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आधुनिक काल में भारतीय इतिहास के लेखन के उपागम |
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Approaches to Writing Indian History in The Modern Period | |||||||
Paper Id :
19097 Submission Date :
2024-07-15 Acceptance Date :
2024-07-21 Publication Date :
2024-07-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.13234117 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
भारतीय इतिहास लेखन ने भारत में यूरोपियों के आगमन के साथ न केवल, उपागम उपचार और तकनीक में अपितु ऐतिहासिक साहित्य की मात्रा में भी प्रबल परिवर्तन को अनुभव किया। इतिहास लेखन (हिस्टोरियोग्राफी) इतिहास का ऐतिहासिक लेखन या व्याख्या है। इतिहास एक ऐसी जानकारी नहीं है जिसे अपरिवर्तित रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपा जाए। ऐतिहासिक परिस्थितियों की व्याख्या की जानी चाहिए और स्पष्टीकरण प्रमाणों के विश्लेषण पर आधारित होने चाहिए, तर्क-वितर्क से उपजे सामान्यीकरण प्रदान किये जाने चाहिए। नवीन प्रमाणों के साथ उन तरीकों तथा शैलियों के प्रति संवेदनशीलता की आवश्यकता है जिसमें उस समय के लोग जीवन -यापन करते थे और अपने अतीत के बारें में सोचते थे। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian history writing experienced a major change with the arrival of Europeans in India, not only in approach, treatment and technique but also in the volume of historical literature. Historiography is the historical writing or interpretation of history. History is not information that is handed down from generation to generation in an unchanged form. Historical situations must be interpreted and explanations must be based on analysis of evidence, providing generalizations resulting from reasoning. Along with new evidence, sensitivity is required to the ways and styles in which people of the time lived and thought about their past. | ||||||
मुख्य शब्द | भारतीय इतिहास लेखन, ऐतिहासिक परिस्थितियाँ, हिस्टोरियोग्राफी। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian History Writing, Historical Circumstances, Historiography. | ||||||
प्रस्तावना | इतिहास लेखन के उपागम ज्ञान के रूप में इतिहास को समझने की भूमिका बन जाते है। व्यापक रूप से इतिहास के चार संप्रदाय (स्कूल) है। |
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अध्ययन का उद्देश्य |
प्रस्तुत शोधपत्र आधुनिक काल में भारतीय इतिहास के लेखन के उपागम के औचित्य को समझने का एक प्रयास है । |
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साहित्यावलोकन |
प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न शोधपत्रों, पुस्तकों, उपन्यासों आदि का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
