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वैदिक साहित्य में
नारी |
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Women in Vedic Literature | |||||||
Paper Id :
18165 Submission Date :
2023-09-07 Acceptance Date :
2023-09-18 Publication Date :
2023-09-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10050020 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
भारतीय धार्मिक ग्रन्थों में नारी को उच्च स्थान दिया गया है।
वैदिक काल में उच्च शिक्षा की व्यवस्था के साथ ललित कलाओं जैसे-गायन, वादन,
नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। उनका ‘‘उपनयन
संस्कार’’ भी होता था। वैदिक काल में स्त्रियों का सेना में
होने का उल्लेख मिलता है। एक मंत्र में वर्णन है कि रानी विश्वकला का युद्ध में
पैर कट गया था। अश्वनी कुमारों ने लोहे की टांग लगवा दी, जिससे
वह युद्ध कर सकें। उपनिषदों के समय आदर्श विदुषी नारियों हुई। गार्गी ने महर्षि
याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया था और ऐसे प्रश्न पूछे थे कि महर्षि याज्ञवल्क्य
चकरा गये थे। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया था कि सारा संसार ब्रह्म के ओत-प्रोत है।
महिलाओं को आभूषण पहनने और प्रसाधनों के पहनने का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य
में नारी को सम्मान पूर्ण उच्च स्थान प्राप्त था। वह शिक्षित होने के साथ-साथ समाज
के चातुर्दिक विकास के लिए कार्य करती थी। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Women have been given a high place in Indian religious texts. In the Vedic period, along with the system of higher education, fine arts like singing, playing and dancing were taught. He also had his “Upanayana Sanskar”. There is mention of women being in the army in the Vedic period. It is described in a mantra that Queen Vishwakala's leg was cut off in the war. Ashwani Kumar got an iron leg fitted so that he could fight. During the time of Upanishads, there were ideal learned women. Gargi debated with Maharishi Yajnavalkya and asked such questions that Maharishi Yajnavalkya was baffled. Yajnavalkya had replied that the whole world is full of Brahma. There is mention of women wearing jewelery and cosmetics. Women had a high position of respect in Vedic literature. Along with being educated, she worked for the all-round development of the society. | ||||||
मुख्य शब्द | वैदिक, भारतीय साहित्य ,धार्मिक, वैदिक साहित्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Vedic, Indian Literature, Religious, Vedic Literature. | ||||||
प्रस्तावना | वैदिक साहित्य में स्त्रियों के विषय में जानकारी प्राप्त करना
और उन्हें अधिकार प्राप्त थे कि नहीं, शिक्षा व्यवस्था समाज में स्थान
आदि की जानकारी प्राप्त करने के लिए यह शोध पत्र तैयार किया गया है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | वर्तमान समय में
स्त्रियों को अधिकार प्राप्त है। प्राचीन समय की जानकारी प्राप्त करना तथा उनके
द्वारा कार्यो को करने की जानकारी प्राप्त करना वैदिक ग्रन्थों में स्त्रियों के
बारे में प्राप्त वर्णन का आंकलन किया गया है। |
