P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VI , ISSUE- XII March  - 2022
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र का उद्भव और विकास
Emergence and Growth of Sociology in South Africa
Paper Id :  15991   Submission Date :  07/03/2022   Acceptance Date :  21/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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निरंजन कुमार सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
समाज शास्त्र विभाग
फ़ीरोज़ गाँधी कॉलेज
राय बरेली,उत्तर प्रदेश
भारत
सारांश दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र की शुरुआत 20वीं शताब्दी के पहले दशक के प्रारंभ में यहां के 'मूल समस्या' और 'गरीब सफेद समस्या' के हल करने में इसकी योग्यता के कारण एक व्यावहारिक विषय के रूप में हुई। दक्षिण अफ्रीका में गरीबी पर गठित कार्नेगी आयोग की सिफारिश पर 1930 के बाद यहां के विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभागों की स्थापना हुई। रंगभेद यहां बहुत दिनों तक सरकारी नीति का हिस्सा रहा है जिसकी स्पष्ट छाप यहां के समाज शास्त्र पर देखा जा सकता है कि कैसे भाषा और नस्ल के आधार पर यहां विश्वविद्यालय खुले। समाजशास्त्र में कालों और गोरों ने अलग-अलग संगठन बना लिए और स्थानीय भाषाओं में प्रकाशन होने लगे। 1994 में रंगभेद के औपचारिक समाप्ति के बाद दक्षिण अफ्रीकी समाजशास्त्र तेजी से अंतरराष्ट्रीय होने के साथ-साथ अफ्रो- सेंट्रिक मोड़ भी ले लिया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Sociology began in South Africa as a practical discipline in the early first decade of the 20th century because of its ability to solve the 'native problem' and the 'poor white problem'. After 1930, on the recommendation of the Carnegie Commission on Poverty in South Africa, sociology departments were established in its universities. Apartheid has been a part of government policy here for a long time, whose clear impression can be seen on the sociology here, how universities were opened here on the basis of language and race. Blacks and whites formed separate organizations in sociology and publications in local languages began to take place. After the formal end of apartheid in 1994, South African sociology took an increasingly international as well as Afro-centric turn.
मुख्य शब्द कार्नेगी आयोग, रंगभेद, अफ्रीकानेर, नस्ली बंटवारा, अफ्रोसेंट्रिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Carnegie Commission, Apartheid, Afrikaner, Racial Segregation, Afro-centric.
प्रस्तावना
दक्षिण अफ्रीका में समाज शास्त्र का इतिहास 100 वर्ष से भी अधिक पुराना है। यहां समाजशास्त्र की शुरुआत 1900 के दशक प्रारंभ में यहां की ’मूल समस्या’ और ’गरीब सफेद समस्या’ को हल करने की इसके संभावित क्षमता के कारण एक व्यावहारिक सामाजिक विज्ञान के रूप में हुई। चूंकि इस विषय का एक व्यावहारिक महत्व था, इसीलिए 1930 के दशक के बाद से सभी दक्षिण अफ्रीकी विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई। दक्षिण अफ्रीका रंगभेद की समस्या से भी गंभीर रूप से जूझता रहा है। रंगभेद की नीति को बहुत दिनों तक सरकारी संरक्षण प्राप्त रहा है जिसका प्रभाव दक्षिण अफ्रीका के समाजशास्त्र पर साफ देखने को मिलता है । यहां भाषा और नस्ल के आधार पर विश्वविद्यालयों का विभाजन, समाजशास्त्रीय संगठनों का विभाजन और प्रकाशन का विभाजन भी दिखता है।
अध्ययन का उद्देश्य इस अध्ययन का उदेश्य दक्षिण अफ्रीका में समाज शास्त्र के उद्भव एवं विकास का एक क्रमबद्ध अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
