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विश्व में भारतः
प्राचीन भारत के विशेष संदर्भ में |
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India in the World: With Special Reference to Ancient India | |||||||
Paper Id :
18411 Submission Date :
2023-12-13 Acceptance Date :
2023-12-21 Publication Date :
2023-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10487725 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
भारतवर्ष का प्राचीन
इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है। प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से स्पष्ट है कि यहां
के लोगों में पुरातन काल से ही इतिहास बुद्धि विद्यमान रही है। इतिहास लेखन में
साहित्यिक स्रोत जैसे धार्मिक साहित्य में वैदिक, बौद्ध, जैन
साहित्य एवं लौकिक साहित्य, पुरातात्विक साक्ष्य एवं
विदेशी यात्रियों के विवरण से यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारत धर्म, दर्शन, अध्यात्म, शिक्षा,
योग, साधना, साहित्य,
स्थापत्य कला, मूर्ति कला, चित्रकला, नृत्य कला, गुहा कला, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, सामाजिक-आर्थिक,
राजनीतिक एवं सामरिक क्षेत्र में समृद्ध था। लेकिन इसके साथ ही
धार्मिक-सामाजिक क्षेत्र में कर्मकांड, रूढ़ियां, कुरीतियां, कुप्रथाएं, छुआछूत, जाति प्रथा, अत्यधिक
सामाजिक- आर्थिक असमानता इत्यादि ने सामाजिक सौहार्द को नकारात्मक रूप से प्रभावित
किया। 16वीं सदी से भारत पुनः आर्थिक समृद्धि एवं विकास
की ओर अग्रसर हुआ। लेकिन औपनिवेशिक शोषण के परिणामस्वरूप भारत की आर्थिक स्थिति
अत्यंत दयनीय हो गई। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार के प्रयासों से देश विकास के
पथ पर अग्रसर हुआ। लेकिन आज भी देश में गरीबी, बेरोजगारी,
कुपोषण, अत्यधिक सामाजिक- आर्थिक
असमानता जैसी अनेक समस्याएं विद्यमान है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The ancient history of India has been very glorious. It is clear from the study of ancient texts that the knowledge of history has been present among the people here since ancient times. In history writing, it is clear from the literary sources like religious literature like Vedic, Buddhist, Jain literature and secular literature, archaeological evidence and descriptions of foreign travelers that in ancient times, India was rich in religion, philosophy, spirituality, education, yoga, spiritual practice, literature, architecture. It was rich in art, sculpture, painting, dance art, cave art, science and technology, medicine and health, socio-economic, political and strategic fields. But along with this, rituals, conventions, bad practices, bad practices, untouchability, caste system, extreme socio-economic inequality etc. in the religious-social sector negatively affected the social harmony. From the 16th century, India again moved towards economic prosperity and development. But as a result of colonial exploitation, the economic condition of India became extremely pathetic. After independence, due to the efforts of the Indian government, the country moved on the path of development. But even today many problems exist in the country like poverty, unemployment, malnutrition, extreme socio-economic inequality. | ||||||
मुख्य शब्द | प्राचीन भारत, कृषि, व्यापार- वाणिज्य, शिक्षा-साहित्य, धर्म- दर्शन, कला, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Ancient India, Agriculture, Trade-Commerce, Education-Literature, Religion-Philosophy, Art, Science and Technology. | ||||||
