ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- V August  - 2024
Anthology The Research

भारत-नेपाल आर्थिक सम्बन्धः एक विवेचन

India-Nepal Economic Relations: An Analysis
Paper Id :  19224   Submission Date :  2024-08-02   Acceptance Date :  2024-08-21   Publication Date :  2024-08-25
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DOI:10.5281/zenodo.13734084
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महेन्द्र कुमार पालीवाल
सहायक आचार्य
दक्षिण एशिया अध्ययन केन्द्र
राजस्थान विश्वविद्यालय,
जयपुर,राजस्थान, भारत
सारांश

प्रस्तुत शोध पत्र में दोनों देशों में शताब्दियों पुराने सांस्कृतिक-धार्मिक, आर्थिक सम्बन्ध है। भारत द्वारा नेपाल के प्रति ‘‘द्विस्तम्भी नीति’’ का अनुसरण किया गया जो संवैधानिक राजतन्त्र के अस्तित्व के साथ पूर्ण प्रजातान्त्रिक नेपाल पर बल देती है। किन्तु राजतंत्र के अन्त व लोकतंत्र की स्थापना की वजह से भारतीय वैदेशिक नीति में आमूलचल परिवर्तन आया है। वैश्वीकरण के दौर में नेपाल आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए भारत पर आश्रित है। वस्तुतः भारत द्वारा नेपाल में अभ्युदित नवीन प्रतिमानों के अनुरूप अपनी विदेश नीति को सक्रियता एवं गत्यात्मकता प्रदान करनी होगी ताकि आर्थिक संबंधों में पुनः प्रगाढ़ता आये।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Both countries have centuries old cultural-religious Economic relationship. India follows a "two-pronged policy" towards Nepal, which emphasizes full democratic Nepal with the existence of constitutional monarchy. But the end of the monarchy and the establishment of democracy has led to a radical change in Indian foreign policy. In the era of globalization, Nepal is dependent on India to move on the path of economic development. In fact, India will have to provide its foreign policy proactively and dynamically in accordance with the new dimensions in Nepal. Economic relations of both the countries are strengthened again.
मुख्य शब्द द्विस्तम्भीय नीति, भू-मनोवैज्ञानिक आयाम, भू-सामरिक हित।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Two-pronged Policy, Political Stability.
प्रस्तावना
आधुनिक युग में कोई भी राज्य पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होने का दावा नहीं कर सकता। विश्व का प्रत्येक राज्य किसी न किसी रूप में दूसरे राज्य पर निर्भर रहता हैै। एक देश की आर्थिक परिस्थितियाँ अन्य देश को प्रभावित करती हैं और इन्हीं कारणों से अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों का निर्माण होता है। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक देश अपनी आर्थिक नीति का निर्माण अपने देश की समस्याओं को ध्यान में रखकर करता है। इस सन्दर्भ में जो भी आर्थिक नीति अपनायी जाती है, उसका उद्देश्य राष्ट्रीय हितों को संरक्षित करना होता है। पामर एवं परकिंस ने लिखा है कि ‘‘राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्वि के लिए आर्थिक नीतियों का निर्माण किया जाता है। वे दूसरे राज्यों को हानि पहुँचाने के लिए हो या न हो परन्तु वे राष्ट्रीय नीति की रक्षक अवश्य होती है।[1]
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध पत्र में भारत तथा नेपाल में शताब्दियों पुराने सांस्कृतिक-धार्मिक व् आर्थिक संबंधों का विवेचन किया गया है।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोध पत्र हेतु शिव दयाल गौतम की भारत एवं विश्व राजनीति नामक पुस्तक एवं लल्लन गोपाल की स्टडी इन हिस्टी एण्ड कल्चर इन नेपाल तथा रजनी कोठारी की स्टेट एण्ड नेशन बिल्डिंग थर्ड वर्ल्ड पर्सपेक्टिव और लोकराज बराल की लीडरशिप इन नेपालइत्यादि पुस्तकों का अध्ययन किया गया है।

