों से साहित्य जीवन के लिये, जीवन रचने को आतुर रहा है।

आदिकाल से लेकर मध्यकाल तक आधुनिक काल से वर्तमान तक पद्य और गद्य के समस्त रूपों द्वारा साहित्य जीवन की समग्रता में प्रवेश कर गया है, और साहित्य की कला माटी की सुगंध लिये हमारी आत्मा में समाहित होती रही है। इस कला का ठीक कर्म हमारी आत्मा से सम्बन्धित है। यह सम्बन्ध ही इसे शाश्वत्ता प्रदान करने के बीच की कड़ी है। भारत में नहीं अपितु विश्व में साहित्य पर पड़ते निरन्तर प्रभावों और परिवर्तनों से इस शाश्वत्ता पर प्रश्नचिन्ह् लगते रहे हैं। हर युग में हम वर्तमान सामाजिक संदर्भों में या प्रासंगिकता में उसके शाश्वत मूल्यों की चर्चा करते रहे हैं।

वस्तुतः आदिकाल से लेकर आज तक समाज में जब भी किसी साहित्यकार के साहित्यिक अवदान पर, सामाजिक संदर्भों एवं साहित्य की प्रासंगिकता पर चर्चा होती है; तब रचनाकार की सृजनधर्मिता पर और रचनाओं पर अनेकों प्रश्न खड़े होते हैं और पाठक उन प्रश्नों के उत्तर के रूप में रचनाकार की कृतियों का मूल्यांकन करता है। मूल्यांकन की इस कड़ी में पाठक अथवा श्रोता कहीं न कहीं मानव जीवन की अर्थवता, जीवन के रहस्यों में जीवन की खोज करते हुए जीवन जीने के लक्ष्य, जीवन जीने की कला और जीवन में आनंद की प्राप्ति को खोजते हुए कहीं न कहीं उस शाश्वत जीवन की चाह से भी भरता रहा है; जहाँ उसका अंत नहीं होगा। वैचारिक रसानुभूति सर्जक को जन्म देती है और उसके साहित्य को शाश्वत् बनाती है। यह वैयक्ति रसानुभूति और सामाजिक रसानुभूति पाठक व सर्जक के बीच साधारणीकरण कर साहित्य को जन्म देती है। अरविंद ने कहा है -

‘‘अस्मिता का विस्तार ही कला है। अस्मिता से मुक्ति ही कविता है। चूंकि ओशो में कला और कविता दोनों का समन्वय है अतः अस्मिता के विस्तार और फिर उससे मुक्ति का नाम ही ओशो साहित्य है। ऐसा साहित्य ही सबके हित या कल्याण की भावना का प्रसार करता है।

साहित्य की मूल परिभाषा के अनुसार ओशो की प्रत्येक पुस्तक में समाज के हित की ही चिंता दृष्टिगत होती है। जो व्यक्ति को आनंदमय जीवन जीने का आधार देती है। ‘‘साहितस्य साहित्यः ‘‘संस्कृत की इस उक्ति के अनुसार जीवन की खोज’’ और फिर अन्ततोगत्वा जीवन ही है प्रभु और न खोजना कहीं केरचियेता ओशो समस्त मानव जाति की ही नहीं अपितु ब्रहााण्ड में स्थित कण कण में निहित जीवन की चिन्ता करते दिखाई देते हैं। अपनी चिन्ता में वे मानव का कल्याण करते हुए उस अनन्त जीवन के प्रति अहोभाव से भरे हुए दिखाई देते हैं जिसे बिरले ही देख पाते हैं। कोई बुद्ध, कोई कबीर, नानक, मीरा आदि।

मानव को उसकी छोटी-छोटी अमिप्साओं से मुक्त कर वे उस विराट जीवन की और ले चलना चाहते हैं। जहाँ जीवन की शाश्वत्ता दिखाई पड़ती है तब जीवन में कुछ छोड़ना नहीं होता वरन् मृण्मय से चिन्मय की और गति हो जाती है।

