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नागार्जुन के कथा साहित्य में ग्रामीण संस्कृति | |||||||
Rural Culture in Nagarjuna Fiction | |||||||
Paper Id :
15996 Submission Date :
2022-04-06 Acceptance Date :
2022-04-16 Publication Date :
2022-04-25
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सारांश |
प्रगतिवादी कवि बाबा नागार्जुन ने अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में ग्रामीण जीवन की संस्कृति को प्रमुखता से चित्रित किया है। वह एक प्रसिद्ध जनवादी कवि हैं। वे भारतीय ग्रामीण संस्कृति को प्रगतिवादी दृष्टिकोण से विश्लेषित करते है।
बाबा नागार्जुन ने रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, वरूण के बेटे, नई पौध, कुम्भीपाक उग्रतारा, जमनिया का बाबा, गरीबदास आदि उपन्यासों में निम्न वर्गीय पात्रों के माध्यम से ग्रामीण संस्कृति को गहराइयों से परखते हैं। उनकी अनुभूतियों का सजीव चित्रण करते हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Progressive poet Baba Nagarjuna has portrayed the culture of rural life prominently in his stories and novels. He is a famous democratic poet. He analyzes Indian rural culture from a progressive perspective. Baba Nagarjuna deeply examines rural culture through lower class characters in novels like Ratinath ki Chachi, Balchanma, Baba Batesarnath, Dukhmochan, Varun's son, Nai Paud, Kumbhipak Ugratara, Jamniya ka Baba, Garibdas etc. A vivid depiction of their feelings. |
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मुख्य शब्द | संस्कृति, अंधविश्वास, आंचलिकता, स्वाधीनता, यातना, स्पृष्यता, काश्तकार, भिक्षावृत्ति, अन्तर्द्वन्द। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Superstition, Zonalism, Freedom, Torture, Touchiness, Cultivator, Begging, Entanglement. | ||||||
प्रस्तावना |
दलितों के प्रति नागार्जुन की पक्षधरता, नारी के प्रति मर्यादा, यथार्थ का अंकन, अभिव्यक्ति की सहजता उन्हें सहज ही ऊपर उठा देते हैं। बाबा नागार्जुन की कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है जैंसे उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों में से कुछ प्रसंग, कुछ घटनाएँ, चुनकर ही उन्हें, उपन्यासों एवं कहानियों के रूप में वर्णित है। उन्होंने अपनी कुछ कहानियों जैंसे- विषम-ज्वर, भूख मर गई थी, ममता, हीरक जयन्ती या कायापलट जेठा आदि कहानियों में ग्रामीण संस्कृति एवं सामाजिक, समस्याओं को चित्रित किया है।
असमर्थदाता कहानी में बाबा नागार्जुन ने भिक्षावृत्ति की समस्या को दिखाया है, जो मुख्य रूप से आर्थिक समस्या है। नागार्जुन ग्रामीण परिवेश से अच्छी तरह प्रेरित थे। वे स्वयं भी एक ग्रामीण किसान के पुत्र थे। उनका बचपन भी निम्न जाति के हमउम्र ग्रामीण लडकों के साथ बीता था, यही कारण है कि उन्होने भोगा, तथा अनुभव किया हुआ प्रत्येक क्षण अपनी रचनाओं के माध्यम से चित्रित किया। नागार्जुन के मन में शोषित-पीड़ित ग्रामीण संस्कृति के लोगो के प्रति सहानुभूति जागी। उसके मन में सामाजिक, धार्मिक, कुरीतियों तथा सामाजिक आर्थिक विषमताओं एवं धार्मिक आडम्बरों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई, और उन्होंने इन समस्याओं को दूर करने का प्रयत्न किया। इन सभी कुरीतियों को उन्होने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सामान्य जन को समझाने का प्रयास किया।
