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भारत-नेपाल आर्थिक सम्बन्धः एक विवेचन |
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India-Nepal Economic Relations: An Analysis | |||||||
Paper Id :
19224 Submission Date :
2024-08-02 Acceptance Date :
2024-08-21 Publication Date :
2024-08-25
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सारांश |
प्रस्तुत शोध पत्र में दोनों देशों में शताब्दियों पुराने
सांस्कृतिक-धार्मिक, आर्थिक सम्बन्ध है। भारत द्वारा नेपाल के प्रति ‘‘द्विस्तम्भी
नीति’’ का अनुसरण किया गया जो संवैधानिक राजतन्त्र के
अस्तित्व के साथ पूर्ण प्रजातान्त्रिक नेपाल पर बल देती है। किन्तु राजतंत्र के
अन्त व लोकतंत्र की स्थापना की वजह से भारतीय वैदेशिक नीति में आमूलचल परिवर्तन
आया है। वैश्वीकरण के दौर में नेपाल आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए
भारत पर आश्रित है। वस्तुतः भारत द्वारा नेपाल में अभ्युदित नवीन प्रतिमानों के
अनुरूप अपनी विदेश नीति को सक्रियता एवं गत्यात्मकता प्रदान करनी होगी ताकि आर्थिक
संबंधों में पुनः प्रगाढ़ता आये। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Both countries have centuries old cultural-religious Economic relationship. India follows a "two-pronged policy" towards Nepal, which emphasizes full democratic Nepal with the existence of constitutional monarchy. But the end of the monarchy and the establishment of democracy has led to a radical change in Indian foreign policy. In the era of globalization, Nepal is dependent on India to move on the path of economic development. In fact, India will have to provide its foreign policy proactively and dynamically in accordance with the new dimensions in Nepal. Economic relations of both the countries are strengthened again. | ||||||
मुख्य शब्द | द्विस्तम्भीय नीति, भू-मनोवैज्ञानिक आयाम, भू-सामरिक हित। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Two-pronged Policy, Political Stability. | ||||||
प्रस्तावना | आधुनिक युग में कोई भी
राज्य पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होने का दावा नहीं कर सकता। विश्व का प्रत्येक राज्य
किसी न किसी रूप में दूसरे राज्य पर निर्भर रहता हैै। एक देश की आर्थिक
परिस्थितियाँ अन्य देश को प्रभावित करती हैं और इन्हीं कारणों से अन्तर्राष्ट्रीय
आर्थिक संबंधों का निर्माण होता है। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक देश अपनी आर्थिक
नीति का निर्माण अपने देश की समस्याओं को ध्यान में रखकर करता है। इस सन्दर्भ में
जो भी आर्थिक नीति अपनायी जाती है, उसका उद्देश्य राष्ट्रीय हितों को संरक्षित करना होता है। पामर एवं परकिंस
ने लिखा है कि ‘‘राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्वि के लिए आर्थिक
नीतियों का निर्माण किया जाता है। वे दूसरे राज्यों को हानि पहुँचाने के लिए हो या
न हो परन्तु वे राष्ट्रीय नीति की रक्षक अवश्य होती है।[1] |
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अध्ययन का उद्देश्य |
प्रस्तुत शोध पत्र में भारत तथा नेपाल में शताब्दियों पुराने सांस्कृतिक-धार्मिक व् आर्थिक संबंधों का विवेचन किया गया है। |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोध पत्र हेतु शिव दयाल गौतम की भारत
एवं विश्व राजनीति नामक पुस्तक एवं लल्लन गोपाल की स्टडी इन हिस्टी एण्ड कल्चर इन
नेपाल तथा रजनी कोठारी की स्टेट एण्ड नेशन बिल्डिंग थर्ड वर्ल्ड पर्सपेक्टिव और लोकराज बराल की ‘लीडरशिप इन नेपाल’ इत्यादि पुस्तकों का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
आर्थिक
नीतियों की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करते हुए पैडल
फोर्ड और लिंकन ने लिखा है- ‘‘विदेश नीति के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, प्रत्यक्ष या संबधित रूप से कोई भी आर्थिक क्षमता, संस्था
अथवा तकनीक को आर्थिक साधन कहते हैं।’’[2] जिन उद्देश्यों की
प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग किया जाता है वे आर्थिक-जैसे (आवश्यक कच्चे माल की प्राप्ति या
