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पं० श्रीकृष्ण नारायण रातंजनकर
कृत राग “पीलू की मांझ” – एक विश्लेषण |
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Raga “Pilu Ki Manjh” composed by Pt. Shri Krishna Narayan Ratanjankar – An Analysis | |||||||
Paper Id :
18449 Submission Date :
2024-01-11 Acceptance Date :
2024-01-14 Publication Date :
2024-01-16
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.10512968 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
पंडित “श्रीकृष्ण नारायणरातंजनकर” द्वारा निर्मितराग “पीलू
की मांझ” राग “पीलू” एवं राग “तिलककामोद” के मिश्रण से बना है। अन्य शुद्ध स्वरों
के साथ इसमें कोमल गंधार का प्रयोग होता है। इस राग का चलनमुख्य रूप से
रागतिलककामोद जैसा ही है। रागतिलककामोद के चलन को ही यदि शुद्ध गंधार के स्थान पर
कोमल गंधार लगाकर गाया जाये तो इस राग का प्रादुर्भाव होता है। प्रस्तुत अध्ययन
में इस राग का सूक्ष्म विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Raga “Pilu Ki Manjh” composed by Pandit “Shri Krishna Narayan Ratanjankar” is made up of a mixture of Raga “Pilu” and Raga “Tilakkamod”. Komal Gandhar is used in it along with other pure notes. The style of this raga is mainly similar to Raga Tilakakamod. If the Challan of Raga Tilak Kamod is sung by adding soft Gandhar instead of pure Gandhar, then this raga emerges. In the presented study, an attempt has been made to analyze this raga in detail. | ||||||
मुख्य शब्द | राग, पीलू की मांझ, राग विश्लेषण, तुलना। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Raga, Pilu Ki Manj, Raga Analysis, Comparison. | ||||||
प्रस्तावना | भारतीय संगीत मेंपरिष्कार, परिवर्धन, परिवर्तन और विकासनिरंतर होता रहा है। इस
समृद्ध परंपरा में प्राचीन साधना सिद्ध संगीत का तो महत्त्व है ही, साथ ही साथ
अनेक नए राग रूपों, नवीन रचनाओं,गायन शैलियों, घरानोंआदि का समावेश समय-समय पर
होता रहा है। अनेक विद्वान कलाकारों ने इस परंपरा को अपने नए प्रयोगों से समृद्ध
बनाया है। ऐसे ही एक विद्वान कलाकार हुए हैं पंडित “श्रीकृष्ण नारायण रातंजनकर”।
पंडित विष्णु नारायण भातखंडे एवं उस्ताद फैयाज़ खान के प्रमुख शिष्य पंडित रातंजनकर ने अनेक वर्षों तक लखनऊ स्थित “भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय” जो अपने
प्रारंभिक काल में “मैरिस म्यूजिक कॉलेज” के रूप में जाना जाता था, में एक अध्यापक
एवं प्रधानाचार्य के रूपमें कार्य किया।उस समय के स्नातक एवं मराठी, संस्कृत,
अंग्रेजी, हिंदी एवं ब्रज आदिभाषाओँमें पारंगत पंडित रातंजनकरएक उच्च कोटि के गायक एवं वाग्गेयकार थे। उन्होंने अनेक लोकप्रिय एवं अल्प लोकप्रिय
रागों में अनेक बंदिशों की रचना करने के साथ-साथ अनेक नवीन रागों की रचना की। उनके
