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झारखंड में पेयजल संकटजल प्रबंधनसिंचाई और पर्यावरण : एक चुनौती

Drinking Water Crisis, Water Management, Irrigation and Environment in Jharkhand: A Challenge
Paper Id :  18176   Submission Date :  16/09/2023   Acceptance Date :  21/09/2023   Publication Date :  25/09/2023
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DOI:10.5281/zenodo.10074813
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मुजफ्फर हुसैन
अतिथि शिक्षक
इतिहास विभाग
डोरंडा महाविद्यालय
रांची,झारखंड, भारत
सारांश

झारखंड गठन के 23 वें वर्ष में भी पेयजल संकट इस प्रदेश से दूर नहीं हो सका है। युवतियों और महिलाओं को स्वच्छ पेयजल के लिए आज भी कोसों दूर भटकना पड़ता है। इस प्रदेश में ठंडे और गर्म जल के कई स्रोत पाये जाते हैं लेकिन वे ज्यादातर धार्मिक आस्था के केंद्र बन गये हैं। अतिक्रमण कर लोगों ने नदियों को सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया है। नदियों का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। यहां नदियों एवं उसके घाटों का उपयोग प्राय: बालू निकालने के लिए किया जाता है। संबंधित थानाकर्मी बालू लदे वाहन को जांच के नाम पर पकड़ते हैं और किसी न किसी चार्ज के आरोप में वाहन को जब्त कर लेते हैं। इससे आमलोगों के लिए बालू महंगा हो जाता है। कई बार तो इतना गहरा और चौड़ा गड्ढा किया जाता है कि घाट के समीप बने पुल की नींव कमजोर हो जाती है। बांधों में ज्यादातर मछली पालन को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका पानी सिंचाई के रूप में उपयोग नहीं के बराबर है। जल प्रपातों का उपयोग भी केवल पिकनिक के रूप में किया जा रहा है। विभिन्न जलाशयों का उपयोग यदि प्रदेश की भूमि को सिंचित करने में किया जाना संभव हो जायेतो झाड़ियों का यह प्रदेश फलदार वृक्षों से आच्छादित हो जायेगा। आधुनिक सड़कों के निर्माण के नाम पर हाल के दिनों में लाखों वृक्षों को काटा गया हैजिसका असर पर्यावरण में दिखने लगा है। जबकि होना तो यह चाहिए कि जितनी संख्या में वृक्षों की कटाई किसी भी कारण से हुई होउससे 10 गुणा अधिक संख्या में पौधरोपण किया जाना चाहिए। झारखंड में सबसे अधिक सिंचाई कुआं द्वारा होता है। बारिश पर निर्भरता कम करने के किए सरकार द्वारा झारखंड में जलाशयों का निर्माण करने कि योजना बनी। कुछ निर्मित हुए तो कुछ अब तक अधूरे हैं।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Even in the 23rd year of formation of Jharkhand, the drinking water crisis has not gone away from this state. Even today, girls and women have to wander long distances to get clean drinking water. Many sources of cold and hot water are found in this region but they have mostly become centers of religious faith. By encroachment, people have forced the rivers to shrink. The water of the rivers is no longer fit for drinking. Here rivers and their ghats are often used to extract sand. The concerned police station personnel catch the vehicle laden with sand in the name of investigation and seize the vehicle on some charge or the other. Due to this, sand becomes expensive for the common people. Many times, a pit is dug so deep and wide that the foundation of the bridge built near the ghat becomes weak. Mostly fish farming is being promoted in the dams. Its water is hardly used for irrigation. The water falls are also being used only as picnic. If it becomes possible to use various reservoirs to irrigate the land of the state, then this area of bushes will be covered with fruit trees. In the name of construction of modern roads, lakhs of trees have been cut in recent times, the effect of which is visible in the environment. Whereas it should be that 10 times more number of trees should be planted than the number of trees that have been cut for any reason. In Jharkhand, most of the irrigation is done through wells. To reduce dependence on rain, the government planned to construct reservoirs in Jharkhand. Some have been constructed and some are still incomplete.
मुख्य शब्द पेयजल संकट, जल प्रबंधन, सिंचाई और पर्यावरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Drinking Water Crisis, Water Management, Irrigation and Environment
प्रस्तावना