जहाँ उपनिषद के ऋषि कहते हैं - 

‘‘तमसो मा ज्योर्तिगमय,

असदो मा सद्गमय

मृर्त्योमा अमृतं गमय’’

इसीलिये तेन त्यक्तेन भुंजीताःको जो समझेगा वही ओशो के चिन्तन को समझ पायेगा। ओशो की चिन्तन धारा कभी योग कभी भक्ति कभी ज्ञान के गहन पक्षों पर विचार प्रवाहित करती है तो कभी मानव जीवन के सामाजिक पहलुओं पर गहराई से विचार करती हुई जीवन की उस जर्जर और विकृत परम्पराओं पर प्रहार करती है जो मनुष्य को आनंद की सम्पदा से वंचित कर रही है।

मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को ओशो ने अपने प्राणों की गहराई से अनुभूत किया है। वे स्वयं एक रहस्यदर्शी हैं अतः उन्होंने जिस पक्ष पर भी अपने विचार दिये वे जीवत और ज्वलंत हैं। गोरक्षनाथ कबीर, दादू, रैदास, मीरा, दरिया, पलटुजी, पीपा जी, चरणदास, सहजो, मलूकदास, नानक आदि पर उनका चिन्तन सर्वथा मौलिक एवं अनूठा है। इन समस्त सन्त कवियों पर लिखी पुस्तकों का आद्योपांत अध्ययन करने पर अनुभव होता है कि जैसे भक्ति और प्रेम के रसोमय सागर में प्राण आकंठ डूब गए हैं और डूबकर बाहर निकलना नहीं चाहते। सन्त कबीर की जैसी सटीक व्याख्या ओशो ने की है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को वाणी का डिक्टेटर कह कर इतिश्री कर देते हैं, किन्तु ओशो कबीर की उलटवांसियों के गुहृतम रहस्यों से पाठक को अत्यंत सरल एवं सुबोध भाषा से परिचित ही नहीं कराते अपितु पाठक अथवा श्रोता को उस रहस्य लोक में ही ले जाते हैं। ओशो अपनी व्यक्तिक रसानुभूति से पाठक को सामाजिक रसानुभूति में प्रवेश कराते हुए साहित्य सृजन के इस साधारणीकरण से रसनिष्पत्ति की उस दशा में ले जाते हैं जो सर्जक और साहित्य का लक्ष्य होता है। यहाँ ओशो ऋषि की भांति उस परमत्तव को केवल ‘‘रसौ वैः सः’’ न कह कर रसके सागर में श्रोता और पाठक को आकंठ डुबाकर आनंद की वर्षा करते हैं।

ओशो ने अपनी सरल सुबोध भाषा विशेषकर हिन्दी के माध्यम से ध्यान और ब्रह्म जैसे गूढ़ विषयों का सरलीकरण किया है। उनका समाजीकरण किया है। वे बोध से बोधिसत्व की ओर ले जाते हैं। बुद्धत्व में ही धर्म है। धर्म जहाँ है; वहीं समाज संघ के रूप में मनुष्य जीवन जीने की अनूठी शैली का विकास कर सकता है। ओशो का बुद्धत्व एकांकी नहीं है उनका शून्य खालीपन नहीं अपितु आनंद से परिपूर्ण है; इसलिये वहां उत्सव है। ओशो प्रदत्त आनंद की व्याख्या उत्सव से परिपूर्ण है।

उनका संघ सामाजिक भावना से परिपूर्ण है जहाँ सबके साथ उत्सव की परिकल्पना है। उनका समाज सम्पूर्ण विश्व है जहाँ ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की भावना है। वे ऋचाओं के सर्जक हैं। जो ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वेसन्तु निरामया, सर्वे भद्राणी पश्यन्तु, मा कश्चित् दुख भागभवेत’’, को व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं।