आर. सूर्यमूर्थी[1] (2016) ने दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र की शुरुआत और उसकी वर्तमान स्थिति और उसका भविष्य का एक व्यापक अध्ययन किया है। उन्होंने ऐतिहासिक और साइंटोमेट्रिक आंकड़ों के मदद से यह दिखलाया है कि कैसे बदलती राजनीतिक स्थिति (उपनिवेशवाद - रंगभेद- लोकतंत्र की बहाली) ने दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र को प्रभावित किया है। केन जब्बर[2] (2007) ने अपने आलेख में दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र का परिचय और एक संक्षिप्त ऐतिहासिक समीक्षा की है। उन्होंने बताया है कि देश की ’मूल समस्या’और ’गरीब सफेद समस्या’ में महत्वपूर्ण भूमिका के कारण समाजशास्त्र की आरंभ 1900 के दशक के शुरुआत में एक व्यावहारिक सामाजिक विज्ञान के रूप में हुई थी। इसके व्यावहारिक मूल्य के कारण ही 1930 के दशक के बाद से सभी दक्षिण अफ्रीकी विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग स्थापित हुए। इनका यह शोध पत्र संक्षेप में दक्षिण अफ्रीका के पेशेवर समाजशास्त्रीय संघों और जर्नल्स के इतिहास का पता लगाता है। यह रंगभेद और रंगभेद के बाद के अनुसंधान और प्रकाशन पर प्रमुख अनुसंधान चिंताओं और टिप्पणियों की पहचान करता है। एडवर्ड वेबस्टर[3] ने माइकल बुरावॉय के दक्षिण अफ्रीकी समाजशास्त्र के विश्लेषणात्मक इतिहास पर टिप्पणी की है। इनकी टिप्पणी तीन भागों में विभाजित है। पहले भाग में इन्होंने दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र के विकास की जांच हेतु माइकल बुरावॉय के विश्लेषणात्मक श्रेणियों का उपयोग किया है। दूसरे भाग में इन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सार्वजानिक समाजशास्त्र के प्रैक्टिस से जो कुछ भी सीखा है उसे ढूंढने की कोशिश की है और अंत में उन्होंने समकालीन दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र के क्षरण का परीक्षण किया है। पीटर एलेग्जेंडर, लॉरेन बासन और प्रूडेंस मखुरा[4] (2006) के अध्ययन दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र में शोध की स्थिति पर केंद्रित है। अध्ययन यह दर्शाता है कि पिछले 12 वर्षों में दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र में स्नातकों,परस्नतकों और डॉक्टरेट की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है परंतु शोध की गुणवत्ता में गिरावट आई है। जहां तक प्रकाशन की बात है तो महिलाओं द्वारा प्रकाशन में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिलती है परंतु अश्वेत विद्वानों द्वारा प्रकाशन में नगण्य वृद्धि हुई है। हालांकि यह अध्ययन दक्षिण अफ्रीका समाज शास्त्र की स्थति के निराशाजनक आकलन को खारिज करता है और यह वकालत करता है कि स्थानीय स्तर पर विभिन्न पहलुओं को एक साथ रखकर समाज शास्त्र को एक एकीकृत और संलग्न सामाजिक विज्ञान के केंद्र में रहना चाहिए। माइकल बुरावॉय[5] (2004) के अध्ययन के अनुसार यदि अमेरिकी समाज शास्त्र को उसकी पेशेवरता और रुसी समाज शास्त्र को उसके बाजार द्वारा परिभाषित किया जाता है तो दक्षिण अफ्रीकी समाजशास्त्र को सार्वजनिक मुद्दों के साथ जुड़ाव द्वारा परिभाषित किया जाएगा। रंगभेद के पहले दो दशकों के दौरान समाज शास्त्र को अंग्रेजी और अफ्रीकानेर विश्वविद्यालयों में एक रूढ़िवादी पेशे के रूप में विकसित किया गया। 1970 के दशक में दक्षिण अफ्रीकी समाजशास्त्र ने एक आलोचनात्मक मुद्रा की ओर रुख किया 1980 के दशक में आलोचनात्मक समाजशास्त्र रंगभेद विरोधी आंदोलन के बारे में सार्वजनिक बहस में मार्क्सवाद को शामिल किया। यहां एक विशेष प्रकार का सार्वजनिक समाजशास्त्र मिलता है, इसे मुक्ति का समाजशास्त्र कहा जा सकता है। यह अमेरिका के अति पेशेवर समाजशास्त्र के काफी भिन्न था क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के समाजशास्त्री स्वदेशी मुक्ति आंदोलन के जैविक बुद्धिजीवियों के रूप में कार्य कर रहे थे। ये अधिकांश मार्क्सवादी मुद्दों के साथ जुड़े थे जैसे श्रमिक आंदोलन, नागरिक संघों का विस्तार, गरीबी, स्वास्थ्य और शिक्षा और हिंसा आदि। रंगभेद नीति की समाप्ति के बाद वामपंथी प्रभुत्व कमजोर पड़ा है, निगमों और सरकार में समाज शास्त्रियों की भूमिका बढ़ी है और समाजशास्त्र में पेशेवरता भी बढ़ी है। सेपीदेश अल्वंड आजारी और आरी सीतास[6] (2017) ने दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र के विकास को चार चरणों में बांटकर देखा है जिसमें पहला चरण दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र का शुरुआती वर्ष, दूसरा चरण 1950 से 1973 तक का है, तीसरा चरण 1973 से 94 और चौथा चरण रंगभेद की नीति की समाप्ति के बाद का समाजशास्त्र है जो 1994 से वर्तमान तक है।
मुख्य पाठ

