ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- V August  - 2024
Anthology The Research

महाकवि कालिदास के काव्यों में प्रकृति चित्रण

Nature Depiction in the Poems of Great Poet Kalidas
Paper Id :  19194   Submission Date :  2024-08-11   Acceptance Date :  2024-08-15   Publication Date :  2024-08-17
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DOI:10.5281/zenodo.13348945
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संदीप कच्छावाहा
सहायक आचार्य
संस्कृत विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय, पीपाड़,
जोधपुर,राजस्थान, भारत
सारांश
संस्कृत साहित्य की महती परम्परा में महाकवि कालिदास का नाम स्वर्णिम वर्णों में लिखा जाता है। कालिदास ने अपनी काव्य रचना में प्रकृति को विशेष रूप से सम्मिलित किया है। प्रकृति वर्णन के बिना महाकवि कालिदास की रचनाएँ अधूरी है। कालिदास ने प्रकृति को मानवीय संवेदनाओं से युक्त चित्रित करके मानव समाज का ही अभिन्न अंग बताया है। वास्तव में मानव समाज प्रकृति के बिना अधूरा है। कालिदास ने मानवीय भावनाओं तथा संवेदनाओं को ही प्रकृति में समाहित कर दिया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the great tradition of Sanskrit literature, the name of Mahakavi Kalidas is written in golden letters. Kalidas has specially included nature in his poetry. Mahakavi Kalidas's works are incomplete without the description of nature. Kalidas has portrayed nature as an integral part of human society by depicting it with human emotions. In fact, human society is incomplete without nature. Kalidas has incorporated human emotions and emotions in nature.
मुख्य शब्द प्रकृति, अन्तः, वाह्य, नाटक, काव्य, पर्वत, मेघ, नदी।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Nature, Interior, Exterior, Drama, Poetry, Mountains, Clouds, River.
प्रस्तावना
महाकवि कालिदास विश्वविख्यात काव्य सृष्टा, कविकुलगौरव, सत्यं-शिवं-सुंदरम् को समावेशित करने वाले एक सफल महाकाव्यकार, सर्वोत्कृष्ट नाटककार एवं गीतिकाव्य के प्रणेता है। वस्तुतः कविकुलगुरू कालिदास के काव्य ग्रन्थों में उनके आदर्शों, मान्यताओं, दीर्घकालीन साधना और अनुभव के आलोक में भारतीय संस्कृति ने प्रतिष्ठित किया। इसीलिए महाकवि कालिदास हमारे राष्ट्रीय कवि तथा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रतीक है।
महाकवि कालिदास की मुख्यतः सात रचनाएं मानी जाती हैं, जिनमें दो महाकाव्य- रघुवंशम् तथा कुमारसंभवम्, दो गीतिकाव्य- ऋतुसंहारम् तथा मेघदूतम्, तीन नाटक- मालविकाग्निमित्रम् विक्रमोर्वशीयम् तथा अभिज्ञानशाकुंतलम्।
महाकवि कालिदास प्रकृति के सुकुमार कवि थे। कालिदास विशुद्ध भारतीय परम्परा के कवि थे। कालिदास की काव्य कला का विकास ही प्रकृति वर्णन से होता है। उनकी रचनाओं में कथानक गौंण है, प्रकृति ही सब कुछ है। 
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र में महाकवि कालिदास के काव्यों में वर्णित प्रकृति चित्रण का अध्ययन किया गया है ।
