P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VI , ISSUE- XI February  - 2022
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
कुँअर बेचैन के काव्य में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना : एक युगबोध
Socio-Cultural Consciousness in the Poetry of the Kunwar Bechain: Ek Yugbodh
Paper Id :  15732   Submission Date :  18/02/2022   Acceptance Date :  20/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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निर्भय शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी
एन.जी.एस. डिग्री कॉलेज, अल्हागंज
शाहजहांपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश किसी भी देश का साहित्य उस देश की संस्कृति एवं समाज का प्रतिबिम्ब माना जाता है । सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण और वैयक्तिक अनुभूतियों का वैज्ञानिक रीति से यथार्थ अध्ययन करने की क्षमता काव्य में पूर्ण निहित होती है । समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है और इस जाल की अभिव्यक्ति हमें विभिन्न प्रकार से देखने को मिलती है । समाज के साथ अंतःसंबंध होने के कारण ही व्यक्ति ’मानव’ कहलाने का अधिकारी हो पाता है। संस्कृति जीवन का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं । इसलिए जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज में मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी है, यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार संचित करते हैं वह हमारी संस्कृति का अंग बन जाते हैं और अंततः मरने के पश्चात् हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं । इसलिए संस्कृति एक ऐसा स्वरूप है जो हमारे सम्पूर्ण जीवन को आच्छादित किए हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है । यही नहीं संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती रहती है ।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Literature of any country is considered a reflection of the culture and society of that country. The ability to study the socio-cultural environment and personal experiences in a scientific manner is fully vested in poetry. Society is a web of social relations and we get to see the expression of this web in different ways. It is only because of the interrelationship with the society that a person is entitled to be called 'human'. Culture is a way of life and this way is accumulated over the centuries and remains in the society in which we are born. Therefore, the culture of the society in which we are born or the society in which we are living together is ours, although the values ​​we accumulate in our lives become a part of our culture and eventually after we die we become part of other things. Along with this, they also leave the heritage of their culture for their children. Therefore, culture is such a form that covers our whole life and in its creation and development, the experience of many centuries has a hand. Not only this, culture keeps following us till birth after birth.
मुख्य शब्द समाज, संस्कृति, युगबोध, संस्कार, सामाजिकता, यथोचित, मानसिकता ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Society, Culture, Age, Culture, Sociality, Proper, Mentality.
प्रस्तावना
प्रायः समाज में जो जो घटित हो रहा होता है, वही लेखनी रच देती है और वही रचना का स्वरूप धारण कर लेती है । इस संदर्भ में कुँअर बेचैन जी ने अपनी लेखनी से सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के युगबोध का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है, जो कि देखते ही बनता है ।
अध्ययन का उद्देश्य साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसमें कोई दोराय नहीं होनी चाहिए, क्योंकि समाज में जो घटित हो रहा होता है उसे कवि अपनी लेखनी के द्वारा एक नया आयाम एवं विस्तृत रूप प्रदान करता है । कविवर बेचैनजी ने अपनी लेखनी से सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का बड़ा ही गंभीर एवं सरस-सुंदर रूप प्रस्तुत किया है । पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में सामाजिक संबंधों में निरंतर खटास पैदा हो रही है तथा भारतीय संस्कृति को धूमिल करने का प्रयास किया जा रहा है । आचरण की पवित्रता से लोग फिसलते जा रहे हैं । भौतिक सभ्यता एवं बाहृय आडंबर लोगों को चारो तरफ से जकड़े हुए है । ऐसी विषम स्थितियों में लोगों को धैर्य एवं विवेक का संबल प्रदान करना तथा परिस्थितयों से निजात दिलाना ही कवि का मुख्य उद्देश्य रहा है ।
साहित्यावलोकन
विश्वस्तरीय शोध-पत्रिका ’शोध दिशा’ यू.जी.सी. द्वारा मान्यता प्राप्त एक अन्तर्राष्ट्रीय त्रैमासिक शोध पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2021 के अंक में डा0 अशोक कुमार ने शोध आलेख ’भारतीय संस्कृति एवं साहित्य का अंतरसंबंध’ पर काव्य में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया है । संस्कृति वस्तुतः एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य को उच्चतम नैतिक शिक्षा तक ले जाती है । संस्कृति ही वह दर्पण है जिसमें समाज अथवा राष्ट्र के सभी आयाम नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि प्रतिबिंबित होते हैं । भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता यह है कि वह अपनी परंपराओं का निरीक्षण कर उनमें से संशोधन-परिवर्तन करती रहती है और वह सम्पर्क में आने वाली किसी भी संस्कृति को अपने में समाहित करने में सक्षम रही है । आधुनिक युग में भारतीय संस्कृति में अनेक नए तत्व जुड़े हैं । [24]
मुख्य पाठ