औपनिवेशिक आधुनिक भारत में इतिहास लेखन का आंरभ औपनिवेशिक काल में हुआ। अंग्रेजी विद्वानों द्वारा साम्राज्य के स्थायित्व हेतु भारतीय इतिहास का अध्ययन किया गया ताकि भारतीय रीति रिवाजों, परंपराओं व कानूनों को समझ कर नये तथ्यों का अन्वेषण किया जा सकें जो औपनिवेशिक हित के अनुकूल हों। इस हेतु संस्कृत का ज्ञानार्जन किया, भारतीय भाषाओं के शब्दकोष व व्याख्या ग्रंथ लिखें, धर्मग्रन्थों का अनुवाद, भारतीय सभ्यता की साम्यता यूरोप से बैठाने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन के उपरांत उन्होनें पाया कि - 1. भारतीय इतिहास चक्रीय अवधारणा पर विश्वास करते है जबकि रेखीय अवधारणा का विलोपन है। 2. ईसाई धर्म, हिन्दु धर्म से बिल्कुल अलग है, इसका कोई संस्थापक, स्थापना वर्ष, एकेश्वरवादी, कोई अनुलंघनीय सिद्वांत नहीं है। 3. धर्म, जाति से घनिष्ठ रूप में जुड़ा हुआ। उपरोक्त अध्ययन के उपरांत इन अंग्रेज लेखकों ने हिन्दु धर्म कों अपने लेखन के माध्यम से संहिताबद्व किया जो वास्तविक हिन्दू धर्म से काफी भिन्न था। इस प्रकार के प्रारभिंक ब्रिटिश इतिहासकारों में राबर्ट आर्मे , फ्रांसीसी ग्लेडबिन, विलियम, रॉबर्टसन प्रमुख है। औपनिवेशिक इतिहास लेखन तीन चरणों में हुआ यथा-प्राच्यवादी, उपनिवेशवादी तथा केम्ब्रिज लेखन है। प्राच्यवादी (इंडोलॉजिस्ट) 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट के बाद प्राच्यवादी इतिहास लेखन प्रारम्भ हुआ जिसका उपयोगितावादी/साम्राज्यवादी/उपनिवेशवादी विरोधी थे क्योंकि यह भारतीय इतिहास के प्रशंसक थे। प्राच्यवादी प्रमुख इतिहासकार फ्रांसीसी ग्लेडविन, मेथेनियल हेलहेड, चार्ल्स विलकिन्स, जोनाथन डंकन, विलियम जोंस, कोलब्र्रुक, जेम्स प्रिसेप, अलेक्जेण्डर कंनिघम थे। वारेन हेस्टिस, विलियम जेम्स और प्रारम्भिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा संस्कृतिकरण द्वारा उन्हें ग्रहण करने की बजाय हिन्दु और मुस्लिम भाषाओं और संस्थाओं के संरक्षण के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश प्रभुत्व बनाए रखने की कोशिश की। [1] प्राच्यवादियों की विशेषता 1. भारतीय भाषा, संस्कृति, साहित्य पर अकादमिक वाद - विवाद किया जाता था हालांकि भारतीयों को भाग लेने की अनुमति नहीं थी। 2. भारतीय इतिहास को यूरोप से जोड़ने का प्रयास किया, साथ ही भारतीय इतिहास पर यूरोपीय श्रेष्ठता थोपने का प्रयास किया यथा संस्कृत व लैटिन को भारोपीय परिवार मानकर इसकी उत्पति यूरोप से मानी, आर्य यूरोपीय प्रजाति थी, जिसने वैदिक सभ्यता बसायी, आर्य-अनार्य संघर्ष का विवरण देकर आर्यो को बाहरी बताने का प्रमाण दिया, भारतीय देवी-देवताओं की सभ्यता यूरोपीयन से बैठाने का प्रयास किया गया। 3. भारतीय इतिहास लेखन को इतिहास दृष्टि (वस्तुनिष्ठता) न होकर रोमांटिज्म (भावनात्मक) थी। 4. भारतीय सभ्यता को अध्यात्मक का केन्द्र माना अर्थात मैक्समूलर का मत है भारतीय लोग इहलोक की बजाय परलोक व आध्यात्म में डूबे रहते है। भारत दार्शनिकों का देश है। राष्ट्रीयता की भावना का अभाव है। उपनिवेशवादी उपागम 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में, ओरिएंटलिस्ट शब्द का इस्तेमाल ऐसे विद्वान के लिए किया जाता था जो पूर्वी दुनिया की भाषाओं तथा साहित्य में विशेषता रखते थें। ऐसे विद्वानों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी शामिल थें, जिन्होनें कहा कि अरब संस्कृति, भारतीय संस्कृति तथा इस्लामी संस्कृतियों का अध्ययन यूरोप की संस्कृतियों के बराबर किया जाना चाहिए।[2] भारत में कंपनी के शासन में भारतीयों के साथ सकारात्मक संबध विकसित करने और बनाये रखने की तकनीक के रूप में ओरिएंटलिज्म का समर्थन किया। 