साहित्यावलोकन
प्रस्तुत शोधपत्र के लिए मेघदूत व्याख्याकार डॉ. विजेन्द्र कुमार शर्मा , डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी रचित कालिदास परिशीलन, कुमारसम्भवम्, व्याख्याकार- डॉ. विनोद बिहारी शर्मा तथा रघुवंशम्, व्याख्याकार - श्री कृष्ण ओझा आदि का अध्ययन किया गया है ।
मुख्य पाठ
अभिज्ञानशाकुन्तलम्
कालिदास की नाट्य रचनाओं में अभिज्ञानशाकुंतलम् को सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। अभिज्ञानशाकुंतलम् को प्रकृति वर्णन की दृष्टि से देखा जाए तो उसमें आद्योपान्त कोमल एवं सरस प्रकृति का भव्य वर्णन मिलता है। कवि के प्राकृतिक वर्णन इतने सजीव है कि वर्णनीय वस्तु हमारी आंखों के सामने नृत्य करती हुई नजर आती है। मनुष्य और प्रकृति में सहज समरसत्ता दिखाकर कवि ने प्रकृति के अंदर धड़कते हुए दिल को पहचाना है और उसे मानव से एकाकार कर दिया है। प्रकृति और मानव का यह एकीकरण महाकवि की प्रकृति चित्रण की बहुत बड़ी विशेषता है। संस्कृत भाषा के प्रकांड मर्मज्ञ रविंद्र कविंद्र लिखते हैं कि- शाकुन्तल नाटक में अनसूया, प्रियंवदा कण्व और दुष्यन्त आदि जैसे एक-एक पात्र हैं, वैसे ही प्रकृति भी एक पात्र है। इस गूंगी प्रकृति को किसी नाटक के भीतर ऐसा प्रधान एवं अनिवार्य स्थान दिया जा सकता है, यह बात शायद संस्कृत साहित्य के सिवा अन्यत्र देखने को नहीं मिल सकती। प्रकृति को मनुष्य बनाकर तथा उसके मुख से बातचीत कराकर रूपक नाटक की रचना की जा सकती है, किंतु प्रकृति को स्वाभाविक रूप में रखकर उसे सजीव, प्रत्यक्ष, व्यापक और अंतरंग बना लेना तथा उसके द्वारा नाटक का इतना काम करा लेना शाकुन्तल के अतिरिक्त और कहीं नहीं देखा जाता।ˮ
कालिदास का अभिज्ञानशकुन्तलम् प्राकृतिक छटाओं से ओतप्रोत है। इस नाटक में प्रकृति अपने स्वरूप में पूर्ण स्वतंत्र होते हुए भी एक सजीव एवं चेतन प्राणी के रूप में चित्रित की गई है। शाकुन्तल के प्रारंभिक मंगलाचरण में अपने अभीष्ट देव भगवान शिव की दिव्य अष्टमुर्तियों का साक्षात्कार प्रकृति के ही भीतर करके कवि जनमंगल की कामना करता है। अभिज्ञानशाकुंतलम् का प्रारम्भ ही प्राकृतिक पृष्ठभूमि से होता है। प्रथम अंक की समस्त कथावस्तु कण्व ऋषि के आश्रम में घटित होती है, जो चारों ओर से सघन वनों से आच्छादित है। इसीलिए राजा दुष्यन्त भी आखेट के लिए भटकता हुआ आश्रम में पहुंच जाता है। उसके बाद द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ अंक की कथावस्तु भी प्रकृति की मनोहर रंगस्थली में विकसित और पल्लवित होती हैं। कुछ देर के लिए पांचवें अंक में वह राजसदन में अवश्य पहुंच जाती है, पर छठे तथा सातवें अंक में पुनः प्रकृति की गोद में आकर कभी आकाश की ऊॅंचाइयों में, मेघ मार्गों में और कभी हेमकूट पर्वत पर बने मारीच ऋषि के आश्रम में विहार करने लगती है।
उनकी शकुन्तला वस्तुतः प्रकृति कन्या ही है। वह प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में उत्पन्न हुई, प्रकृति ने ही उसका पालन-पोषण और प्रसाधन किया-