झारखंड का गठन 15 नवंबर, 2000 को भारत के 28 वें राज्य के रूप हुआ। यह भारत के पूर्वी क्षेत्र में बना एक महत्वपूर्ण राज्य है। कर्क रेखा झारखंड की राजधानी रांची से होकर गुजरती है, जिसे झारखंड का शिमला कहा जाता है। इस राज्य में कुल 24 जिला, 5 प्रमंडल, 45 अनुमंडल, 260 प्रखंड, 4402 ग्राम पंचायत, 32,623 गांव, 9 नगर निगम, 17 नगर परिषद, 14 नगर पंचायत, 2 अधिसूचित क्षेत्र समिति (एनएसी), एक नगर पालिका और 475 पुलिस स्टेशन है। इस प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 79,714 वर्ग किलोमीटर है। राज्य की उत्तर से दक्षिण की लंबाई 380 किलोमीटर तथा पूरब से पश्चिम की ओर चौड़ाई 463 किलोमीटर है। वहीं, घनत्व 414 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। सबसे निम्न 160 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर सिमडेगा जिला में एवं सबसे उच्च 1284 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर धनबाद जिला में निवसीत हैं। झारखंड की कुल आबादी 3,29,88,134 है। इनमें पुरुषों की संख्या 1,69,30,315 एवं महिलाओं की संख्या 1,60,57,819 है। भारत की कुल आबादी का 2.72 प्रतिशत आबादी अकेले झारखंड में निवास करती है। 

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य झारखंड में पेयजल संकट, जल प्रबंधन, सिंचाई और पर्यावरण में आने वाली चुनौतियों का अध्ययन करना है

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए राम कुमार तिवारी (2010) की झारखंड की रूपरेखा,  हबीब इरफान (2018) रचित  मध्यकालीन भारतभाग-5, मुजफ्फर हुसैन (2017) महली जनजाति का राजनीतिकसामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन, हुसैन मुजफ्फर (2023) की झारखंड के मुसलमान एवं विनय श्रीवास्तव (2012) मध्यकालीन भारत में जल प्रबंधन आदि का अध्ययन किया गया है

