ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- IX December  - 2023
Anthology The Research

गुरु शिष्य परंपरा एवं संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति की तुलना

Comparison of Guru ShishyaTradition and Institutional MusicTraining Method
Paper Id :  18392   Submission Date :  12/12/2023   Acceptance Date :  21/12/2023   Publication Date :  25/12/2023
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DOI:10.5281/zenodo.10489707
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प्रीति वर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
संगीत (स्वर)
भगत सिंह सरकार. पी. जी. कॉलेज
जावरा,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश

संगीत प्रशिक्षण में पौराणिक काल से ही हमारे देश में गुरु शिष्य परंपरा देखने को मिलती है। चाहे वह रामायण काल हो या महाभारत काल, गुरु शिष्य परंपरा का प्रचलन प्रारंभ से ही रहा है। यदि वर्तमान समय की बात की जाए तो इस समय संगीत प्रशिक्षण हेतु गुरु शिष्य परंपरा के साथ ही संस्थागत शिक्षण पद्धति भी काफी प्रचलित हो चुकी है। गुरु शिष्य परंपरा में गुरुकुल की व्यवस्था हुआ करती थी जिसमें राजपुत्रोंतथा का राज कन्याओं को गुरुकुल में गुरु के सानिध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी। समय के साथ संगीत प्रशिक्षण कीयहपद्धति विभिन्न समूह में बंटती चली गई जिन्हें आगे चलकर घराना,वाणी अथवा बाज कहा जाने लगा। संगीत के विभिन्नघरानोंमें गुरु शिष्य परंपरा के कारण संगीत कीभिन्न-भिन्न शैलियों का विकास हुआ। विभिन्न घरानों की गुरु शिष्य परंपराओं में आपसी मतभेद होने के कारण एक प्रकार के संकुचित विचार ने भी जन्म लिया। परंतु 18वीं शताब्दीमें भारतीय संगीतशिक्षणविभिन्नघरानों की गुरु शिष्य परंपरा व्यवस्था से निकलकर विभिन्न संगीत शिक्षण संस्थानों ,विद्यालयों और महाविद्यालय में दिया जाने लगा। इन दोनों ही पद्धतियों की कुछ कमियों को दूर किया जाए तो दोनों ही पद्धतियां अपने-अपने स्थान पर सार्थक हैं जहां एक ओर गुरु शिष्य परंपरा हमें संगीत की साधना और गुरु सेवा के महत्व को समझातीहै वहीं दूसरी ओर संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति हमें संगीत के प्रायोगिकपक्ष के साथ ही साथ सैद्धांतिक पक्ष के प्रति भी जागरूक करती है।


सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Guru-disciple tradition in music training can be seen in our country since ancient times. Be it the Ramayana period or the Mahabharata period, the Guru-disciple tradition has been prevalent since the beginning. If we talk about the present times, then along with the Guru-Shishya tradition, the institutional teaching method for music training has also become quite popular. In the Guru Shishya tradition, there used to be a system of Gurukul in which the royal sons and daughters had to get education by staying in the Gurukul in the Gurukul. With time, this method of music training got divided into different groups which later came to be called Gharana, Vani or Baaj. Due to the guru-disciple tradition in different gharanas of music, different styles of music developed. Due to mutual differences in the Guru-disciple traditions of different gharanas, a kind of narrow thought also took birth. But in the 18th century, Indian music education came out of the guru-disciple tradition system of various families and started being given in various music educational institutions, schools and colleges. If some of the shortcomings of both these methods are removed, then both the methods are meaningful in their own place. On one hand, the Guru-Shishya tradition makes us understand the importance of music practice and Guru service, while on the other hand, the institutional music training system teaches us the practical aspects of music. Along with this, it also makes people aware about the theoretical aspect.
मुख्य शब्द संगीतसाधना, गुरु शिष्य परंपरा, भारतीय संस्कृति,संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति, संगीत प्रशिक्षण, घराना, गुरुकुल।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Music Practice, Guru Shishya Tradition, Indian Culture, Institutional Music Training Method, Music Training, Gharana, Gurukul.
प्रस्तावना

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि संगीत में गायन, वादन तथा नृत्य इन तीनों का समावेश होता है।

