P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- XI , ISSUE- IV December  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika

राज्य एवं राजनीति के संबंध में महात्मा गांधी के विचार

Mahatma Gandhis Views Regarding State and Politics
Paper Id :  18375   Submission Date :  04/12/2023   Acceptance Date :  11/12/2023   Publication Date :  16/12/2023
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
DOI:10.5281/zenodo.10599581
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
अखय राज मीणा
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान
राजकीय कन्या महाविद्यालय, सिकंदरा,
दौसा,राजस्थान, भारत
सारांश

भारतीय राजनीतिक विचार परंपरा में महात्मा गांधी का स्थान उल्लेखनीय है। भारत में प्रारंभ से ही राजनीति धर्म से अनुप्राणित रही है, इस कारण इसमें राजधर्म, दंड नीति,उपाय,सप्तांग सिद्धांतमंडल सिद्धांत आदि शब्दावली प्रयुक्त हुई है। यह वर्णाश्रम व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था से भी प्रभावित रही है। महात्मा गांधी के राज्य एवं राजनीति संबंधी विचार भी इसी परंपरा में निरंतरता लिए हुए हैं।

महात्मा गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले तथा भारतीय राजनीतिक परंपरा से प्रभावित होकर ही राजनीति के आध्यात्त्मीकरण की वकालत करते हैं। वे राजनीति को सेवा धर्म के रूप में देखते हैं तथा सभी के राजनीतिक रूप से सक्रिय रहने की वकालत करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि राजनीतिक सहभागिता मानव के लिए अनिवार्य आवश्यकता है क्योंकि राजनीतिक सहभागिता के बिना मानव जीवन यापन नहीं कर सकता। वे कहते हैं कि राजनीति सर्पिणी के समान है जिसने मानव को चारों ओर से घेर रखा है। इससे बचने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए राजनीतिक सहभागिता ही एकमात्र रास्ता है।

महात्मा गांधी मूलतः राज्य को सदा साधन मानते हैं, इसलिए ईसाई अराजकतावाद का समर्थन करते हैं । वे अराजकतावादियों एवं साम्यवादियों की भांति राज्य विलुप्ति की कामना करते हैं। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें न कोई सत्ता होगी और न ही कोई  प्राधिकार होगा, बल्कि स्वयं अनुशासित मानव होगा। किन्तु उपादर्श राज्य के रूप में वे रामराज्य की कामना करते हैं। वे व्यक्ति को  साध्य और राज्य को साधन मानते हैं । राज्य के संगठन के लिए वे पिरामिडीय ढांचे का सुझाव देते हैं जो विश्व राज्य के गठन तक जाता है। यह ढांचा अप्रत्यक्ष निर्वाचन एवं विकेंद्रीकरण पर आधारित है।

महात्मा गांधी ने जीवन पर्यंत सामाजिक न्याय के आदर्श के रूप में सर्वोदय के लिए कार्य किया तथा अपनी संपूर्ण अहिंसक कार्यपद्धति को सत्याग्रह का नाम दिया।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Mahatma Gandhi's place in the Indian political thought tradition is noteworthy. In India, politics has been inspired by religion since the beginning, that is why terminology like Rajdharma, penal policy, measures, Saptanga theory, Mandal theory etc. have been used in it. It has also been influenced by the varnashram system and caste system. Mahatma Gandhi's views on state and politics also continue in this tradition.
Mahatma Gandhi, influenced by his political guru Gopal Krishna Gokhale and the Indian political tradition, advocated the spiritualization of politics. He sees politics as a religion of service and advocates for everyone to be politically active. They also believe that political participation is an essential need for humans because without political participation humans cannot survive. They say that politics is like a snake which has surrounded man from all sides. There is no way to avoid this. Therefore political participation is the only way.
Mahatma Gandhi basically always considers the state as a means, hence supports Christian anarchism. Like anarchists and communists, they wish for the extinction of the state. This is a state in which there will be neither any power nor any authority, but there will be self-disciplined human beings. But they wish for Ramrajya as an ideal state. They consider the individual as an end and the state as a means. He suggests a pyramidal structure for the organization of the state which leads to the formation of a world state. This structure is based on indirect elections and decentralization.
Mahatma Gandhi worked for Sarvodaya as an ideal of social justice throughout his life and named his entire non-violent methodology as Satyagraha.
Research Methodology: In the presented research paper, facts have been collected from primary and secondary sources. In this, books, letters, newspaper articles etc. written by Mahatma Gandhi as well as other literature written on Gandhi have been reviewed.
मुख्य शब्द अराजकतावाद, साम्यवाद, सत्याग्रह, स्वराज्य, सर्वोदय, प्रजातंत्र, प्रतिनिधित्व, विकेन्द्रीकरण, धर्मराज्य, रचनात्मक कार्यक्रम, निर्वाचन, आत्मानुभूति, धर्म निरपेक्षता, साम्प्रदायिक सद्भाव, शांतिवादी, अन्तरराष्ट्रवाद, आक्रांत, गुलाम, राजनीति का आध्यात्मीकरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Anarchism, Communism, Satyagraha, Swaraj, Sarvodaya, Democracy, Representation, Decentralization, Dharmarajya, Constructive Programme, Election, Self-realization, Secularism, Communal Harmony, Pacifist, Internationalism, Invader, Slave, Spiritualization of Politics.
प्रस्तावना