अफ्रीका की धरती पर पहली बार जुलाई 2006 में डरबन में इंटरनेशनल सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन (आई.एस.ए.) के तत्वाधान में समाजशास्त्र का  वर्ल्ड कांग्रेस आयोजित हुआ था। यह आई. एस. ए. का 16वां वर्ल्ड कांग्रेस था। इसके पहले दुनियां में बहुत कम लोग ही दक्षिण अफ्रीका के समाज शास्त्र के बारे में गहराई से जानते थे। दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र के विकास को चार चरणों में बांट कर देखा जा सकता है।

 पहला चरण (1900 - 1930)

1902 में साउथ अफ्रीकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस का गठन हुआ। इसने सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानो  में वैज्ञानिक शोध पत्रों के प्रस्तुति के लिए एक प्लेटफार्म प्रदान किया। 1903 में केप टाउन के फिलोसॉफी के प्रोफेसर एच. ई. एस. फ्रीमेंटल ने साउथ अफ्रीकन एसोसिएशन के पहले कॉन्फ्रेंस में ’द सोशियोलॉजी ऑफ़ कुम्ट विद स्पेशल रेफरेंस टू पॉलीटिकल कंडीशंस ऑफ यंग कंट्रीज’ शीर्षक से शोधपत्र  पढ़ा। इसी कॉन्फ्रेंस में समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में मान्यता भी मिली। 1919 में यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ अफ्रीका में साउथ अफ्रीकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस के वकालत के बाद समाजशास्त्र में परिचयात्मक पाठ्यक्रम की शुरुआत हुई, और 1921 में यूनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन में मानव शास्त्र विभाग खुला जिसके विभागाध्यक्ष ए आर रेडक्लिफ ब्राउन थे।

दूसरा चरण (1930 - 1960)

द्वितीय दक्षिण अफ्रीकन युद्ध जो 11 अक्टूबर 1899 से 31 मई 1902 तक चला, में बड़ी संख्या में लोग मारे गए और भारी संख्या में लोग प्रवासित हुए।भीषण गरीबी और रेसियल मिक्सचर जनित समस्यायें थीं जैसे - पहचान समाप्ति का संकट अथवा नस्लों की मिलावट की समस्या। इन समस्याओं ने कई सारे संगठनों को कल्याण की ओर ध्यान आकर्षित किया और इसी क्रम में साउथ अफ्रीकन डच रिफॉर्म चर्च ने न्यूयॉर्क के कार्नेगी कॉर्पोरेशन से स्टडी ऑफ पुअर वाइट्स इन साउथ अफ्रीका के लिए फंड की अपील की। निगम अध्ययन के लिए फंड के लिए सहमत हुआ और अध्ययन के लिए कार्नेगी आयोग का गठन हुआ। कार्नेजी आयोग ने 1929 में अध्ययन आरंभ किया और 1932 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।अध्ययन का जो लोग निर्देशन कर रहे थे उन लोगों ने अध्ययन में समाजशास्त्र की उपयोगिता को महसूस किया। इसीलिए दो अमेरिकी समाजशास्त्री बटरफील्ड और कूल्टर की नियुक्ति इस अध्ययन में सहायता के लिए की गई। कार्नेगी आयोग के अध्ययन का समाजशास्त्र के संस्थाकरण पर सीधा प्रभाव पड़ा और साथ ही प्रारंभिक समाजशास्त्र के रिसर्च एजेंडा  भी प्रभावित हुआ। समाजशास्त्र के व्यवसायिक महत्व को कार्नेगी आयोग ने रेखांकित किया। परिणामस्वरूप दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई जैसे- 1931 में प्रिटोरिया विश्वविद्यालय में, 1932 में स्टेलेंबॉस विश्वविद्यालय में, 1934 में केपटाउन विश्वविद्यालय में,1937 में विटवेटर्सस्रैंड विश्वविधालय में, 1937 में पॉचेफ्स्ट्रूम विश्वविधालय में,1937 में नटाल विश्वविधालय में और 1939 में ऑरेंज फ्री स्टेट में।