1820 के दशक तक, मैकाले और जॉनस्टुअर्ट मिल जैसे एंग्लसिस्ट के प्रभाव ने पश्चिमी शैली की शिक्षा को बढ़ावा दिया। ये लेखन प्राच्यवादियों का विरोधी था क्योंकि इस पर इंवेजिकल चर्च का प्रभाव तथा बेंथम के उपयोगितावाद से प्रभावित था। इंवेजिकल चर्च के कारण ईसाई धर्म का प्रसार था, इस हेतु भारतीय समाज, संस्कृति, इतिहास तथा अतीत पर प्रहार कर भारतीयों के धर्म को नीचा सिद्ध करके ईसाई धर्म को श्रेष्ठ बनाना था। दूसरी तरफ बैंथम के उपयोगितावाद के तहत वे संस्थान जो राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से उपयोगी नहीं है, मूल्यवान नहीं है, मानव कल्याण में योगदान नहीं देती उनको नष्ट कर शिक्षा/साहित्य में सुधार करना चाहिए। उपनिवेशवादी इतिहासकारों में जेम्स मिल, विसेंट स्मिथ, विल्सन हंटर, मोरलैण्ड, जेम्स स्टीफेंस, हेनरी माइने, जे. टॉलवायज व्हीलर, अल्फ्रेड लॉयल प्रमुख थें। 19 वीं शताब्दी के अंत तक साम्राज्यवादी दो भागों में विभक्त हो गये कट्टरपंथी जिसमें स्ट्रेची, शिरोल, लावेट प्रमुख है। उदारवादी जिसमें टॉमसन, एडवर्ड लॉयल, हेनरी मैन प्रमुख है। विशेषता 1. भारतीय सभ्यता व संस्कृति में वह सारे लक्षण अनुपस्थित है जो यूरोपीय समाज के केन्द्र में थे। इस प्रकार भारतीय समाज व संस्कृति तिरस्कृत व गतिहीन माना, पश्चिम की संस्कृति को अपनाने से ही भारतीय समाज में सुधार होगा अर्थात यूरोपीय संस्कृति को भारत पर थोपनें का प्रयास था। 2. प्राच्य निरकुंशता का सिद्धांत का अनुसरण जिसका प्रतिपादक एच.जी. रोलिन्सन थे। इसके अन्तर्गत भारत में निरकुंश राजतंत्र है, सरकार के निर्णय में जनता की भागीदारी नगण्य है, भूमि का मालिक राजा होता है किसान महज कृषि श्रमिक फलस्वरूप शोषण चक्र विद्यमान है, राजा व नौकरशाही स्वेच्छाचारी है। 3. व्हाइट बर्डन थ्योरी के प्रतिपादक रूडयार्ड किपलिंग थे जिसके मतानुसार सभ्य लोग (श्वेत) के ऊपर असभ्य लोग (अफ्रीका, एशिया) भार है। श्वेतों को इन्हे सभ्य बनाना पड़ेगा। 4. भारत राष्ट्र नहीं है बल्कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में है। 5. यूरोपीयन के आगमन से पूर्ण भारत में डार्क ऐज चल रही थी, उनके आगमन के बाद प्रबोधन युग आरंभ हुआ भारतीयों में एकता स्थापित हुई। कैम्बिज उपागम कैम्ब्रिज स्कूल आफॅ हिस्टोरियोग्राफी एक विचारधारा थी जो ब्रिटिश साम्राज्य के अध्ययन को साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से देखती थी। यह 1960 के दशक में कैम्ब्रिज वि.वि. में उभरा। जॉन एंड्रयू गैलाघर विशेष रूप से रोनाल्ड रॉबिन्सन के साथ मुक्त व्यापार का साम्राज्यवाद पर अपने लेख में प्रभावशाली था इसका नेतृत्व अनील सील[3] गार्डन जॉनसन[4] रिचर्ड गार्डन और डेविड ए. वॉशब्रुक ने किया था।[5] इसने विचारधारा को कम महत्व दिया। यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के इतिहासकारों को एक समूह जो अपनी विशिष्ट विचारधारा पर लेखन कर रहा था जिसकों सम्मिलित रूप में कैम्ब्रिज सम्प्रदाय कहा गया। जॉन गालघर, अनील सील, गॉर्डन जॉनसन ने कैम्ब्रिज वि.वि. प्रेस से 1973 में ‘‘लोकेसिटी, प्रोविन्स एण्ड नेशन‘‘ नामक पुस्तक प्रकाषित की जिसमें भारतीय राजनीति पर लिखा। यह ग्रंथ ‘‘कैम्ब्रिज जर्नल ऑन मॉर्डन एशियन स्टेडीज‘‘ में प्रकाशित हुआ। इस सम्प्रदाय के प्रमुख इतिहासकार जॉन डब्ल्यू गालघर, अनील सील, गॉर्डन जॉनसन, जुडिथ एम. ब्राउन, सी.ए.वेली, टामिन्सन, आयशा जलाल, जोया चटर्जी, सी.