मुख्य पाठ

पठारी क्षेत्र होने के बावजूद इस प्रदेश में कई प्रमुख नदियां हैं, जो लोगों की जीवनदायनी है। इनमें स्वर्ण रेखा, दामोदर, सकरी, पंचाने, फलगु, बराकर, उत्तरी कोयल, दक्षिणी कोयल, शंख, गुमानी, नलकारी, मयूराक्षी, कोनार, खरकई, अजय आदि काफी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इन नदियों को संरक्षित और स्वच्छ रखने के लिए किसी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। इस ओर सरकार लगभग पूरी तरह उदसीन है। फलत: नदियों में प्रदूषण फैलता जा रहा है और यह अतिक्रमण की शिकार भी होती जा रही हैं। शहर से गुजरने वाली नदियों का हाल तो और भी बुरा है। अतिक्रमण कर लोगों ने नदियों को सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया है। कचरों के अंबार से ये सनती जा रही हैं। सरकार इसे साफ रखने के लिए अपनी ओर से कोई ठोस प्रयास नहीं कर रही लेकिन बरसात में ये नदियां स्वयं को स्वच्छ जरूर कर लेती हैं। यदि यह प्रदेश पठारी क्षेत्र नहीं होता तो प्रति वर्ष लोगों को इन नदियों का कोपभाजन बनना पड़ता, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इन नदियों के बेहतर रख-रखाव की ओर लगभग किसी का ध्यान नहीं है। नतीजतन, नदियों का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। झारखंड में कुछ नदियों को छोड़कर शायद ही कोई नदी हो जिसका पानी सरकार पेयजल के रूप में आमलोगों के बीच वितरित करती हो। यहां नदियों एवं उसके घाटों का उपयोग प्राय: बालू निकालने के लिए किया जाता है। बालू माफिया लगभग झारखंड के प्रत्येक नदी एवं घाटों पर अवैध रूप से काबिज हैं और लगातार बालू का दोहन अपने लाभ के लिए करते चले आ रहे हैं। संबंधित विभाग और अधिकारी इस ओर लगभग मौन हैं। कभी-कभार कार्रवाई होती भी है, तो संबंधित थाने की कार्यप्रणाली से विभाग एवं आमलोगों को लाभ नहीं मिल पाता बल्कि लाभ सीधे थाना प्रभारी, उसके कर्मी एवं बालू माफिया के खाते में चला जाता है। संबंधित विभाग के अधिकारी भी कई बार इसमें संलिप्त नजर आते हैं। दरअसल, ऐसा इसलिए होता है कि संबंधित थानाकर्मी बालू लदे वाहन को जांच करने के नाम पर पकड़ते हैं और किसी न किसी चार्ज के आरोप में वाहन को जब्त कर लेते हैं जबकि पुलिस विभाग के सबसे बड़े अधिकारी को खान विभाग की ओर से पत्र दिया गया है कि बालू लदे वाहन की जांच संबंधित थाना नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें सीएफटी की जानकारी नहीं होती और ना ही उनके पास बालू वजन करने का कोई माप मशीन होता है। बावजूद थानाकर्मी इन बालू लदे वाहनों को पकड़ते हैं और वाहन से संबंधित दस्तावेज की जांच के नाम पर इन वाहनों को पकड़कर जब्त कर लेते हैं क्योंकि इन वाहनों के पकड़ने से उन्हें अपने मासिक वेतन से कई गुणा ज्यादा आमदनी हो जाती है। यह बात संबंधित जिले के बालू प्रभारी को भी पता है लेकिन चाहकर भी वे इन थानाकर्मियों के विरूद्ध कोई कार्रवाई करने में सक्षम नहीं हैं। नतीजा, आमलोगों के लिए बालू महंगा हो जाता है और बालू माफिया संबंधित विभाग से ज्यादा संबंधित थाने के साथ मित्रता बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाते हैं। यही कारण है कि नदियों पर बालू निकासी को लेकर अतिक्रमण बढ़ा है। बालू घाटों को जेसीबी से खोदकर जबरन चौड़ा और गहरा किया जा रहा है ताकि इन घाटों पर अधिक से अधिक बालू जमा हो सके। यह सीधे तौर पर पर्यावरण को हानि पहुंचाने जैसा है। कई बार तो इतना गहरा और चौड़ा गड्ढा किया जाता है कि घाट के समीप बने पुल की नींव कमजोर हो जाती है और सिर पर खतरा मंडराने लगता है। इधर, सरकार ने कुछ नदियों में बांध बनाकर अवश्य ही अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। इन बांधो से कुछ कल्याणकारी कार्य भी संचालित हैं, जिससे आमलोगों को थोड़ी-बहुत राहत है। इनमें बराकर नदी पर तिलैया बांध, दामोदर नदी पर तेनुघाट बांध, स्वर्ण रेखा नदी पर गेतलसुद बांध, मयुराक्षी नदी पर कनाडा बांध, बराकर नदी पर मैथन बांध, बाल पहाड़ी बांध एवं पंचेत पहाडी बांध, नलकारी नदी पर नलकारी बांध एवं कोनार नदी पर कोनार बांध सर्वाधिक प्रमुख है। लेकिन यह काफी नहीं है। इन बांधों में ज्यादातर मछली पालन को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसमें लोगों को समूह बनाकर समिति के माध्यम से मछली पालन करवाया जा रहा है। इन समितियों में गांव के लोगों को प्राथमिकता दी जा रही है, जो प्रशंसनीय है लेकिन इन बांधों के पानी का सिंचाई के रूप में उपयोग नहीं के बराबर है जिससे कृषि के क्षेत्र में लाभ नहीं पहुंच सका है। वैसे तो इस प्रदेश में कई अच्छे जल प्रपात हैं जिनमें राजधानी रांची में दशम, हुंडरू, जोनहा, पंमूरा, तिरू, सोनुआ प्रमुख हैं तो खूंटी में पंचघाघ, नेतरहाट में अपर घघरी, लोधा, लोअर घघरी, चतरा में डुमेर सुमेर, मेरीदह, तमासीर, मालूदह, गोआ, गिरिडीह में उसरी, गुमला में नागफेनी एवं सिंहभूम में हिसरी जलप्रपात काफी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन गर्मी के दिनों में ज्यादातर जल प्रपात या तो सूख जाते हैं अथवा काफी कमजोर हो जाते हैं। इन जल प्रपातों का अधिकत्तर उपयोग बसंत ऋतु में पिकनिक मनाने के रूप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन जल प्रपातों का उपयोग इस प्रदेश में ना तो सिंचाई के रूप में किया जाता है और ना ही इन्हें बांधकर इसका अन्य कार्य में उपयोग किये जाने की परंपरा है जबकि झारखंड में कुल 38 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। इसमें 24.25 लाख हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की क्षमता है। वर्तमान में झारखंड के कुल कृषि योग्य भूमि का 23 फीसदी भाग ही सिंचित है। कुल सिंचित भूमि का 58.30 फीसदी सतही जल से और 41.7 फीसदी भूमिगत जल द्वारा सिंचित है। उक्त जलाशयों का यदि प्रदेश की भूमि को सिंचित करने में उपयोग किया जाना संभव हो जाये, तो झाड़ियों का यह प्रदेश फलदार वृक्षों से आच्छादित हो जायेगा और यहां फल उद्योग की संभावनाओं का बड़ा द्वार खुल सकेगा। ज्ञात हो कि झारखंड में वर्तमान में कुल चार प्रकार की सिंचाई व्यवस्था है, जिससे विभिन्न जिलों के किसान अपनी भूमि को सिंचित कर रहे हैं। इनमें कुल कृषि योग्य भूमि में सिंचाई का प्रतिशत सबसे अधिक 24.25 फीसदी पलामू जिले में है।

