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छत्तीसगढ़ की
जनजाति महिलाओं की दशा एवं दिशा |
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Condition and Direction of Tribal Women of Chhattisgarh | |||||||
Paper Id :
18201 Submission Date :
2023-10-15 Acceptance Date :
2023-10-22 Publication Date :
2023-10-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10495031 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
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सारांश |
हमारे देश का आबादी का लगभग
8.2 प्रतिशत जनजाति समुदाय है। छत्तीसगढ़ में 78 लाख से भी अधिक आदिवासी जनसंख्या है, छत्तीसगढ़ राज्य एक जनजाति बाहुल्य रूप है छत्तीसगढ़ में 42 जनजातियां पाई जाती हैं, जिसमें पांच विशेष पिछड़ी जनजातियां हैं। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | About 8.2 percent of our country's population is tribal community. Chhattisgarh has more than 78 lakh tribal population, Chhattisgarh state is a tribal dominated state, 42 tribes are found in Chhattisgarh, out of which there are five special backward tribes. | ||||||
मुख्य शब्द | छत्तीसगढ़, जनजाति महिलाओं , दशा एवं दिशा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Chhattisgarh, tribal women, condition and direction. | ||||||
प्रस्तावना | समाज को प्रगतिशीलता के पथ पर गतिशील करने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें सभी अंग जीवंत और स्वस्थ हो, उनमें पारस्परिक समानता संवेदन शीलता और समन्वय हो। यह हम सभी जानते हैं कि आदिवासियों के विषय में कटु सत्य है, कि आज तक हम यही नहीं समझ पाए कि आदिवासी कौन है, और इनमें महिलाओं की स्थिति सुधार के लिए कोई विशेष कदम उठाए हैं, कि नहीं। जब हम जनजाति महिलाओं विकास की बात करते हैं, तो कोई ऐसी योजना नहीं बना पातें जो यथार्थ में उनका कल्याण कर सकें हम जो भी प्रयास करते है, वह जनजातियों के लिए करते हैं लेकिन महिला जनजातियों की विकास के बारे में हम पीछे रह जाते हैं और जो प्रयास भी करते हैं, वह हम किसी बड़े ए. सी. के कमरे में बैठ कर अपने चश्मे में देखते हैं, ना कि उनकी वास्तविक धरातल पर खड़े होकर। छत्तीसगढ का भौगोलिक परिचय- छत्तीसगढ़ क्षेत्र प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के नाम से
जाना जाता था। भारत वर्ष में अपने विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण आदिम सांस्कृतिक
विशेषताओ को संजोये रखने मे समर्थ अनेक छोटे छोटे प्रदेश विद्यमान है जिसमें
छत्तीसगढ़ का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। संपूर्ण छत्तीसगढ़ उउ तीन महत्वपूर्ण
प्राकृतिक भागों में विभक्त होता है- 1. उत्तर
में सतपुड़ा की समभूमि 2. मध्य मे
महानदी एवं उसकी सहायक नदियों का मैदान
3. दक्षिण
में बस्तर का पठार |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य निम्नलिखित है- 1. जनजातिय
महिलाओें की जीवनशैली का अध्ययन करना। 2. जनजातिय
महिलाओं के शिक्षा के स्तर का अध्ययन करना। 3. जनजातिय
महिलाओं की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना। 4. जनजातिय
महिलाओं के स्वास्थ्य स्तर को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करना। 5. जनजातिय
महिलाओं के स्वास्थ्य के स्तर एवं शासकीय योजनाओं के प्रभाव का अध्ययन करना। |
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साहित्यावलोकन | 1. कन्नौज रंजना- मध्यप्रदेश की जनजातियों मे राजनीतिक