प्रस्तावना | भारत में पाषाण काल
से ही मानव जीवन के साक्ष्य मिले हैं नवपाषाण काल में मानव स्थाई निवास,
कृषि, पशुपालन, आग का आविष्कार, चाक के पहिए का आविष्कार कर
मृदभांड का प्रयोग करना सीख गया था। लगभग 3500 ई.पू. में
मानव ने तांबा धातु का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। इसी विकास क्रम में सिंधु
घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ। सिंधु घाटी के लोग कांसे का प्रयोग करना सीख गये
थे।सिंधु घाटी सभ्यता का समाज मातृसत्तात्मक था। इस सभ्यता के लोग शांति प्रिय थे।
सिंधु घाटी में जैसी ठोस योजना और वस्तुओं के निर्माण में व्यापक एकरूपता देखने को
मिलती है उससे यहां सुदृढ़ राजतंत्र के अस्तित्व का संकेत मिलता है जो इस सभ्यता के
आर्थिक सुदृढ़ीकरण में सहायक रहा। इस समय कृषि, व्यापार-वाणिज्य
एवं उद्योग समृद्ध अवस्था में थे। आंतरिक व्यापार भी समृद्ध था हड़प्पा सभ्यता का
इस समय मेसोपोटामिया, अफगानिस्तान, मध्य एशिया, बहरीन, ईरान
इत्यादि देशों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध थे व्यापार स्थल एवं समुद्र मार्ग से
होता था। व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था जिससे स्पष्ट है कि यह एक व्यापारिक
सभ्यता थी। सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के उपरांत यह सभ्यता ग्रामीण क्षेत्रों में
निरंतर रही, जबकि शहरों का पतन हो गया। |
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अध्ययन का उद्देश्य | भारत सरकार द्वारा
वर्तमान समय में विकसित भारत 2047 अभियान
के तहत निम्न विषयों पर- संपन्न एवं सुदृढ़ अर्थव्यवस्था, सुशासन एवं सुरक्षा, सशक्त भारतीय, नव प्रवर्तन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर
अभिमत एवं सुझाव मांगे गए थे इसी संदर्भ में प्राचीन भारतीय इतिहास में भारत के
समाज, धर्म, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक, सामरिक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, इत्यादि के बारे में बताने का प्रयास किया है। |
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साहित्यावलोकन | भारत में पाषाण काल से ही मानव जीवन के साक्ष्य मिले हैं। नवपाषाण काल में
मानव स्थाई निवास, कृषि, पशुपालन, आग का आविष्कार, चाक के पहिए का आविष्कार कर मृदभांड का प्रयोग करना सीख गया
था।(झा, द्विजेंद्र नारायण एवं
श्रीमाली कृष्णमोहन) सिंधु घाटी सभ्यता का समाज मातृ सत्तात्मक था। इस सभ्यता के लोग शांति प्रिय
थे। सिंधु घाटी में जैसी ठोस योजना और वस्तुओं के निर्माण में व्यापक एकरूपता
देखने को मिलती है उसे यहां सुदृढ़ राजतंत्र के अस्तित्व का संकेत मिलता है जिस
कारण से यह सभ्यता आर्थिक रूप से विकसित थी। इस समय कृषि, व्यापार- वाणिज्य एवं उद्योग समृद्ध अवस्था में थे। आंतरिक
व्यापार भी समृद्ध था हड़प्पा सभ्यता का इस समय मेसोपोटामिया, अफगानिस्तान,
मध्य एशिया, बहरीन, ईरान इत्यादि देशों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध थे
व्यापार स्थल एवं समुद्र मार्ग से होता था व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था
जिससे स्पष्ट है कि यह एक व्यापारिक सभ्यता थी। सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के
उपरांत यह सभ्यता ग्रामीण क्षेत्रों में निरंतर रही,
जबकि शहरों का पतन हो गया। (श्रीवस्तत्व,
डॉ. कृष्णचंद्र) सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के काल में वैदिक संस्कृति का 1500 ई. पू. में उद्भव
हुआ। यह एक जनजातीय संस्कृति थी जो वंश परंपरा पर आधारित थी समाज में कार्यात्मक
विभाजन का दृष्टिकोण परिलक्षित होता है,
वर्ण व्यवस्था थी परंतु सरल रूप में। समाज में लैंगिक रूप से विभेद की स्थिति
थी।महिलाओं की स्थिति अच्छी थी, उनको राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक अधिकार प्राप्त थे। पितृसत्तात्मक समाज था। मौखिक
