ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- I April  - 2022
Anthology The Research
हरिशंकर परसाई का जीवन एंव साहित्य परिचय
Life and Literary Introduction of Harishankar Parsai
Paper Id :  15992   Submission Date :  15/04/2022   Acceptance Date :  20/04/2022   Publication Date :  25/04/2022
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राधा देवी
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी
जमुना देवी नरेश चन्द्र महाविद्यालय
उरई ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश इस लेख में पंडित हरिशंकर परसाई के जन्म के बारे में लिखा है साथ ही उनके पिताजी के तथा परिवार के विषय में विस्तार से वर्णन किया है इसके साथ ही उनकी साहित्यिक लेखन की शुरुआत कैसे हुई और उन्होंने अपने जीवन में कितनी कठिनाइयों का सामना किया इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी उसके बाद भी उन्होंने साहित्य में अपना स्थान बनाए रखा।साथ ही उनकी छोटी बहन की जिम्मेदारी भी उन पर थी इसके साथ उन्होंने साहित्य में अनेकों रचनाएं की जिसकी क्रमानुसार वर्णन किया है इन्होंने व्यंग को एक अलग विधा के रूप में स्थान दिलाया इसलिए इनको व्यंग का जन्मदाता कहा जाता है
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद This article, has written about the birth of Pandit Harishankar Parsai, as well as has described in detail about his father and family, as well as how his literary writing started and how many difficulties he faced in his life. His economic condition was not good, even after that he retained his place in literature as well as on the responsibility of his younger sister, along with this he wrote many writings in literature, which has been described in order, he has described satire as a separate genre. That's why he is called the creator of satire.
मुख्य शब्द जन्म परिवार मृत्यु साहित्य की शुरुआत व रचनाएं।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Birth Family Death Literature Beginnings and Compositions.
प्रस्तावना
साहित्य रचना का अध्ययन साहित्यकार से परिचित हुए बिना नहीं किया जा सकता है क्योंकि साहित्यकार का अपना व्यक्तित्व उसकी अपनी रचनाओं के माध्यम से देखने को मिलता है इसलिए साहित्यकार की रचनाओं से पहले उसके व्यक्तित्व व रूचियों को समझना आवश्यक हो जाता है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य हरिशंकर परसाई के जीवन एवं उनके साहित्य परिचय का अध्ययन करना हैं।
साहित्यावलोकन
1. आंखनदेखी-हरिशंकर परसाई 2. परसाई रचनावली भाग-2, श्याम कश्यप
मुख्य पाठ

जन्म

हरिशंकर परसाई जी का जन्म 22 अगस्त 1924 कों मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी ग्राम में हुआ था।

परिवार

हरिशंकर परसाई जी के पिता के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। इतना ही ज्ञात है कि 18 वर्ष की आयु में इनके पिता का साथ इनसे छूट गया था। इनकी माता जी बीमार रहती थी और उनका देहान्त जब परसाई जी 12-15 वर्ष की अवस्था में थे तभी हो गया था। यह अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। इसलिए पिता की मृत्यु के उपरान्त इनके कन्धों पर ही परिवार की जिम्मेदारी आ गयी थी। उनके ऊपर दो छोटी बहनों व एक भाई का बोझ किशोरावस्था में ही आ गया था। परसाई जी के शब्दों में-‘‘मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होने एक बहिन की शादी कर दी थी। बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहिनें और एक भाई थे।’’ [1]

शिक्षा

हरिशंकर परसाई जी गाँस से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले गये थे। नागपुर विश्वविद्यालय से उन्होने एम0हिन्दी की परीक्षा पास की।

जीविका

मैट्रिक के उपरान्त वन विभाग में नौकरी कर ली। वहाँ के सरकारी टपरे में रहकर भीतर ही भीतर अपने को मजबूत किया। आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना उन्हें शुरू से ही आ गया था। उन्होने एक बात सीख ली थी। उन्हें बिना टिकट ही सफर करना है। ‘‘जबलपुर से इटारसीटिमरनीखण्डवादेवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबे बचने की बहुत सी आ गई थी।’’ [2]

जबलपुर के एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिली और एक माह का वेतन ले पाये ही थे कि पिताजी की मृत्यु की खबर मिल गयी थी।