झारखंड की वर्तमान सिंचाई व्यवस्था एवं क्रमवार सिंचित जिले-

1. अति उच्च सिंचाई व्यवस्था-गोड्डा, साहिबगंज, दुमका और गुमला

2. उच्च सिंचाई व्यवस्था-देवघर, लोहरदगा, रांची और पश्चिम सिंहभूम

3. मध्यम सिंचाई व्यवस्था-गढ़वा, पलामू, गिरिडीह और हजारीबाग

4. निम्न सिंचाई व्यवस्था-चतरा, बोकारो, धनबाद और पूर्वी सिंहभूम

इस प्रदेश की मिट्टी की बात करें तो यहां मुख्यत: पांच प्रकार की मिट्टी पायी जाती है। लाल, लेटेराइट, काली, बलुआही और जलोढ़ मिट्टी। यहां कि मिट्टी बिहार, बंगाल, ओड़िशा एवं छत्तीसगढ़ राज्य की तुलना में कम उपजाऊ  है। इसका कारण इसका पठारी भाग होना है। पठारी क्षेत्र होने के कारण यहां उपजाऊ  मिट्टी का आभाव है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में मुख्यत: चार प्रकार की ही फसलें होती हैं। भदई, अगहनी, रब्बी एवं गरमा। झारखंड में कुल कृषि भूमि का 69.75 प्रतिशत में अगहनी, 20.26 प्रतिशत में भदई, 9.20 प्रतिशत में रब्बी एवं केवल 0.73 प्रतिशत में गरमा की खेती होती है। झारखंड में 2360.54 हजार हेक्टेयर में वन क्षेत्र हैं, जो कुल क्षेत्रफल का 29.62 प्रतिशत है। यहां घने एवं विशाल जंगलों की कोई कमी नहीं है। लेकिन आधुनिकता ने अब झारखंड को भी अपने शिकंजे में लेना शुरू कर दिया है। आधुनिक सड़कों के निर्माण के नाम पर हाल के दिनों में लाखों वृक्षों को काटा गया है। शहर के भीतर रिंग रोड के निर्माण में भी कमोबेश हजारों वृक्षों की आहुति दे दी गई। आला अधिकारी अपने वातानुकुलित कमरों से बाहर निकलते नहीं और संवेदक क्षेत्र में मनमानी करते दिखाई देते हैं। लाखों वृक्षों की कटाई से इन दिनों झारखंड का मौसम पूरी तरह बिगड़ गया है, जिसका असर पर्यावरण में दिखने लगा है। कभी गर्मी के दिनों में यहां ठंड का एहसास हुआ करता था लेकिन अब यह बात झूठी प्रतीत होती है। बारिश होना यहां आम बात थी लेकिन अब यहां मौनसून भी करवटें बदलने लगी है और प्राय: कमजोर ही रहती है। एक ओर जहां झारखंड के जंगलों में साल (सखुआ), महुआ, शीशम, पलास, कुसुम, सेमल, अंजन, कटहल, आम, जामुन आदि प्रमुख वृक्षों की बहुलता है तो इसके जंगलों में मिलने वाले साल के पत्ते, केंदु पत्ते, भेलवा पत्ते एवं कोनार के पत्ते जंगलों के बीच रहने वाले स्थानीय के लिए किसी वरदान से कम नहीं हैं। लेकिन जंगलों की अंधाधुंध कटाई एवं सड़क निर्माण में हुए वृक्षों की कटाई से पर्यावरण पर संकट मंडराने लगा है और वृक्षों का अस्तित्व खतरे में है जबकि होना तो यह चाहिए कि जितनी संख्या में वृक्षों की कटाई किसी भी कारण से हुई हो, उससे 10 गुणा अधिक संख्या में पौधरोपण किया जाना चाहिए और उसी तत्परता के साथ उसका संरक्षण भी किया जाना चाहिए। यहां यह बताना आवश्यक है कि झारखंड में कुआं से सबसे अधिक सिंचाई क्रमश: गुमला, गिरिडीह, रांची, धनबाद और हजारीबाग में होती है। अकेले गुमला जिले में कुल सिंचित भूमि का 87.20 फीसदी कुआं से सिंचाई की