यहाँ समष्टि के प्रति सद्भाव और सर्वस्वीकार की भावना उनके रोम-रोम से निस्सृत होती दिखाई देती है। ओशो ने अत्यंत गूढ़ विषयों का सरलीकरण किया है उनके सम्बन्ध में हिन्दी के जाने माने लेखक डॉ. किशोर काबरा का कथन है -उनके दर्शन को पढ़कर अनुभव होता है ‘‘जैसे दर्शन की डाली पर कवित्व के फूल खिले हैं।’’ इस भाषा शैली और विधा को देखकर लगता है कि रजनीश जी आचार्यत्व के बजाए कवित्व के अधिक निकट हैं। 

वस्तुतः ओशो बीसवीं शताब्दी के अद्भुत साहित्यकार हैं। उनका साहित्य इस युग का ही नहीं अपितु काल की सीमाओं के परे भविष्य में भी हाहाकार करती समस्त दुनियाँ के लिये अमृत की वर्षा है। 

अपने अनूठे लेखों, रचनात्मक सृजन से उन्होंने ज्ञान का ऐसा प्रकाश स्तंभ खड़ा किया है जो भटकती हुई मानवता को अंधकार में दिशाबोध कराता है। यह दिशाबोध निश्चय ही जीवन एवं अध्यात्म के विभिन्न आयामों की ओर ले जाता हुआ वर्तमान विश्व के लिये और भी अनिवार्य और प्रासंगिक हो चुका है। यद्यपि किसी भी तत्ववेत्ता को मानव जाति के उत्थान के लिये जीवन में धर्म, प्रार्थना आदि के विधान आदि का आग्रह नहीं होता फिर भी दिग्भ्रमित मानवता के प्रति उसकी एक करूण पुकार उसके साहित्य में अर्न्तनिहित होती है। यही सामाजिक चिन्ता चिन्तन बनकर उनकी प्रत्येक पुस्तक में दिखाई देती है, जो सम्पूर्ण मानव समाज के हित की ही चिंता है जो व्यक्ति को आनंदमय जीवन जीने का आधार देती है। 

किसी भी साहित्यकार की रचनाओं में अदृश्य रूप में जीवन जीने के लिए अन्तःप्रेरणाएँ निहित होती हैं। सर्जक अपनी बात कहने के लिए नाटक, कहानी, कविता, निबन्ध, लेख, संस्मरणों अथवा पत्र लेखन या अपनी आत्मकथा लिखकर कुछ कहना चाहता है। जीवन के प्रति सर्जक का प्रेम और आनंदमयी जीवन जीने की उत्कृष्ट अभिलाषा ही साहित्य का सृजन करवाती है।  

यद्यपि ओशो ने नाटक, उपन्यास एवं कविताएँ नहीं लिखी हैं, हाँ कुछ कहानियाँ व व्याख्यापरक लेख एवं फुटकर टीकाएँ हैं। पत्र संकलन भी हैं। संस्मरण भी मिलते हैं। इनकी कहानियों एवं संस्मरणों में तथा पत्रों में विवरणपरक, विवेचनपरक, एवं व्यास शैली में घटनाआंे आदि का उल्लेख, दिशा-निर्देश तथा उनकी भावात्मक संवेदनाएँ निहित हैं। उनके साहित्य का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य को अपने चिन्तन का अर्क अनूठी भाषा एवं मौलिक शैली में प्रदान किया है। 

महान लेखिका अमृता प्रीतम के शब्दों में ‘‘वह महान शब्दों के चितेरे थे। शैली के राजकुमार थे, जादूगर थे।’’ पश्चिमी समीक्षा शास्त्रकारों ने तो कहा है कि ‘‘शैली ही व्यक्ति है, शैली ही साहित्य है।’’ यदि इस दृष्टि से ओशो साहित्य का मूल्यांकन करें तो हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर अब तक के जितने गद्यकार हुए हैं, उनमें रजनीश जी का योगदान अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