महात्मा गाँधी के राज्य एवं राजनीति सम्बन्धी विचारों पर न केवल प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा का प्रभाव है, वरन् पश्चिमी ज्ञान परम्परा की छाप भी है। उन्होंने राज्य के सम्बन्ध में आदर्श राज्य एवं उप-आदर्श राज्य की कल्पना की है। उनका आदर्श राज्य का विचार ईसाई अराजकतावाद से प्रभावित है, वहीं उप-आदर्श राज्य राम-राज्यभारतीय ज्ञान परम्परा की निरन्तरता का द्योतक है। राजनीति को वे सेवा धर्म के रूप में देखते हैं और राजनीति के आध्यात्मीकरण पर बल देते हैं। अपने आदर्श एवं उपादर्श के सम्बन्ध में गाँधी ने स्वराज्य, सर्वोदय, साध्य-साधन, अंहिसा, सत्याग्रह, अधिकार-कर्त्तव्य जैसे अनेक विषयों पर अपने विचार समय-2 पर रखे हैं। किन्तु उन्होंने कभी भी इन विचारों को व्यवस्थित रूप से रखने का प्रयास नहीं किया।

अध्ययन का उद्देश्य

1. प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से मानव प्रकृति सम्बन्धी गाँधीय दृष्टि को समझा जा सकेगा।

2. प्रस्तुत शोधपत्र द्वारा महात्मा गाँधी के राज्य एवं राजनीति सम्बन्धी विचारों की समझ बढ़ेगी।

3. प्रस्तुत आलेख द्वारा राजनीति जीवन के महत्व को समझ जा सकेगा तथा आध्यात्मिक राजनीति के प्रति रुझान बढ़ेगा।

साहित्यावलोकन

सस्ता साहित्य माउल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा 2012 में प्रकाशित सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर की पुस्तक' गाँधी की कहानी' में महात्मा गाँधी के जीवन के प्रारम्भिक पड़ाव से लेकर अन्तिम दिन तक की कहानी है। इसी मैं राजनीति, सत्याग्रह, उपवास जैसा गधिधेय जीवन की विभिन्न घटनाओं का उल्लेख है। रावत पहिलकेशन्स, जयपुर द्वारा 2014 मैं प्रकाशित प्रो नरेश रिधीच की पुस्तक "महात्मा गाँधी का चिन्तन" कुल 14 अध्यायों मैं विभक्त है। इस पुस्तक के अध्या 6- गाँधी एवं राजनीतिक अवधारणाएँ, अध्याय-7- गाँधी एवं राजनीतिक सिद्धान्तः अध्याय-11- सत्याग्रह सत्याग्रह का विचार में राज के विषय में महात्मा गाँधी के विचार प्रमुखता से समाहित है। चगुठन रैडम हाउस, नई दिल्ली से 2020 में प्रकाशित रामचन्द्र गुहा की पुस्तक 'गाँधी (खण्ड) में दक्षिण अफ्रीका में भारत आगमन तथा गोलमेज सम्मेलन तक (1914-31) के कालखण्ड का वर्णन है। इसर प्रसँगानुसार गाँधी के राजनीति व राज्य सम्बन्धी विचारों का उल्लेख है। बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना द्वारा 1986 में प्रकाशित पुस्तक 'गाँधी दर्शन मीमांसा' कुल 16 अध्यायों में है। उस पुस्तक बहुत ही विस्तृत रूप से तथा तुलनात्मक दृष्टि से गांधी के विचारों पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत आलेख को तैयार करने से पूर्व लेखक ने गहनता से उपर्युक्त पुस्तकों, गाँधी से जुड़ी पत्र- पत्रिकाओं तथा अन्य पुस्तकों का अध्ययन किया है।

सामग्री और क्रियाविधि

प्रस्तुत शोधपत्र में प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोतों से तथ्य संकलन किया गया है। इसमें महात्मा गाँधी द्वारा लिखित पुस्तकेंपत्रसमाचार पत्र आलेख आदि के साथ-साथ गाँधी पर लिखित अन्य साहित्य का अवलोकन किया गया है।

विश्लेषण

मानव प्रकृतिः- महात्मा गाँधीरूसो की तरह मानव को प्रकृति से अच्छा प्राणी मानते थे न कि हॉब्स की तरह बुरा। उनके अनुसार, ‘‘मानव प्रकृतिचाहे वह किसी भी जलवायु में पनपती होबहुत करके एक-सी है और यदि आप भरोसा और स्नेह लेकर लोगों के पास जाएंतो आपको बदले में दस गुना भरोसा और स्नेह मिलेगा।“  उन्होंने 29 अगस्त, 1947 को अमृत कौर को लिखा था-‘‘ मानवता एक महासागर है। यदि महासागर की कुछ बूंदें गंदली हो जाएंतो सारा महासागर गंदला नहीं होता।“ 

आदर्श राज्यः- राज्य के सन्दर्भ में प्रारम्भ में महात्मा गाँधी के विचार लियो टॉलस्टॉय तथा थॉमस मूर जैसे ईसाई अराजकतावादियों से प्रभावित थेजिसके परिणामस्वरूप वे राज्य को हिंसा का प्रतीक मानते हैं और राज्यविहीन समाज की कल्पना करते हैं। वे टॉलस्टॉय की पुस्तक द किंगडम ऑफ गॉड विदिन यू‘ से अत्यधिक प्रभावित थे। वे राज्य के बारे में मानते हैं कि आदर्शात्मक राज्य एक आध्यात्मिक प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्व करेगाजहां पर अहिंसा का साम्राज्य होगा और किसी भी प्रकार के बल का प्रयोग नहीं किया जाएगा।  गाँधी ने हरिजन के 25 अगस्त, 1940 के अंक में अहिंसक राज्य‘ शब्द का प्रयोग किया।  वे एक राज्यविहीन प्रजातंत्र में विश्वास करते थे। यह प्रजातंत्र महासागरीय वृत्त की भांति संगठित होना थाजिसमें सेनापुलिस व न्यायालयों जैसी बल आधारित संस्थाओं के लिए कोई स्थान नहीं था। स्व-अनुशासित व्यक्ति इस राज्य के केन्द्र में था। राज्य पिरामिडाकार में संगठित होना थाजो विश्व राज्य के गठन  तक जाता।