नागार्जुन ने अपनी कहानियों के माध्यम से बताया कि किस तरह विषम- ज्वर कहानी में कर्मचारी-वर्ग कैसे आर्थिक विषम परिस्थितियों से जूझ रहा है। छोटे ग्रामीण परिवेश के छोटे कर्मचारियों के जीवन संघर्ष को यह कहानी उद्घटित करती है। निम्नवर्ग तथा कर्मचारी वर्ग का यथार्थवादी दृष्टिकोण नागार्जुन ने चित्रित किया है।
उनका दुःख समूची पीड़ित मानवता का दुःख है। नागार्जुन की कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास लाखों करोड़ो की जिन्दगी के बारे में हैं।
‘‘प्रेत का बयान’’ कविता में प्राईमरी स्कूल के एक मास्टर का बयान न होकर, भारतीय ग्रामीण के उन लोगो की दुःख भरी कहानी है जो गरीबी के नीचे रहकर जीवन यापन करते हैं और भूखे रहकर जिन्दा बने रहते हैं। नागार्जुन जनजीवन के एकाएक निकट दिखाई देते है। उनकी भाव-भूमि जनता की भाव-भूमि बन गई है। उसमे भूख, बाढ़, अकाल, अत्याचार शोषण एवं इन सबके विरोध के वर्णन भरे पड़े है। भारत गांवों का ही देश है। स्वतंत्रता के बाद भी अशिक्षा, अभाव, अन्धविश्वास, बेकारी, भुखमरी ग्रामीण संस्कृति के लोगो में बढ़ती गई। जमींदारी समाप्त हुई तो सरपंच, पटवारी, पूंजीपति, साहुकार शोषक बन बैठे। इन सभी का चित्रण नागार्जुन ने अपनी रचनाओं में किया।
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अध्ययन का उद्देश्य | नागार्जुन का रचना संचयन - पुस्तक, आंचलिक उपन्यास और नागार्जुन - शोध प्रबंध [1], नागार्जुन के उपन्यासो की कथा भूमि- शोध पत्र [2], लोक सरोकरों के कवि नागार्जुन - शोध पत्र [3], बाबा नागार्जुन (यात्री जी) कालजयी रचनाकार विद्रोही कवि - लेख [4] आदि में नागर्जुन के कथा - साहित्य में ग्रामीण संस्कृति को गहराईयों से परखने की कोशिश की गई है। किन्तु समसामायिक, समस्याओं, विसंगतियों एंव विषमताओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला जा सका है।
प्रस्तुत शोध-पत्र में इनकी कथाओं में चित्रित ग्रामीण संस्कृति का समुचित अध्ययन एवं अनुशीलन करने का सप्रयास किया जाऐगा। |
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साहित्यावलोकन |
नागार्जुन जैसे विराट व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विषय मे अनेक पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, शोध-पत्र, लेख आदि प्रकाशित हो चुके हैं। |
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मुख्य पाठ |
नागार्जुन कथा-साहित्य में ग्रामीण संस्कृति बाबा नागार्जुन एक प्रगतिशील कथाकार हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में ग्रामीण संस्कृति को अनुभवों के आधार पर प्रस्तुत किया है बाबा नागार्जुन ने आम-आदमी के साथ सुःख-दुःख में अपनी भागीदारी निभाई। वे भारतीय ग्रामीण जीवन की भुखमरी, गरीबी और बेराजगारी को देखकर तड़प उठते हैं। नागार्जुन ने देश के अंचल की लोक संस्कृति को अभिव्यक्त किया है, चाहें वे किसान हों, या मजदूर हों या जमीदार सभी के चरित्र को उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से चित्रित किया। नागार्जुन भारतीय ग्राम्य जनजीवन की परम्पराओं, रीति रिवाजों, वृत, त्योहारों लोक मान्यताओं आदि को अपने उपन्यासों, कहानियों का विषय बनाया। ‘‘बलचनमा’’ उपन्यास में उन्होंने बहुआयामी दृष्टिकोण का परिचय दिया है इसमें दरभंगा जिले की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक, धार्मिक प्रवृत्तियों का चित्रांकन किया है। इसमें ग्राम्य जीवन का प्रभावकारी यथार्थ प्रस्तुत किया है। गांव का जीवन टूट रहा है, गांव जीविका की तलाश में शहरों में समा रहे हैं। बाबा नागार्जुन ने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र एवं आंचलिक कथा सम्राट फणीश्वरनाथ रेणु से प्रभावित होकर व्यक्तिगत जीवन की अनुभूतियों के आधार पर उपन्यासों एवं कहानियों का सृजन किया उन्होने जन-सामान्य के बीच रहकर