नेतृत्व दशा एवं दिशा - देवी अहिल्या विश्वविद्यालय सन् (2020) इस शोध
ग्रंथ के अध्ययन पर हमें जनजातियों का जननांकिकी परिचय, उनकी
स्थिति,
भौगोलिक क्षेत्र, नेतृत्व एवं उनकी दिशा, समस्या एवं चुनौतियों के बारे में बताया गया है। 2. दुबे सचिन- उत्तर पूर्वी उत्तर प्रदेश में जनजातिय
महिलाओं की स्थिति एक समाजशास्त्रीय अध्ययन - डॉ राममनोहर लोहिया अवध
विश्वविद्यालय फैजाबाद सन् (2010) का
अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इस शोध ग्रंथ में जनजातिय समाज में महिलाओं की
सामाजिक-आर्थिक स्थिति,
संपत्ति पर अधिकार, विधवा पुर्नविवाह, जनजातिय घोटुल, विवाह विच्छेद, शिक्षा एवं संचार साधनोें के प्रभाव का अध्ययन किया गया है।
3. बघेल अरख राम- जनजातिय महिलाओं एवं बच्चों में
स्वास्थ्य की स्थिति एक सामाजिक अध्ययन कांकेर जिला अंतागढ तहसील के विशेष संदर्भ
में -पं.रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर सन् (2021) इस शोध ग्रंथ का अध्ययन करने पर हमें छत्तीसगढ़ की जनजातीय
महिलाओं की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, उनकी जीवनशैली, शिक्षा,
स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता एवं विभिन्न योजनाओं के बारे
में पता चलता है जो इस अध्ययन में सहायक है। 4. देवांगन विजयलक्ष्मी- बालोद तहसील के ग्रामपंचायत में नेतृत्व की स्थिति
का एक राजनीतिक विश्लेषण अनुसूचित जनजातिय महिलाओं के विशेष संदर्भ में -
पं.रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर सन् (2015) उक्त शोध ग्रंथ में जनजातिय महिलाओं के पंचायतों में
महिलाओं के नेतृत्व,
उनकी स्थिति का अध्ययन किया गया हैै। जो हमारे अध्ययन में
उपयोगी है। 5. चक्रवर्ती रवि राहुल- उत्तरीय छत्तीसगढ़ राज्य में बिरहोर
जनजाति की शैक्षणिक स्थिति का मानवशास्त्रीय अध्ययन- पं रविशंकर विश्वविद्यालय
रायपुर सन् (2018) में छत्तीसगढ़ की बिरहोर जनजाति में जनसंख्या का परिचय, परिवार,
शैक्षणिक योजनांए एवं नीतियों का अध्ययन किया गया है। 6. जैन श्वेता- छत्तीसगढ़ राज्य के भारिया जनजाति की स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति एक समाजशास्त्रीय अध्ययन- पं रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर सन् (2022) में छत्तीसगढ़ की जनजातियों के आवास, स्वास्थ्य की स्थिति, शैक्षणिक स्थिति, विभिन्न योजनांए के प्रभावों का अध्ययन किया गया है। 7. इंनवायरमेंट
आफ ट्रायबल वुमेन अ सोसियोलाजी स्टडी विच रिफ्रेंस टू रायपुर डिस्टीक्ट इन
छत्तीसगढ- महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ सन् 2017 इस शोध ग्रंथ में जनजातिय महिलाओं की
सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन किया गया है। जो हमारे अध्ययन के लिए
बहुत सहायक है। |
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मुख्य पाठ |
अध्ययन का महत्व-
आदिम जातियों में सबसे महत्वपूर्ण बात उनकी जीवनशैली है जिसमें वे अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने और भरपेट भोजन के लिए जीवन के प्रत्येक क्षण का प्रयोग अपने अपने क्षेत्रानुसार करते हैं। इनमें महिलाओं की भागीदारी रहती है। छत्तीसगढ राज्य में बैगा, अबुझमाडिया, बिरहोर, भैना, कमार, कोरबा, पारधी, उरांव आदि आदिम जनजातियां चिन्हांकित है। राज्य की इन सभी आदिम जनजातियों के जीवन का आधार आज भी शिकार एवं भोजन संग्रहण करना है। यह जनजातियां आस्टेलायड प्रजाति की विशेषताओं से युक्त है। यह प्रारंभ से ही वनों एवं दुर्गम क्षेत्रों मे अपना जीवन यापन कर रही है। मुख्यधारा में जुडने के लिए इनमें तेजी से शैक्षणिक क्षेत्र