द्वारा निर्मित राग “पीलू की मांझ” अपने आप में विशेष है। लेखकको यह राग अपने गुरु
पंडित मुकुंद विष्णु काल्विंट द्वारा मौखिक परंपरा से प्राप्त हुआ है। इस अध्ययन
में इस नवनिर्मित राग का विश्लेषण किया गया है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | राग के विश्लेषणात्मक अध्ययन द्वारा राग विद्यार्थियों, संगीत जिज्ञासुओं, कलाकारों
एवं संगीत अध्यापकों के लिए सुलभ कराना, प्रस्तुत राग को शास्त्रीय संगीत जगत में
लोकप्रिय बनानाएवं शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा से संगीत सम्बंधित जनता को
अवगत कराना। |
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साहित्यावलोकन | पंडित रातंजनकर द्वारा निर्मित राग “पीलू
की मांझ” का परिचय उनके द्वारा लिखित पुस्तक “अभिनव गीतमंजरी” के तृतीय भाग में
उपलब्ध है। उन्होंने राग के स्वर विस्तार तथा तान चलन के साथ इसमें दो स्वरचित
बंदिशें - एकताल विलंबित एवं मध्यलय तीनताल में प्रस्तुत की हैं। राग का सूक्ष्म
विश्लेषण यथा उसकी स्वरावलियों का प्रयोग, अन्य रागों की छाया से उसका बचाव, समरूप
रागों से उसकी तुलना आदि अवयवों पर कोई साहित्य लिखित रूप में उपलब्ध नहीं होता।
लेखक ने इस राग का विश्लेषणात्मक अध्ययन अन्य विद्वानों यथा पंडित भातखंडे, पंडित ओंकारनाथ
ठाकुर, पंडित रामाश्रय झा आदि की पुस्तकों में वर्णित अन्य रागों के विश्लेषण से
प्रेरणा लेकरसंपन्न करने का प्रयास किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
पं0 रातंजनकर द्वारा निर्मित राग “पीलू की मांझ” राग “पीलू” एवं राग “तिलककामोद” के मिश्रण से बना हुआ। इसका गायन समय रात्रिकाल है। इसमें कोमल गंधार के अतिरिक्त सभी स्वर शुद्ध लगते हैं यथा सा रे ग म प ध नि सां। कर्नाटक संगीत में इस मेल को ‘‘गौरी मनोहरी’’ मेलकर्ता कहते हैं। इस राग का वादी स्वर ‘षडज’ तथा संवादी ‘पंचम’ है। इस राग में ‘निषाद’ एक प्रबल स्वर है। यह वक्र गति का राग है। इसके आरोह में गंधार और धैवत स्वर दुर्बल हैं। पं0 रातंजनकर ने इस राग का उठाव तथा स्वर विस्तार इस प्रकार दिया है- उठाव सा, प़ऩिसारेग, सा, रेप, मप ध,म(ग), साऩि, सारेग, सारेमग,(सा)। स्वर-विस्तार 1. सा, प, मग,(सा) ऩि, ऩिसा, रेप, मग,(सा), प़ऩि,
म़प़ऩि, सा,मरे पम धप पध, म (ग),
साऩि, प़ऩिसारेग, सारेमग,(सा)। 2. सारेग, साऩि, प़ऩिसारेग, सारेप मग,
साऩि, रेगसा म,पमप, रेमपध, मपध, म(ग), सा, ऩिसारेग,
सारेमपध मपसां, पध, म(ग), सा। 3. सा, म(ग), सा, प-म(ग), सा, मपध, म(ग),
सा, रेमपध, मपसां, पध, म(ग), सा, रेमपध मपनि, सांरेंसां, पसां, पध, म(ग),
सा,(सा)ऩि, म़प़ऩिसारेग, सारेपपध, म(ग), सा। 4. प, मप,(ग), सा, रेमप, ध, मप, रेमपध, म(ग), सा,
रेमप, धमप, सां, पध, म(ग), सा, रेमपध, मपनिसां,गं, रेंगं,(सां),
पनिसांरें सां,(प) मग, साऩि, ऩिसारेप, मग,(सा)। 5. अंतरा: मपनि, निसां, सां, रेंगं(सां), रेंमंगं,(सां),