जे. बेकर है। विशेषता 1. साम्राज्यवाद, यूरोप की आर्थिक शक्तियों के कारण नहीं था, बल्कि एशिया व अफ्रीका के स्थानीय कारकों के कारण राजनीतिक हयास के फलस्वरूप इन क्षेत्रों में राजनीतिक शून्य उत्पन्न हुई जिसकी पूर्ति साम्राज्यवाद ने की। 2. स्थानीय गुटबाजी, आपसी द्वेष के बावजूद भी भारत में राष्ट्रवाद की उत्पति ब्रिटिश की देन है। 3. इन लेखकों ने स्थानीयता/क्षेत्र तथा वहॉ के लोगों के मध्य के संबधो के अध्ययन पर विशेष बल दिया। 4. भारतीय राजनीतिज्ञों को समाज-धर्म -वर्ग-क्षेत्र वितरित हितों के लोगों का ख्याल रखना पड़ता है। इनमें हैसियत बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। इनमें गुटबाजी अधिक थी, ये गुट वर्टीकल थे। 5. सरकारी हस्तक्षेप से भारतीय राजनीति का तरीका बदला था। अब स्थानीय नेतृत्व के पास अधिक क्षेत्र मिलें, अधिक सता प्राप्त हुई। ब्रिटिश प्रषासनिक अधिकारी नियुक्त हुए। इन कारणों से राजनीतिक लाभ हेतु संघर्ष प्रारंम्भ हुआ। 6. स्थानीय राजनीति को ब्रिटिश सुधारों के अनुरूप परिवर्तन करने होते है अन्यथा इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। हालांकि पहले सुधारों का विरोध हुआ। 7. साम्राज्यवाद ने कभी भी भारतीयों को नियत्रिंत करने कर प्रयास नहीं किया और न ही भारत के स्थानीय मुद्दों में हस्तक्षेप किया बल्कि यह भारतीय ब्रिटिश लाभ को प्राप्त करने की होड़ थी। 8. राष्ट्रीय आन्दोलन था ही नहीं, ना ही साक्षा लक्ष्य था। एक जर्जर लक्ष्य के साथ आंदोलन कर रहे थे, राष्ट्रीय एकता एक झूठ था, शक्ति के दावें काल्पनिक थे, गॉधी व नेहरू दलाल के रूप में कार्यरत थे। भारतीयों का इतिहास आपसी दुश्मनी का इतिहास है। राष्ट्रवादी इतिहास लेखन राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारत में हिन्दू शासन की सार्वभौमिक रूप से प्रशंसा की, जिसमें हिन्दू संस्कृति को सबसे अधिक महत्व दिया गया।[6] आधुनिक इतिहास में उन्होनें कांग्रेस, गॉधी, नेहरू और उच्च स्तरीय राजनीति पर ध्यान केंन्द्रित किया। इसने 1857 के गदर को मुक्ति की लड़ाई के रूप में तथा 1942 में शुरू हुए गॉधी के भारत छोड़ो आंदोलन को ऐतिहासिक घटनाओं को परिभाषित करने के रूप में उजागर किया। इतिहास लेखन के इस स्कूल को अभिजात्यवाद के लिए आलोचना मिली है।[7] इस स्कूल के इतिहासकारों में राजेन्द्र लाल मित्रा, आर जी भंडारकर, रोमेष चन्द्र दत, अनंत सदाषिव अल्तेकर, के पी जायसवाल, हेमचन्द्रराय चौधरी, राधा कुमुद मुखर्जी, आर सी मजूमदार, के ए नीलकंठ शास्त्री थे। साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने अपने हितों की पूर्ति हेतु भारतीय अतीत को नीच दिखाया, अत्यंत कलंकित लिखा, अस्मिता पर सवाल उठाए तथा इसे अनुपयोगी दर्षाया जिसके प्रतिउतर में राष्ट्रवादी लेखन प्रारम्भ हुआ। आजादी से पूर्व राष्ट्रवादी लेखक केवल प्राचीन व मध्यकाल पर ही लेखन किया था परन्तु स्वतंत्रता के बाद आधुनिक काल पर विस्तृत लेखन प्रारम्भ हुआ। विशेषता 1. साम्राज्यवादी आक्षेपों से भारत के इतिहास, सभ्यता तथा संस्कृति को बचाना था। चुनौती विद्यमान थी कि अधिकतर इतिहासकार मिल के लेखन का अनुसरण कर रहे थे। 2. साम्राज्यवादी लेखन में भारतीयों की उपलब्ध्यिों को कम ऑेका था, इस कारण अतीत के गौरव को पुनः स्थापित कर भारतीय एकता बढ़ सके। 3. भारतीय अस्मिता की खोज पर बल ताकि भारतीयों में आत्मसम्मान/आत्मविश्वास का संचार को ताकि ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्व भारतीय लड़ सकें। 