अधरः किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणो बाहू।
इसी प्रकृति कन्या को कवि ने मानवी रूप में चित्रित किया है। इतना ही नहीं कवि की दृष्टि में मानवीय सौंदर्य का मापदण्ड प्रकृति ही है, क्योंकि अनेकत्र कालिदास ने यह माना है कि मानव सौंदर्य से बढ़कर प्रकृति सौंदर्य है। मानव सौंदर्य की अभिवृद्धि प्रकृति के सौंदर्य से ही होती है। 
कालिदास की प्रकृति कहीं भी मूक, चेतनाहीन एवं निष्प्राण नहीं है। वह मानव के समान सचेतन और सजीव हैं। सुख-दुःख एवं संवेदना का अनुभव करती है। मानव का उससे अटूट प्रेम है। इसीलिए महर्षि कण्व और शकुन्तला की सखियां ही नहीं, अपितु समस्त तपोवन ही शकुन्तला की विदाई के समय विरह वेदना से पीड़ित हो उठा है-
उद्गलितदर्भकवला मृग्यःपरित्यक्तनर्तना मयूराः।
अपसृतपाण्डुपत्रा मुन्चत्श्रूणीव लता।। 
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि प्रकृति को एक क्षण के लिए भी नहीं त्यागना चाहता है। इसी प्रकृति के वातावरण में पल-पुष्कर युवा प्रेमी-प्रेमिका का सामान्य प्रेम दिव्य भूमि के धरातल पर पहुंचता है।
मेघदूतम्
मेघदूत में महाकवि कालिदास ने बाह्य प्रकृति तथा अन्तः प्रकृति दोनों का ही सूक्ष्म एवं मार्मिक चित्रण किया है। बाह्य प्रकृति के प्रति कवि का अन्य अनुराग रहा है। प्राकृतिक दृश्य का वर्णन इस प्रकार से है कि हमारे मानस के सामने उनका स्पष्ट चित्र उपस्थित हो जाता है। पूर्व मेघ में बाह्य प्रकृति का ही मनोहर योजनात्मक वर्णन है। वर्षा ऋतु और उसमें होने वाली प्राणियों की विविध उत्कण्ठाओं का जैसा चित्रण मेघदूत में है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। मेघ के आगमन से ही उत्कण्ठित होकर प्रिया के प्राण धारण के लिए यक्ष संदेश भेजने के लिए आतुर हो जाता है। पर्वत मेघ के आगमन से पुष्पित कदम्बों के रूप में पुलकित को उठता है। भोली ग्राम वधुएँ उसे उत्सुकता से देखती हैं और उसे अपने चंचल पौर वधुएँ उसे अपने चंचल कटाक्षों का विषय बनाती है। वर्षा ऋतु मानस के लिए ऑंसु बहाते हुए उत्सुक हंस उसके सहयात्री बन जाते हैं और गर्भाधान के लिए उत्सुक बलाका उन ऑंसुओं का सेवन करती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मेघ के उदय होने पर होने वाला कोई ऐसा प्राकृतिक परिवर्तन नहीं है, जिसकी और कवि का ध्यान नहीं गया हो। मेघदूत में प्रकृति वर्णन में ऐसे कई स्थल है, जिन पर उत्कृष्ट कोटि के चित्र बनाए जा सकते हैं। 
मेघदूत में कालिदास ने प्रकृति का जड़ वस्तु के रूप में चित्रण नहीं किया है, अपितु उसमें मानवीय चेतना एवं क्रियाकलाप का समारोपण किया है। कालिदास के अनुसार पर्वत अपने सखा मेघ से मिलकर हर्ष से गर्म आंसू बहाता है-
काले-काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य।
स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मनुष्य मुन्चतो वाष्पमुष्णम्।। 
नदियाँ मानिनी प्रेमिका की भॉंति इठला कर अपनी तरंग रूपी भौहें तान लेती है। प्रभात काल में सूर्य अपनी प्रियतमा नलिनी के ओस रूपी ऑंसू अपने हाथों से पोंछता है। पुराने पत्तों से पीली हुई क्षीण निर्विंन्ध्या नदी अपनी विरह दशा से मेघ के सौभाग्य को प्रकट करती है।