समाज में घटित राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक घटनाओं को गहराई से देखा परखा इसलिये उनकी रचनाओं में कृषक एवं ग्रामीण अंचल की समस्याओं का चित्रण मिलता है। इनकी रचनाओं में जमींदारों की तानाशाही उनका अन्याय एवं शोषण की प्रवृत्ति और उनके द्वारा व्यवहार किये जाने वाले ग्रामीणों और कृषको के प्रति स्वर मुखरित हुए हैं। इस अन्यायी व्यवस्था के प्रति उनकी कथाओं के पात्रों में क्रोध और आवेश, प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित हुए हैं। बाबा नागार्जुन के उपन्यास साहित्य की कथा-भूमि ग्रामीण क्षेत्र रहे हैं। उन्होने गांव के निम्न वर्गीय पात्रों को अपने उपन्यासों, कहानियों में स्थान दिया। नागार्जुन एक प्रगतिशील कथाकार हैं, उन्होंने आम जनता के जीवन को स्वयं भोगा ही नहीं बल्कि उसके प्रत्यक्षदर्शी भी रहे हैं। उन्होने अपने कथा-साहित्य के अन्तर्गत ग्रामीण जीवन के यथार्थ को चित्रित किया। लोक-संस्कृति का रूपायन नागार्जुन ने विशेष रूचि से किया। उन्होने आंचलिक समाज और जीवन निधि का यथार्थ ज्यों का त्यों दर्शन कराया। साथ ही सांस्कृतिक दशा से भी परिचित कराया है। नागार्जुन ग्रामीण संस्कृति का परिचय इस प्रकार कराते हैं कि ‘‘जब ग्रामीण बहुत खुश होते हैं, तो वह अपनी प्रसन्नता गुनगुनाने के रूप में व्यक्त करते हैं। ग्रामीण परिवेश में पनपे नागार्जुन सर्वहारा के पक्षधर थे। ग्रामीण परिवेश की पीड़ापरक स्थिति को देखकर व्यथित हो उठे। नागार्जुन कहते हैं:- निर्धन सामान्य जन का जीवन तो अभावग्रस्त होता है, उस पर यदि अकाल की छाया मंझरा उठे तो वह बहुत दर्दनाक हो उठता है। इसी का सजीव वर्णन नागार्जुन ने अपनी कविता ‘‘अकाल और उसके बाद’’ में किया है। नागार्जुन वर्तमान विषमता से सतत संघर्षशील रहने की प्रेरणा देते हुए भविष्य की मंगल आशा और आस्था को टूटने नहीं देते। नागार्जुन समय की प्रत्येक गति को परखते रहे हैं, युग की हर स्थिति को जाँचते रहे हैं। उनके लेखन की सम-सामायिक चेतना अति विशिष्ट है। फिर चाहें वे जन-पीड़ा हो, जन समस्याएँ हों, भूख बेकारी, आकाल की पीड़ा हो, ग्रामीण परिवेश हो, मंहगाई, भष्टाचार हो अथवा परिवेशगत कोई भी स्थिति या यथार्थ हो किसी न किसी रूप में उनके कथा-साहित्य में उभरा है। (क) नागार्जुन के उपन्यास और ग्रामीण संस्कृति बाबा नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण संस्कृति को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। ‘‘बलचनमा’’ उपन्यास में शादी तथा विदाई का दृश्य है जो गांवों की लोक-संस्कृति की अनूठी झलक लिये हुए है। इसी उपन्यास में ग्रामीण संस्कृति का और-और दृश्य है, जिसमें खेती में लगने वाली साग-सब्जी तथा अन्य वस्तुओं की ताजी-ताजी खुश्बू कृषक को मदमस्त कर देती है।स्वतंत्रता प्राप्ति से जुडे़ अनेक आन्दोलनों और उससे जुड़ी ग्रामीण राजनीतिक स्थिति का चित्रण नागार्जुन ने इस उपन्यास में किया है। इस उपन्यास में गरीबी, भुखमरी, तथा लाचारी का वर्णन किया गया है। ‘‘बलचनमा’’ उपन्यास का एक कथन इस प्रकार है - ‘‘ सुना है मेरा बाप दोपहर के समय बाग से दो किसुनभोग तोड़ लाया था। तोड़ते तो किसी ने देखा नहीं, मगर पुराने बखारों की ओट में बैठकर जब वह आम के छिलके उतार रहा तो किसी ने देख लिया और मालिक से चुगली कर दी, फिर क्या था मालिक आग-बबूला हो गया और बापू को पीटते-पीटते मार डाला। बाबू जी मरे तब उसी समय दादी को चैठाईया बुखार लगा हुआ था। कुछ मालिक से कुछ उधार लेकर जैंसे-तैसे क्रियाकरम हुआ। उसके बाद दादी और मां की राय हुई कि मैं मालिकों की किसी पटटी में चरवाहे का काम करूँ। दादी ने मना भी किया कि अभी खाने खेलने के दिन हैं, इसी समय जोत देगी तो गला सूख जायेगा। इस पर मां बोला थी कि अभी से पेट की फिकर नहीं करेगा तो लापरवाह हो जायेगा।’’