सांरेंगं, सांरेंपं, मं(गं), सां, सां, पध, मपसां, रेमपध मपनि, सां,
रेंगं, सां, पनिसांरेंपं, मंगं, सां, सांरेंसां, पध, मपध, मग,(सा)
ऩि, प़ऩि, सारेप, मग,(सा)। 6. तानें: प़ऩिसारेग सारेमग,(सा), प़ऩिसारेग सारेमपध मग,(सा),
प़ऩिसारेग सारेमपनिसांरेंसां, पधमग(सा), ऩिसारेग सारेमपध
मपनिसां रेगसांरें मंगं,(सां), निसांरेंनिसां, पधमपसां, पधमपध मग(सा)। 7. पधमगरेसा, सांरेंसां पधमगरेसा, सांरेंगंसां,
रेंसांसांधपमगरेसा, ऩिसारे ऩिसारेग सारेमपध मपनिसांरें निसांरेंगंसांरें
पंमंगंरेंसांसां धपमगरेसा। राग की संरचना इस राग की यह युक्ति है कि राग तिलककामोद में गंधार स्वर को कोमल करके गाना है। कोमल गंधार के प्रयोग से इस राग में राग पीलू का प्रभाव पैदा हो जाता है। पीलू का यही प्रभाव निषाद के अधिक प्रयोग और उस पर न्यास होने के कारण और भी प्रबल हो जाता है। पीलू के स्वर होते हुए भी उन स्वरों में राग तिलककामोद के समान चलन एक अलग प्रभाव उत्पन्न करता है। पीलू में शुद्ध गंधार का प्रयोग किया जाता है जो इस राग में सर्वथा वर्जित है, शुद्ध गंधार का यह अभाव 'रे प' और 'रे म प' का तिलककामोद के अंग से प्रयोग इस राग को पीलू के प्रभाव से भिन्न करता है। इसके अतिरिक्त राग पीलू में कोमल निषाद तथा कोमल धैवत का भी प्रयोग होता है जो प्रस्तुत राग में निषिद्ध है। समप्रकृति रागों से तुलना राग पीलू की मांझ में 'म़ प़ ऩि सा ग सा ऩि, रे म ग सा, म प ध म ग, ध म प ग,सा प ग सा' इन स्वर समुदायों से स्पष्ट रूप से पीलू की छाया दिखती है। यह‘रे म प’ तथा ‘रे प’ के प्रयोग से और शुद्ध गंधार, कोमल धैवत और कोमल निषाद की उपस्थिति के कारण तिरोहित हो जाती है। राग पीलू के मूल स्वरूप में ही शुद्ध गंधार, कोमल धैवत और कोमल निषाद स्वर अनिवार्य रूप से आते हैं जिनकी इस राग में पूर्णतः अनुपस्थिति होती है। इसी कारण यह राग पीलू अंग को स्पष्ट रूप से दिखाते हुए भी उससे पूर्णतः भिन्न ही दिखाई देता है। राग पीलू की मांझ में राग तिलककामोद के सदृश 'सा रे म प' या 'सा रे ग सा रे प' का चलन रखा जाता है, जो इस राग की अपनी विलक्षणता है। यही कारण है कि इस राग के विवरण में पं0 रातंजनकर ने आरोह में गंधार को दुर्बल रखने का निर्देश दिया है, क्योंकि राग तिलककामोद में भी आरोह का गंधार स्वर दुर्बल होता है। परन्तु राग पीलू में अधिकांशतः 'सा ग म प' या 'सा ग म प' का चलन ही मूलरूप से रहता है। छोटी धुन होने के कारण क्वचित् पीलु में भी 'रे म ग, रे प म ग' का प्रयोग कर लेते हैं परन्तु पीलूमें लगने वाली अन्य स्वर संगतियाँ पीलू की मांझ को पीलू से भिन्न रखती हैं। पीलू की मांझ का उत्तरांग भी 'म प नि सां, म प सां, सां प ध म प, सां ध प' इन स्वरों में ही प्रतिबंधित रहता है जिसके विपरीत पीलू का उत्तरांग यदा-कदा इन प्रयोगों के होते हुए भी अधिकांशतः संपूर्ण रहते हुए एवं धैवत और निषाद स्वरों के दोनों रूप प्रयुक्त करते हुए अपना प्रभाव अलग रखता है। इस राग के अवरोह में यूं तो पीलू के अंग से यथा 'गरेसा ऩि' इस प्रकार से ऋषभ का अल्प प्रयोग करते हुए आलाप का अंत करते हैं। परन्तु तानों के विस्तार करते समय इस नियम में क्वचित् शिथिलता देते हुए 'सांपधमपधमगरेसा' अथवा 'सांधपमगरेसा' इस प्रकार ऋषभ का प्रयोग करते हुए सीधा अवरोह भी कर लेते हैं। राग पीलू की