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साहित्यावलोकन | वैदिक साहित्य में नारी को सम्मानीय स्थान प्राप्त था। प्राचीन काल में स्त्रियों की पूजनीय नारी को मध्यकाल में घूँघट, दहेज एवं अन्य कारणों से उन्हें सम्मान प्राप्त नहीं हुआ। वर्तमान में उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। प्रस्तुत शोध लेख में प्राचीन वैदिक साहित्य में नारी को प्राप्त अधिकारों का विश्लेषण किया गया है। वैदिक युग में वेद पढ़ने, धार्मिक कार्य कराने, पति के साथ यज्ञ करने, समान अधिकार के साथ-साथ समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। स्त्रियाँ शिक्षित थीं जिससे उनकी सन्तानों में शिक्षित और समाज के कार्यों में योगदान देती थी। भारतीय संस्कृति वेद, उपनिषद्, आदि का घर-घर में पाठ होता था। यही कारण है कि आज हमारी संस्कृति सुरक्षित है। वैदिक साहित्य में नारी शिक्षित और विदुषी होने के साथ-साथ समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। |
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मुख्य पाठ |
भारतीय धर्मग्रन्थों में महिलाओं को बहुत सम्मानीय स्थान प्राप्त होने के
साथ ही देवियों की श्रेणी में रखा गया है। उन्हें अन्नपूर्णा एवं बुराइयों का नाश
करने वाली देवियों की संज्ञा दी गयी है। वैदिक साहित्य में नारी को बहुत आदरणीय स्थान दिया गया है।
ऋग्वेद में स्त्री को घर कहा गया है।[1] इसी आधार पर संस्कृत में एक
सुभाषित है- ‘‘न गृह गृहभित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते’’
अर्थात् घर को घर नहीं कहते हैं अपितु गृहणी को घर कहा जाता है।
विवाह के पश्चात् एक ओर पति, सास, ससुर
और घर वालों की सेवा, शुश्रुषा का निर्देश दिया जाता है तो
दूसरी ओर गृहस्वामिनी, गृहपत्नी आदि के रूप में प्रस्तुत
करते हुए सास, ससुर, देवर, ननद, आदि की साम्राज्ञी कहा गया है।[2] इससे ज्ञात होता है कि वैदिक साहित्य में पत्नी को घर की व्यवस्था का
पूर्ण अधिकार दिया जाता था और उनका कथन सबको मान्य होता था। नारियों का सम्मान वैदिक युग में भी था। अपितु उपनिषद्काल और
स्मृतिकाल में भी यह प्रक्रिया थी। मनुस्मृति में कहा गया है कि- ‘‘जहाँ नारी
का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है और जहाँ निरादर होता है वहॉ सारे
कार्य निष्फल हो जाते हैं।[3] अतः स्त्रियों को अलंकार
वस्त्र, भोजन आदि से संतुष्ट रहना चाहिए।[4] अतएव जिस परिवार में पति पत्नी संतुष्ट रहते हैं वह परिवार फलता फूलता
है।[5] यदि स्त्री प्रसन्न नहीं रहती, तो
परिवार में सुसन्तान नहीं हो सकती।[6] प्राचीन समय में
स्त्रियों का सम्मान का विवरण प्राप्त होता है। जैमिनी उपनिषद ब्राह्मण में स्त्री
को सावित्री अर्थात् गायत्री तुल्य पवित्र और पूजनीय बताया गया है।[7] स्त्री को अर्द्धागिनी अर्थात् स्त्री को पुरूष का आधा भाग कहा गया है।
यह पुरुष की आत्मा का आधा अंश है।[8] स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में वेदों में वैदिक काल में
स्त्रियों की शिक्षा व्यवस्था थी। उनका उपनयन होता था और वह उच्च शिक्षा प्राप्त
करती थी।[10] वैदिक काल में स्त्रियों को ललित कला की शिक्षा दी जाती थी। कौषीतकि
ब्राह्मण का कथन है कि शिल्प व ललित कलाओं में 3 कलाएं आती
हैं। यह है-नृत्य, गीत व वाद्य।[11]
शतपथ ब्राह्मण में भी शिल्प में संगीत, वाद्य आदि की गणना की
गयी है।[12] ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि ललित कलाओं से
आत्मा का परिष्कार होता है अर्थात् चारित्रिक व नैतिक उत्थान होता है।[13] वैदिक काल में स्त्री सेना के होने का उल्लेख मिलता है। एक
मंत्र में वर्णन है कि शत्रुओं से युद्ध करते हुए रानी विश्वकला का पैर कट गया था
फिर अश्वनी कुमारों ने उसे नकली लोहे की टांग लगवा दी और वह फिर से युद्ध में भाग
ले सकी।[14] अपनी उपनिषदों व स्मृतियों में भी नारी गौरव का उल्लेख है। हरीत
स्मृति का कथन है कि स्त्रियॉ दो प्रकार की थी। एक सद्योद्वाता और दूसरा
ब्रह्मवादिनी। ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति पर कुछ स्त्रियॉ तुरन्त विवाह कर लेती
थी। ऐसी स्त्रियों को ‘सद्योद्वाता’ कहा गया है। कुछ स्त्रियाँ आजीवन