[1] बलचनमा स्वयं एक ग्वाला था लेकिन उसके घर में दूध दही नाम मात्रा को भी नहीं थे। बलचनमा को अपने पिता के हत्यारों के घर में ही नौकरी करनी पड़ी। इसी मजबूरी और लाचारी को बाबा नागार्जुन ने इस उपन्यास के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। इस उपन्यास के माध्यम से स्वाधीनतापूर्व जमींदारों के शोषण और दमन का चित्रण बडे़ ही बारीकी से दिखाया है। मिथिला ग्रामीण जीवन का उत्कृष्ट यथार्थ अपनी इस रचना में नागार्जुन ने सम्पूर्ण प्रखरता के साथ चित्रित किया है। बलचनमा गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित तो रहता ही है साथ-ही साथ खेलने कूदने के दिनों में जमींदारों के यहां मजदूरी करने पर विवश है। ‘‘बाबा बटेसरनाथ’’ इस उपन्यास में बाबा नागार्जुन ने ग्रामीण संस्कृति तथा अंचालिक आर्थिकता का भरे पूरे खुशहाल घर का एक दृश्य है, जिसमें थोड़ी समझबूझ और चतुराई से किस प्रकार परिवार सम्पन्न हो सका उसी का चित्रण किया है। यह उपन्यास ग्राम्य जीवन में उत्थान, पतन एवं परिवर्तन का सामाजिक यथार्थ निरूपित करता है। इसको ‘‘बलचनमा’’ का पूरक भी कह सकते है। बाबा एक पुराने वटवृक्ष का मानवीय रूप है। गांवो में पनप रही गरीबी, अशिक्षा अन्धविश्वास आदि समस्याएँ ग्रामीणों के शोषण का एक बड़ा कारण बन जाती है। ये शोषणकर्ता होते हैं जमीदार, स्थानीय नेता, सेठ, साहूकार आदि। ग्रामीण जीवन के सुःख दुःख रूदन और अभाव अभियोगो का इसमें बड़ा ही सहज मर्मस्पर्शी चित्रण किया गया है। यह रूपाली गांव की कथा है। जमींदार उन्मूलन से सम्बन्धित है। आजादी से पहले तथा बाद की कहानी इस उपन्यास मंे बताई गई है यह आंचलिक उपन्यास है। स्वतंत्रता के पहले भारतीय राजनीति में किसका दबदबा था उसका उल्लेख इस उपन्यास में हुआ है। अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीति के चलते सारे देश में उथल-पुथल मची हुई थी। चारों ओर उत्पीडन, एवं शोषण का साम्राज्य छाया हुआ था। इस उपन्यास मे स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान दिखाया गया है। अंग्रेजो ने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करके भारत का शोषण करना शुरू कर दिया था। बाबा बटेसरनाथ किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। यह एक वृक्ष का नाम है जो हमारे सामने प्रतीक के रूप में है।जमींदारों ने किसान एवं मजदूरों का जमकर शोषण किया उनकी जमीनें हड़प लीं, उनके घर एवं जायदाद पर अधिकार कर लिया। बाबा बटेसरनाथ उपन्यास का कथन है - ‘‘ सौ वर्ष पहले दसअसल अपने इन इलाकों में जमींदार सर्वेसर्वा हुआ करता था। रिआया से बेगार लेना उसका सहज अधिकार था। वह रोब वह दबदबा, वह अकड़, वह जोर जुल्म क्या बताऊँ बेटा? छोटी औकात नीची जात के लोगों को यह कीड़े-मकोडे़ समझता ही था। लेकिन अच्छी हैसियत के भले व्यक्तियों से वक्त बे वक्त नाक रगड़वाता था जमीदार। रतिनाथ की चाची इस उपन्यास में नागार्जुन ने भारतीय समाज में अपमानित, तिरस्कृत, यातनापूर्ण जीवन जीने वाली स्त्रियों के जीवन का यथार्थ चित्रण किया है। नागार्जुन की मुख्य विशेषता या समस्या नारी की पराधीनता से मुक्ति है, और वे नारी के आत्मनिर्भर होने की कल्पना करते हैं। सम्पूर्ण हिन्दी कथा साहित्य में नारी के पराश्रित होने की दशाओं का मार्मिक चित्रण किया गया है। नागार्जुन के उपन्यासों में उपेक्षित या पिछड़े हुए मैथिल ग्रामीण अंचल के लोगो की सामाजिक आर्थिक संघर्ष की, उत्पीड़न और शोषण के विरूद्ध जन आन्दोलन की, किसानों मजदूरों के संघर्ष की, कथा कहना ही नागार्जुन का मुख्य उद्देश्य है। नागार्जुन ऐसे ही उपन्यासकार हैं, जिनका