निर्यात व्यापार में वृद्धि, राजनीतिक (कम विकसित राज्य में विकास या व्यवस्था
परिवर्तन), सैनिक (अड्डों की प्राप्ति) अथवा मनोवैज्ञानिक (दूसरे राष्ट्र की नीति
के प्रति सद्भावना या सहायता) हो सकते हैं।
सन्धि के अनुसार नेपाल ने व्यापार और पारगमन की पृथक सन्धि की अपनी मांग वापस ले ली थी। इस प्रकार तत्कालीन क्षेत्रीय राजनीति को मूल्यांकित करते हुये उसने पूर्वी पाकिस्तान के रास्ते अन्य देशों के साथ व्यापार करने के प्रयोजन से ‘‘राधिकापुर’’ पर सुविधा उपलब्ध कराने की मांग भी वापस ले ली। शेष सन्धि भारत और नेपाल के लिये समान रूप से महत्वपूर्ण थी किन्तु भूतपर्व विदेश मंत्री श्री ऋषिकेष शाह ने सन्धि को पूर्व की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण तथा आर्थिक रूप से हानिप्रद बताया था। 1971 की सन्धि को दो भागों में विभक्त किया गया था। प्रथम व्यापारिक और द्वितीय पारगमन सुविधाओं का उल्लेख किया गया। इस सन्धि की धाराऐं एक से लेकर सात तथा आठ से लेकर पन्द्रह उल्लेखनीय थी, शेष प्रावधान सामान्य थे जो भारत तथा नेपाल द्वारा अन्य देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाये जाने और माल भेजे जाने के विषय में अपनाये जाने वाले थे।[7] भारत और नेपाल के सम्बन्धों को इस व्यापारिक सन्धि ने प्रभावित करने में जहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वहीं ऐसी छुटपुट आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न की, जिससे दोनों देशों के राजनैतिक सम्बन्धों में अस्थायी रूप से तनाव आया। किन्तु तनाव क्षेत्रीय राजनीति में परिवर्तित होती भारतीय स्थिति के कारण स्थायी न रह सके। इन समस्याओं ने आंशिक रूप से ही सही भारत और नेपाल के सम्बन्धों को प्रभावित किया और व्यापार के लिये नये आयाम तलाष करने का निश्चय किया और एक दूसरे का किसी भी देश की तुलना में कम समर्थिक राष्ट्र का दर्जा न देने का निश्चय किया। उन्होंने यह भी निश्चय किया कि भारत नेपाली उत्पाद को अपने देश में आने से बाधित नहीं करेगा और सीमा शुल्क से उत्पाद को मुक्त रखेगा। इस ओर ऐसे ही प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में भारत और नेपाल के मध्य व्यापार, आर्थिक, वाणिज्य सम्बन्धों का प्रारम्भ सन् 1971 के उपरान्त हुआ यहां यह बताना समीचीन होगा कि भारत-नेपाल व्यापारिक सम्बन्धों का प्रारम्भ जिन परिस्थितियों में सन् 1950 में हुआ था, सन् 1971 तक आते-आते उनमें परिवर्तन आया। सन् 1971 के उपरान्त नेपाल को भारतीय निर्यात सामान्यतः पारम्परिक उत्पादों के क्षेत्र में किया जाने लगा, जिसमें चाय, काफी, तम्बाकू, चीनी, साबुन, कपास, हथकरधा वस्त्र और जूते आदि प्रमुख है। यह स्पष्ट होता है कि नेपाल की अपने व्यापार को नये आयाम देने की नीति सफल नहीं रही। नेपाल के कुल निर्यात में भारत का भाग 45 प्रतिशत घटकर 55 प्रतिशत रह गया आयात 81 प्रतिशत से घटकर 42 प्रतिशत रह गया। इस प्रकार भारत के साथ नेपाल के व्यापार संतलन में एक प्रभावी नकारात्मक दृष्टिगोचर होने लगा। इसका मुख्य कारण था भारत और नेपाल के बीच असंतुलित व्यापारिक परिर्वतन। अतः नेपाल अपनी व्यापारिक नीति तथा अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में इस अवधि के अन्तर्गत अक्षम रहा है। इसके उपरान्त नेपाल ने भारत के साथ संयुक्त क्षेत्र में औद्योगिक और व्यापारिक इकाईयाँ स्थापित करने का अगस्त सन् 1979 से प्रयास किया और इस दृष्टि से होटल व्यापार को उसने प्राथमिकता दी। होटल के अतिरिक्त जूट, चीनी और खनिज को भी उसने प्रारम्भिक रूप से संयुक्त क्षेत्र के लिए उपयोगी माना। समस्त राजनैतिक दुविधाओं के बावजूद संयुक्त क्षेत्र की स्थिति सुदृढ़ हुई। आर्थिक सहायता और व्यापारिक सम्बन्धों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय सहायता की प्रकृति पूरक रही है और उसका नेपाल विकास में योगदान रहा है। नेपाल के व्यापार के प्रति भारत का सकारात्मक झुकाव रहा है, मुख्यतः इसलिये कि भारत दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप का मुख्य देश होने के नाते परिधिगत राष्ट्रों विशेषकर नेपाल, जिससे उसके शताब्दियों पुराने सम्बन्ध है, उसकी आर्थिक और राजनैतिक सुदृढ़ता चाहता है ताकि नेपाली समाज सम्यक प्रगति कर सके। किन्तु नेपाल ने भौगोलिक एवं सामरिक स्थिति को अनुगत करते हुये भारतीय दृष्टिकोण को उसकी कमजोरी माना और सदैव दवाब की भाषा में बात करने की चेष्टा की। प्रारम्भिक वर्षों में राजनैतिक स्थिति के कारण उसे इस प्रकार की नीति का अनुसरण कर सफलता भी मिली है।