4. साम्राज्यवादी लेखकों के पूर्वाग्रहों प्रपंचो का जवाब देना लेखन का उद्देश्य था। फलस्वरूप राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हुई, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन को गति मिली। नवीन खोजों नवीन साक्ष्य, सामने आए जिससे ऐतिहासिक अध्ययन को बल मिला अतीत गौरव का ज्ञान हुआ। क्षेत्रीय और स्थानीय इतिहास में रूची नहीं। मार्क्सवादी उपागम भारत का मार्क्सवादी इतिहास लेखन ऐतिहासिक भौतिकवाद की पद्वति का उपयोग करता है तथा इसने औपनिवेशिक काल के दौरान आर्थिक विकास, भूमि स्वामित्व और पूर्व-औपनिवेशिक भारत में वर्ग संघर्ष तथा विऔद्यौगिकरण के अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित किया है।[8] बी.एन दत्ता और डी डी कौसंबी को भारत में मार्क्सवादी इतिहास लेखन के संस्थापन पिता माना जाता है। डी डी कौसंबी माओ की क्रांति के प्रति क्षमाप्रार्थी थें और भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों को पूंजीवाद समर्थक मानते थे। मार्क्सवादी इतिहास लेखन के अन्य भारतीय विद्वान आर एस शर्मा, इरफान हबीब, डी एन झा, के.एन. पणिक्कर है।[9] अन्य इतिहासकार जैसे सतीश चन्द्र, रोमिला थापन, विपिन चन्द्र, अर्जुन देव और दिनेश चन्द्र सिरकार को कभी इतिहास के प्रति मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रभावित कहा जाता है।[10] भारतीय इतिहास में एक बहस जो ऐतिहासिक भौतिकवादी योजना से संबधित है, वह भारत में सांमतवाद की प्रकृति पर है। 1960 के दशक में डी.डी. कौसंबी ने नीचे से सामंतवाद और उपर से सामंतवाद के विचार को रेखांकित किया। उनके सांमतवाद थीसिस के तत्व को आर एस शर्मा ने अपने मोनोग्राफ इंडियन फ्यूडलिज्म (2005) और कई अन्य पुस्तकों में खारिज कर दिया था।[11] हालांकि आर एस शर्मा भी कई पुस्तकों में कौसांबी से काफी हद तक सहमत है।[12] अधिकांश भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों का तर्क है कि साम्प्रदायिकता की आर्थिक उत्पति सांमती अवशेष तथा भारत में धीमी गति से विकास के कारण होने वाली आर्थिक असुरक्षाएं है।[13] कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन 1946 में बनी। इसके कुछ सदस्य सामाजिक व आर्थिक इतिहास लिखना चाहते थे ताकि ‘‘हिस्ट्री फ्रॅाम बिलो‘‘ लिखा जा सकें, जिससे सामान्य जनता की स्थितियों का अंदाजा लगा पायें। इस दल से अलग होकर कुछ सदस्य यथा ई.वी. थॉमसन -क्रिस्टोफर हिल - एरिक हॉब्सबाम नें ‘कम्यूनिस्ट ग्रुप ऑफ मार्क्स हिस्टोरियन‘ बनाया। उक्त तीनों को मार्क्सवादी इतिहास लेखन का जनक माना जाता है जिन्होनें पास्ट एण्ड प्रजेन्ट नामक जर्नल आंरभ किया। इन इतिहासकारों कार्ल मार्क्स की भांति इतिहास को विभिन्न घटनाओं का संकलन अथवा महान लोगों का क्रियाकलापों का विवरण न मानकर समाज के संगठन व आंतरिक संघर्ष के रूप में इतिहास को देखा। भारत के आरम्भिक मार्क्सवादी इतिहासकारों में बी.एन.दत्त, एस. पी डांगे, ए.आर. देसाई, आर.पी.दत्त प्रमुख है, बाद के इतिहासकार में रामषरण शर्मा, रोमिला थापर, विपिनचन्द्र, इरफान हबीब, कवलम नारायण पणिक्कर, हरवंश मुखिया, डी.एन.झा प्रमुख है। विशेषताएं 1. इनके इतिहास लेखन का केन्द्र बिन्दु आर्थिक कारक है। 2. समाज को समझने के लिए प्रथम सीढ़ी उत्पादन पद्वति को मानते है। 