सामाजिक मूल्यों में गिरावट
समाज में उत्तरोत्तर यह देखा जाता रहा है कि लोग अपने व्यवहार को भूलकर दूसरे से सब कुछ चाहने की आशा और विश्वास रखते हैंजो कि सर्वथा असंगत और गलत है।  गरीबअसहाय लोगों को हेयदृष्टि से देखा जा रहा है तथा स्त्री जाति के साथ भेदभाव एवं अन्याय को भी नकारा नहीं जा सकता।
बीसवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति एवं सामाजिकता में बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। प्राचीनकाल में भेदभाव के बिना ही लोग जीवनयापन करते थेवहीं आज विपरीत स्थिति देखने को मिलती है। यहाँ तक कि आज आचरण भी दाँव पर लगाए जा रहे हैं। इसी वेदना से व्यथित होकर कवि कह उठता है -

साँसों के पीछे बैठे हैंनए-नए खतरेजैसे लगे जेब के पीछेकई जेबकतरे
तनमन में रहती है हरदम
कोई नई थकानजैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान [1]

कहा जाता है कि दवा से बढ़कर दुआ होती है। जो लोग गरीबअसहायों एवं वृद्धों की सेवा करते हैंउन्हें सदैव दुआ मिलती है। लेकिन आजकल के दौर में यह सब नाम मात्र देखने को मिलता है  इस संदर्भ में कहा भी गया है -

मेरी दुआएँ उनकी दुआओं के साथ हैं
इस दौर में जो लोग वफाओं के साथ हैं [2]

समाज के कुछ लोग जो कि दूसरों के प्रति बुरा सोचते हैं तथा बुरा करते भी हैंलेकिन वही व्यवहार जब उनके साथ होने लगता है तो वह स्वयं बहुत ही आहत हो जाते हैं-

बहुत आसान है पत्थर को फेंका जाना
किसी झील पर मगरबड़ा कठिन होता है
फूल के भी प्रहार को सहन करना
अपने सीने पर । [3]

एक तरफ समाज का गरीब-वर्ग भूख से तड़प रहा है तो दूसरी  तरफ अनाज की काला बाजारी भी जोरों पर है । राशन की दुकानों पर अनाज न होने का बोर्ड लटका दिया जाता है और दलाल लोग उसी अनाज को बेचकर ऐशो-आराम फरमा रहे हैं। कवि समाज की इस विडंबना से आहत होकर अपनी लेखनी चलाने को मजबूर हो जाता है । वह कह उठता है-

काश तख्ती बेजान न होतीतो वह दहाड़-दहाड़ कर कहती
मैं झूठ बोल रही हूँ
मुझे मारोमुझे पीटोमैं वह हूँ
जो राशन खत्म होने की नहीं
आदमी खत्म होने की सूचना दे रही हूँ [4]

कुँअर बेचैन नवगीत के माध्यम से उस गीत का बोध कराना चाहते हैंजो पुराने,बासीघिसे-पिटे रूप से अलग हटकर नए भावबोधनवीन साहित्यिक चेतना एवं नूतन शिल्प-विधि की कलात्मक परिणति हो सकता है। आप यदि चाहें तो उसे आज का गीत भी कह सकते हैं। आप उसे कोई भी नाम दे देंलेकिन उसकी पहचान होगी-उसकी ताजगी। उसका मूल्य होगी-

उसमें निहित अभिव्यक्ति की नवीन कलात्मक भंगिमा।

आज के व्यक्ति का दृष्टिकोण केवल अपने तक ही सीमित रह गया है। यदि स्वयं को दुःख हो तो सभी को बताया-जताया जाता है लेकिन वहीं जब दूसरों का दुःख सुनना पड़ता है तो वह कथा बन जाती है। इस संदर्भ में बेचैनजी कहते हैं -

बात मेरी चली तो व्यथा बन गयी
जब तुम्हारी चली तो कथा बन गयी [5]

पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव
पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति भी धूमिल होती दिखाई दे रही है। आचरण में खोट दिखायी दे रही हैवहीं सुख-सुविधाओं का उपभोग करने के बाद भी आदमी घुटन महसूस कर रहा है। लेकिन फिर भी वाहृय आडंबरों में जीने को विवश-सा दिखाई दे रहा है।
आजकल हम पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में डूबकर अपना ही पतन कर रहे हैं। यहाँ तक कि होटलजो कभी राहगीरों के लिए विश्रामालय का कार्य करते थेआज वही वेश्यालय बने हुए हैं-