परसाई जी ने 1947 में "प्रहरी" नामक साप्ताहिक पक्ष में "उदार" नलाम से लिखना प्रारम्भ किया। परसाई के अभिन्न मित्र मायाराम सुरजन ने लिखा है कि ‘‘परसाई का रचनाधर्मी व्यक्तित्व वसुधा के प्रकाशन में आया। श्री रामेश्वर गुरूप्रमोद वर्माश्री बाल पाण्डेहनुमान प्रसाद वर्माडाॅरामशंकर मिश्रा आदि कुछ मित्रों ने सहयोग कर वसुधा का प्रकाशन   किया। वसुधा अपने जमाने की प्रकाशित साहित्यिक पत्रिकाओं में श्रेष्ठतम थी।’’ [3]

साहित्य का प्रारम्भ

साहित्य सृजन का प्रारम्भ तो इन्होने नौकरी के साथ ही प्रारम्भ कर दिया था। सन् 1950-51 में खूब जमकर लिखा। हरिशंकर परसाई और व्यंग्य एक दूसरे के पर्याय माने जाते थे। ‘‘यह सही है कि परसाई जी ने व्यंग्य को हिन्दी गद्द में एक अक्षम और स्वतंत्र विद्दा जैसी प्रतिष्ठा दिलायी हैलेकिन व्यंग्य मूलतः एक स्पिरिट है कोई विधा नहीं। व्यंग्य की इस स्पिरिट का विभिन्न गद्द विधाओं में प्रयोग करते हुए परसाई जी ने इन प्रचलित विधाओं को नये आयाम और सार्थक विस्तार दिए हैं। अपनी विशिष्ट अंतर्वस्तु के अनुरूप उन्होने पुराने रूपों का परिष्कार किया है।’’ [4]

परसाई जी होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी मांगने गये। मगर निराश लौटना पड़ा। जेब में एक रूपया पड़ा था जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चले जातेमगर खाये क्यादूसरे महायुद्ध का समय था। गाड़ियां लेट आ रही थी। मगर खाये क्यादूसरे महायुद्ध का समय था गाड़िया लेट आ रही थी। पास ही किसान का परिवार खरबूजा खा रहा था। परसाई जी को भूख लगी थी। किसान ने खरबूजा काटना प्रारम्भ किया तो परसाई जी ने कहा कि तुम्हारे खेत के होगें बड़े अच्छे हैं। किसान ने कहा "सब नर्मदा मैया की कृपा है भैया। शक्कर की तरह मीठा है लो खाके देखो उसने दो बड़ी फांके दी। ‘‘मैने कम से कम छिलका छोड़कर खा लियापानी पिया तभी गाड़ी गयी और हम खिड़की से घुस गये।’’ [5]

ऐसे अनेक प्रसंग और घटनायें परसाई जी के साथ जुड़ी हुई हैं जिसके साथ उनका दैहिक जीवन एवं साहित्य जीवन दोनों ही जुड़े हुए हैं। वे जो लिखते हैं वही जीते हैंजो भाषा बोली जाती है वही लिखी जाती है। वे एक मात्र ऐसे लेखक हैं जिनकी रचनाओं में उनके पाठकों का बहुत सक्रिय योगदान रहा है। उनका हर पाठक उनके साथ चलता है। ‘‘जमाना बदल गया बरना परसाई चिमटा बजाते-बजाते चलते और उनके पीछे पतंक्कड़ साधुओं की जमात होती तो ऐबेन्स के साथ सुकरात के भक्तों की तरह हर स्थापना को तोड़कर नयी बनाने के लिये बगावत करते नजर आती।’’[6]

परसाई जी विश्वविद्यालय की यथास्थिति पर कहते हैं कि परीक्षाओं में नैतिकता के लिए लड़ने वाले अध्यापक और अधिकारी अपनी ओर समाज की नैतिकता क्यों नहीं देखतेपैसे लेकर ट्यूशन करनाकक्षाओं में पढ़ाना नहीं और कुछ भी डिग्री लेने के बाद पढ़ना नहींअंक बढ़ाने के लिए सौदेबाजी करना और अपनी ही छात्राओं को कामुकता की नजर से देखते समय जब अध्यापकों की नैतिकता नहीं जागती तो परीक्षाथार्थी को नकल करते समय कैसे जाग जाती है। घूंसखोर बाप का बेटा घूस के भरोसे अब्बल आने में सफल हो तो गरब लड़का अपने ही भरोसे पर परीक्षा में नहीं बैठ सकता है।