शिक्षा का प्रचलन था। राजनीतिक व्यवस्था मुखियाई प्रकार का था राजनीति में सभाओं
की भूमिका महत्वपूर्ण थी। पशुचारणिक अर्थव्यवस्था थी। सीमित प्रकार की कृषि होती
थी। सामुदायिक स्वामित्व की अवधारणा थी। वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन था। सरल
प्रकार का धर्म था। प्रकृति पूजा पर बल। धर्म का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति
था। कर्मकांडीय जटिलता का अभाव था। उत्तर वैदिक काल में समाज स्थायित्व को प्राप्त
करता है लेकिन महिलाओं के अधिकारों में कमी आती है। धार्मिक क्षेत्र में कर्मकांड, पशुबली प्रारंभ हो जाती है। आर्थिक क्रियाएं निरंतर रहती
है। आरण्यक एवं उपनिषदों में दर्शन की अवधारणा का विकास देखने को मिलता है। (शर्मा, रामशरण) गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी सदी के अंत में प्रयाग के निकट कौशांबी में हुआ।
गुप्त कुषाणों के सामंत थे। गुप्त शासको ने अपना आधिपत्य मध्य गंगा मैदान, प्रयाग, साकेत और मगध पर स्थापित
किया। गुप्त काल में मौर्योत्तर कालीन भारत के विकसित वैश्विक व्यापार की निरंतरता
बनी रही परंतु बाद के दिनों में व्यापार का पतन प्रारंभ हो जाता है। जिससे शहरों
का पतन भी प्रारंभ हो जाता है। गुप्त काल में मंदिरों का निर्माण प्रारंभ होता है
जिससे मंदिर प्रेरित शहरीकरण को बढ़ावा मिला। समाज में जाति व्यवस्था का उद्भव, छुआछूत की संकल्पना का विकास,
चांडलो का उद्भव, वर्ण संकर जाति का विकास
हुआ और महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई। नालंदा एवं वल्लभी शिक्षा के प्रमुख
केंद्र थे। गुप्त काल में भक्ति की अवधारणा स्थापित हुई। अवतारवाद की संकल्पना का
विकास हुआ। अर्धनारीश्वर, शिव तथा विष्णु के परिवार
की पूजा, तीर्थ की संकल्पना का विकास
तथा षड् दर्शन का संकलन, कला के विकास को बढ़ावा
मिला। इस काल में मूर्तिकला, चित्रकला का विकास हुआ।
गुप्त काल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। कालिदास, विशाखदात्त,
शूद्रक, भास, वत्सभट्टी, हरिषेण प्रमुख साहित्यकार
थे। गुप्त काल में खगोलशास्त्र, गणित तथा चिकित्साशास्त्र
का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था। वराहमिहिर गुप्त काल के प्रसिद्ध खगोल शास्त्री
है इनके प्रसिद्ध ग्रंथ बृहतृसंहिता तथा पंचसिद्धांतिका है बृहत्संहिता में
नक्षत्र विधा, वनस्पतिशास्त्र, प्राकृतिक इतिहास,
भौतिक भूगोल जैसे विषयों का वर्णन है। आर्यभट्टीय नामक ग्रंथ की रचना करने
वाले आर्यभट्ट अपने समय के सबसे महान गणितज्ञ थे। इन्होंने दशमलव प्रणाली का विकास
किया। इनके प्रयास के द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका।
आर्यभट्ट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी
पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। इन्होंने सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण
होने के वास्तविक कारण पर प्रकाश डाला। आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धांत लिखा। आर्यभट्ट
के सिद्धांत पर भास्कर प्रथम ने टीका लिखी। भास्कर के तीन अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ
है महाभास्कर्य, लघुभास्कर्य एवं भाष्य ।
ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्म सिद्धांत की रचना कर बताया कि प्रकृति के नियम के अनुसार
समस्त वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती है क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव से ही वस्तुओं को
अपनी ओर आकर्षित करती है यह न्यूटन के सिद्धांत के पूर्व की गई कल्पना है।
आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त
को संसार के सर्वप्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक और गणितज्ञ कहा गया है। चिकित्सा के
क्षेत्र में वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ 'अष्टांग हृदय'