3. मानव जीवन में राजनीतिक आयाम की तुलना में सामाजिक -आर्थिक आयाम प्रबल है, इसे लेखन के केन्द्र में रखा गया जिससे सामान्य जन ऐतिहासिक अनुसंधान का विषय बना। 4. भौतिकवादी दृष्टिकोण बढ़ा, प्राथमिक स्त्रोतों का अध्ययन किया गया। नवीन ऑकड़े जुटाए गये। 5. कथात्मक व वर्णनात्मक के स्थान पर व्याख्याओं वे विवेचनाओं पर बल दिया गया। 6. पूर्ण इतिहास पर बल दिया गया जिससे किसी घटना के सभी आयामों कला, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज को अंत संबधित कर इतिहास लिखा गया। 7. इतिहास लेखन में ईकाई राष्ट्र को माना जिसके सभी आयामों का लेखन किया गया। 8. उपनिवेशवाद को विनाशक के साथ पुनरूद्वारक भी माना था। सबअल्टर्न अधीनस्थ/उपाश्रित उपागम अधीनस्थ/उपाश्रित अध्ययन शीर्षक ऐसे विवरणों की श्रृखंला है जिसे शुरू में रंजीत गुहा के संपादकत्व में प्रकाषित किया गया। इसने अपने प्रवर्तकों के माध्यम से अन्य ऐतिहासिक उपागमों पर लोगों की आवाज की उपेक्षा करने का आरोप लगाया। सबअल्टर्न स्कूल की शुरूआत 1980 के दशक में रणजीत गुहा और ज्ञान प्रकाश ने की थी।[14] यह अभिजात वर्ग और राजनेताओं से ध्यान हटाकर नीचे से इतिहास की और ध्यान केन्द्रित करता है। लोकगीत, कविता, पहेलियों, कहावतों, गीतों, मौखिक, इतिहास और नृविज्ञान से प्रेरित तरीको का उपयोग करके किसानों को देखता है। यह 1947 से पहले के औपनिवेशिक युग पर ध्यान केन्द्रित करता है और आम तौर पर जाति पर जोर देता है और वर्ग को कमतर अंकित है जो मार्क्सवादी स्कूल को परेशान करता है।[15] शुरू से ही, अधीनस्थ उपागम ने बताया कि भारतीय इतिहास लेखन का झुकाव अभिजात्य वर्ग की तरफ है, अतः यह पक्षपाती है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में इतिहास लेखन के क्षेत्र में मार्क्सवाद से ही प्रभावित होकर कुछ इतिहासकारों ने मार्क्सवादी इतिहास लेखन को चुनौती देते हुए नवीन इतिहास लेखन सबअल्टर्न प्रारम्भ किया। सबअल्टर्न शब्द प्रथम बार प्रयोग एंटोमिया ग्राम्सी (इटली) ने निम्न स्तर के सैनिकों के लिए किया था। ग्राम्सी मार्क्सवादी थे, परन्तु इन्होनें मार्क्सवाद पर आलोचनात्मक प्रष्न खड़े किये इस कारण नव-मार्क्सवादी कहा जाता है। औपनिवेशवाद तथा आलोचनात्मक थ्योरी के दौर में सनअल्टर्न शब्द प्रचलित था। चर्च लेखन प्रबोधन काल एनल्स के पश्चात् सबअल्टर्न लेखन यूरोप की धारा बनी। भारत में सबअल्टर्न इतिहास का जन्मदाता रणजीत गुहा थ। इन्होनें सबअल्टर्न (जाति- धर्म-लिंग-नृजाति समूह) को इतिहास में स्थान दिया। सबअल्टर्न उपागम के इतिहासकारों में डेविड अरनोल्ड, गौतम बद्रा, दीपेश चक्रवती, पार्थ चटर्जी, डेविड हार्डीमेन, सुदीप्ता कविराज, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, ज्ञान प्रकाश, सरोजनी साहू, एरिक स्ट्रोक्स, सुषी थरूर, अरविंद दास है। विशेषताएं 1. मार्क्सवादी इतिहास को चुनौती देते हुए समाज के निचले तबके का इतिहास में लिखा है। ये धारा मार्क्सवादी धारा से उत्पन्न हुई थी। इसे उपाश्रयी/अधीनस्थ/निम्न इतिहास/जन इतिहास का नाम दिया गया। |
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निष्कर्ष |
उपरोक्त लेख इतिहास लेखन के विभिन्न स्कूलों की सोच तथा दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है जिसके विभिन्न आयाम समय के साथ परिवर्तित रहे हैं। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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