परसाई जी के लिए हर मान्यता एक सामाजिक बेईमानी है और इस समाज में कितनी बेईमानी की परते हैंये परसाई जी से छिपी नहीं है। ‘‘कौन नहीं जानता की परसाई जी ने अपने लेखन की शुरूआत रचना शास्त्रीय सवालों से उलझकर नहीं की। इन्होने जीवन के अहम प्रश्नों के बीच अपने आपको फेंककरउनसे टकराकर अपने रचनात्मक व्यक्तित्व का सर्जन किया है। प्रश्नों और खुद के संस्कारों के संघर्ष में समस्याएं सुलझी है। उनसे एक फक्कड़संघर्षजीवी चौकन्नादृढ़ और परिवर्तन का व्यक्तित्व रच गया है।[7]

परसाई जी ने कबीर की तरह दुनिया को देखा है। हर आडम्बर और कुण्ठा के साये में जिए है। कबीर ने उन्हें मिथ्या तत्व पर प्रहार करने की ताकत दी। परसाई जी ने अनेक रचनाकारों की कृतियों को पढ़ा और नये जीवन का संघर्ष देखा। संयोग कुछ ऐसा था कि परसाई का अपना परिवार तो बड़ा नहीं था लेकिन जिम्मेदारियाँ बहुत थी। उस पर वे एक विधवा बहिन और उनके 3-4 बच्चों को अपने साथ रहने के लिये ले आये। आपने अपनी रचनाओं को स्वयं प्रकाशित करवाने का निश्चय किया। हंसते हैं रोते हैं उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक है। परसाई जी उसे स्वयं बेचते थे। अपनी कृति को बेंचने में यदि झिझक पैदा हो जाती हैजाती तो परसाई जी वह न होते जो आज है।

जब कोई लेखक पहले दर्जे में यात्रा करता है। तब परसाई जी दूसरे दर्जे में दिन में यात्रा करना पसन्द करते हैं। ऐसी ही एक बस यात्रा से ऊबते हुये हनुमान प्रसाद वर्मा जी ने परसाई जी से कहा तुम्हारे साथ यात्रा करने से सारा दिन खराब हो गया और धक्के खाये सो अलग। परसाई जी जबाब देते हैं ‘‘दिन में यात्रा में मैं समाज के ज्यादा नजदीक होकर उसे बारीकी से देख पाता हूँ। आखिर मेरी रचनाओं के लाट यही तो मिलते हैं। जब यात्रीगण अपने किसी सहभागी से अपनी बीती बतियाते हैं छोटा अफसर बड़े अफसर की पोल खोलता है या कोई शोषित व्यक्ति अपने शोषण के चर्चे सुनाता है।" [8]

परसाई जी ने अपने व्यक्तित्व की रक्षा के लिये एक लक्ष्य बनायावे लिखते हैं-‘‘मैने तय किया परसाई डरो किसी से मत। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी होजिम्मेदारी और गैर जिम्मेदारी के साथ निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी की तरह निभाओगे तो वह नष्ट हो जायेगी।’’ [9]

इसी निर्भीक प्रवृत्ति के कारण वे किसी नौकरी में स्थायी रूप से न रह सके। परसाई जी को जीवन में बड़ी त्रासदी और गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ा। यद्यपि यह भी सच है कि इन्हीं गम्भीर परिस्थितियों ने ही उन्हें लेखन की ओर मोड़ा। परसाई जी के ही शब्दों में ‘‘मेरा अनुमान है कि मैने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे इसी में मैने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे अपने को अविशिष्ट होने से बचाने के लिये मैने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है मेरा ख्याल है तब की बात होगी। पर जल्दी हमें व्यक्तिगत दुख के इस सम्मोहन जाल से निकल गया। मैने अपने को विस्तार दे दिया दुखी और भी है अन्याय पीड़ित और भी हैअनगिनत शोषित हैं मैं उनमें से एक हूँ पर मेरे हाथ में कमल है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ। यही कहीं व्यंग्य लेखक का जन्म हुआ। मैने सोचा होगा रोना नहीं है लड़ना है। जो हथियार हाथ में है उसी से लड़ना है। मैने तब सही ढ़ंग से इतिहाससमाजराजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औधड़ व्यक्तित्व बनाया और गम्भीरता से व्यंग् लिखना शुरू कर दिया।" [10]