मेघदूत में प्रकृति में सहानुभूति की भावना का भी मनोरम आरोप किया गया है। यक्ष की करूण दशा को देखकर प्रकृति भी उसके प्रति संवेदना प्रकट करती है। जब यक्ष स्वप्न में अपनी प्रियतमा के आलिंगन के लिए शून्य आकाश में भुजाएँ फैलता है, तो वनस्थली देवताओं के नेत्रों से भी मोटे-मोटे आंसू ढ़लक पड़ते हैं।
कालिदास ने मेघदूत में प्रकृति व प्रेम का मधुर सम्बन्ध स्थापित किया है। उन्होंने प्रकृति को मुख्यतः प्रेमिका के रूप में देखा है। मेघदूत का यक्ष अपनी प्रियतमा के अंगों की समता प्रियंगुलता में पाता है तथा चकित हरिणी की दृष्टि में उसके कटाक्षों का अनुभव करता है। चंद्रोदय के वर्णन में ऐसा चित्रण किया है, मानो चंद्रमा अपनी प्रियतमा रजनी का चुंबन कर रहा हो।
मेघदूत को प्रकृति का सर्वोत्तम ग्रंथ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके प्रत्येक श्लोक में प्रकृति की आशा भरी वेदना का चित्रण है। जिसके अंतर्गत संयत, गंभीर एवं प्रशांत व्याकुलता का स्पष्ट दर्शन पाठक को होता है। मेघदूत में पद-पद पर प्रकृति की छटा के दर्शन होते हैं। आम्रकूट पर्वत के शिखर पर काला मेघ है और आसपास पके फलों से युक्त आम्र के वृक्ष हैं। कवि की कल्पना है कि पर्वत पृथ्वी के स्तनों के समान शोभा को प्राप्त करेगा। मेघदूत में कवि ने प्रकृति एवं मनुष्य को एक नवीन एवं मौलिक ढंग से परस्पर जोड़ दिया है। मानव जीवन तथा प्राकृतिक जीवन संग्रंथन को एक आवश्यकता और एक आनन्द के रूप में चित्रित किया गया है। 
संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड मर्मज्ञ एवं सहृदय आलोचक ए. डब्ल्यू. राइडर का इस सम्बन्ध में कहना है कि- "मै यह पहले कह चुका हूँ कि कालिदास के व्यक्तित्व में यह एक आश्चर्यजनक संतुलन है कि वह महलों तथा वनों का वर्णन समान दक्षता से करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि इस दृष्टि से मैं उनके क्षमता किससे करूँ? प्राकृतिक सौंदर्य के अवलोकन में शेक्सपियर की विस्मयजनक गहन अंतर्दृष्टि स्वीकार की गई है, परन्तु वह भी मुख्यतः मानवीय भावनाओं के ही कवि थे। कालिदास के सम्बन्ध में न ही यह कहा जा सकता है कि वह मुख्यतः मानव हृदय की कवि थे और न ही यह कहा जा सकता है कि वह मुख्यतः प्राकृतिक सौंदर्य के कवि थे। यह दोनों ही गुण उनमें रासायनिक ढंग से मिले हुए थे, ऐसा कहा जाता है। जो तथ्य मैं कहना चाहता हूॅं, वह मेघदूत में सर्वथा प्रतिफलित है। पूर्व मेघ में बाह्य प्रकृति का वर्णन है, फिर भी उसमें मानवीय भावनाएं उलझी हुई है। उत्तर मेघ में मानव हृदय का चित्र है, फिर भी वह प्राकृतिक सौंदर्य क्रोड में अंकित है। यह इतनी सुंदरता से किया गया है कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है, यह कहना कठिन है।
ऋतुसंहारम्