संगीत प्रशिक्षण के क्षेत्र में पौराणिक काल से ही गुरु शिष्य परंपरा के कई उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं। चाहे वह रामायण काल में श्री राम एवं उनके भाइयों द्वाराऋषि वशिष्ठ से वेदों के अध्ययन के साथ ही साथ संगीत की विधिवत शिक्षा प्राप्त करना हो या फिर श्री राम के दोनों पुत्रों लव कुश द्वारा ऋषि वाल्मीकि से समस्त विधाओं के साथ ही संगीत शिक्षा प्राप्त करना हो।

या फिर महाभारत काल में अर्जुन द्वारा अस्त्र शस्त्रों के साथ ही गंधर्व से संगीत और नृत्य की शिक्षा प्राप्त करना या फिर अर्जुन द्वारा उत्तर को नृत्य की शिक्षा प्रदान करना हो।

इन सभी उदाहरणों पर दृष्टिपात करने से हमें यह पता चलता है कि पौराणिक काल से ही संगीत प्रशिक्षण हेतु गुरु शिष्य परंपरा का प्रश्न समझ में रहा है।

यदि वर्तमान समय की बात की जाए, तो इस समय संगीत प्रशिक्षण हेतु गुरु शिष्य परंपरा के साथ ही संस्थागत शिक्षण पद्धति भी काफी प्रचलित हो चुकी है। यहां पर इन दोनों ही प्रकार की प्रशिक्षण प्रणालियों पर और उनकी समस्याओं पर विचार करने का प्रयास किया जा रहा है।

अध्ययन का उद्देश्य

इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य गुरु शिष्य परंपरा एवं संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति की तुलना करना है

साहित्यावलोकन

1. डॉ. महारानी शर्माडी. पी. गर्ल्सकॉलेज, इलाहाबाद की प्रवक्ता (निवृत्तमान) रहीहैं। यह आशीर्वाद संगीत विद्यालय की संचालिकाहैं।

2. डॉ. तेज सिंह टांक बहुत ही महान संगीत शास्त्री रहे हैं और इन्होंने भातखंडे संगीत संस्थान (सम विश्वविद्यालय) लखनऊ में सन 1979 ई से प्रारंभ में शास्त्र एवं पक्ष में व्यवहार तथा शास्त्र शिक्षक के रूप में कार्य किया। इन्होंने संगीत जिज्ञासा और समाधान, संगीत विज्ञान और गणित,सुबोध संगीत शास्त्रजैसी उपयोगी पुस्तकों की रचना की।

3. डॉ. मृत्युंजय शर्मा,रामनारायण त्रिपाठी,डॉ.टी. सी. कौलने मिलकर संगीत मैन्युअल नमक संगीत उपयोगी पुस्तक की रचना की है

4. तुलसीरामदेवांगन एक बहुत ही प्रतिष्ठित संगीत शास्त्री हैं और इन्होंने भारतीय संगीत शास्त्र नमक पुस्तक की रचना की है।

5. आचार्य बृहस्पति का नाम भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में बहुत ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है इन्होंने संगीत चिंतामणि जैसीकई उपयोगी किताबों की रचना की है।

मुख्य पाठ

गुरु शिष्य परंपरा-

जैसा किपूर्व में ही कहा जा चुका है कि गुरु शिष्य परंपरा का प्रचलन पौराणिक काल से ही रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा हेतु गुरुकुल की व्यवस्था थी।राजपुत्रो तथा राज कन्याओं को गुरुकुल में गुरु के सानिध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी। वेद अध्ययन के साथ ही संगीत शिक्षा को भी महत्वपूर्ण समझा जाता था। यज्ञ हवन में संगीत का प्रयोग होने के कारण इसे ईश्वर प्राप्ति का साधन समझा जाता था।

तत्पश्चात कल दर कल समय के साथ संगीत प्रशिक्षण की यह पद्धति विभिन्न समूह में बंटती चली गई। जिन्हें आगे चलकर घर आना वाणी और बज कहा जाने लगा।जैसा कि हम सभी को ज्ञात है की संगीत में घराना तभी बनता है जब लगातार तीन पेढ़ियों तक किसी खास ग्रुप शिष्य परंपरा का निर्वाह किया जाए तथा उसमें पारंगत हुआ जाए।

मुगल काल के आगमन के पश्चात समस्त संगीत प्रशिक्षण विभिन्न गानों में बंट गया। इन सभी गानों की एक खास गुरु शिष्य परंपरा हुआ करती थी सभी की अपनी एक पृथक गायन,वादन अथवा नृत्य की शैली हुआ करती थी। इसी के साथ प्रविभिन्न गानों में आपसी मतभेद और ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होने लगा। जहां प्राचीन काल में संगीत ईश्वर प्राप्ति का साधन था, वही मध्यकाल आते-आते संगीत और उसकी गुरु शिष्य परंपरा राजश्रय और राज पुरस्कार प्राप्ति हेतु एक प्रतियोगिता बन गई। प्राचीन काल में गुरु और शिष्य का संबंध अभिभावक और संतान का माना जाता था।