प्रहरी में मेरी रचनाओं के प्रकाशन के बाद मेरी खोज की जाने लगी। मेरे एक अध्यापक मित्र को पता चल गया कि मैं ही उदार नाम से प्रहरी में रचनायें भेज रहा हूं। उन्होने मुझे प्रहरी के दफ्तर में रामेश्वर प्रसाद गुरू के सामने खड़ा कर दिया। इसके बाद में प्रहरी दफ्तर नियमित जाने लगा। सरकारी नौकरी में होने के बाद भी परसाई जी सरकार के विरोध में लिखते रहे और इससे उन्हें बड़ी ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। वे हिम्मत नहीं हारे। सरकार को उनके लेखन से तकलीफ होने लगी। उन्होने इनका तबादला जबलपुर से हरसूद कर दिया गया। इसके विरोध में उनकी मित्र मण्डली ने उन्हें सुझाव दिया कि अध्यापक की नौकरी तो जबलपुर के किसी भी अशासकीय स्कूल में मिल सकती है और नहीं मिली तो पत्रकारिता तो कर ही सकते हैं इसलिये परसाई जी ने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और एक नये अशासकीय विद्यालय में अध्यापक के रूप मे नियुक्ति हो गयी। इसके बाद उन्होने जैन स्कूल में अध्यापक का कार्य किया। 1957 तक परसाई इस नतीजे पर पहुँच गये कि अध्यापन व लेखन कार्य एक साथ नहीं हो सकता। इसलिये उन्होने अध्यापन कार्य बन्द कर दिया।

परसाई की रचनाओं में व्यंग्य

‘‘हिन्दी में व्यंग्य कर्म की सबसे तीखी और ऊँची चढ़ाई का नाम हरिशंकर परसाई है। विधा के रूप में व्यंग्य की स्थापना देने वाले रचनाकार परसाई ने धीरे-धीरे व्यंग्य कथा और लघु कथा के घिसे हुये फ्रेम से व्यंग्य और लघु व्यंग्य को निकाला।[11]

परसाई पत्रकारिता के स्तम्भ लेखक के रूप में जुड़े रहे। कबिरा खड़ा बाजार में (सारिका) और अन्त में (कल्पना) में कहता ऑखिन देखी (माया) माटी कहे कुम्हार से (हिन्दी कस्ट) सुनो भई साधो (नई दुनिया)पांचवां कालम (नई कहानियाँ) जैसे स्तम्भों में परसाई जी का व्यंग्य फैलता रहा था। परसाई जी का व्यंग्य आधुनिक युवा की क्रान्ति का खुला घोषणा पत्र था।

इस तेज क्रान्ति का आहवान परसाई जी का व्यंग्य साहित्य करता है। परसाई जी के शब्दों में-‘‘जिस देश में एम्पलायमेन्ट एक्सचेंज दफ्तर तक में नंगे पांव और फटे कुरते वाले ग्रेजुएट से भी नाम रजिस्टर कराने के लिए सौ रूप्ये ले लिये जाते है। उस देश में इस व्यवस्था को युवक अभी तक आग क्यों नहीं लगा  सकें यहां यही आश्चर्य है।’’ [12]

हरिशंकर परमाई ने अत्यन्त सफाई से उस देश का सत्य उजागर किया है। जहाँ गणतज्ञ ठिठुरता रहता है। वहाँ आदमी बेचारा बनकर जीने के लिये विवश है। जहाँ चोर दरवाजे का इस्तेमाल संकोच रहित और जहाँ लजोगों के सारे सरोकार स्वार्थ के शीशमहल पर टिके हुए हैं परसाई के व्यंग्य लेखन का विस्तार उनके सभी व्यंग्य संकलनों में एक ही तरह एक ही भाव मुद्रा मेंएक ही सरोकार के साथ विद्यमान है। हंसते हैं रोते (1956), तब की बात और थी (1956), भूत के पांव पीछे (1962), जैसे उनके दिन फिरे (1963) बेईमानी की परत (1965) सुनो भई साधो (1965), पंगडंडियों का जमाना (1966), सदाचार का ताबीज (1967), उल्टी सीधी (1968), और अन्त में (1968), निठल्ले की डायरी (1968), ठिठुरता हुआ गणतन्त्र (1970), शिकायत मुझे भी है (1970), अपनी-अपनी बीमारी (1972), तिरछी रेखायें (1972), वैष्णव की फिसलन (1976), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं (1977), एक लड़की पांच दिवाने (1980), विकलांग श्रद्धा की दौर (1981), पाखण्ड का अध्यात्म (1982), दो नाक वाले लोग (1983), काग भगोड़ा (1983), प्रतिनिधि व्यंग्य (1983), तुलसीदास चन्दन घिसे (1986), कहत कबीर (1987), ऐसा भी सोचा जाता है (1993), टम इक उम्र से वाकिफ हैं (1994)। इन सभी व्यंग्य में शरीफ किस्म की लाठी चार्ज करने की अनोखी क्षमता है। इनका व्यंग्य लेखन पारस्परिक रूपों से और घिसी हुई मर्यादाओं को नकार कर नई पृष्ठभूमि का उदय करता है।