बद्री प्रसाद सिन्हा ने इसे गांधी का मौनीराज्य कहा है। मौनी राज्य का अर्थ हैजिसके शासक राजकीय आडम्बर तड़क-भड़कशान-शौकततख्त गद्दीबड़ी-बड़ी मूँछ तथा पगड़ी वाली नौकरशाही से रहित हों। इस राज्य में रोब-दाब दिखलाने वाले शासकीय विभाग नहीं हों। किन्तु सब सुखी होंनिरामय होंसब श्रेय को देखें-यही उसका लक्ष्य हो और व्यावहारिक रूप से प्रजा उसका उपयोग करें। 

शुद्र राज्य ही मौनी राज्य है। शुद्र का अर्थ है सेवक। अब भविष्य में सेवकों का राज्य होगा। शासन के प्रत्येक विभाग में सब कार्य सेवा से होगा। गांधी जी सेवा के अवतार और शूद्रों के सरदार हैं। सेवान्यायस्वतंत्रताभ्रातृत्व और सहकारिता मौनी राज्य के सुदृढ़ स्तम्भ हैं। किन्तु इन सबसे अधिक उसके शासक का बलिदान और त्याग है। इस राज्य में न्यायशिक्षाऔषधिनमक और लकड़ी मुफ्त होगी।

उपादर्श राज्यः- महात्मा गाँधी अपने उपादर्श राज्य को राम-राज्य का नाम देते हैं। राम राज्य के विषय में तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-

दैहिक दैविक भौतिक तापा,

राम राज नहिं काहुहि व्यापा।

सब नर करहीं परस्पर प्रीती,

चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।

किन्तु महात्मा गाँधी का राम राज्य तुलसी के राम-राज्य से भिन्न था। जहां तुलसी का राम राज्य धर्मराज्य था, वहीं गाँधी का रामराज्य न तो धर्म-राज्य था और न ही हिन्दू राज्य। बल्कि न्यूनतम शासनवाला सर्वोदय समाज था। यह नैतिक अधिकार के आधर पर लोगों की सम्प्रभुता है। इसके मुख्य लक्षण थे- न्यासिता, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, धर्मनिरपेक्षता, विकेन्द्रीकरण आदि।

न्यासिता- समस्त गाँधी दर्शन राम राज्य की परिकल्पना पर आधारित है जिसकी आर्ष व्याख्या ईशावास्य के प्रारम्भिक श्लोक में मिलती है। इसमें तेन त्यक्तेन भुंजीथा‘ को आधार बनाकर गाँधीजी ने अपनी समदर्शिता को कई प्रकार से प्रकट किया है। गाँधी दर्शन विशुद्ध मानव दर्शन है जो राम और कृष्ण जैसे महामानवों के सत्य और धर्म पर प्रतिष्ठित है। ईशावासस्य के इस श्लोक से प्रेरित होकर गाँधी ने पूरे भारत में त्याग की ऋतु का सृजन किया। शायद इसीलिए उन्होंने लुई फ़िशर से कहा था- असमानता से हिंसा की तथा समानता से अहिंसा की उत्पत्ति होती है।“ गाँधी न्यासिता (अमानतदारी) के आधार पर अहिंसक पद्धति की सरकार स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने 1941 में तथा दोबारा 1945 में भारतीय पूँजीपतियों को चेतावनी दी- अहिंसक पद्धति की सरकार स्पष्ट रूप से असंभव है जब तक कि धनवानों तथा करोड़ों भूखे लोगों के बीच चौड़ी खाई बनी रहती है।.... यदि संपत्ति तथा संपत्तिजनित अधिकार स्वेच्छापूर्वक नहीं त्यागे गए तथा इन्हें सबके समान हित में नहीं बांटा गयातो एक दिन खूनी क्रांति अवश्यंभावी है।“ इसलिए गांधी चाहते थे कि सबकी शक्तियां समाज के न्यायपूर्ण उत्थान और हित में लगे।

सर्वोदयमहात्मा गाँधी की सामाजिक न्याय की अवधारणा का मूलाधार सर्वोदय‘ का विचार है। एक दिन अफ्रीका में रेल से प्रवास करते समय रस्किन की अन टू दिस लास्ट‘ नामक किताब पढ़ी। बाद में गाँधी ने उसका अनुवाद किया और उसे सर्वोदय‘ के नाम से प्रकाशित किया।  इस पुस्तक में नीचे लिखे हुए तीन बुनियादी सिद्धान्त हैं:-

1. सबके कल्याण में खुद का कल्याण है।

2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत समान होनी चाहिए।

3. सादाशरीर श्रम का किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।

गाँधी का मानना है कि सर्वोदय एक जीवन व्यापी क्रांति है जो समाज की सभी विषमताओं को समाप्त करने का आधार बन सकती है।