यह महाकवि कालिदास की प्रथम रचना है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह रचना उन्होंने प्रकृति को ही समर्पित कर दी है। इसमें प्रकृति के ही एक अंग ऋतुओं का वर्णन अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए किया है। यह युवक कवि की रचना है। इसमें उन्होंने प्रकृति को आलंबन रूप में कम उद्दीपन रूप में अधिक प्रयुक्त किया है। इस काव्य में एक और ग्रीष्म की प्रचण्डता का वर्णन है, वहीं दूसरी और वसन्त की सरसता की भी झांकी प्रस्तुत की गई है। 
कवि ने ऋतुसंहार में विभिन्न ऋतुओं से मानवों पर पड़ने वाले प्रभावों का तथा उनके परिणामों का सुंदर सरस वर्णन किया है। उन्होंने प्राकृतिक दृश्य पर चेतनता का समारोप कर उसका अलंकारिक चित्र प्रस्तुत किया और कहीं-कहीं प्रकृति को शुद्ध आलंबन रूप में भी रखकर उसके प्रति अपना अनुराग व्यक्त किया है। कामिनियों के भावों का ही वर्णन करने के लिए कवि ने मानों यहां प्रकृति की पृष्ठभूमि का आश्रय लिया है। पावस यदि राजाओं की साज-सज्जा में आया है। जो शरद् रूपरम्या नववधू के वेश में आ गई है, जो फूले हुए कॉस की साड़ी पहने हुए है। मतवाले हंसों कलरवों के बिछूए धारण किए तथा खिले हुए कमलों जैसे मनोज्ञ मुख वाली है। 
ऋतुसंहार के अंतर्गत प्रकृति के बाह्य सौंदर्य एवं मानवीय प्रणय का अभिराम संयोग है। प्रत्येक ऋतु अपनी प्राकृतिक विशेषताओं से नगर प्रेमियों की भावुक हृदयों को नाना प्रकार से आंदोलित करती है। ग्रीष्म विरल श्रृंगार है। जिस प्रकार योगियों का तप होता है, उसी प्रकार ग्रीष्म का ताप प्राणियों के वैर भाव को समाप्त करने में समर्थ है। ऋतुसंहार में वर्षाकाल वस्तुतः नायक जैसा चित्रित हुआ है। महाकवि को शरद् ऋतु नववधु जैसी रूपरम्या एवं रमणीया प्रतिभासित होती है। कालिदास ने कामी जनों की श्रृंगार वृत्तियों को हेमन्त एवं शिशिर दर्शन से उद्दीप्त चित्रित किया है। शिशिर ऋतु में कामी जनों के भोग-विलासपूर्ण चित्र कवि सहृदय रसिकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। 
रघुवंशम्
प्राकृतिक दृश्यों के स्वाभाविक एवं मनोहारी चित्रण रघुवंश में भी भरे पड़े हैं। प्रथम सर्ग में वशिष्ठ आश्रम का स्वाभाविक चित्रण है। ऋषियों की पर्णशालाओं के द्वार को मृग रोक कर बैठे हुए हैं। जिससे ज्ञात होता है कि मानों वे ऋषि पत्नियों की संतान हों। संध्या काल में सूर्यास्त का मनोहारी चित्रण सभी का ध्यान आकर्षित करता है-
संचारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा दिनान्ते नीलयाय गन्तुम्।
प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा, प्रभा पतड्.गस्य मुन्नेश्च धेनुः।।
कुमारसम्भवम्
कुमारसम्भव का तो प्रारंभ ही प्रकृति की रमणीयता से हुआ है। मंगलाचरण के रूप में महाकवि कालिदास ने हिमालय का ही गुणगान किया है। कालिदास की व्यापक दृष्टि इस विस्तृत राष्ट्र के आसेतु हिमालय की मनोहारिणी प्रकृति पर पड़ी थी। जिसे उन्होंने कहीं आलम्बन रूप में तो कहीं उद्दीपनात्मक रूप में वर्णन अवश्य किया है। कुमारसंभव में विभिन्न पर्वतों, वनों, ऋतुओं तथा सरोवरों आदि का मनोहारी पक्ष पाठक के चित्त को आकर्षित करता है। हिमालय का विस्तृत व सूक्ष्म वर्णन कवि के काव्य कौशल की यश-पताका को विश्व में प्रकाशित करता है। हिमालय को देवता स्वरूप मानते हुए उसे पृथ्वी के मेरूदंड के समान स्थित बताया है। संध्या के समय चन्द्ररूपी नायक अपनी किरणरूपी सुकुमार अंगुलियों से रात्रि के अंधकाररूपी बिखरे केशपाश को समेटकर अपनी प्रियतमा रजनी के  अर्द्धमुद्रित कमलरूपी नेत्र वाले मुखमण्डल का चुंबन कर रहा है।