में प्रगति की ओर बढ़ना होगा विशेषकर महिलाओं एवं बच्चों को जो उनके समाज के विकास का आधार
है। 21वीं शताब्दी कि नारियों की बात कर रहे हम सब यह भूल जाते हैं कि आज भी जनजाति महिलाएं जो छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों में रह
रही है, उनको रोजमर्रा के जीवन यापन के लिए कई मीलों तक
भटकना पड़ता है। आज चाहे सरकार केंद्र की हो, या राज्य की, उनके द्वारा बजट का मोटा हिस्सा प्रदान होने के बावजूद जनजाति महिलाओं की
स्थिति जहां थी वहीं है, क्योंकि हम कहीं ना कहीं यह तय नहीं कर पा रहे
हैं कि उनकी मूल आवश्यकता क्या है? विश्व की आधी जनसंख्या
महिलाओं की है, यहां लेखिका का तात्पर्य गांव, कस्बा, नगर, महानगर प्रदेश एवं देश की परिधि से बाहर जनजाति महिलाओं से
हैं । जनजाति समुदाय में महिलाओं से संबंधित वैवाहिक कुरीतियां, लिंग असमानता,अशिक्षा एवं शोषण से संबंधित अनेक समस्याओं के प्रति उन्हें जागरूक बनाकर उनके
विचारों एवं मनोवृतियों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । नारी पुरुषों से कम कभी
नहीं रही है वह सदा से ही उत्प्रेरक रही है,परिवार समाज और राष्ट्र के नवनिर्माण में इन्होने ही बढ़ - चढ़कर हिस्सा लिया है, चाहे वह आपला, गार्गी का वैदिक काल रही हो अथवा
आधुनिक युग की मैडम क्यूरी, कल्पना चावला, इंदिरा गांधी, किरण बेदी जैसी महिलाएं जो हर क्षेत्र में आज
महिलाओं की अपनी कार्य कुशलता सिद्ध की है । आज देश की दशा और दिशा में
तस्वीर क्या है, देखना है तो हमें जनजाति पिछड़े आदिवासी महिलाओं
की स्थिति से रूबरू होना चाहिए कहीं ना कहीं भारत की आत्मा हमारे जनजाति और
जनजातिय महिलाएं है । भारत में 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया, तथा महिलाओं के कल्याण हेतु पहली बार महिला उत्थान नीति
बनाई गई महिलाओं के लिए कई सकारात्मक प्रयास किए गए, इसके बावजूद आदिवासी महिलाओं की दिशा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है, वह आज भी सुदूर जंगलों में अभाव भरा जीवन यापन कर रही हैं । आदिम अर्थव्यवस्था के कारण
महिलाओं पर ज्यादा बोझ है, वह जीवन - यापन के लिए
जंगली जानवर, जहरीले पेड़ पौधे के संपर्क में है जो उनके लिए
घातक है जनजाति महिलाओं का कई बार अपराधिक शिकायतें सामने आई हैं, नक्सली क्षेत्रों में जहां पर उनका जबरदस्ती उनका शारीरिक
मानसिक शोषण किया जाता है । नक्सली जंगल के लड़कियों, महिलाओ को ले जाते हैं और उनसे अपना सभी कार्य करवाते हैं, जैसे खाना बनाना, कपड़ा एवं बर्तन धोना, साथ ही यौन शोषण भी । महिलाओं को कम मजदूरी, अस्वच्छ वातावरण में कार्य करने को बाध्य होना होता है ।
स्वास्थ्य,एनीमिया, कुपोषण एवं गर्भवती का उचित देखरेख अभाव पाया जाता है । संधारणीय विकास के लिए
आदिवासी महिलाओं का अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में जुड़ना जरुरी है। योजनाएं मूलतः
प्रजातंत्र से संबंधित विशेष कर सतही स्तर पर होनी चाहिए, जिसका लाभ भारत की सभी महिलाएं चाहे वह मैदानी क्षेत्र की, हो या शहरी क्षेत्र की, औद्योगिक क्षेत्र की, हो या सुदूर वन आच्छाधित क्षेत्रों की । लाभ सभी
को मिलना चाहिए, आदिवासी महिलाओं का बाहृय संस्कृति समूह से
संपर्क के कारण भी बहुत समस्याएं सामने आयी है जैसे ऋणग्रस्ता एवं आर्थिक शोषण, भाषा, कला ह्रास, वेश्यावृत्ति, गुप्त रोग, खानपान पहनावा, ऐसे ही बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय समाज में विभिन्न