[8] 2001 को नेपाल में नए राजा ज्ञानेन्द्र की ताज पोषी हुयी। इनके शासन में भी नेपाल राजनीतिक तथा आर्थिक रूप से अस्थिर रहा। इस दौरान सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में - नेपाल में माओवादी संगठनों द्वारा कई राज्यों में समानान्तर सरकार चलाना शामिल था। जिसके कारण नेपाल में अशांति फैल रही थी। आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय होती जा रही थी। उद्योग धन्धे असुरक्षा के कारण पलायन कर रहे थे। चूँकि माओवादियों का स्पष्ट मत था कि नेपाल, भारत के साथ अपने सम्बन्धों को सीमित करे तथा उसका पालन करे। राजा ज्ञानेन्द्र ताजपोशी का समय नेपाल का संक्रमण का समय था, नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था पुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी थी, जिसका परिणाम सन् 2000 से 2005 के मध्य के वर्षों में नेपाल में कई बार नेतृत्व परिवर्तन देखने को मिला। माओवादियों की हिंसा रूकी नहीं थी। वे अपना विस्तार धीरे-धीरे सम्पूर्ण नेपाल में कर चुके थे, जो कि नेपाली अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुआ। इसी मध्य नेपाल ने अपने व्यापारिक सम्बन्धों को और विस्तार प्रदान करने के लिए अप्रैल 2004 में विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ग्रहण की। लेकिन नेपाल को इससे अपना व्यापारिक हित साधने में ज्यादा सहायता नहीं प्राप्त हो सकी। राजनीतिक तथा आर्थिक अस्थिरता के मध्य नेपाल शासन महाराजा ज्ञानेन्द्र ने 1 फरवरी 2005 को आपातकाल लागू कर दिया। नेपाली शासक के लोकतंत्र के दमन के कारण भारत ने नेपाल को प्रदान की जा रही सुविधाओं में कमी कर दी। जिससे दोनों राष्ट्रों के आर्थिक सम्बन्ध और प्रभावित हुए। भारत ने नेपाल पर जल्द से जल्द लोकतंत्र को बहाल किए जाने का दबाव बनाया।[9] आपालकाल के दौरान भारत-नेपाल व्यापार लगभग ठप सा पड़ गया। इसका प्रमुख कारण भारत विरोधी माओवादियों की हिंसा थी, क्योंकि माओवादी बाजारों से आयात तथा निर्यात के पक्षधर नहीं थे। माओवादियों द्वारा नेपाल में हिंसा तथा लूटपाट के द्वारा अशांत कर दिया। माओवादियों की हिंसा का भय नये निवेशकों पर भी पड़ा। जिसके कारण नेपाल में नया निवेश पूरी तरह बन्द हो गया परिणामस्वरूप नेपाल की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह टूट गई। कुल मिलाकर 21वीं सदी भारत नेपाल आर्थिक सम्बन्धों पर माओवादियों की हिंसा की गहरी छाप रही तथा यह आशा की जाती रही कि द्विपक्षीय आर्थिक सम्बन्धों में सुधार तभी सम्भव हो सकेगा, जब माओवादी हिंसा के रास्तों को त्यागकर मुख्य धारा से जुड़ेगें, क्योंकि हिंसा ग्रस्त राष्ट्र का विकास सम्भव नहीं हो सकता। फलस्वरूप राजा ज्ञानेन्द्र ने जनवरी 2007 में संसद बहाल कर दी तथा आपातकाल समाप्त कर दिया तथा नयी संविधान सभा के गठन की घोषणा कर दी। नयी संविधान सभा के गठन के बाद नेपाल का आधारभूत ढांचा ही परिवर्तित हो गया। नेपाल लोकतांत्रिक, गणराज्य तथा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हो गया। नेपाल में यह नया परिवर्तन न केवल भारत के लिए वरन् सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के लिए शुभ संकेत था, क्योंकि इसके माध्यम से सार्क संगठन के सभी सदस्य राष्ट्र पारस्परिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सम्बन्धों को और अधिक मजबूती प्रदान कर सकेंगे। |
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निष्कर्ष |
वर्तमान में भारत द्वारा नेपाल में संरचनात्मक
ढ़ांचा सुधारने के लिये नेपाल को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की जा रही है तथा
चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिये भारत ने नेपाल के साथ सम्बन्धों में
सकारात्मक रूख के लिये एकतरफा पहल की जा रही है। फलस्वरूप नेपाल चीन की तरफ अधिक
झुकाव नहीं दिखा रहा है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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