स्वराज-

सन् 1909 में भारतीयों का पक्ष इंग्लैण्ड में रखने के लिए महात्मा गाँधी वहां गए। वहां से वापस दक्षिण अफ्रीका लौटते समय जहाज पर ही उन्होंने हिन्द स्वराज‘ (इण्डियन होम रूल) नामक मौलिक पुस्तक लिखी। अन्य देशभक्तों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता की महत्ता को दर्शाने लिए हिन्दी शब्द स्वराज्य‘ का इस्तेमाल किया थाजबकि गाँधी ने भारतीयों को इसके सही या यूं कहें कि मूल अर्थ से अवगत करवायास्वराज्य यानी स्व-शासन या अपना शासन। 29 जनवरी, 1925 को गाँधी ने स्वराज्य के विषय में हिन्दी नवजीवन में लिखा था- स्वराज्य से मेरा अभिप्राय है लोक-सम्पति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन। पेंथम के अनुसार स्वराज्य एक सहभागिता वाले प्रजातंत्र का मॉडल है जो सत्याग्रह पर आधारित है और जिसमें राजनीति और नैतिकता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है।

प्रो. नरेश दाधीच के अनुसारस्वतंत्रता एक नकारात्मक अवधारणा हैजबकि स्वराज्य सकारात्मक। उनके अनुसारगाँधी ने स्वराज को अलग-2 सन्दर्भों में अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है। एन्थोनी परेल विश्लेषण की दृष्टि से स्वराज की इन परिभाषाओं को चार समूहों में विभाजित करता हैः पहला- राष्ट्रीय स्वाधीनतादूसरा- व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रतातीसरा- व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता और चौथा- व्यक्ति की आध्यात्मिक स्वतंत्रता या स्वशासन। इनमें से प्रथम तीन नकारात्मक हैंजबकि चौथा सकारात्मक।

गाँधी का स्वराज एक वर्गीय स्वराज न होकर बहु वर्गीय स्वराज है। उन्होंने किसानों और महिलाओं की सहभागिता नहीं होने को भारतीय स्वराज आन्दोलन की कमजोरी माना। उनकी दृष्टि में सच्चा स्वराज अंग्रेजों से मुक्ति नहींअंग्रेजी मानसिकता से मुक्ति है। गाँधी ने हिन्द स्वराज में लिखा है कि भारत से केवल अंग्रेजों को और उनके राज्य को हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज्य नहीं मिलेगा। हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्हीं के आदर्श का स्वीकार करेंतो हमारा उद्धार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए।  रचनात्मक कार्यक्रम पूर्ण स्वराज प्राप्त करने का सच्चा एवं अहिंसक रास्ता है।

अहिंसा-

महात्मा गाँधी ने अहिंसा को पहली बार राजनीतिक संघर्षों का आधार बनाया।  राजनीतिक चिंतन में गाँधी की सबसे बड़ी देन अहिंसा के सिद्धान्त को राजनीति की मूल धारा में प्रवेश कराना था।  गाँधी ने सत्य को साध्य और अहिंसा को उसका साधन माना।  उनक लिए ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू थे।  उन्होंने हिन्द-स्वराज में साध्य-साधन की एकता पर बल दिया। उन्होंने लिखा है- साधन बीज है और साध्य हासिल करने की चीज- पेड़ है।  शायद जीवन के अन्तिम समय में गाँधी का अहिंसा से विश्वास डगमगा गया। इसी कारण उन्होंने 1942 में करो या मरो‘ जैसे कटु शब्दों का प्रयोग किया। सन् 1947-48 में उनके दो तरह के विचार अहिंसा के विषय में सामने आते हैं-

1) भारत विभाजन के समय हुई हिंसा से दुःखी होकर गाँधी ने कहा- मैंने इस विश्वास में अपने को धोखा दिया कि जनता अहिंसा के साथ बंधी हुई है।

2) 12 दिसम्बर, 1947 को गाँधी ने अपनी एक प्रार्थना सभा के बाद कहा कि भारत जब तक अपनी अहिंसक शक्ति को मजबूत नहीं करेगावह इस विश्व में कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाएगा। भारत का सैनिकीकरण न केवल उसको नष्ट करेगाअपितु सारे विश्व को नष्ट करने में सहायक होगा। 

आजादी के समय गाँधी ने साम्प्रदायिक दंगे खत्म कराने के लिए इसी अहिंसा का सहारा    लिया।

गांधी की राजनीतिक पद्धति: सत्याग्रह-

महात्मा गाँधी ने राजनीतिक व्यवहार में सत्याग्रह नामक एक नई तकनीक को जन्म दिया।  उन्होंने 1906 ई. में दक्षिण अफ्रीका में इस तकनीक की खोज की। दक्षिण अफ्रीका में गांधी के धुर विरोधी रहे जनरल जे.सी. स्मट्स ने गांधी की राजनीतिक पद्धति सत्याग्रहजो पहले असहयोग या निष्क्रय प्रतिरोध के रूप में सामने आयीके विषय में लिखा है- यह कष्ट सहन का शक्तिशाली सिद्धान्त हैजिस पर गांधीजी ने सुधार की अपनी नवीन युक्ति का आधार रखा है। वह खुद कष्ट सहन करते हैंताकि जो उद्देश्य उनके हृदय को प्रिय हैउसके प्रति दूसरों की सहानुभूति और समर्थन मिल सके। जब दलील और अपील के सामान्य राजनीतिक अस्त्र विफल हो जाते हैंतब गांधी इस युक्ति का आश्रय लेते हैं। रविन्द्रनाथ ठाकुर ने गांधी के बारे में लिखा है कि उसने दूसरों पर इसलिए सबसे ज्यादा प्रभाव डाला कि उसने स्वतः आत्मदान की भावना को जागृत किया। उन्होंने सत्याग्रह (आत्मबल या करूण-बल) को स्वराज्य की कुंजी कहा है। उनके अनुसारसत्याग्रह सबसे बड़ा- सर्वोपरि बल है। गाँधी ने अपने अनुभव के आधार पर जिस अहिंसात्मक कार्य पद्धति को अपनाया उसे उन्होंने सत्याग्रह‘ का नाम दिया। सत्याग्रह ऐसी तलवार हैजिसके दोनों ओर धार है। उसे चाहे जैसे काम में लिया जा सकता है। जो उसे चलाता है और जिस पर वह चलाई जाती हैवे दोनों सुखी होते हैं।  वह खून नहीं निकालतीलेकिन उससे भी बड़ा परिणाम ला सकती है। उसको जंग नहीं लग सकती। उसे कोई (चुराकर) ले नहीं जा सकता। 