देश की समसामयिक राजनीतिक से गहरा सम्बन्ध रहा है। नागार्जुन के उपन्यासों में राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की यथार्थ अभिव्यक्ति मिलती है। गाँवों की पुरातन गरीबी और देश के औद्योगिक प्रतिष्ठानों के विकसित वैभव में कोई सम्राज्य प्रतीत नहीं हो रहा था जिसका नागार्जुन के उपन्यासों को पढ़कर अवलोकन कर सकते हैं। रचनात्मक स्तर पर जीवन के अनुभवों से मूल्यों की तलाश करना व समाज की अमानवीय, शोषणकारी व दमनकारी परिस्थितियों को ढूँढना पहचानना यही अर्थ था बाबा नागार्जुन के लेखन का।रतिनाथ की चाची में विधवा जीवन के अभिशाप और सामाजिक मान्यताओं के अनुसार अवैध रूप से प्रताड़ना को झेलती स्त्री का चित्रण है। इस उपन्यास का एक कथन दृष्टव्य है ‘‘ मैंने अपना सब कुछ जिसे सौंप दिया था, उस आदमी का दिल बहुत बड़ा है। पराये गर्भ को ढोने वाली अपनी प्रेमिका को फिर से, बिना किसी हिचक के उसने स्वीकार कर लिया है। उसने मुझसे शादी कर ली है।’’[1] नागार्जुन ने ब्राहम्ण समाज में विधवाओं की दुर्दशा का यथार्थवादी चित्रण किया है। नागार्जुन इस उपन्यास के माध्यम से बताना चाहते है कि पढ़-लिखकर स्त्रियां अपना जीवन ही नहीं सुधार पायेंगी बल्कि बेहतर समाज का निर्माण करेगी। ‘‘नई पौध’’ उपन्यास में नागार्जुन ने नई पीढ़ी के माध्यम से नई चेतना का विकास दर्शाया है। अन्याय एवं अत्याचार पर विजय को दिखाया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषक जमींदारों के अत्याचारों और शोषण से मुक्ति पाने के लिये संगठन बनाने लगे। उनमें नई सामाजिक चेतना का उदय हुआ। इस उपन्यास में गाँव के बड़े बुजुर्गो द्वारा बेमेल शादी के विरोध में युवाओं के उठ खडे होने की घटना है। इसमें बेमेल विवाह की समस्या है, जो हमारे ग्रामीण समाज में आज भी विकराल रूप में मौजूद है इस समस्या का समाधान नई पीढ़ी ही दे सकती है। ‘‘नई पौध’’ उपन्यास में अनमेल विवाह की समस्या इस प्रकार है - ‘‘आखिर एक दिन यह अफवाह उड़ गई कि आज शाम को खोंखा पंडित सौराठ से दूल्हा ला रहे हैं। शक्ल सूरत तो उसकी ठीक है, मगर उम्र अधिक है, बहुत बड़ा काश्तकार है। वह पांचवी बार दूल्हा बन रहा हैं।’’[1] गाँव के प्रगतिशील युवक इस विवाह का विरोध करते हैं और सफल भी हो जाते हैं नागार्जुन अनमेल विवाह का प्रमुख कारण ग्रामीण अंचल की आर्थिक दशा को मानते हैं। मिथिला जनपद के सौराठ में शादी के उम्मीदवारों का मेला लगता है। वहाँ पर नवयुवतियों का विवाह बूढ़े लोगो से करवा देते हैं। नागार्जुन ने भारतीय ग्रामीण समाज में व्याप्त कुरीतियों को निकट से देखा पहचाना है और प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाते हुये इस समस्या का समुचित समाधान भी खोजा है। ‘‘गरीबदास’’ इस उपन्यास में नागार्जुन ने सर्वहारा निम्न वर्ग का यथार्थ जीवन प्रस्तुत किया है। अछूत और गरीब वर्ग पूरा जीवन अपमान तिरस्कार और लांछन सहता गुजार देता है। नागार्जुन ग्रामीण कृषकों और मजदूरों को जाति वर्ग आदि से ऊपर उठकर सामंती चेतना से निकलकर संगठित करना चाहते हैं। जमींदार वर्ग ने किसान काश्तकार और मजूदरों को भूमि लगान के रूप में प्रत्यक्ष रूप से शोषित बनाया, और अब वही तरीका बदलकर सूदखोरी के रूप से शोषण होने लगा। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में चित्रित किया कि ग्रामीण अंचल के जो जमींदार थे उनके पैसे की मार भयाभय थी ही साथ ही शारीरिक मानसिक चोटों की यातना भी उस समय दुखी भरा कार्य था। नागार्जुन स्वयं भी ऐसे वर्ग से आए है, जिन्होंने खुद गरीबी देखी-भोगी है। गरीबदास उपन्यास में लक्ष्मणदास एक हरिजन व्यक्ति है, जिसने बस्ती में एक स्कूल खोला। बाबा गरीबदास उसे चलाने के लिये अपनी आय में से हर महीने तीस रूपये देते रहे। इस प्रकार आंरभ होकर यह स्कूल किस तरह आस-पास के इलाके की गतिविधियों का केन्द्र बन जाता है, यही इस उपन्यास की विषयवस्तु है नागार्जुन ने बताया है कि इस उपन्यास के जरिये कि किस प्रकार अछूत वर्ग के समाज में सुखद परिवर्तन के साथ भावी समाज की रूपरेखा में एक सुन्दर समाज की कल्पना ही इस उपन्यास का आदर्श है। ‘‘उग्रतारा’’ उपन्यास में नागार्जुन ने मूलतः अनमेल विवाह की समस्या को पुनः चित्रित किया है। यह एक वास्तविक घटना है। यह एक ग्रामीण क्षेत्र की कथा के रूप में सामने आता है। गाँव की एक लड़की है जो बाल विधवा हो गई है। उसको गाँव में एक प्रेमी मिलता है, जो गाँव में नहीं रह सकते और भाग जाते हैं। पुलिस उनको जबरदस्ती पकड़ती है और उर्दू का एक पर्चा लिखकर पुलिस उस लडके की जेब में डाल देती है और इल्जाम लगाया जाता है कि लडका युवती को भगाकर लाया है। लड़की को तीन महीने की जेल होती है और लड़के को नौ माह की।जब उगनी जेल से बाहर आती है तब उसका विवाह पचास साल के अधेड़ सिपाही से कर दिया जाता है। स्त्री-पुरूष के बीच उम्र का फासला किस तरह का माखौल उड़ा रहा था नागार्जुन लिखते है- ‘‘ बाबु भभीखन सिंह को कानूनी तौर पर इस बलात्कार का हक हासिल हुआ। उगनी को घर वाला तो जरूर मिल रहा था, पति नहीं मिल रहा था। उगनी कामेश्वर से विवाह करके प्रगतिशीलता का परिचय देती है।’’ बीच-बीच में पात्रों के अन्तर्द्वन्द को दिखाने के लिये इस उपन्यास में सरल शब्दों का प्रयोग हुआ जिससे पाठक इस कथा को आत्मसात कर सकें। (ख) नागार्जुन की कहानियां एवं ग्रामीण संस्कृति- बाबा नागार्जुन ने अनेक ग्रामीण संस्कृति पर अनेक कथाएँ लिखीं उनकी एक कहानी है। असमर्थदाता इसमें भिक्षावृत्ति को दिखाया गया है। नागार्जुन कथा साहित्य को यथार्थवादी जमीन पर खडा करने वाले तथा निम्न वर्ग के हितैषी लेखक थे।नागार्जुन की कहानियाँ पढ़ने के बाद ऐसा लगता है जैंसे उन्होंने अपने अनुभवों को घटनाओं को चुनकर कहानियों का रूप दिया। असमर्थदाता कहानी का मुख्य विषय आर्थिक स्थिति है। इनकी कहानियांे में ग्राम्य जीवन की विसंगतियां, विषमताएं बडी मार्मिकता से चित्रित हैं। असमर्थदाता कहानी का कथन- ‘‘बाबू जी, बाबू जी!’’ हैं, यह क्या ? मैने पीछे मुड़कर देखा तो एक नौ दस साल की मैली कुचैली लड़की मेरे कुर्ते का पिछला पल्ला पकडकर गिड़गिड़ारही थी। बाबू जी एक पैसा! मेरी मां अन्धी .... कहती जा रही थी और मैं उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये बहाना ढूढता जा रहा था। हट जा दूर हो। इस तरह अपनी रंजीदगी तो जाहिर की, लेकिन यह साहस नहीं हुआ कि उसे झकझोर कर आगे बढ़ जाऊं।[1] ‘‘भूख मर गई थी’’ यह कहानी भी भिक्षावृत्ति पर ही आधारित है। इस कहानी को पड़ने के बाद भिक्षावृत्ति की प्रवृत्ति के अन्तर को समझा जा सकता है। इस कहानी में बूढ़े पात्र को भिखारी की हालत में पहुँचाने में उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ ही प्रमुख कारण रहीं। इस दृष्टि से यह कहानी पाठक पर गहरा प्रभाव डालती हैं और बूढ़े व्यक्ति के प्रति सहानुभूति, दया, उत्पन्न करती है। यहां नागार्जुन ने यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाया है। ‘‘ममता’’ कहानी में मातृहीन लडके का अपनी चाची के प्रति स्नेह और वात्सल्य दिखाया गया है। ये कहानी मानवीय और सामाजिक समस्या के विभिन्न पहलुओं को उदघाटित करती है। नागार्जुन द्वारा रचित ममता कहानी का कथन इस प्रकार है - ‘‘मां की शक्ल-सूरत याद आते ही बुलो का कलेजा फटने लगा। माथें को घुटनों के बीच डालकर बुलो रोने लगा। बुलो ने धोती के खूंट से अपने आंसू पोंछे।