जाती है। वहीं, तालाब से सबसे अधिक सिंचाई क्रमश: देवघर, धनबाद, साहिबगंज, दुमका एवं गोड्डा जिले में होती है। अकेले देवघर में कुल सिंचित भूमि का 49.30 फीसदी तालाब से सिंचाई होती है। तालाब सिंचाई का सर्वाधिक पुराना साधन रहा है। नहर द्वारा सबसे अधिक सिंचाई पश्चिम सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां में होती है जबकि नलकूप से सबसे अधिक सिंचार्ई क्रमश: लोहरदगा, पलामू, हजारीबाग और गिरिडीह जिले में की जाती है। इनमें कुल सिंचित भूमि का 32.60 फीसदी नलकूप से सिंचाई होती है। ज्ञात हो कि नलकूप को आधुनिक युग का कुआं कहा जाता है। पठारी क्षेत्र होने के चलते इस प्रदेश में नलकूपों का समुचित विकास संभव हुआ है। लेकिन यह काफी नहीं है। देखा जाये तो यह काफी खर्चीला है और आमलोगों की पहुंच से कोसो दूर भी है। साथ ही, कभी इसमें हजारों रुपये खर्च कर भी पानी नसीब नहीं होता। यही कारण है कि यहां की अधिकांश भूमि खेती हेतु बारिश के पानी पर निर्भर है। बारिश पर निर्भरता कम करने के किए सरकार द्वारा झारखंड में जलाशयों का निर्माण करने कि योजना बनी। कुछ निर्मित हुए तो कुछ अब तक अधूरे हैं। कुछ बांध के कैचमेंट एरिया में बढ़ रहे गाद के कारण भी नहरों से पानी की सप्लाई खेतों तक नहीं पहुंच रही। इस ओर सरकारें लगभग उदासीन हैं। इससे सूखा पड़ने का संकट और गहरा होता जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के मानें तो जल संसाधन विभाग यह दावा करता है कि राज्य में 10 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई की सुविधा उलपब्ध है जबकि राज्य में कृषि योग्य भूमि का रकबा 29.74 लाख हेक्टेयर है। इस बड़े क्षेत्रफल में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कुल 31 परियोजनाएं चलाई गई, जिनमें 9 बड़ी परियोजनाएं हैं। बावजूद राज्य के किसानों को इन परियोजनाओं का लाभ नहीं मिल सका है क्योंकि विभागीय लापरवाही के कारण आज तक इनका निर्माण कार्य या तो पूरा नहीं हुआ है या फिर सही तरीके से इनका निर्माण नहीं किया गया है। कई किसान तो सरकार पर यह भी आरोप लगाते हैं कि झारखंड में डैम का निर्माण फैक्ट्री या पावर प्लांट को पानी देने के लिए होता है। राज्य का कोई ऐसा डैम नहीं है जिसके आस-पास कृषि संबंधित कार्य किये जा रहे हों। जबकि डैम निर्माण में सैंकड़ों परिवार विस्थापित होते हैं। उस पानी पर पहला हक उन्हीं विस्थापितों अथवा आसपास के लोगों का होना चाहिए। लेकिन वास्तव में उनको इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। भाजपा की रघुवर सरकार ने अपने कार्यकाल में खेतों की सिंचाई के लिए अवश्य ही डोभा निर्माण कराया लेकिन सरकार बदलने के बाद से इन डोभा का अस्तित्व और पहचान खोता चला जा रहा है। सिंचाई एवं जलसंचयन के रूप में इन डोभा का बड़ा महत्व है लेकिन सरकारी उदासीनता एवं आमजन में जागरूकता की कमी ने पूरे जल प्रबंधन पर जैसे ग्रहण लगा दिया है।