सन् 1909 में गाँधी ने भारत में भी कांग्रेस से इन तरीकों को आज़माने का आग्रह किया। उन्हेांने कहा कि सत्याग्रह ही वो एकमात्र हथियार है जो हमारे लोगों की मेधा और हमारे देश के लिए उपयुक्त है।“ क्योंकि उनके मुताबिक भारत में जिन बहुत सारी बुराईयों से हम ग्रसित हैंसत्याग्रह उसके लिए एकमात्र रामबाण औषधि है।“ गाँधी ने सत्याग्रह के अग्रज सविनय अवज्ञा को थोरो से ग्रहण किया और इसे एक हथियार बनाया। गाँधी ने माना है कि कानून की अवज्ञा करना व्यक्ति का प्रमुख कर्त्तव्य बन जाता हैजब राज्य का कानून ईश्वर के कानून से मेल नहीं खाता। 1921 में गाँधी ने लिखा कि राज्य के अन्यायपूर्ण कार्य करने पर भी उसकी बात को स्वीकार करना कायरता की निशानी है।


निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व-

महात्मा गाँधी ने गोलमेज सम्मेलन में ग्राम पंचायत के माध्यम से अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति का सुझाव दिया था। 1942 ई. में भी उन्होंने अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था अपनाने का प्रतिपादन किया था। वे साम्प्रदायिक आधार पर पृथक् निर्वाचन के विरूद्ध थे। गोलमेज परिषद् ने एक अल्पसंख्यक समिति नियुक्त की थीजिसमें 06 अंग्रेज, 13 मुसलमान, 10 हिन्दू, 02 अछूत, 02 मजदूर प्रतिनिधिदो सिखएक पारसी, 02 ईसाईएक ऐंग्लोइण्डियन, 02 भारत प्रवासी अंग्रेज और चार महिलाएं रखे गए। इनमें से केवल महिलाओं ने पृथक निर्वाचन की मांग नहीं की। परन्तु गाँधी ने गोलमेज परिषद् से कह दिया कि वह पृथक् निर्वाचन के बिलकुल विरोधी हैं। उन्होंने कहा कि स्वाधीन भारत में भारतीय सब भारतीयों को भारतीय की तरह मत देंगे। यही कारण है कि 17 अगस्त 1932 को प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडॉनल्ड ने जैसे ही पृथक निर्वाचन के पक्ष में ब्रिटेन के निर्णय की घोषणा कीवैसे ही गाँधी ने इसके खिलाफ आमरण अनशन की घोषणा कर दी। उन्होंने 20 सितम्बर 1932 को यह उपवास प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा था कि उनका उपवास दलित जातियों के लिए किसी भी रूप में पृथक् निर्वाचन के विरूद्ध है। 

अधिकार और कर्तव्य - महात्मा गाँधी के अनुसार, ‘अधिकार आत्मानुभूति के अवसर देता है। यह मनुष्य की प्रकृति में निहित है। गांधी के अनुसारहर मनुष्य को जीवन की जरूरतें हासिल करने का समान अधिकार हैजिस प्रकार पक्षियों और पशुओं को है। गांधी- अधिकारों का सच्चा स्रोत कर्त्तव्य है।“ ‘हिन्द स्वराज‘ में गाँधी ने लिखा है कि सच्चे अधिकार तो कर्त्तव्य के फल हैं। गाँधी ने लिखा था- व्यक्तिगत स्वंत्रता के बिना समाज का निर्माण करना संभव नहीं है। जिस प्रकार मनुष्य अपने सींग या पूँछ नहीं उगा सकताउसी प्रकार यदि उसमें स्वयं विचार करने की शक्ति नहीं हैतो वह मनुष्य के रूप में अपना अस्तित्व नहीं रख सकता। अतः लोकतंत्र वह अवस्था नहीं हैजिसमें लोग भेड़ों की तरह बर्ताव करें। 1940 में भाषण की स्वतंत्रता के लिए गाँधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया और विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही घोषित किया। 