व्यंग्यकार जानता है कि ‘‘जो नहीं है उसे खोज लेना शोधकर्ता का काम है। काम किस तरह का होना चाहिए उस तरह न होने देना विशेषज्ञ का काम है जिस बीमारी से आदमी मर रहा हैं उसे उससे न मरने देकर दूसरी बीमारी से मार डालना डाक्टर का काम हैअगर जनता सही रास्ते पर जा रही है तो उसे गलत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है। ऐसा पढ़ाना कि छात्र बाजार में सबसे अच्दे नोट्स की खोज में समर्थ हो जाये  प्रोफेसर का काम है।’’ [13] स्वयं परसाई जी ने "विकलांग श्रद्धा का दौर’’ की भूमिका में स्वीकार किया है- ‘‘राजनीतिक और व्यक्तिगत विकलांगता की प्रतिक्रिया स्वरूप जिस अभिव्यक्ति की प्रेरणा हुईमैने उसे पुनरावृत्ति की परवाह किये बिना प्रकट कर दिया है।’’ [14]

निष्कर्ष हरिशंकर परसाई की अधिकांश फुटकर रचनाओं ओर प्रकाशित पुस्तकों को सम्बद्ध कर छः रचनावलियों में संकलित कर दिया गया था। परसाई के शब्दों में- ‘‘रचनाकार का प्रकाशन लेखक की मृत्यु के बाद ही ठीक रहता है। एक तो लेखक हस्तक्षेप के लिये नहीं होता, वह रचनाओं का चुनाव नहीं कर सकता और वे बाध्यताएँ नहीं रहती जो मुंह देखी के कारण पैदा होती है। मृत लेखक के साथ सब तरह की स्वतंत्रता ली जा सकती है और जिसे वह स्वयं वर्जित कर गया है उसे भी प्रकाशित किया जा सकता है।..... जीवित लेखक इतना अधिकार देगा नहीं वह स्वयं भी हर एक की रचनावली नहीं बनायेगा। वह अपना लिख बहुत सा खुद निरस्त कर देगा।’’ [15]
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1 आंखनदेखी-हरिशंकर परसाई, पृष्ठ 25-26 2 परसाई रचनावली भाग-2, श्याम कश्यप,पृ0 90 3 स0 कमला प्रसाद- आँखन देखी, पृष्ठ 26 4 स0 कमला प्रसाद, आँखन देखी, हनुमान प्रसाद वर्मा, पृ0 50 5 स0 कमला प्रसाद, आँखन देखी, हनुमान प्रसाद वर्मा, पृ0 50 6 स0 कमला प्रसाद- आँखन देखी, पृष्ठ 14 7 स0 कमला प्रसाद, आँखन देखी, मायाराम सुरजन, पृष्ठ 59-60 8 स0 कमलेश्वर सारिका, पृष्ठ 23 जून 1972) 9 स0 कमलेश्वर-सारिका पृष्ठ 23, जून 1972 10 हिन्दी व्यंग्य के प्रतिमान, डा0 बालेन्द्र शेखर तिवारी, पृष्ठ 11 11 हिन्दी करन्ट- हरिशंकर परसाई 12 मई 1979, पृष्ठ 1 12 हरिशंकर परसाई- अपनी अपनी बीमारी, हरिशंकर परसाई, पृष्ठ 76 13 विकलांग श्रद्धा का दौर- हरिशंकर परसाई, भूमि का पृष्ठ-4 14 परसाई रचनावली भाग-1, लेखक का निवेदन, पृष्ठ 1 15 स0 कमदा प्रसाद: आंखन देखी, हरिशंकर परसाई, पृ0 25