उनकी व्यास शैली है लेकिन उनके इस व्यास क्षेत्र में समास की मणियाँ भरी पड़ी हैं। वे एक-एक वाक्य ऐसा पिरोते हैं कि उनकी छटा देखते ही बनती है। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के भाषा निदेशक रहे श्री वेद प्रताप वैदिक के वक्तव्य के अनुसार - ‘‘बिहारी के दोहे के लिये तो लंबे दो वाक्य चाहिए या बीस पच्चीस शब्द चाहिए रजनीश कई बार तो तीन शब्द का ही एक वाक्य ऐसा उकेरते हैं कि आपको उसमें ताजमहल दिखाई पड़ता है। यह जो अद्भुत रस रजनीश पैदा कर सकते हैं मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में आज तक किसी गद्यकार ने किया है यह रजनीश की ही खूबी है।’’ 

ओशो सरस एवं प्रफुल्ल संत थे, किन्तु कहीं-कहीं समाज की दिग्भ्रमित स्थिति को दिशा देने के लिये व्यंग्यात्मक शैली का सहारा भी लेते दिखाई देते हैं किन्तु इस व्यंग्य में किसी भी बहाने से सत्य के साक्षात्कार का ही भाव रहता है। उनकी शैली में हृदय को द्रवित करने वाली भावना की गहराई है और विचारों को झकझोरने वाली उर्जामयी त्वरा है। साहित्य के क्षेत्र में शब्दों के नए सम्यक् अर्थ उसके तारतम्य की वास्तविक उपयोगिता ओशो की क्रांतिकारी मौलिक देन है। चूंकि उनका सम्पूर्ण साहित्य यथार्थ के सत्य से अनुप्राणित है अतः यथार्थ के प्रति भाषा का अतीव संवेदन हमें अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। 

किसी भी रचनाकार को उसकी कृतियाँ ही महान एवं अमर बनाती हैं। कृति को अमरता प्रदान करने वाले तत्वों में कृतिकार की अनुभूति, भाव एवं विचार प्रमुख होते हैं। कृतिकार की विचारधारा से उसके समूचे व्यक्तित्व का आकलन होता है इस दृष्टि से ओशो का व्यक्तित्व और कवित्व अनूठा है। किसी व्यक्ति की विचारधारा को समझने के लिये उसका व्यक्तित्व भाषा एवं शैली को समझना अति आवश्यक है। 

इस दृष्टि से यदि ओशो की भाषा शैली को समझना है तो पाठक को उनके शब्दों के प्रति अति जागरूक रहना आवश्यक है। वस्तुतः धर्म, रहस्य, विस्मय, आत्यंतिक मौन, अस्तित्व, प्रकृति और जीवन तथा उर्जा आदि शब्दों का अपना अर्थ है, लेकिन यही शब्द जब अपने गूढ़ अर्थों में विश्लेषित होते हैं तो वे अद्वैत, आत्मा, शक्ति व ब्रह्म के समान अर्थी अथवा पर्यायवाची हो जाते हैं। दूसरी ओर ज्ञान, विज्ञान, मन और दर्शन आदि शब्दों की भी अपनी-अपनी यात्राएँ हैं। व्यावहारिक रूप में यह जीवन के लिये उपयोगी लगते हैं। ये जीवन के बहुत करीब के शब्द हैं, लेकिन अन्ततः कभी-कभी ये आत्मा के विरोध में खड़े हो जाते हैं जहाँ मनुष्य अर्थ की दृष्टि से असमंजस में पड़ जाता है। भाषा और शब्द कब और किस मोड़ पर खतरनाक हो जाते हैं ओशो इनके प्रति बहुत ही सजग दिखाई पड़ते हैं। 

अस्तु ओशो सबसे पहले और बाद में महाआशयों, भावों और लयों के सृष्टा हैं अतः उन्होंने साहित्य को युग सापेक्ष नयी अर्थ पत्तियों से भरा है।