की रचना की। आयुर्वेद के एक और ग्रंथ नवनीतकम् की रचना भी गुप्त काल में हुई।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य एवं चिकित्सक
धनवंतरी थे। गुप्तकालीन चिकित्सकों को 'शल्य शास्त्र' के विषय की जानकारी थी। गुप्त काल में अणु सिद्धांत का भी
प्रतिपादन हुआ। गुप्त काल की एक प्रमुख विशेषता सामंतवाद का विकास था जो कि पूर्व
मध्यकाल में चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था। (लूनिया,
बी. एन.) मध्यकालीन भारत में सल्तनत काल, मुगल काल में राजनीतिक सत्ता अरबी, अफगानी, तुर्की, मुगल शासको की रही इन्होंने भारतीयों पर उन्होंने अपनी संस्कृति, धर्म एवं मान्यताएं थोपी, लेकिन जब इनका भारतीयकरण हुआ मुख्यतः अकबर के काल में तब इन्होंने भारतीयों के सहयोग और समर्थन के लिए नवीन सोच और नवीन नीतियों के माध्यम से उनके सामाजिक एवं धार्मिक एकीकरण के लिए प्रयास किया अकबर ने सुलह- ए - कुल, राजपूत नीति एवं धार्मिक नीति के माध्यम से सामाजिक - धार्मिक समन्वय स्थापित कर एक मजबूत राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का प्रयास किया। इसके उपरांत भारत पुनः आर्थिक समृद्धि एवं आर्थिक विकास की ओर अग्रसर हुआ। (शर्मा, एल. पी.) यूरोप में पुनर्जागरण के उपरांत कई यूरोपीय देश भारत के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किए। इसी तारतम्य में उन्होंने भारत की राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारत के कई क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। लेकिन 1757 ई. में प्लासी एवं 1764 ई. में बक्सर के युद्ध में विजय की पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता स्थापित हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में डाकुओं का राज्य स्थापित कर दिया। (ग्रोवर, बी. एल., एवं यशपाल) |
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विश्लेषण | सिंधु घाटी सभ्यता
के बाद के काल में वैदिक संस्कृति का 1500 ई. पू, में उद्भव हुआ। यह एक जनजातीय संस्कृति
थी जो वंश परंपरा पर आधारित थी समाज में कार्यात्मक विभाजन का दृष्टिकोण परिलक्षित
होता है, वर्ण व्यवस्था थी परंतु सरल रूप में। समाज में
लैंगिक रूप से विभेद की स्थिति थी। महिलाओं की स्थिति अच्छी थी, उनको राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक अधिकार प्राप्त थे।
पितृसत्तात्मक समाज था। मौखिक शिक्षा का प्रचलन था। राजनीतिक व्यवस्था मुखियाई
प्रकार का था राजनीति में सभाओं की भूमिका महत्वपूर्ण
थी। पशुचारणिक अर्थव्यवस्था थी। सीमित प्रकार की कृषि होती थी। सामुदायिक
स्वामित्व की अवधारणा थी। वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन था। सरल प्रकार का धर्म
था। प्रकृति पूजा पर बल। धर्म का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था। कर्मकांडीय
जटिलता का अभाव था। उत्तर वैदिक काल में समाज स्थायित्व को प्राप्त करता है लेकिन
महिलाओं के अधिकारों में कमी आती है। धार्मिक क्षेत्र में कर्मकांड, पशुबली प्रारंभ हो जाती है। आर्थिक क्रियाएं निरंतर रहती है। आरण्यक
एवं उपनिषदों में दर्शन की अवधारणा का विकास देखने को मिलता है। ब्राह्मण धर्म में
बढ़ते कर्मकांड, पशुबलि के विरोध में 600 ई. पू. में हुए धार्मिक आंदोलनों ने भी तत्कालीन धर्म, समाज, अर्थव्यवस्था एवं राजनीति को प्रभावित
किया। महात्मा बुद्ध एवं महावीर स्वामी की शिक्षाओं, दर्शन
एवं विचारों का समाज पर अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ा जिसके परिणामस्वरूप ही जैन एवं
बौद्ध धर्म का उद्भव एवं विकास हुआ जिससे इनके अनुयायियों की संख्या तीव्र गति से
बढ़ी। लगभग 1000
ईसा पूर्व में लोहे की खोज के उपरांत 600 ई. पू. काल में इसका उपयोग औजार के रूप में शुरू हुआ, जिसने कृषि क्रांति को जन्म दिया और अधिशेष में वृद्धि से कर का विकास
हुआ, जिससे अंततः राज्य का निर्माण हुआ और इस काल में