होटल-जिसके दरवाजे हैंबड़े सजे सँवरे
लेकिन हैं अश्लील जहाँ के नाजायज कमरे 
रखे जगत के वेश्यालय में [6]

शहर की संस्कृति और गाँव की संस्कृति में जमीन-आसमान जैसा कुछ अंतर है। गाँव का रहने वाला व्यक्ति शहर में पहुँचकर सभी सुख-सुविधाओं का उपयोग करने के पश्चात् भी घुटन महसूस कर रहा है। अनायास ही कह उठता है -

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से, कुछ दिन शहर रहा
अब कड़वी ककड़ी है! तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैंतब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से

अब अनाम जंजीरों ने आ जकड़ी है [7]

आज के आदमी का एहसास मर चुका है। भौतिक सभ्यता के बाहृय आडंबर उसे चारों ओर से कसे हुए हैं। अनुभूतियों के स्थान पर उपभोग और उपयोग ही शेष रह गया है। निकट के संबंधों में भी व्यापारिकता  खोजी जा रही है। कवि ऐसी स्थिति को देखकर बहुत ही आहत है। वह कह उठता है -

संबंधों को पढ़ती हैकेवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली शुभचिंतक भाव-लता
रिश्तों को घर दिखलाओ
दूकान नहीं !
सुनते थे जो पहले
अब वे कान नहीं !! [8]

इस भौतिकवादी युग में इंसान अपना ईमान खो चुका है। लोग शोक-सभाओं में भी ठहाका लगाते देखे गये हैं। समाज के सीधे-सच्चे लोग जो सच्चाई पर कायम हैंउन्हें ही दुःखी किया जा रहा है। यह सच देखते ही बनता है -

ईमान भी इंसान का साथी नहीं रहाकरता है शोर शोक-सभाओं में कहकहा
जो सच है उसी का बदन आहत है आजकल
,हर ’आदमी’ कोने से फटा खत है आजकल [9]

आजकल आपसी संबंध भी टूटते जा रहे हैं। देश में भौतिकता का बोलबाला हैयहाँ तक कि अपने  सगे संबंधी भी पैसे के ही मीत रह गये हैं। यदि आप परिवार की भौतिक आवश्यकताएँ समय से पूरी नहीं कर पाये तो आप परिवार के लिए खास नहीं हो सकते। इस तरह की धारणाएँ समाज में पनपती जा रही हैं। कवि का इस संबंध में दृष्टिकोण कितना सटीक एवं प्रभावी जान पड़ता है -

पास बुक’ पर तो नजर है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के खत का पता है न खबर है कोई [10]

पारिवारिक संबंधों की भूमिका
समाज में दिनोदिन तेजी से परिवर्तन होता दिखाई दे रहा है। लोग अपने माता-पिता के प्रति भी लापरवाह होते जा रहे हैं। इनके दुःख-दर्द को जानने-पूछने के लिए लोगों के पास समय का अभाव है। संबंधों का यथोचित निर्वाह करने से व्यक्ति की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन होता है।
इस सदी में पिता को पिता न कहकर पापाडैडी आदि न जाने कितने उपमानों से विभूषित किया जा रहा है। लेकिन जो अपनत्व और गंभीरता पिता कहने में है वह अन्य किसी उपमान में नहीं। पिता शब्द आज भी हमारी संस्कृति एवं समाज की धरोहर बना हुआ है -

ओ पिता! तुम दीप हो घर केऔर सूरज-चाँद अंबर के !
तुम हमारे सब अभावों की
पूर्तियाँ करते रहे हँसकर
मुक्ति देते रहे हमको
स्वयं दुःख के जाल में फँसकर [11]

इस सदी में कुछ लोग माता-पिता के प्रति भी लापरवाह होते जा रहे है । वृद्ध माता-पिता के दुःख-दर्द को सुनने तक का समय लोगों के पास नहीं है। आज के इसी दुःखमय वातावरण का सजीव चित्रण करते हुए बेचैनजी लिखते हैं -है। इस संदर्भ में बेचैनजी का यह उद्धरण कितना सार्थक व सटीक है- 

माँ की साँस पिता की खाँसी सुनते थे जो पहलेअब वे कान नहीं
जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है [12]