दक्षिण अफ्रीका के प्रथम पीढ़ी के प्रमुख समाज शास्त्रियों में कई नाम लिए जा सकते हैं जैसे -  हेंड्रिक वर्वर्ड स्टेलेंबोश विश्वविधालय में समाजशास्त्र और समाज कार्य में प्रोफेसर थे ।इनकी नियुक्ति यहां 1932 में हुई थी। वे मनोविज्ञान में पीएच. डी. थे। वे यूरोप में पढ़े थे और इनका मुख्य अध्ययन सामाजिक समस्याओं विशेष कर गरीबी पर है। दूसरा नाम ज्योफ्री क्रोंजे का है जो प्रेटोरिया  विश्वविद्यालय में थे और रंगभेद नीति के प्रबल समर्थक रहे हैं। ये यूरोप में पढ़े थे और नेशन व लोग इनके अध्ययन के मुख्य विषय रहे हैं। इनका गरीबी पर भी काम है और फैमिली लाइफ और फैमिली पैथोलॉजी पर भी।  डिटरमिनिज्म इन सोशियोलॉजी(1937) और वूमेंस रोल इन मैरिज (1959) इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। इन्होंने रंगभेद पर भी पुस्तकें लिखीं। एडवर्ड बैट्सन केप टाउन विश्व विद्यालय में 1934 में नियुक्त हुए थे। गरीबी को इन्होंने पॉवर्टी डेटम लाइन फार्मूला द्वारा ऑपरेशनलाइज किया जो इन्होंने साउथ अफ्रीका के लिए निर्मित किया था। गरीबी बेरोजगारी और सामाजिक रूग्णता पर भी इन्होंने अध्ययन किया। अगला नाम जॉन ग्रे का है जो 1937 में विटवेटरस्रैंड विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए थे। इन्होंने लिविंग  कंडीशंस ऑफ ब्लैक पीपल ऑफ साउथ अफ्रीका पर अध्ययन किया। इनकी एक प्रमुख पुस्तक  सोशियोलॉजी एंड द प्रैक्टिकल मैन काफी चर्चित रही जो 1937 में प्रकाशित हुई थी। 1940 - 50 के बीच कई वरिष्ठ नियुक्तियां भी हुईं  जैसे स्टेलनबॉस और विटवेटरस्रैंड विश्वविद्यालय में ओलाफ वेगनर, स्टेलेंबोस विश्वविद्यालय में बर्थहॉल्ड पौ, और एस.पी.सिलियर्स एवं रहोड्स में जेम्स आर्विंग। इन सब में सबसे ज्यादा प्रभावशाली एस.पी. सिलियर्स रहे हैं। इन्होंने टालकट पारसंस के मार्ग दर्शन में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ा और दक्षिण अफ्रीका में संरचनात्मक - प्रकार्यवाद को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1950- 60 का दशक दक्षिण  अफ्रीका में संरचनात्मक - प्रकार्यवाद का दशक था। एस.पी.सिलियर्स ने दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र को समाज कार्य से अलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

तीसरा चरण (1960- 1994)