धर्मनिरपेक्षतासाम्प्रदायिक सद्भाव तथा अल्पसंख्यक अधिकार -

गाँधी ने एक पत्र के उत्तर में लिखा था- मैं राज्य-धर्म में विश्वास नहीं करताभले ही सारे समुदाय का एक ही धर्म हो। राज्य का हस्तक्षेप शायद हमेशा नापसंद किया जाएगा। धर्म तो शुद्ध व्यक्तिगत मामला है।“ धार्मिक संस्थाओं को आंशिक या पूरी राज्य-सहायता का भी मैं विरोधी हूँक्योंकि मैं जानता हूँ कि जो संस्था या जमात अपनी धार्मिक शिक्षा के लिए धन की व्यवस्था खुद नहीं करतीवह सच्चे धर्म से अनजान है। इसका यह अर्थ नहीं है कि राज्यों के स्कूलों में सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाएगी। सदाचार के मूलभूत नियम सब धर्मों में समान    हैं।     

साम्प्रदायिक सद्भाव को गाँधी ने एकादश व्रतों में शामिल किया था। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया था। 15 अगस्त 1947 को आजादी के समय जब देशवासी खुशियां मना रहे थेकिलकारियां मार रहे थे तब गाँधी जी हिन्दू-मुस्लिम दंगों में खून से सने हुए कलकत्ता की गलियों में स्थित हैदरी हाउस में खामोशी से उपवास कर दंगों का प्रायश्चित कर रहे थे। दूसरों की करतूत की सजा स्वयं पा रहे थे।  गाँधी ने अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से कहा था- सभ्यता का निर्णय अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार से होता है।

पश्चिमी लोकतंत्र की आलोचना-

1938 में महात्मा गाँधी ने पश्चिमी प्रजातंत्र की आलोचना की और लिखा पश्चिम का प्रजातंत्र मेरे मत में केवल आभासीय प्रजातंत्र है।  किन्तु वे लोकतांत्रिक शासन के विरूद्ध नहीं थे। बल्कि उसमें आयी विकृतियों के विरूद्ध थे। उन्होंने कहा था, “मैं लोकतंत्र के विषय में जो कुछ भी जानता हूँ वह यह है कि यह गरीब और अमीर को समान अवसर प्रदान करता है।  

संसदीय व्यवस्था की आलोचना

महात्मा गाँधी ने हिन्द स्वराज‘ में संसदीय शासन व्यवस्था की कटु आलोचना की है। वे लिखते हैं- जिसे आप पार्लियामेन्टों की माता कहते हैंवह पार्लियामेन्ट तो बांझ और बेसवा (वैश्या) है।“ हिन्द स्वराज में बांझ और बेसवा शब्दों की व्याख्या करते हुए गाँधी ने ब्रिटिश संसदीय शासन की जो खामियां बतलायी हैंवे हमारी संसदीय शासन व्यवस्था में भी देखी जा सकती हैं। इसलिए गाँधी भारत में ऐसी संसदीय व्यवस्था चाहते थेजिसमें सत्ता वास्तव में जनता में निहित रहती हो और जनता की हो यानी जन-प्रतिनिधि जनता की आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं के मुताबिक कार्य करें। 

संघात्मक व्यवस्था- महात्मा गाँधी का कहना था कि स्वाधीन भारत में संघीय प्रशासन अनावश्यक होगा।  क्योंकि वे भारत को ग्राम गणराज्यों का संघ बनाना चाहते थे। गाँधी ने इसे वास्तविक स्वराज कहा है।

कश्मीर समस्या

गाँधी कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सघ में ले जाने के खिलाफ थे। अंग्रेज शांतिवादी होरेस अलेक्जेंडर से उन्होंने कहा था कि कश्मीर के मुद्दे पर देशों का रूख अन्तरराष्ट्रीय सत्तागत राजनीति‘ के आधार पर निश्चित होगान्याय पर नहीं।

अन्तरराष्ट्रवाद-

14 जून, 1942 के हरिजन में गाँधी ने घोषणा की थी यदि यह मान लिया जाय कि राष्ट्रीय सरकार बन जाएगी और वह मेरी आशाओं के अनुरूप होगीतो उसका पहला काम होगा आक्रांत राष्ट्रों की कार्रवाइयों से बचाव के हित संयुक्त राष्ट्रों के साथ सुलहनामा करना।“  वे कहते हैं कि हम खुद गुलाम होंगे और दूसरों को आजाद करने की बात करेंगेतो वह संभव नहीं है।  गाँधी ने 17 अगस्त, 1925 को लिखा कि, “मैं भारत को स्वतंत्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि वह दुनिया के भले के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहुति दे सके। भारत की स्वतंत्रता सेशांति और युद्ध के बारे में दुनिया की दृष्टि में जड़मूल की क्रांति हो जायेगी।

राजनीति तथा राजनीति का आध्यात्मीकरणः-

महात्मा गाँधी के अनुसारराजनीति आमूलचूल परिवर्तन करने की एक विद्या है।  उनके अनुसारराजनीति मूलतया एक धार्मिक गतिविधि है और अगर इसे धर्म से अलग कर दिया जाएतो यह एक मृत शरीर के रूप में रह जाएगी।  गांधी कहते थे, “यदि मैं राजनीति में भाग लेता हूँ तो इसलिए कि हम राजनीति से बच नहीं सकते। यह एक सर्प कुण्डली के तुल्य है और मैं इस सर्प से लड़ रहा हूँ। मैं राजनीति में धर्म का समन्वय कर रहा हूँ।“ गांधीयन दृष्टि मेंपरमाणु युग में धर्मविहीन राजनीति की कल्पना ही भयावह है। राजनीति के प्रति अपनी इसी सोच के चलते गाँधी ने हिन्द स्वराज (1909ई.) में पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा और उसकी कटु आलोचना की। साथ ही हिन्दुस्तानी सभ्यता की खूबियां भी बतलायी।

महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा मेरे सत्य के साथ प्रयोग’ में गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बताया है। 1912 में गाँधी के आमंत्रण पर गोखले खुद भी दक्षिण अफ्रीका गये और रंगभेद की निंदा की। अपने राजनीतिक गुरू गोखले से ही महात्मा गाँधी ने राजनीति के आध्यात्मीकरण का विचार ग्रहण किया। उन्होंने राजनीति के विकृत रूप से बचने के लिए ही राजनीति को धर्म से जोड़ा। किन्तु धर्म से उनका तात्पर्य किसी धर्म विशेष से न होकर नैतिकता के सिद्धान्तों से था। उनके अनुसारधर्म से विमुख राजनीति मृत्यु का फंदा हैक्योंकि यह आत्मा को मार देता है। राजनीति को जनसेवा का साधन बनाने के लिए महात्मा गाँधी ने उसमें हिस्सा लिया। गाँधी का विश्वास था कि अगर राजनीति मानव-प्राणियों के दैनिक जीवन का एक अभिन्न अंग नहीं है तो उसका मूल्य शून्य के समान है। गाँधी ने राजनीति को सत्ता प्राप्ति का माध्यम नहीं बनायाबल्कि उन्होंने जनता को यह सिखाना उचित समझा कि, ‘‘वह अपने मताधिकार का प्रयोग बुद्विमानी से करे।’’ गाँधी ने अपने मित्रों को विश्वास दिलाया कि ‘‘सत्ता का त्याग करके और शुद्ध निःस्वार्थ सेवा में लगकर हम मतदाताओं को मार्ग दिखा सकते हैं और प्रभावित कर सकते हैं। इससे हमें जो सत्ता प्राप्त होगीवह इस सत्ता से बहुत अधिक वास्तविक होगीजो सरकार में जाने से प्राप्त होगी।’’ गांधी की राजनीति का मुख्य आकर्षण सत्य और अहिंसा रहा हैइसके बिना उनकी राजनीति में और कोई खास चीज नहीं है। धवन ने इसी को सम्यक राजनीति‘ (Goodness Politics) कहा है। के. जास्पर्स इसे बेहतर राजनीति (Higher Politics) या शुद्धात्मा की धार्मिक राजनीति कहते हैं। 

निष्कर्ष

महात्मा गाँधी ने सत्य रूपी साध्य और अहिंसा रूपी साधन से अनुप्राणित राजनीति की वकालत की है, जिसमें नैतिक मूल्यों तथा सेवा-धर्म का समावेश हो। उनके राज्य व राजनीति सम्बन्धी विचार उनके समस्त दर्शन में बिखरे पड़े हैं जिनसे आज पूरा विश्व लाभान्वित हो रहा है। वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार गुणवंत शाह के अनुसार, “राम राज्य से लेकर राजघाट तक की उनकी जीवन यात्रा में आचारनिष्ठ और जीवननिष्ठ जीवनशैली की सुवास फैल रही है। ऐसी सुगंध से अपरिचित रह जाना तो नई पीढ़ी के लिए घाटे का सौदा ही माना जाएगा।

राष्ट्रकवि दिनकर ने ठीक ही गाया है:-

गाँधी की लो शरण, बदल डालो मिलकर संसार।

या फिर रहो कल्कि के हाथों से मिटने को तैयार।।

पहुँच गयी है घड़ी फैसला अब करना ही होगा।

दो में से किसी एक राह पर, पग धरना ही होगा।।

गांधीजी का कहना था कि मै समझता हूं कि यदि लोग स्वयं अपनी सहायता करें, तब राजनीति स्वयं उनकी चिन्ता करती है।  

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. फ़िशर, लुई, 2012, गाँधी की कहानी, नई दिल्ली, सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ संख्या 102

2. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 206

3.  दाधीच, नरेश, 2014, महात्मा गाँधी का चिन्तन, जयपुर, रावत पब्लिकेशंस, पृष्ठ संख्या 153,

4. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 128

5.  सिन्हा, बद्री प्रसाद, गांधी का मौनी राज्य हिन्दू समाज प्रेस, कीटगंज, प्रयाग, 1946 पृष्ठ संख्या 271. PDF copy on 44 books.com, com/gandhi-ka-mouni-rajya-by-Mahatma-gandhihtml.

6. उपर्युक्त।

7. उपर्युक्त।

8.   उपर्युक्त।

9.  उपर्युक्त।

10. रामचरितमानस (गुटका संस्करण), अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदास, तुलसीघाट, वाराणसी, द्वितीय संस्करण: संवत् 2069, पृष्ठ संख्या 608

11. हरिजन, 2 जनवरी, 1937

12. राव, पाण्डुरंग, रामराज्य और गाँधी दर्शन, उद्धृत-यशपाल जैन (संपादित पुस्तक, 1998), गाँधी दर्शन, नई दिल्ली, सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ संख्या 39

13. शाह, गुणवंत, 9 अक्टूबर 2022, हताश युवाओं के लिए गाँधीजी से बड़ी प्रेरणा कोई और नहीं, दैनिक भास्कर रसरंग।

14. फिशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 173

15. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 118

16. बंग, ठाकुरदास, 2003, महात्मा गाँधी, वाराणसी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, दूसरा संस्करण, पृष्ठ संख्या 15