जनजातियाँ हमारी धरोहर है संस्कृति की । एक आदिवासी महिला समाज के आर्थिक सामाजिक
ढांचे में अहम भूमिका रखती है। समय के प्रवाह के साथ अनुसूचित जनजातियों के लोग भी
आर्थिक विकास और सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं से प्रभावित होते रहे
हैं । इसके फलस्वरुप कई ऐसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हुई हैं जिसमें आदिवासी
महिलाओं के हित में सही नहीं था और उनका विरोध भी किया गया है। महिलाओं के द्वारा
विरोध की प्रक्रिया आदिवासी आंदोलन या जनजाति आंदोलन के रूप में फैली है, इसका उदाहरण है चिपको आंदोलन जिसमें बेटियां जनजाति घुमंतू
जनजाति के पुरुष के साथ महिलाओं ने भी चिपको आंदोलन में बढ़ चढ़कर भागीदारी दिखाई, जो की राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन माना जाता है । सभी
क्षेत्रों में जनजाति महिलाओं की भागीदारी देखने को मिलती है चाहे वह खेतो में हो
या घर के बाहर का आंदोलन। आदिवासी समुदायों की महिला कड़ी मेहनत करती है, इसलिए उन्हें संपत्ति माना जाता है । आश्चर्य नहीं है कि
विवाह के दौरान दुल्हन की कीमत की प्रथा उनमें काफी आम है, आदिवासी महिलाओं का उनकी अचल संपत्ति पर बहुत कम नियंत्रण
होता है, उन्हें शायद ही कभी जमीन रियासत में मिली हो
खासकर पितृवंशीय समाज में आदिम अर्थव्यवस्था परिणाम महिलाओं पर बहुत अत्यधिक बोझ
की भाति है । हमें कहीं ना कहीं यह देखने
को मिलता है, कि जनजातीय क्षेत्र में औद्योगिक करण के बढ़ने के
कारण दो प्रकार की प्रक्रियाएं सामने दिखाई देती हैं, एक यह की बाहरी लोगों का जनजाति क्षेत्र में प्रवेश और
दूसरा जनजाति लोगों का शहरी क्षेत्र में स्थानांतरण हुआ है । और यह स्थानांतरण
कहीं ना कहीं जनजाति लोगों का आजीविका की तलाश में हुआ है,और इस तरह का प्रवास आदिवासी महिलाओं की स्थिति पुरुष की
तुलना में अधिक गिरावट आई है । जनजातीय या आदिवासी महिला का समाज के सामाजिक
आर्थिक ढांचे में महत्वपूर्ण स्थान होता है । आज का दौर परिवर्तन का दौर है, इस प्रक्रिया में आदिवासी महिलाएं चाहे वह इसे पसंद करें या
नहीं, कुछ मानदंडों को अपनाने के लिए मजबूर है । जो
उनकी स्वतंत्रता को भी छीन सकती है । आदिवासी महिला का जीवन उसके पुरुष साथी से
जुड़ा होता है, पूरे भारत में जनजातीय समुदाय विभिन्न प्रकार के
अभाव के अधीन रहा है, जैसे भूमि और अन्य वन संसाधनों के अलावा जनजाति
महिलाएं पारंपरिक सूचनाओं की वाहक होती
हैं । वे न केवल सक्षम खाद्य उत्पादक और गृह निर्माता है, बल्कि वह अपनी संस्कृति की धरोहर है जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करती है ।
आदिवासी महिलाएं सभी सामाजिक समूहों में महिलाओं के रूप में पुरुषों की तुलना में
अधिक निरक्षर है । अन्य समुदाय की तरह जनजाति महिलाओं को प्रजनन व्यवस्था से
संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता है । महिलाएं कहीं ना कहीं पुरुषों की तुलना
में अधिक कार्य करती हैं और बहुत मेहनत करती हैं । जनजाति समूह में मातृ
मृत्यु दर भी देखा गया है । मातृ मृत्यु का प्रमुख कारण गर्भवती महिला का प्रसव के
दौरान आदिम प्रथाओं का प्रयोग करना एवं
अस्पताल न जाना है । तत्काल में आदिवासी क्षेत्र में सर्व सुविधा युक्त अस्पताल का
न मिलना जिससे गर्भवती एवं शिशु दोनों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है ।
छत्तीसगढ़ के जशपुर सरगुजा क्षेत्र में पहाड़ी कोरवा जनजाति में प्रसव के दौरान माता को घर के खिड़की में बिठाकर प्रसव