परंतु मध्यकाल में गुरु शिष्य परंपरा में गुरु द्वारा शिष्यों के भी तीन प्रकार माने जाने लगे-

1. ख़ास-उलख़ासइस वर्ग में गुरु का स्वयं का पुत्र, भतीजा, भांजा या फिर कोई रिश्तेदार होता था, जिससे गुरु का रक्त संबंध हो। इस वर्ग के शिष्य को गुरु अपनी संपूर्ण संगीत शिक्षा प्रदान करते थे।

2. ख़ास- इस वर्ग में गुरु का सबसे प्रिय शिष्य माना जाता था। संगठन जो गुरु का प्रिय पात्र हो तथा अपने गुरु के हृदय से सेवा करता हो। इस वर्ग के शिष्य को गुरु संगीत शिक्षाख़ास-उलख़ास से कम परंतु अन्य शिष्यों से अधिक प्रदान करते थे।

3. आम– इस वर्ग में शेष अन्य सभी साधारण शिष्य आते थे। जिन्हें गुरु अपनी संगीत विद्या का कुछ अंश प्रदान करते थे।

संगीत के विभिन्न घरानोंमें गुरु शिष्य परंपरा के कारण संगीत के भिन्न-भिन्न शैलियों का विकास हुआ। परंतु कहा जाता है कि हर जगह अच्छाई के साथ ही कुछ बुराइयां भी होती हैं :-

1. इस काल में विभिन्न गानों की गुरु शिष्य परंपराओं में आपसी मतभेद होने के कारण एक प्रकार की संकुचित विचारधारा ने भी जन्म लिया, जिस कारण किसी एक घराने के शिष्य को किसी दूसरे घर आने की गुरु शिष्य परंपरा का संगीत सुनने की अनुमति नहीं थी।

2. गुरु शिष्य परंपरा में गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, जिस कारण शिष्य द्वारा अपने गुरु से किसी प्रकार का प्रश्न किया जाना गुरु अपना अपमान समझते थे। परन्तु इस कारण शिष्य भय वश अपनी किसी भी समस्या या जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाते थे। जिस कारण कई बार शिष्य का संगीतज्ञान अधूरा रह जाता था।

3. गुरु- शिष्य परंपरा में संगीत शिक्षा में गुरु के ज्ञान के साथ ही साथ कई बार गुरु के अवगुण भी अज्ञानतावश शिष्य ग्रहण कर लेता था । उदाहरण के तौर परयदि कोई गुरु बहुत अच्छा गाते हैं, परंतु यदि वे गाते समय मुंह टेढ़ा करके गाते हैं या फिर किसी विशेष भाव- भंगिमा का प्रयोग करते हैं, तो कई बार अज्ञानता वश शिष्य द्वारा इस अवगुण को भी गाय की का एक भाग मानकर ग्रहण कर लिया जाता था।

4. घरानों की गुरु शिष्य परंपरा गुरु द्वारा अपनी पुत्री को संगीत की शिक्षा प्रदान नहीं की जाती थी। क्योंकि पुत्री के विवाह के पश्चात् उसके द्वारा, उस घराने की विद्या कहीं दूसरे व्यक्तियों या घराने में जाने का भय जैसी संकुचित विचारधारा थी।

संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति

18 वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों के आगमन के पश्चात्भारतीय संगीत तथा उसकी गुरु शिष्य परंपरा छिन्न भिन्न हो गई।

जिसके उत्थान के लिए पं. विष्णु नारायण भातखंडे और पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर जैसे दो महान संगीत उद्धारक हुए। इन्हों ने संगीत शिक्षण को विभिन्न घरानों की गुरुशिष्य परंपरा व्यवस्था से निकालकर, विभिन्न संगीत शिक्षण संस्थाओं, संगीत विद्यालयों और महाविद्यालयों में लाने का सफ़ल प्रयास किया।जिस कारण संगीत शिक्षा साधारण जनसामान्य के लिए उपलब्ध हो पाई।