द्वितीय शहरी क्रांति हुई। यही कारण है कि इस काल में सोलह महाजनपदो के रूप में
प्रारंभिक राज्य का उद्भव होता है। इन्हीं में से एक महाजनपद मगध का उत्थान हर्यक
एवं शिशुनाग वंश के काल में हुआ। मौर्य वंश के शासक चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु
चाणक्य के सहयोग से मगध के राज सिंहासन पर बैठकर एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो
संपूर्ण भारत में फैला था। मौर्य सम्राट अशोक ने अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना
कर चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि धारण की। अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात युद्धनीति
त्याग कर धम्म नीति को अपनाया। अशोक की धम्म नीति ने उसे भारतवर्ष के महान सम्राट
के रूप में स्थापित किया। अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक विकास के लिए जिन आचारों की
संहिता के पालन की बात कही उसे ही अभिलेखों में धम्म कहा गया है। धम्म के प्रमुख
तत्व है अहिंसा, सामाजिक व्यवहार, अनुशासन, राजा के प्रति निष्ठा एवं बड़ों के
प्रति सम्मान।धम्म का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता सुदृढ़ करना था। बौद्ध धर्म के
प्रचार-प्रसार के लिए उसने भारत के साथ ही विश्व के अनेक क्षेत्रों में अपने धर्म
प्रचारकों को भेजा, जिससे बौद्ध धर्म विश्व के कई देशों
में फैल गया। मौर्यों की विदेश नीति परस्पर मैत्रीपूर्ण शांति पर आधारित थी जिसकी
पुष्टि विदेशों में धर्म प्रचार से होती है। अशोक ने पड़ोसी राज्यों को सहयोग
प्रदान करने के साथ ही कल्याणकारी कार्यों को भी बढ़ावा दिया। मौर्य काल में ही
सर्वप्रथम कलात्मक गतिविधियों का इतिहास निश्चित रूप से आरंभ होता है इस काल में
कला के दो रूप मिलते हैं पहला राज्य की कला जो मौर्य राजप्रासाद और अशोक स्तंभों
में पाई जाती है दूसरा लोक कला जो परखम के यक्ष, दीदारगंज
की चामर ग्रहणी एवं बेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलती है। राजकीय कला का सबसे
पहला उदाहरण चंद्रगुप्त का राजप्रासाद है जो स्ट्रैबो एवं मेगस्थनीज के अनुसार
गंगा एवं सोन नदियों के संगम पर बसा हुआ था इसका विशद् वर्णन एरियन ने किया है
उसके अनुसार न तो सूसा और न एकबेतना के महल इसकी बराबरी कर सकते हैं फाह्यान ने तो
यहां तक कहा है कि यह ‘निश्चित रूप से दैत्यों द्वारा
बनाया गया होगा क्योंकि मनुष्य इतना अच्छा निर्माण कर ही नहीं सकते।‘ मौर्य कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्मक स्तंभ है जो उसने
धर्म प्रचार के लिए देश के विभिन्न भागों में निर्मित कराए थे यह चुनार के बलुआ
पत्थर से निर्मित है। स्तंभ शीर्षों में सारनाथ का स्तंभ सर्वोत्कृष्ट है। अशोक ने
84000 स्तूपों का निर्माण कराया। उसने वास्तुकला के
इतिहास में एक नई शैली चट्टानों को काटकर कंदराओं के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। गुप्त साम्राज्य का
उदय तीसरी सदी के अंत में प्रयाग के निकट कौशांबी में हुआ। गुप्त कुषाणों के सामंत
थे। गुप्त शासकों ने अपना आधिपत्य मध्य गंगा मैदान, प्रयाग,
साकेत और मगध पर स्थापित किया। गुप्त काल में मौर्योत्तर कालीन
भारत के विकसित वैश्विक व्यापार की निरंतरता बनी रही परंतु बाद के दिनों में
व्यापार का पतन प्रारंभ हो जाता है। जिससे शहरों का पतन भी प्रारंभ हो जाता है।
गुप्त काल में मंदिरों का निर्माण प्रारंभ होता है जिससे मंदिर प्रेरित शहरीकरण को
बढ़ावा मिला। समाज में जाति व्यवस्था का उद्भव, छुआछूत की
संकल्पना का विकास, चाण्डलों का उद्भव, वर्ण संकर जाति का विकास हुआ और महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई।
नालंदा एवं वल्लभी शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। गुप्त काल में भक्ति की अवधारणा
स्थापित हुई। अवतारवाद की संकल्पना का विकास हुआ। अर्धनारीश्वर, शिव तथा विष्णु के परिवार की पूजा, तीर्थ की