1948 मैं  नेशनल पार्टी  के सत्ता में आने के बाद रंगभेद नीति को बढ़ावा मिला और नस्ली बंटवारा का संस्थाकारण हो गया । रंगभेद के तर्क और अफ्रीकानेर नेशनलिज्म के विचारधारा के अनुरूप उच्च शिक्षा के अफ्रीकेनर संस्थान और  काले लोगों के लिए अलग से विश्वविद्यालय बने। दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख इंडिजिनियस नृजातीय समूह और  कलर्ड के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। उदाहरण के लिए इंडियन के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ डरबन, सोथो के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ दी नॉर्थ, जुलु समुदाय के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ जुलूलैंड, कलर्ड के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ वेस्टर्न केप, झोसा समुदाय के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ ट्रांसकेई, वेंडा समुदाय के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ वेंडा और त्सवाना समुदाय के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ बोफुथात्सवाना।  सभी विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र के विभाग शुरू से ही स्थापित किए गए। पुराने विश्वविद्यालयों में भी 1960,70 और 80 के दशक में समाजशास्त्र के विद्यार्थियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालय भी भाषा के आधार पर बंट गए। एक तरफ अंग्रेजी भाषा विश्वविद्यालय और दूसरी तरफ अफ्रीकी भाषा विश्वविद्यालय। समाजशास्त्र में भी विद्यार्थियों का भाषागत विभजन हो गया। परिणाम स्वरूप 1960 और 1970के दशक में दोनों तरह के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले लोगों में एक प्रवृत्ति उभर कर आई कि प्रत्येक अपनी-अपनी भाषाओं में पब्लिकेशन करने लगे । 1967 में साउथ अफ्रीकन सोशियोलॉजिक एसोसिएशन (एस. ए. एस. ए.) की स्थापना हुई जो की  वास्तव में व्हाइट ओन्ली सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन था। हालांकि बहुत सारे अंग्रेज़ी भाषी समाजशास्त्रियों ने इसका विरोध करते हुए इसकी सदस्यता लेने से इंकार कर दिया पर यह भी सच है कि  दक्षिण अफ्रीकी समाज शास्त्री भाषा और नस्ल के आधार पर दो गुटों में बंटे थे। 1971 में साउदर्न अफ्रीकन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन (ए. एस. एस. ए.) का गठन हुआ जिसकी सदस्यता सभी नस्लों के लिए खुली थी। अब दो अलग- अलग एसोसिएशन थे और अलग अलग पब्लिकेशंस। 1980 के बाद से दक्षिण अफ्रीका की राजनीति बदलने लगी, परिणामस्वरूप दोनो एसोसिएशन के बीच मतभेद काम होने लगे और 1992 में उनका विलय हो गया और एक मात्र सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन, साउथ अफ्रीकन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन (एस. ए. एस. ए.) की स्थापना हुई, जो नस्ल निरपेक्ष था।

चौथा चरण (1994 से अब तक)

1994 में रंगभेद नीति की औपचारिक समाप्ति के बाद बड़ी संख्या में समाज शास्त्रियों ने सरकार में शामिल होकर नई सरकारी नीतियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ’दशकों के अकादमिक अलगाव के बाद समाजशास्त्र तेजी से अंतरराष्ट्रीयकरण की ओर बढ़ा और एक गंभीर अफ्रोसेंट्रिक मोड़ की शुरुआत हुई।1995 से अपने बियोंड अफ्रोपेसिमिस्म नारे के साथ साउथ अफ्रीकन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन (एस. ए. एस. ए) ने अफ्रीकी और दक्षिण विद्वत जनों के कार्य और उनकी गतिविधियों के नेटवर्क को एकीकृत करने की मांग की है।’ वर्ष 2006 में XVI आई. एस. ए. वर्ल्ड सोशियोलॉजिकल कांग्रेस का आयोजन भी डरबन में हुआ जिसका थीम था- द क्वालिटी ऑफ सोशल एक्सिस्टेंस इन ए ग्लोबलाइज्ड वर्ल्ड। इससे बाद से दुनियां के समाजशास्त्रियों से यहां के समाजशास्त्रियों की अंतः क्रिया बढ़ी है।

निष्कर्ष दक्षिण अफ्रीका में समाजशास्त्र का 100 वर्षों से अधिक का इतिहास रहा है। यहां इसकी शुरुआत एक व्यावहारिक विषय के रूप में हुई । बहुत दिनों तक समाजशास्त्र और समाजकार्य यहां के अधिकांश विश्वविद्यालयों में साथ साथ चलते रहे हैं। 1932 के कार्नेगी आयोग के सिफारिश पर दक्षिण अफ्रीका के अधिकांश विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई। दक्षिण अफ्रीका में बहुत दिनों तक रंगभेद सरकारी नीति का हिस्सा रहा है जिसका प्रभाव यहां के समाजशास्त्र पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। डरबन में आयोजित 2006 के वर्ल्ड सोशियोलॉजिकल कांग्रेस के बाद दुनिया के समाज शास्त्रियों से यहां के स्थानीय समाज शास्त्रियों का अंतः क्रिया बढ़ी है और यहां के समाजशास्त्र में पेशेवरता की जो कमी रही है उसमें आगे सुधार होने की प्रबल संभावना दिखती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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