[1] ‘‘जेठा’’ कहानी का जेठा अपनी मौसी के पास रहता है इस कहानी में पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है। नागार्जुन ने उत्तरी बिहार के दरभंगा जिले के ग्रामांचल को लेकर कहानियाँ लिखीं। कहानियों में ग्रामीण जीवन की विसंगतियाँ विषमताएँ बड़े ही सहज रूप से चित्रित की गई हैं। नागार्जुन द्वारा लिखी गई कहानियाँ बिहार प्रान्त के लोक जीवन की सच्ची तस्वीर खींचती हैं। ‘‘कायापलट’’ कहानी को नागार्जुन ने आजादी के बाद की ग्रामीण समस्या से उठाया है। भारतीय नवयुवकों के लिये कहानी एक आदर्श के रूप में चित्रित हुई।ये कहानियाँ ग्राम्य जीवन सन्दर्भ और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि समस्याओं को प्रभावी ढंग से उठाती हैं। नागार्जुन का उद्देश्य सामाजिक, अंतर्विरोधों की यथार्थ अभिव्यक्ति और उन समस्याओं से संम्बन्ध स्थापित करना है। बाबा नागार्जुन ने ऐतिहासिक कहानियां भी लिखीं हैं- विशाखामृगारमाता तथा हर्षचरित्र का पाकेट एडिशन, बुद्धकालीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का परिचय देती हैं। नागार्जुन की कहानियाँ संवेदना और विषय-वस्तु की दृष्टि से साधारण हैं जो पाठक के हृदय को भाव-विभोर कर देती हैं। समकालीन जीवन संदर्भ और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि समस्याओं को प्रभावी ढंग से उठाती हैं। नागार्जुन एक प्रगतिवादी कवि हैं। वह शोषण का विरोध करते हैं। नागार्जुन साहसी, निर्भीक, उग्र हैं। उन्होंने जेल यात्राएँ भी की हैं। यातनाऐं भी सही हैं। अपने अंचल के प्रति एक गहरी आत्मीयता और परिवेश की निकट पहचान का भाव ही नागार्जुन के उपन्यासों का सबसे बडा आकर्षण है। उनकी कहानियों में भी वेदना, पीड़ा के स्वर मुखरित होते हैं। भारत की जनसख्यां का अधिकांश भाग ग्रामवासी है। फलतः भारतीय गाँव विभिन्न राजनीतिक दलों के आकर्षण केन्द्र हैं। राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले चुनावों में अधिक से अधिक मतों की प्राप्ति इन्हींक्षेत्रों से होती है। भारतीय गाँव राजनीतिक दलों के मजबूत गढ़ बन चुके हैं। बाबा नागार्जुन स्वतन्त्रोत्तर हिन्दी के आंचलिक कथा साहित्य के सफल कथाशिल्पी हैं। उनके द्वारा रचित कथाकृतियाँ बिहार प्रदेश गाँव परिवेश की तस्वीर खींचती हैं। ‘‘आसमान में चन्दा तेरे’’ नामक कहानी संग्रह में संग्रहित नागार्जुन की कहानियाँ आज के समाज के विविध परिदृश्य को प्रस्तुत करती हैं। प्रगतिशील चेतना से सम्पन्न कथाकार नागार्जुन कविता, उपन्यासों की तरह कहानियों में भी जन-सामान्य की बात करते हैं। उनकी सामाजिक विषमताओं अन्र्तविरोधों को अपनी कहानियों में अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने ग्रामांचलों की प्राकृतिक पृष्ठभूमि और भोगैेलिक विविधता में मानवीय भावों और विचारों को वाणी प्रदान की।प्रेम, उत्पीडन, शोषण और क्रान्ति के जीवन पटल पर ग्रामीण पात्र उपस्थित हुए हैं। समाज तथा देश के विभिन्न अंगों में विद्यमान पाखण्ड, छल छदम तथा रूढ़िवादी मान्याए एवं अंधानुकरण पर वह डटरकर प्रहार करते हैं। नागार्जुन ने बदलते हुऐ मानवीय जीवन के मूल्यों को भी अपने उपन्यासों, कहानियों का विषय बनाया। आज की वर्तमान समस्याओं एवं समाज की संक्रमणशील सामाजिक स्थितियों के चित्रांकन करने में बाबा नागार्जुन अग्रणिम हैं। उन्होने जनता को जागरूकता आत्मशक्ति का विकास किया। नागार्जुन की दलितों के प्रति पक्षधरता, नारी के प्रति मर्यादा यथार्थ की अभिव्यक्ति उनकी कहानियों में चित्रित हुई हैं। नागार्जुन ने तथ्यों को आसानी से भांपा है। आर्थिक आजादी न मिलने का नतीजा गाँव के मजदूर किसानों को कैसे झेलना पड़ता था उसका चित्रण नागार्जुन ने अपनी रचनाओं में किया। नागार्जुन ने जनता के संघर्ष को अपने देश की माटी से जोड़ने की और सामान्य लोगों के सामान्य दुःख-दर्दो की प्रभावशाली अभिव्यक्ति की नागार्जुन ने अपने कथा साहित्य में सामाजिक आर्थिक रूढ़ियों, अंध विश्वासों पाखण्डों गली-खडी पुरातन पंथी परम्पराओं को अपने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से पाठकों के सम्मुख रखकर उससे जनता को अवगत कराया। इससे दलित व्यक्ति या समाज में चेतना की लहर दौड़ गई। |