संकल्पना का विकास तथा षड्ःदर्शन का संकलन, कला के विकास
को बढ़ावा मिला। इस काल में मूर्तिकला, चित्रकला का विकास
हुआ। भारत के सुदूर दक्षिण
में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के मध्य स्थित प्रदेश को ‘तमिलकम् प्रदेश’ कहा जाता था। इस प्रदेश में
अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था जिनमें चेर, चोल
एवं पांड्य राज्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों के विषय में जानकारी अशोक के
अभिलेख तथा मेगस्थनीज एवं कौटिल्य के विवरणों से मिलती है। तमिल प्रदेश के साहित्य,
संस्कृति एवं इतिहास के बारे में स्पष्ट जानकारी हमें संगम
साहित्य व तमिल साहित्य से मिलती है। इस काल में अर्थव्यवस्था सुदृढ़ थी समाज पांच
वर्गो में विभक्त था। साहित्य की दृष्टि से यह काल समृद्ध था। अतः स्पष्ट है कि,
प्राचीन काल में भारत धर्म, दर्शन,
अध्यात्म,शिक्षा, योग, साधना, साहित्य,
कला, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, सामाजिक-आर्थिक,
राजनीतिक एवं सामरिक क्षेत्र में विकसित था। लेकिन इसके साथ ही
धार्मिक-सामाजिक कर्मकाण्ड, रूढ़ियां, कुरीतियां, कुप्रथाएं, छुआछूत, जातिप्रथा, अत्याधिक
सामाजिक-आर्थिक असमानता इत्यादि ने सामाजिक सोहार्द को नकारात्मक रूप से प्रभावित
किया। राजनीतिक सत्ता का अत्यधिक केन्द्रियकरण होने के साथ ही योग्य उत्तराधिकारी
के अभाव में राजवंशों का विघटन भी देखने मिलता है। यूरोप में
पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप कई यूरोपीय देश भारत के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित
किए। इसी तारतम्य में उन्होंने भारत की राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारत
के कई क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। लेकिन सन् 1757
में प्लासी एवं सन् 1764 में बक्सर के
युद्ध में विजय के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता स्थापित हुई और ईस्ट इंडिया
कंपनी ने बंगाल में डाकुओं का राज्य स्थापित कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने पूरी
तरह सोच समझ कर,कूटनीति, रणनीति
एवं युद्ध के माध्यम से संपूर्ण भारत पर कब्जा कर लिया। लेकिन इस औपनिवेशिक शोषण
के विरुद्ध भारतीयों ने अंग्रेजों के विरूद्ध निरंतर आंदोलन किए। आदिवासियों ने भी
अंग्रेजों का प्रारंभ से ही तीव्र विरोध किया। इन विद्रोहों की ही चरम परिणति सन् 1857 की क्रांति में देखने को
मिलती है। भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग ने धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन, राजनीतिक संगठनों की स्थापना, आधुनिक शिक्षा
एवं शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना एवं प्रसार कर, आधुनिक
साहित्यएवं समाचार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भारतीय जनमानस को ब्रिटिश शोषण के
विरुद्ध आंदोलित किया। जिसमें विभिन्न विचारधाराओं जैसे उदारवादी, उग्रवादी, क्रांतिकारी, गांधीवादी, समाजवादी एवं वामपंथी इत्यादि से
प्रेरित स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, क्रांतिकारियों,
बलिदानियों, देशभक्तों ने देश की आजादी
के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। इन्होंने अपने विचारों से संपूर्ण विश्व को
भी प्रभावित किया। वर्तमान वैश्विक समस्याओं एवं चुनौतियों के समक्ष आज इनके विचार
और भी प्रासंगिक हो गए हैं। आजादी के उपरांत
भारत सरकार की सबसे बड़ी चिंता देश की एकता एवं अखंडता को बनाए रखना था क्योंकि देश
का विभाजन हो चुका था दूसरी ओर देश में गरीबी, बेरोजगारी,
भुखमरी, कुपोषण, कृषि का पिछड़ापनजैसी अनेकों समस्याएं मुंह बाऐं खड़ी हुई थी। भारत सरकार
ने इनसे निपटने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था और आयोजन को अपनाया। विदेश नीति के