इस संसार में यदि कोई दरियादिल है तो उसका नाम माँ है। माँ स्वयं भूखी-प्यासी रहकर बच्चों के लिए खाने की व्यवस्था करती हैबच्चों के लिए न जाने क्या-क्या करती रहती इस संदर्भ में बेचैनजी का यह उदारण सटीक है-

ऐसी माँ से ऐ ’कुँअर’ तुम भी तो मिले होगे
जिनके हिस्से में फकत खाली भगौना आया [
13]

नारी के विभिन्न रूप हैं। वह पत्नी होने के साथ-साथ माँबहन और बेटी भी है। इस समाज में घृणित मानसिकता के लोग ही नारी-उत्थान की बात नहीं कर सकते । इस संसार का सबसे बदनसीब व्यक्ति वही है जो अपनी माँ से अलग है-

पूछा कि कौन दुनियाँ में सबसे गरीब है
उत्तर मिलाजो माँ से अलग बदनसीब है [14]

इस पुरूष सत्तात्मक समाज में समानता बनाये रखने के लिए बेटियों को अवश्य ही पुत्र समान देखा जाना चाहिए। क्योंकि इनके बगैर इस समाज की कल्पना अधूरी-सी लगती है। बेचैनजी के शब्दों में -  

बेटी भी वंश की बेल बढ़ावैदो-दो कुटुम्बों का नाम चलावै
हर्षित है सबका हिया
हमारे अँगना फूल बरसे [15]

हमारे समाज की यह रीति है कि जब बेटी जवान हो जाती है तो पिता अपनी सामर्थ्य के अनुरूप एक अच्छा सा घर-वर ढूँढकर अपनी बेटी के ’हाथ पीले’ करके गंगा नहा लेता है। विदाई के समय माता-पिता के साथ-साथ सगे-संबंधियों को भी अपार कष्ट होता हैलेकिन फिर भी हृदय पर पत्थर रखकर विदाई कर दी जाती है। एक पिता अपनी बेटी को विदाई के समय समझाते हुए कहता है -

मिलना और बिछुड़नादोनों जीवन की मजबूरी है
उतने ही हम पास रहेंगे
जितनी हमसे दूरी है
शाखों से फूलों की बिछुड़न
फूलों की पँखुड़ियों की
पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न [16]

हमारे समाज की मान्यता है कि बेटियों के जवान होते ही उन्हें अपने घर पर नहीं रखना चाहिए अर्थात् समय रहते उनका विवाह कर देना चाहिएताकि वे समय से अपना नया घर-परिवार बना सकें। बेचैनजी बेटियों की वास्तविकता स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

बेटियाँ-शीतल हवाएँ हैं जो पिता के घरबहुत दिन तक नहीं रहतीं।
ये तरल जल की परातें हैं
लाज की कोरी कनातें हैं
है पिता का घर हृदय जैसा
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं [17]

प्रायः स्त्रियों का मन अत्यन्त कोमल एवं भावानाओं में लचीलापन होता है। देवी सीता को ही देखिएजीवन-पर्यन्त कठोरताओं का ही सामना करती रहीं। ऐसे ही आज का तथाकथित समाज भी स्त्री-वर्ग का शोषण करने की ही सोचता रहता हैलेकिन समाज के ऐसे लोग कभी भी अपनी चालाकी में कामयाब नहीं हो सकते -

जो जनक के घर उतरती हैरोज शिव का ध्यान धरती है
पूर्ण रहकर जो अधूरी है
टूटने से ही सँवरती है [18]

सामाजिक एकता पर बल-भारतीय समाज में तीज-त्योहारपर्व एवं बारात आदि सभी सामाजिक एकता को बढ़ाने के लिए अच्छे उदाहरण कहे जा सकते हैं। समाज में रहकर किसी भी व्यक्ति को सुधरने और सफल होने का मौका अवश्य ही मिलता है। आपसी समभाव से रहकर विकास की सीढ़ियों  को स्पर्श तथा स्वप्नों को साकार किया जा सकता है।
लोकगीत भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर हैं। गरीबी के चलते एक बहन रक्षाबंधन के अवसर पर अपने भाई को राखी नहीं भेज पाई। इस कारण वह बहुत ही व्यथित होती है। कविवर बेचैनजी उस बहन के माध्यम से किस तरह से भाई की कलाई पर राखी बँधवाने का प्रयास करते हैंजो कि देखते ही बनता है। -

अब के बरस राखी भेज न पाई
सूनी रहेगी मेरे बीर की कलाई
पुरवा भैया के अँगना जइयोछू-छू कलाई कहियो
कहियो कि हम हैं तोरी बहना की रखियाँ [
19]