लेखक ओम प्रकाश आदित्य कहते हैं ‘‘बीसवीं सदी के जिस परम पुरूष ने अगम को सुगम, कठिन को सरल और नीरस को सरस करके ज्ञान और दर्शन के जटिल कपाट अपने व्याख्यान के एक एक पृष्ठ पर खोलकर स्पष्ट रूप से प्रभु सत्ता की झलक को रूपायित कर दिया है।’’ 

ओशो द्वारा कहे हुए शब्द जीवंत और ज्वलंत है। उपनिषदों का कोई भी व्याख्याकार इतनी गहराई में उतरकर सावधानीपूर्वक शब्दों के इतने करीब नहीं जा पाया जबकि ओशो शब्द ब्रह्म में डुबकी लगाकर ब्रह्म सरोवर से शब्द मुक्ताओं को लेकर अर्थपुण्यों  का प्रसाद भी ले आए हैं। यद्यपि ओशो दार्शनिक तत्ववेत्ता है किन्तु उनकी भाषा एक कवि की भाषा है वरन् यह कहना उचित होगा कि उनकी भाषा ऋषियों की भाषा है, उनके शब्द संयोजनों से ऋचाओं का जन्म होता है एक ओर जहाँ उनकी शैली में हृदय को द्रवित करने वाली शक्ति है। भावना की उच्चतम ऊँचाई है, वहीं विचारों को झकझोरने वाली अकूत गहराई भी है लेकिन उनकी गहराई का जल दर्पण की तरह इतना निर्मल है कि तल को देखने में दिक्कत नहीं होती उनका ज्ञान अंधकूप की तरह अस्पष्ट नहीं है। कोई साहस करे, प्रयोग करे, तो उनके ज्ञान के सरोवर के तल तक सरलता से जा सकता है। ओशो ने अपने आलेखों से विभिन्न आयामों द्वारा जीवन रस का पान कराया है। उनकी लगभग छह सौ पचास (650) पुस्तकें और उनके कई-कई संस्करण इस बात का प्रमाण हैं कि वे आपको कितना रस प्रदान करते हैं। उनके पत्र संकलन, कई पुस्तकों में संकलित हैं यथा-(1) क्रांति बीज (2) पथ के प्रदीप (3) अंतर्वीणा (4) प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल (5) ढ़ाई आखर प्रेम का (6) प्रेम के फूल(7) प्रेम के स्वर(8) पाथेय लेखों के अंतर्गत नये समाज की खोज, तथा भारत किस ओर, क्रांति के बीच सबसे बड़ी दीवार तथा संत पीपा, संत कबीर, संत मीरा बाई, पलटु जी, संत रैदास, दादू के पदों की व्याख्या एवं समालोचनात्मक अध्ययन व उपनिषदों के सूत्रों की व्याख्या से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। 

निष्कर्ष

रजनीश के साहित्य का कोई भी अंश कहीं से भी उठा लें, उसमें सर्वत्र एक ही प्राणधारा कल-कल स्वरों में उच्छल प्रवाहित दिखाई पडे़गी। हम क्षीर सागर की सरस धवल तरंगों में मानो नख से शिख तक डूबते उतराते अनुभव करते हैं और उन्मुक्त कंठ से कह उठते हैं ‘‘रसौ वै सः’’ अन्त में अमृता प्रीतम के शब्दों में यह कहना पर्याप्त होगा कि ‘‘इस सदी से यदि रजनीश के साहित्य को निकाल दें तो हिन्दी साहित्य अधूरा रह जाएगा।’’

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. सुनो भई साधो 
2. करै कबीर मैं पूरा पाया (ओशो रजनीश)
3. नये समाज की खोज - ओशो रजनीश 
4. झुक आई बदरिया सावन की - ओशो
5. सपना यह संसार - ओशो 
6. नहीं सांझ नहीं भोर 
7. कनथोरे कांकर घने 
8. अंतर्वीणा (पत्र संकलन)
9. प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल-(पत्र संकलन) ओशो