क्षेत्र में भारत सरकार ने गुटों की राजनीति से हटकर स्वतंत्र विदेश नीति को
अपनाया और विश्व की समस्याओं पर अपना स्वतंत्र एवं निष्पक्ष अभिमत रखा। भारत ने
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से प्रमुखतः गुटों की राजनीति से हटकर विश्व के
नवस्वतंत्र देशों को एक मंच प्रदान किया जिससे ये देश एकजुट होकर अपनी समस्याओं का
निपट सके। 1990 के दशक में नई आर्थिक नीति,
निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण को
अपनाने के परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ गई।
प्रथम चरण के सुधार एवं द्वितीय चरण के सुधार के उपरांत आयात-निर्यात, बाह्य व्यापार एवं निवेश को बढ़ावा मिला और भारत आर्थिक क्षेत्र में
विकास की ओर आगे बढ़ा। चूंकि भारत एक बहुत बड़ा बाजार है इसलिए विश्व के विकसित देश
भी भारत की ओर आकर्षित हुए और भारत ने भी इन विकसित देशों एवं विश्व के प्रमुख
आर्थिक संगठनों के साथ आर्थिक, विज्ञान एवं तकनीकी,
सामरिक एवं रणनीतिक संबंध स्थापित किए, जिससे
21वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों से भारत तीव्र आर्थिक
विकास की ओर अग्रसर हुआ और सूचना एवं संचार, आधारभूत
ढांचा, अंतरिक्ष, सॉफ्टवेयर के
क्षेत्र में भारत सुदृढ़ रूप से उभरा। |
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निष्कर्ष |
इन समस्याओं से
निपटने के लिए राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर संचालित विभिन्न योजनाओं,
कार्यक्रमों का प्रभावी क्रियान्वयन हो साथ ही इनकी सतत
मॉनिटरिंग भी की जाए। प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिक तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया
जाए। इसके साथ ही जिस दिन प्रत्येक शिक्षक पूरी ईमानदारी एवं लगन से विद्यार्थियों
को ज्ञान आधारित सीख, कौशल प्रदान करेंगें, डॉक्टर ईमानदारी से अपनी सेवाएं देंगें, इसी
प्रकार सभी शासकीय सेवक पूरी सत्यनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा,
जनसेवा, समाजसेवा एवं राष्ट्रभावना से
कार्य करेंगे और जिस दिन नागरिकों को घर पहुंच सेवा उपलब्ध हो जाएगी, साथ ही देश का प्रत्येक नागरिक कर्तव्यनिष्ठ बन जायेंगे और देश के
संपूर्ण ग्रामीण क्षेत्र, कस्बा तथा शहरी क्षेत्रों में
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, स्वच्छ पेयजल, 24 घंटे विद्युत आपूर्ति,
स्वच्छता, पक्की सड़के, यातायात एवं परिवहन तथा संचार की उच्च गुणवत्तापूर्ण सुविधाएं उपलब्ध
हो जाएगी। साथ ही जिस दिन देश के प्रत्येक गांव, कस्बा
एवं शहर के विद्यालय, अस्पताल एवं अन्य शासकीय कार्यालयों
को, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन,
प्रधानमंत्री एवं अन्य मंत्रियों के निवास एवं कार्यालयों,
सांसदों एवं विधायकों तथा नौकरशाहों के बंगलों एवं कार्यालयों
जैसी उच्च कोटि की स्वर्गिक सुविधाएं, सेवाएं तथा सुरक्षा
उपलब्ध हो जाएगी उस दिन भारत विकसित राष्ट्र बन जाएगा हमें 2047 का इंतजार नहीं करना पड़ेगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. चन्द्र, बिपिन, मुखर्जी, मृदुला,
मुखर्जी आदित्य, पनिकर क.न. एवं महाजन,
सुचेता, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,
हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली
विश्वविद्यालय, दिल्ली, वर्ष 2005। 2. चन्द्र, सतीश, मध्यकालीन भारत सल्तनत से मुगल काल तक (1526-1761),
जवाहर पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई
दिल्ली, वर्ष 2007। 3. दत्त रूद्र, सुंदरम के.पी.एम., भारतीय अर्थव्यवस्था,
एस.चन्द्र एण्ड कंपनी लि. नई दिल्ली, वर्ष
2006। 4. ग्रोवर, बी.एल, एवं यशपाल, आधुनिक
भारत का इतिहास, एस.चन्द एण्ड कंपनी लि., नई दिल्ली, वर्ष 2003, पृष्ठ 48, 53। 5. झा, द्विजेन्द्र
नारायण एवं श्रीमाली कृष्णमोहन, प्राचीन भारत का इतिहास,
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