अपेक्षा राग पीलू की मांझ में स्वर प्रयोग सीमित है। जहाँ पीलू अपने धुन आधारित
स्वरूप के कारण ठुमरी अंग के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है वहीं राग पीलू की मांझ
अपेक्षाकृत गंभीर होने के कारण ख्याल अंग के लिए अधिक उपयुक्त लगता है। राग पीलू
जहाँ अपने मौलिक स्वरूप में ही बारह स्वरों के प्रयोग की सहमति देता है वहीं दूसरी
ओर 'पीलू की मांझ' अपने निश्चित स्वरूप एवं सीमाओं में रहकर श्रृंगारिक भावों के साथ-साथ राग को
एक गांभीर्य भी प्रदान करता है। |
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निष्कर्ष |
राग
तिलककामोद में शुद्ध गंधार के स्थान पर कोमल गंधार का प्रयोग करने पर राग पीलू की
मांझ का प्रादुर्भाव होता है। पीलूके स्वरों के कारण पीलू का आभास देते हुए भी यह
राग पीलू से नितांत भिन्न है और यही इस राग की नवीनता और विलक्षणता है।यह राग हमें
यह दृष्टि भी प्रदान करता है कि किसी राग को क्वचित् भिन्न कोण से देखने पर यथा
राग तिलककामोदके चलन को यथा रूप रखते हुए उसमें गंधार को कोमल करने पर किसी राग का
व्यक्तित्व कितना भिन्न हो जाता है। इससे परिवर्तन से यह भी अनुमान होता है
किभारतीय शास्त्रीय संगीत में राग संगीत के क्षेत्र कितना विशाल और विस्तृत है।
अन्य रागों में भी इस प्रकार का परिवर्तन अनेक नए राग रूप प्रस्तुत करके राग संगीत
को और भी समृद्ध बना सकता है। प्रस्तुत अध्ययन कलाकारों,
विद्यार्थियों और संगीत जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता
है ऐसा लेखक का अनुमान है तथा यह राग भी लोकप्रियता को प्राप्त कर सकता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. झा,
पं. रामाश्रय "रामरंग", अभिनव
गीतांजलि (भाग-1 से 5), प्रकाशक- संगीत सदन प्रकाशन, १३४, साउथ मलाका, इलाहाबाद। 2. ठाकुर, (स्व.) पं.
ओमकारनाथ, संगीतांजलि (भाग-1 से 4), प्रकाशक-
पं. ओमकारनाथ ठाकुर एस्सेट, बम्बई। 3. रातंजनकर, आचार्य
श्रीकृष्ण नारायण, अभिनवगीतमंजरी (भाग-1 से 3), प्रकाशक- आचार्य एस. एन. रातंजनकर फाऊण्ङेशन, दादरा,
बम्बई- 400014। 4. भातखंडे, पं0 विष्णुनारायण, हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, क्रमिक पुस्तक मालिका भाग-3, प्रकाशक- संगीत कार्यालय, हाथरस 204 101, उ0प्र0। 5. पटवर्धन, पण्डित विनायकरावजी, राग-विज्ञान, भाग- 6, प्रकाशक- श्री मधुसूदन विनायक पटवर्धन, संगीत गौरव ग्रंथमाला, 495 शनिवार, 3 रा मजला, ब्लॉक नं0 11 अ, पुणें 30
6. कायकिणी, पं0 दिनकर ‘दिनरंग’, रागरंग, संस्कार प्रकाशन, 6/400, अभ्युदयनगर, कालाचौकी, मुम्बई- 400033 |