17. उपर्युक्त।

18. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या 147

19. बंग, ठाकुरदास, वही, पृष्ठ संख्या 15-16

20. गुहा, रामचन्द्र, 2020, गाँधी: दक्षिण अफ्रीका से भारत आगमन और गोलमेज सम्मेलन तक 1914-31, खण्ड-प्, नई दिल्ली, पेंगुइब रैंडम हाउस, इण्डिया, प्रथम हिन्दी संस्करण, पृष्ठ संख्या- ग्प्

21. गाँधीजी, 1960, मेरे सपनों का भारत (संग्राहक- आर.के. प्रभु), अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, पहली आवृत्ति (छठा मुद्रणः 2000), पृष्ठ संख्या-07

22. दाधीच,, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या-127

23. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 142

24. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 143

25. उपर्युक्त।

26. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 130

27. गाँधीजी, 1949, हिन्द स्वराज, अहमदाबाद, नवजीवन ट्रस्ट, पहली आवृत्ति (पुनर्मुद्रण-जून, 2012), पृष्ठ संख्या 04

28. गाँधी, एम.के., 1941, कन्स्ट्रक्टिव प्रोग्राम: इट्स मीनिंग एण्ड प्लेस, अहमदाबाद, नवजीवन ट्रस्ट, दिस प्रिन्ट- अगस्त, 2016, पेज नम्बर-(iii)

29. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या 124

30. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 125

31. जैन, यशपाल, 1998, गाँधी दर्शन, नई दिल्ली, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 49-50

32. उपर्युक्त।

33. गाँधीजी, हिन्द स्वराज, वही, पृष्ठ संख्या 54

34. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 205

35. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या 149

36. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 124

37. महात्मा गांधी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ संख्या- 208-09

38. महात्मा गाँधी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ संख्या-208-09

39. गाँधीजी, हिन्द स्वराज, वही, पृष्ठ संख्या 87

40. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 64

41. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 65

42. उपर्युक्त,

43. गुहा, रामचद्र, गाँधी: दक्षिण अफ्रीका से भारत आगमन और गोलमेज सम्मेलन तकः 1914-31, वही, पृष्ठ संख्या 03

44. उपर्युक्त,

45. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या 127

46. उपर्युक्त,

47. सिन्हा, अजीत कुमार, 2017, महात्मा गाँधी: राजनीति, दर्शन एवं स्वतंत्रता, देलही, बी.आर. पब्लिशिंग कॉरपोरेशन, पृष्ठ संख्या 40

48. उपर्युक्त,

49. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 95

50. उपर्युक्त,

51. उपर्युक्त,

52. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 106

53. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या 131

54. यंग इण्डिया, 26 मार्च, 1931

55. यंग इण्डिया, 8 जनवरी, 1925

56.  गाँधीजी, हिन्द स्वराज, वही, पृष्ठ संख्या 54

57. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 119

58. बंग, ठाकुरदास, वही, पृष्ठ संख्या 20

59. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 194

60. उपर्युक्त,

61.  एजाज़ी, रिजवान, 2009, गाँधी: आज तक, हिलव्यू पब्लिकेशंस प्रा.लि., प्रथम संस्करण (द्वितीय संस्करण-2010), पृष्ठ संख्या 17

62. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 173

63. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या-135

64. कुमार, डॉ. रविन्द्र तथा डंगवाल, डॉ. किरण लाला, गाँधी: डेमोक्रेसी एण्ड फण्डामेंटल राइट्स, एचटीटीपीएसः//डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट एमके गाँधी डॉट ओआरजी/आर्टिकल्स/डेमोक्रेसी डॉट एचटीएम।

65. ब्रिटिश संसद।

66. गाँधीजी, हिन्द स्वराज, वही, पृष्ठ संख्या 13

67. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 13-16

68. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 144

69. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 216

70. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 147

71. गाँधीजी, हिन्द स्वराज, वही, पृष्ठ संख्या 47

72. जैन, यशपाल, गाँधी दर्शन, वही, पृष्ठ संख्या 39

73. दाधीच, नरेश, वही, पृष्ठ संख्या-154

74. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 157

75. रोलां, रोमा, महात्मा गाँधी: विश्व के अद्वितीय महापुरूष, सेन्ट्रल बुक डिपो, इलाहाबाद, 1947, पृष्ठ संख्या-67

76. सिंह, डॉ. रामजी, गांधी दर्शन मीमांसा, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, प्रथम संस्करण, दिसम्बर 1973 (द्वितीय संस्करण- अगस्त, 1986), पृष्ठ संख्या-16

77.  गाँधीजी, हिन्द स्वराज, वही, पृष्ठ संख्या 17-20

78. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 42-45

79. गाँधी को गोखले ने सिखाया था राजनीति का पाठ, लाइवहिन्दुस्तानडॉटकॉम/न्यूज/आर्टिकल/आर्टिकल-1-महात्मा-गाँधी-गोपाल-कृष्ण-गोखले-पॉलिटिक्श-लेशन-218350-एचटीएमएल।

80. उपर्युक्त।

81. फ़िशर, लुई, वही, पृष्ठ संख्या 121

82. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 215

83. उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 214

84. सिंह, डॉ. रामजी, गांधी दर्शन मीमांसा, वही, पृष्ठ संख्या-162

85. उपर्युक्त।

86. उपर्युक्त, पृष्ठ सख्या 164

87. शाह गुणवंत, वही, दैनिक भास्कर रसरंग, 9 अक्टूबर, 2022

88. बंग, ठाकुरदास, वही, पृष्ठ संख्या 32

89. फिशर, लुई (अनुवादक- लेखराम), गांधी और स्टालिन: लड़खड़ाती दुनिया के दो भिन्न मार्गदर्शक, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 33