प्राचीनकाल से मध्यकाल तक संगीत की कोई विशेष लिपि नहीं होने के कारण विभिन्न घरानों के कई सारे राग और बंदिशें समय के साथ विलुप्त हो गए।परंतु इस गंभीर समस्या का समाधान पंविष्णु दिगंबर पलुस्कर जी ने करने का प्रयास पलुस्कर स्वर लिपि पद्धति इतनी क्लिष्ट थी कि साधारण जनसामान्य के लिए उसे समझ पाना संभव नहीं था।

इनके पश्चात पंडित विष्णु नारायण भातखंडे जी द्वारा भातखंडे स्वरलिपि पद्धति का निर्माण किया गया।पंडित भातखंडे जी द्वारा लगभग 7000 प्रश्नों से भी अधिक विशाल संगीत साहित्य लिखा गया। जिसमें भातखंडे जी ने 181 रगों में सदा रंग अधरंग आदि 13 वाक्य करूं कि ध्रुपद धमाल ख्याल आदि 13 शैलियों में लगभग 2000 बंदिशें अपनी बनाई स्वरलिपि में लिपिबद्ध किया जो 18 तालों और नौ भाषाओं में हैं।

वर्तमान समय में विभिन्न विद्यालयों, महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में अन्य सभी विषयों की तरह ही संगीत शिक्षा को भी एक विषय के रूप में मान्यता प्राप्त हो रही है। जहां इसे केवल ईश्वर प्राप्ति का या फिर मनोरंजन का साधन न मानकर एक शोध का विषय भी माना जा रहा है।

गुरु शिष्य परंपरा और संस्थागत संगीत शिक्षण पद्धति की तुलना गुरुशिष्य परंपरा और संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति की तुलना करने पर कुछ मुख्य बातें और समस्याएं सामने आती हैं:-

1. गुरु शिष्य परंपरा में शिष्य की योग्यता के अनुसार उसे संगीत का प्रशिक्षण दिया जाता है, परंतु संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति में कोई भी साधारण जन सामान्य प्रवेश लेकर संगीत प्रशिक्षण ले सकता है।

2. गुरु शिष्य परंपरा में संगीत शिक्षा हेतु किसी समय सीमा का बंधन नहीं होता, एक रात की शिक्षा एक महीने, 1 साल या जब तक गुरु चाहे प्रदान की जा सकती है। परंतु संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति में एक निश्चित अवधि में पाठ्यक्रम को पूर्ण करने की बाध्यता होती है।

3. गुरु शिष्य परंपरा में संगीत शिक्षा का मुख्य उद्देश्य संगीत साधना करना, शीशे को संगीत की शिक्षा प्रदान करना तथा देश की कला और संस्कृति का विकास करना होता है। परंतु संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति में छात्रों का मुख्य उद्देश्य परीक्षा पास कर डिग्री प्राप्त करना ही होता जा रहा है।

गुरु शिष्य परंपरा में संगीत शिक्षा प्रदान करना ही गुरु का मुख्य कार्य होता है। परंतु वर्तमान समय में संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति में संगीत शिक्षा किया अध्यापक के पास संगीत शिक्षा प्रदान करने के साथ ही साथ अन्य कार्यालयीनऔर शासकीय कार्यों की अधिकता के कारण कई बार ठीक प्रकार से संगीत कक्षाएं नहीं होने के कारण संगीत शिक्षा में बाधा उत्पन्न होती है।

निष्कर्ष

संगीत शिक्षा हेतु गुरु शिष्य परंपरा और संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति दोनों ही बहुत उपयोगी है अगर इन दोनों ही पद्धतियों की कुछ कमियों को दूर किया जाए तो यह दोनों पद्धतियां अपने-अपने स्थान पर सार्थक हैं। जहां एक और गुरु शिष्य परंपरा हमें संगीत की साधना और गुरु सेवा के महत्व को समझाती है।वहीं दूसरी ओर संस्थागत संगीत प्रशिक्षण पद्धति हमें संगीत के प्रयोग पक्ष के साथ ही साथ सैद्धांतिक पक्ष के प्रति भी जागरूक करती है वास्तव में दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. शर्मा डॉ.महारानी संगीतमणि भाग-1

2. टांक डॉ., तेजसिंह, संगीत जिज्ञासा और समाधान

3. शर्मा डॉ., मृत्युंजय, संगीत मैन्युअल

4. त्रिपाठी रामनारायण, संगीत मैन्युअल

5. कौल ड. टी. सी., संगीत मैन्युअल

6. देवांगन तुलसीराम, भारतीय संगीत शास्त्र

7. आचार्य बृहस्पति, संगीत चिंतामणि