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निष्कर्ष |
संक्षेप में कहा जा सकता है कि बाबा नागार्जुन एक प्रगतिवादी लेखक है। समाज में चारों ओर व्याप्त विकृतियों को देखा। उसी को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। नागार्जुन ने शोषित, पीड़ित ग्रामीण संस्कृति के जन सामान्य के प्रति सहानुभूति प्रकट की। उनके उपन्यासों में कहानियों में आम जनता का दुःख दर्द चित्रित हुआ है। नागार्जुन के कृतित्व-व्यक्तित्व के अन्तर्गत उनके उपन्यासों का ऐसा चित्रण सामने आता है जो पाठक को जनजीवन के अत्यन्त निकट ले जाता है। नागार्जुन ग्रामीण अंचल की कुरीतियां, अंधविश्वास, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं का यथार्थ रूप अपने कथा-साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। वे सामान्य जन तथा पाठक को इन समस्याओं से अवगत कराते हैं।ग्रामीण परिवेश में पनपे बाबा नागार्जुन सर्वहारा के पक्षधर थे। अकाल की पीड़ा, महंगाई, भ्रष्टाचार, परिवेशगत कोई भी स्थिति या यथार्था किसी न किसी रूप से उनके साहित्य में उभरा।ग्रामांचलों की उनकी सभी विशेषताओं के साथ साहित्य में स्थान प्राप्त हुआ है। नागार्जुन के उपन्यास तथा कहानियाँ ग्रामीर्ण अंचल के मानव-अनुभवों एवं सत्य का आंकलन करते हैं। नागार्जुन स्वयं ग्रामीण अंचल से थे, इसलिये उनके कथा साहित्य में ग्रामांचलों का यथार्थ रूप चित्रित हुआ है। सभी समस्याओं का यथार्थ रूप प्रस्तुत करना नागार्जुन के लेखक कार्य की प्रमुख विशेषता है। वे न शासन से डरते थे न शोषक से। स्त्री समस्याओं का भी नागार्जुन ने यथार्थवादी चित्रण किया है।लोक संस्कृति का रूपायन नागार्जुन ने विशेष रूप में किया है। उनके लेखन कार्यो में ग्रामीण अंचल के लोग ही विषय केन्द्र रहे, चाहें वे ग्रामीण कृषक हो या मजदूर, सभी के प्रति नागार्जुन ने सहानुभूति प्रकट की।उन्होने गाँव के निम्न वर्गीय पात्रों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाया। उन्होने न केवल सामाजिक समस्याओं को चित्रित किया। बल्कि उसका समाधान भी प्रस्तुत किया। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. नागार्जुन का रचना संचयन - राजेश जोशी-साहित्य अकादमी-नई दिल्ली 2021
2. आंचलिक उपन्यास और नागार्जुन - श्री जीवाभाइ परमार
3. नागार्जुन के उन्यासों की कथा भूमि - डां॰ प्रफुल्ल कुमार मिश्र-ंapnimaati.com/2014/08
4. लोक सरोकारों के कवि नागार्जुन -SRIJAN SHILPI – https//srijanshilpi.com/?p=75
5. लोक नागार्जुन (यात्री जी) कालजयी रचनाकार, विद्रोही कवि by Darbhanga Express – 20 May 2018
6. नागार्जुन - बलचनमा उपन्यास - प्रकाशक वाणी प्रकाशन- प्रकाशन वर्ष 2002pustak.org
7. नागार्जुन - बाबा बटेसरनाथ उपन्यास-premnarayan Pandey blogspot.com- 15 Sep. 2016
8. नागार्जुन - रतिनाथ की चाची उपन्यास - पृष्ठ सं 1 - प्रकाशन वर्ष 21 अगस्त 2012adhyakosh.org
9. नागार्जुन - नई पौध उपन्यास - पृष्ठ सं 30 - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
10. नागार्जुन - उग्रतारा - पृष्ठ सं 35- वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
11. नागार्जुन - असमर्थदाता कहानी - पृष्ठ सं - 238 वाणी प्रकाशन दिल्ली
12. नागार्जुन - ममता कहानी - पृष्ठ सं. 253 वाणी प्रकाशन नई दिल्ली |