ब्रह्मचारिणी रहती थी। इनको ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा गया है। उपनिषदों के समय में आदर्श विदुषी नारियॉ हुई हैं। गार्गी ने
महर्षि याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया था और ऐसे प्रश्न पूछे थे कि महर्षि
याज्ञवल्क्य चकरा गए थे। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया था कि सारा संसार ब्रह्म के
ओत-प्रोत है।[15] महर्षि पाणिनी ने भी अध्यापन कार्य करने
वाली शिक्षिका को ‘‘उपाध्याय’’ और
आचार्य का कार्य करने वाली स्त्री को ‘‘आचार्या’’ नाम दिया है। अतः स्पष्ट होता है कि शिक्षा के क्षेत्र में नारियों को
गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। उससे बड़ी इकाई समाज है और
उससे आगे देश या राष्ट्र। सबसे बड़ी इकाई विश्व है। परिवार का उद्देश्य सबसे छोटी
इकाई को सुखी,
प्रसन्न, संतुष्ट और योगक्षेम से युक्त करना।
यदि व्यक्ति सुखी है, तो समाज सुखी होगा। पति-पत्नी के
कर्तव्यों का विस्तृत विवरण भी प्राप्त होता है। पारस्परिक प्रेम व सद्भावना के
आधार पर परिवार सुखमय बना सकते हैं। वेदों में स्त्रियों के आभूषण का भी वर्णन प्राप्त होता है। दो
प्रकार के आभूषण थे। मणिजटित और मणि रहित। मणि के लिए मणि और रत्न दो शब्दों का
प्रयोग मिलता है। अथर्ववेद में अनेक मणियों का वर्णन किया गया है। मणिधारण को बहुत
महत्व दिया गया है। रत्नधारण करने वाले को रत्नधा और रत्निन् कहते थे। स्वर्ण धारण
करने वाले मनुष्य की अकाल मृत्यु से बचकर दीर्घायु होता है। स्त्रियों के लम्बे
घने बाल होना सौन्दर्य का प्रतीक माना जाता था। इसके अतिरिक्त अन्य प्रसाधनों का
उल्लेख मिलता है। स्त्रियॉ विशेष अवसर पर सुन्दर वस्त्र पहन कर जाती थी और आंखों
पर अंजन, उबट लगाना स्त्रियों का अलंकरण था। वेदों में ललित कलाओं में शिल्प शब्द का प्रयोग हुआ है। कौटिल्य
ने ललित कलाओं में संगीत,
गीत, नृत्य, नाट्य कला
के अभिनय को भी संगीत का एक अंग बताया है। यजुर्वेद का कथन है कि ऋग्वेद और सामवेद
में शिल्प अर्थात् संगीत, नृत्य और वाद्य का वर्णन है। शतपथ
ब्राह्मण में शिल्प में नृत्य और वाद्य लिया गया है। वेदों में नृत्य के दो भेदों का उल्लेख है। नृत्य और नृत्त।
भावाविनय को ‘नृत्य’ कहते हैं। इसमें नर्तक विभिन्न भावों और
विभागों को नृत्य के द्वारा प्रदर्शित करता है।नृत्य के समय संगीत, वाद्य की संगति होती थी। एक मंत्र में सामूहिक नृत्य का वर्णन करते हुए
कहा गया है कि परिवार में भाई, बहन आदि सभी एक साथ नृत्य
करते थे। अथर्ववेद में भी अनेक मंत्रों में नृत्य का उल्लेख है।
पृथ्वीसूक्त में भी उल्लेख है कि मनुष्य आनन्दविभोर होकर विविध रागों में गाते और
नाचते हैं। नृत्य में ढोलक,
तबला आदि वाद्यों का उपयोग होता था। वैदिक साहित्य में संगीत का भी वर्णन प्राप्त होता है। अतः सामवेद को संगीत प्रधान वेद कहा गया है। तैज़ियार संहिता का कथन है कि देवता समान अर्थात् संगीत में निवास करते हैं।[16] इसका अभिप्राय है कि देवों को संगीत सबसे अधिक प्रिय है। जहॉ संगीत है वहॉ वहॉ देवों का निवास है। यजुर्वेद का कथन है कि शुभ अवसरों पर वीणा वादन होता था। दुन्दुभि, तृणव, शंख, तलब आदि वेदों में अभिनय से सम्बन्धित सामग्री मिलती है। |
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निष्कर्ष |
ऋग्वेद व अथर्ववेद में सामूहिक नृत्य, गायन वादन का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि गीत संगीत आदि के साथ अभिनय होता था। अभिनय का काम करने वालों को नट कहा गया है। अतः वैदिक साहित्य में नारी को सम्मानपूर्ण उच्च स्थान प्राप्त था वह शिक्षित होने के साथ-साथ समाज के चातुर्दिक विकास के लिए कार्य करती थी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1.
ऋग्वेद 3.53.4 |