वर्ष 2018 में झारखंड  सरकार के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के एक सर्वे के अनुसार राज्य के कुल 5649 वेटलैंड को चिह्नित किया गया जबकि पर्यावरण क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं का मानना है कि राज्यभर में कुल 25 फीसद भूमि वेटलैंड हैंजिनमें 12 फीसद वेटलैंड पर कब्जा हो चुका है। विदित हो कि वेटलैंड वह भूमि है जो आद्रता लिए होती है। इसके अंतर्गत तालाबजलाशयडोभापोखरझील एवं दलदल आदि आते हैं। नियमत: वेटलैंड भूमि के अंतिम छोर से कम से कम 200 मीटर दूर ही किसी तरह का कंस्ट्रक्शन कार्य किया जा सकता है किंतु भू-माफियाओं ने इस नियम को ताक पर रखकर वेटलैंड एरिया को भरकर कई तरह के भवन का निर्माण कर डाला। इस कड़ी में कई सरकारी भवन भी शामिल हैं। इससे भी पानी की समस्या उत्पन्न हुई और पर्यावरण पर खतरा बढ़ा है। 

विश्लेषण

झारखंड एक पठारी क्षेत्र है। राज्यगठन के पूर्व से ही यहां पेयजल एक गंभीर समस्या बनी हुई है। आलाअधिकारी इस मंथन में लगे हैं कि इस पेयजल संकट से कैसे निबटा जाये। वहींराज्य सरकार योजना बनाते नहीं थक रहीबावजूद झारखंड गठन के 23 वें वर्ष में भी पेयजल संकट इस प्रदेश से दूर नहीं हो सका है। युवतियों और महिलाओं को स्वच्छ पेयजल के लिए आज भी कोसों दूर भटकना पड़ता है। यहां यह बताना आवश्यक है कि इस प्रदेश में ठंडे और गर्म जल के कई स्रोत पाये जाते हैं। इन स्रोतों से राज्यवासियों को बड़ी राहत है लेकिन सरकारी उपेक्षा के चलते ये स्रोत दिनों-दिन अतिक्रमित होते जा रहे हैं और ज्यादातर धार्मिक आस्था के केंद्र बन गये हैं। गर्म जल के स्रोत हजारीबागसंथाल परगनाधनबादपलामू आदि अनेक जिलों में मिलते हैं। उदाहरण स्वरूप हजारीबाग का सूरज कुंड और धनबाद का टेंटुलिया कुंड लगभग 88 डिग्री से0 तक गर्म रहता है। ठंडे जल स्रोतों में यहां विभिन्न भागों में पाये जाने वाले चुआं या डाड़ी का नाम आता है। इनमें टूटी झरना विशेष उल्लेखनीय हैजहां आर्टिजन कुआं की तरह पानी निकलता रहता है। ये ठंडे जल के स्रोत आमजन के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।

निष्कर्ष

यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य है कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर प्रदेश के लोगों में जागरूकता का आभाव है। जल प्रबंधन के नाम पर भी यह प्रदेश काफी पिछड़ा है जबकि सभी जानते हैं कि यह प्रदेश पठारों से घिरा है और यहां सिंचाई के साधन सीमित हैं। इन सीमित सिंचाई के साधनों से ही स्थानीय किसानों का खाद्य सामग्री उगा पाना संभव हुआ है। गौरतलब हो कि झारखंड में सबसे अधिक सिंचाई (29.28 फीसदी) कुआं के माध्यम से होता है जबकि तालाब के माध्यम से 19.07 फीसदीनहर के माध्यम से 17.53 फीसदी एवं नलकूप के माध्यम से 8.28 फीसदी सिंचाई ही की जाती है। वहींसिंचाई के अन्य स्रोत से 25.74 फीसदी सिंचाई की जाती है। ऐसे में जल प्रबंधन पर ध्यान नहीं देना भविष्य को चुनौती देने जैसा है। राज्य में तालाब और कुओं के अस्तित्व पर सटीक आंकड़ा अब तक राज्य सरकार के पास अनुपलब्ध है। तकरीबन हर जिले में 50-70 प्रतिशत से अधिक तालाबों और कुओं पर अतिक्रमण कर उसका वजूद समाप्त कर दिया गया है और वहां सरकारी और निजी भवन का निर्माण किया जा चुका है। ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों की स्थिति ज्यादा खराब है।  एक अनुमान के मुताबिक राज्य के शहरी क्षेत्रों में करीब 10 हजार तालाब हुआ करते थेजिनमें से महज दो हजार का अस्तित्व ही रह गया है। गौरतलब हो कि रांची शहर पठार पर बसा है। यहां जीवन बसर करने वालों को पानी की किल्लत नहीं हो इसके लिए कई तालाब खुदवाये गये थे ताकि बारिश का पानी इन तालाबों में जमा हो सके। इससे आसपास का सतही और भूगर्भीय जलस्तर बना रहता। लेकिन तालाबों के अस्तित्व समाप्त होने से चहुंओर पेयजल संकट मंडराने लगा है और भविष्य के लिए चुनौती बन गया है। यदि पेयजल संकटसिंचाई और पर्यावरण की चुनौतियों से हमें बचना है तो हर हाल में हमें जल का बेहतर प्रबंधन करना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब इन चुनौतियों से हम घिरे रहेंगे और उपाय कुछ नहीं होगा

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