हमारे देश की संस्कृति अपने आप में बड़ी सम्पन्न है। हिंदूमुस्लिमसिखईसाई आदि सभी धर्मो की एकता एवं अखण्डता किसी से छिपी नहीं है। बीसवीं शताब्दी के कवि बेचैनजी आपसी सामंजस्य स्थापित करते हुए कहते हैं-

वो किसी भी जाति की होंया किसी मजहब की हों
प्यार के बोलों में सारी बोलियाँ आ जाएँगी [
20]

हमारे देश की संस्कृति सर्वधर्म समभाव की रही है। इसीलिए अखिल विश्व हमारे राष्ट्र का सम्मान करता है। इस संबंध में बेचैनजी अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-

तू ही गीता,तू ही रामायणतू कुरान की आयततू ही कर्मभूमि जीवन कीतू ही उसकी किस्मत
पाकर तेरी शरण सभी को मोक्ष मिला करता है
तीर्थ हिंदू के मुसलमान के मक्का और मदीने [21]

 देश की सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग को एकत्र होकर समभाव के साथ कार्य करना होगा। आपसी प्रेम और सौहार्द को बढ़ावा देना होगाअपने वतन और यहाँ की मिट्टी को एक धरोहर के रूप में सँजोना होगानही तो पाश्चात्य सभ्यता हमारे देश को आँधी बनकर झकझोर देगी । कवि पाश्चात्य सभ्यता के हावी होने के भय से आवाहन करता हुआ कहता है-

आओ मिलकर अब हम एक ऐसा मौसम तैयार करें
महल-दुमहले झुकी झोपड़ी को अब खुद मीनार करें
निर्धन आँखों ने जो देखे वो सपने साकार करें
अपनी मिट्टीअपनी धरती को बढ़-बढ़ कर प्यार करें [22]

समाज में कुछ लोग गरीब होकर भी दिल से बहुत अमीर देखे गये हैं। ऐसे लागों को ’बेताज बादशाह’ की संज्ञा दी जाती है। बेचैनजी ऐसे लोगों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-

फकीरी में है बादशाहत हमारी
न यह पूछिए राजधानी कहाँ है [23]

निष्कर्ष अन्ततः यह कहा जा सकता है कि देश की सभ्यता और संस्कृति बचाने के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग को समभाव से कार्य करना होगा तथा आपसी प्रेम एवं सौहार्द को कायम रखते हुए विकास की ओर अग्रसर रहना होगा । कुँअर बेचैनजी का मानना है कि हम सभी को एकत्रित्र होकर अन्याय के खिलाफ जंग जारी रखनी होगी । इसी में हम सबका तथा राष्ट्र का कल्याण निहित है ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. पिन बहुत सारे - कुँअर बेचैन, पृ0सं013 2. आँगन की अलगनी-कुँअर बेचैन, पृ0सं044 3. नदी, तुम रूक क्यो र्गइं-कुँअर बेचैन, पृ0सं027 4. शब्दः एक लालटेन-कुँअर बेचैन, पु0सं078-79 5. उर्वशी हो तुम-कुँअर बेचैन, पृ0सं043 6. पिन बहुत सारे-कुँअर बेचैन, पृ0सं031 7. भीतर साँकलः बाहर साँकल-कुँअर बेचैन, पृ0सं013 8. वही, पृ0सं014 9. वही, पृ0सं066 10. कोई आवाज देता है-कुँअर बेचैन, पृ0सं053 11. झुलसो मत मोर-पंख-कुँअर बेचैन, पृ0सं0 29 12. वही, पृ0सं038 13. आँधियों में पेड़-कुँअर बेचैन, पृ0सं037 14. ....तो सुबह हो-कुँअर बेचैन, पृ0सं018 15. दिन दिवंगत हुए-कुँअर बेचैन, पृ0सं0108 16. वही, पृ0सं099 17. झुलसो मत मोर-पंख-कुँअर बेचैन, पृ0सं066 18. वही, पृ0सं039 19. उर्वशी हो तुम-कुँअर बेचैन, पृ0सं080 20. आग पर कंदील-कुँअर बेचैन, पृ0सं073 21. नदी पसीने की-कुँअर बेचैन, पृ0सं037 22. वही, पृ0सं053 23. महावर इंतजारों का-कुँअर बेचैन, पृ0सं043 24. विश्व स्तरीय शोधपत्रिका ’शोध दिशा’ ’भारतीय संस्कृति एवं साहित्य का अंतरसंबंध’- डा0 अशोक कुमार, जुलाई-सितम्बर 2021