कराया जाता है, ताकि बच्चा निकालने में दबाव बने यदि घर में
खिड़की नहीं है तो खिड़की बनाई जाती है । यह इनका पारंपरिक प्रथा है जो कि कभी-कभी
महिलाओं के लिए और बच्चों के लिए नुकसानदायक है, हम देखते हैं कि जितने भी प्रथाएं हैं, उनको आगे बढ़ाने में सहेजने में और उसको अपने ऊपर लागू करने में भी महिलाओं की
भागीदारी सबसे ज्यादा है। जैसे की प्रथा बना ही महिलाओं के लिए है। प्रसव अकसर
घर की बुजुर्ग महिलाएं करती है, और उनके द्वारा
कोई विशेष सावधानी भी नहीं बरती जाती जिसके कारण संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
आदिवासी महिलाओं को संतुलित आहार नहीं मिल पाता है । गर्भा अवस्था के दौरान इस कारण
से भी कमजोर हो जाती है साथ में पैदा हुआ बच्चा भी । |
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निष्कर्ष |
आज आदिवासियों के बीच एक नई समस्या ने जन्म ले लिया है वह है, आदिवासी कन्याओं का अपहरण, उनका बलात्कार, ट्रैफिकिंग। जसपुर सरगुजा की उराव जनजातियों की लड़कियों को अपहरण एवं बहला फुसलाकर बड़े-बड़े शहरों में ले जाया जाता है, एवं उनको बेच दिया जाता है, बेचने वाले भी उनके परिवार घर रिश्तेदार और गांव के ही सदस्य रहते हैं । नौकरी दिलाने के बहाने से, या प्यार का, शादी का झांसा देकर ले जाते हैं । बड़े शहरों में उनसे घर का काम करने वाली बाई बनाकर रखा जाता है । वह यहां बंधुआ मजदूर बन कर रह जाती हैं । जनजातियों में आर्थिक तंगी के कारण यह सब देखने को मिलता है, कई बार स्वयं माता-पिता ही अपनी लड़कियों को काम करने के लिए कुछ रूपयों के लिए बेच देते हैं शहर में, परिणाम स्वरुप आदिवासी कन्याओं का सिर्फ और सिर्फ शोषण ही होता है, वहां नौकरियों के नाम पर । आदिवासी महिलाओं की समस्याएं यहीं खत्म नहीं होती वह वर्षों से ही विभिन्न समस्याएं परेशानियों का सामना करती आई है,और शायद आगे भी करती रहेगी जनजाति महिलाएं की दशा एवं दिशा में सुधार की बहुत आवश्यकता है ताकि वह हमारे विकासशील देश में बढ़- चढ़ कर भागीदारी निभावें । समाज का विकास हमारे मूल संस्कृतियों की धरोहर जनजाति महिलाओं के विकास से संभव हो पाएगा । |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1.जवाहर लाल नेहरू ‘द राइट अप्रोच टू ट्राईबल पीपल’, इंडिया जर्नल आफ सोशल वर्क 2.मकसूद अख्तर और रुबीना अख्तर, भारत में जनजातियों के मुद्देः शिक्षा और स्वास्थ्य (2016) इंटरनेशनल जर्नल
आफ रिसर्च 3.राव, जी. भगत,आर (2005) भारत में जनजातिय,जनसंख्या की स्वास्थ्य और विकास पर राष्ट्रीय
संगोष्ठी का सारांश और सिफारिशें। 4.डॉ. जितेश कुमार अमरोहित ‘‘छत्तीसगढ़ की जनजातियां’’सरस्वती बुक्स भिलाई ‘नई दिल्ली’ 5.डॉ.टी. के. वैष्णव ‘ छत्तीसगढ़ की
अनुसूचित जनजातियां’ आदिम जनजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान रायपुर (2004) 6.अनिल किशोर सिंह ‘‘छत्तीसगढ़ की आदिम जनजातियां’’ मार्डन बुक
सेंटर नई दिल्ली 2006. 7. अरुण के. सिंह, भारत में महिलाओं का सशक्तिकरण,मानक प्रकाशन प्रा/लिमिटेड, नई दिल्ली 2006. 8. प्रो. गुप्ता एवं शर्मा, एम.डी.डी. ‘‘भारत में समाज’’ समाजशास्त्र साहित्य भवन पब्लिकेशनरू आगरा 2009 9. मुखर्जी-डॉ.रविंद्र नाथ- ‘‘भारत में सामाजिक परिवर्तन’’ विवेक प्रकाशन. जवाहर नगर, दिल्ली-7. 2009 10. शुक्ला हीरालाल-‘‘छत्तीसगढ़ का जनजाति इतिहास’’ मध्य प्रदेश
हिंदी ग्रंथ अकादमी 11.गुप्ता-प्यारेलाल -‘‘प्राचीन छत्तीसगढ़’’ प्रकाशक रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय मध्य रायपुर (म.प्र.) हिंदी ग्रंथ अकादमी |