निष्कर्ष
उक्त विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने प्रकृति से अपना तादात्म्य स्थापित कर उसकी समस्त सजीवता को अपने काव्य में रूपायित कर दिया है। महाकवि कालिदास प्रकृति चित्रण में अत्यंत पारंगत है। उन्होंने प्रकृति एवं मानव के मध्य तादात्म्य स्थापित करते हुए चेतन प्रकृति की पृष्ठभूमि पर मानवीय भावनाओं एवं क्रियाकलापों को सौंदर्यात्मक स्वरूप देने का श्लाघनीय प्रयास किया है। कवि ने प्रकृति के इस मूक संदेश को मानव तक पहुंचाने का प्रयास किया है कि उससे वियुक्त एवं पराड्.गमुख होने से मानव जीवन की कितनी आध्यात्मिक अधोगति, सामाजिक दुर्दशा तथा राजनीतिक अवनति के साथ दुःखद समाप्ति हो जाती है। वस्तुतः प्रकृति के पावन मंगलमय रूप के साथ ही भारतीय संस्कृति के भी समुज्ज्वल पक्ष को भी कवि ने उजागर करने का सुन्दर प्रयास किया है। कालिदास प्रकृति के अन्तःस्थल के सूक्ष्म पारखी कवि है। जिनकी दृष्टि प्रकृति के सौम्यभाव, माधुर्यमय वर्णन तथा प्रकृति के स्निग्ध सौन्दर्य पर रूकती है। कालिदास की प्रकृति भी जीवन की स्पन्दन के साथ-साथ सजीव प्रतीत होती है और नित्य मनुष्य जीवन को शक्ति प्रदान करती है। सम्भवतः संसार में कोई ही ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने सजीव प्रकृति का इतना पूर्ण एवं सूक्ष्म अध्ययन किया हो, जितना कालिदास ने किया है। उनमें ʻमानव हृदय का कविʾ और ʻप्राकृतिक सौंदर्य का कविʾ ये दोनों गुण एक साथ विद्यमान है।
अन्त में पुनः राइडर महोदय के साथ स्वर मिलाकर कहा जा सकता है कि- 'पृथ्वी पर बहुत कम ऐसे व्यक्तियों ने चरणक्षेप किया होगा, जिन्होंने जीवित प्रकृति के रूपों का इतना निरीक्षण किया हो, जितना महाकवि कालिदास ने।'
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. अभिज्ञानशाकुन्तलम्, व्याख्याकार- डॉ. शिवबालक द्विवेदी
2. अभिज्ञानशाकुन्तलम्, व्याख्याकार- डॉ. प्रभाकर शास्त्री एवं डॉ. रूपनारायण त्रिपाठी
3. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/1
4. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/7
5. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/14
6. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/10
7. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/11
8. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/9
9. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 1/14
10. मेघदूत, व्याख्याकार- डॉ. विजेन्द्र कुमार शर्मा
11. पूर्वमेघ - 11
12. पूर्वमेघ - 12
13. पूर्वमेघ - 16
14. पूर्वमेघ - 20
15. कालिदास परिशीलन - डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी
16. कुमारसम्भवम्, व्याख्याकार- डॉ. विनोद बिहारी शर्मा
17. रघुवंशम्, व्याख्याकार - श्री कृष्ण ओझा
18. रघुवंशम् - 9/35
19. कुमारसम्भवम् - 3/15
20. ऋतुसंहारम् - 9/28