मुख्य पाठ

आर्थिक नीतियों की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करते हुए पैडल फोर्ड और लिंकन ने लिखा है- ‘‘विदेश नीति के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, प्रत्यक्ष या संबधित रूप से कोई भी आर्थिक क्षमता, संस्था अथवा तकनीक को आर्थिक साधन कहते हैं।’’[2] जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग किया जाता है वे आर्थिक-जैसे (आवश्यक  कच्चे माल की प्राप्ति या निर्यात व्यापार में वृद्धि, राजनीतिक (कम विकसित राज्य में विकास या व्यवस्था परिवर्तन), सैनिक (अड्डों की प्राप्ति) अथवा मनोवैज्ञानिक (दूसरे राष्ट्र की नीति के प्रति सद्भावना या सहायता) हो सकते हैं।
यदि स्वतंत्र भारत और नेपाल की वि
देश नीतियों के सन्दर्भ में आर्थिक तत्व पर दृष्टिपात करें तो पायेगें कि विगत 65 वर्षों में दोनों देशों की विदेश नीतियों के निर्धारण में इस तत्व का भारी योगदान रहा है। आर्थिक दृष्टि से भारत का अधिकांश व्यापार पश्चात्य देशों के साथ था। अपने भरपूर प्राकृतिक साधानों का पूर्ण सदुप्रयोग उन्हीं देशों की सहायता से सम्भव भी था।
इस दृष्टिकोण से भारत के लिए सभी विकसित
देशों के साथ मैत्री संबंध रखना आवश्यक  था। इसी कारण भारत ने अपने को किसी भी सैनिक गुट में न बाँधते हुए सभी देशों से अधिकाधिक आर्थिक एवं तकनीक सहायता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की, इसका कारण स्पष्ट था कि भारत किसी प्रकार दूसरे गुट के प्रभाव क्षेत्र में न चला जाए। नेपाल की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में अत्यन्त लघु है, इस कारण उसे अपने आर्थिक संबंध अपने पड़ोसी देशों, विशेषकर भारत एवं चीन सहित अन्य एशियाई देशों में भी रखने होते हैं, क्योंकि भारत के साथ उसका संबंध अति प्राचीन है। उसकी भौतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ भारत के अनुकूल हैं। इस कारण नेपाल की आर्थिक प्रगति में सबसे अधिक योगदान भारत का रहता है।
एक स्थलबद्ध राष्ट्र के रूप में नेपाल सदैव अपनी आर्थिक आ
वश्यकताओं के लिए भारत पर निर्भर रहा है। नेपाल के प्रति भारत की यह भूमिका नयी नहीं थी बल्कि स्वतंत्रता पूर्व के नेपाली शासकों द्वारा भी अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति भारत के माध्यम से की जाती रही। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में आए विभिन्न उतार-चढ़ावों का आर्थिक सम्बन्धों में भी असर देखने को मिलता है। स्वाभाविक है कि दोनों राष्ट्रों के आपसी संबंधों का विवेचन आर्थिक आयामों विशेषकर व्यापार एवं पारगमन की शर्तों के उल्लेख के बिना एकांकी प्रतीत होता है।[3]
विश्व के सभी राष्ट्र जहाँ आर्थिक रूप से निरन्तर प्रगति
शील हो रहे हैं, वहीँ नेपाल अपनी विशेष स्थिति तथा राणा शासकों की विलासिता के कारण आर्थिक विकास में पिछड़ता गया है। राणा शासकों ने नेपाल को विकास से अछूता रखा, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि आर्थिक सम्पन्नता राजनीतिक जागरूकता की जननी है, और जब लोगों में राजनीतिक जागरूकता आएगी तो लोग शासन व्यवस्था में परिवर्तन की माँग करेगें। यही कारण था कि राणा शासकों ने समस्त आर्थिक स्त्रोतों का केन्द्रीकरण कर रखा था और आम जनता रोटी के लिए संघर्ष कर रही थी। कुछ ऐसी ही स्थिति भारतीय ब्रिटिश शासकों की भी थी चूंकि नेपाल से गोरखा सैनिक ब्रिटिश शासकों को प्राप्त होते थे, उन्हें भय लगने लगा कि यदि नेपाल का आर्थिक विकास हो जाएगा तो उन्हें गोरखा सैनिक नहीं मिल पाएगें और वे इसका प्रयोग स्वहित साधन में नहीं कर पायेगें।
भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व नेपाल की आर्थिक स्थिति सोचनीय ही बनी रही। इस स्थिति में सुधार आ सकता था यदि नेपाली प्र
शासन अपने संसाधनों को विकसित कर पाता, जिसके लिए सामयिक आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी। ब्रिटिश शासन के समय ही यह ज्ञात हो गया था कि किसी अन्य राष्ट्र की सहायता के बिना नेपाल का आर्थिक विकास संभव न था। इसी संदर्भ में ब्रिटिश भारत एवं नेपाल की 1923 की संधि सम्पन्न हुई।
इससे पूर्व नेपाल ने शक्ति संतुलन की कूटनीतिक चाल के द्वारा अपने उत्तरी और दक्षिणी पड़ोसियों को एक -दूसरे के विरूद्ध उलझा दिया
, ताकि कोई भी उसे रोक न सके। 1788 और 1791 के तिब्बत में गोरखा लीग सेना के हस्तक्षेप के फलस्वरूप संभावित चीनी हमले का सामना करने के लिए नेपाल ने मार्च 1792 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ व्यापार और मैत्री संधि कर ली। किन्तु इन सम्बंधों में तनाव आया और सन् 1890 में यह लगभग अवरूद्व हो गया। इस संधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि नेपाली व्यापार पतनोन्मुख रहा तथा राणा प्रशासकों ने भी इस दयनीय आर्थिक स्थिति को परिवर्तित करने हेतु कोई कदम नहीं उठाया।[4] हांलाकि भारत नेपाल आर्थिक सम्बन्धों में सामानों का आयात-निर्यात बिल्कुल निःशुल्क था। भारत नेपाल आर्थिक सम्बन्धों में प्रेरक का कार्य स्वयं यहाँ की जनता का भारतीयों के साथ आर्थिक और वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा एक दूसरे को मजबूत करना था।
स्वतन्त्रता के पश्चात : भारत नेपाल आर्थिक संबंध
भारतीय स्वतंत्रता के उपरान्त
, भारत का दृष्टिकोण नेपाली अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना था। सन् 1950 में भारत और नेपाल के बीच इसी कारण एक व्यापार, वाणिज्य एवं पारगमन सन्धि हस्ताक्षरित हुई। जिसके अनुसार भारत नेपाल के व्यापारिक विकास के लिये सहयोग करेगा। इस संधि के कारण नेपाल का 98 प्रतिशत व्यापार भारत के साथ हुआ, किन्तु कालान्तर में यह अड़सठ प्रतिशत ही रह गया। व्यापार में इस कमी का मुख्य कारण नेपाली शासकों की नीति में परिवर्तन और भारत के विरूद्ध नये स्रोतों की तलाश करना था। परिणामतः नेपाल ने भारत के अतिरिक्त चीन, पाकिस्तान, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों के साथ भी व्यापारिक सन्धियाँ हस्ताक्षरित की।
सन् 1960 में पुनः भारत एवं नेपाल के मध्य एक व्यापारिक सन्धि की गई क्योंकि इस अवधि में नेपाल का व्यापार भारत की ओर झुका था
, जिससे नेपाली व्यापारियों को हानि हो रही थी। इस अवधि में नेपाल ने भारत के विरूद्व व्यापारिक सम्बन्ध बनाने के साथ ही साथ पूर्वी देशों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये। नेपाल ने सन्धि के प्रावधानों के लचीले अंश को अपने पक्ष में व्याख्यायित करने की कोशिश की जिससे भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्ध नकारात्मक रूप से प्रभावित हुये। इस कारण तस्करी की समस्या, पारगमन एवं व्यापार की समस्या उत्पन्न हो गई।
सन् 1960 से 1970 तक के दशक में भारत और नेपाल के राजनैतिक सम्बन्धों को प्रभावित करने में आर्थिक समस्याओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी। चीन और पाकिस्तान के कारण नेपाल ने सन्धि के प्रावधानों की अवहेलना करते हुये भारतीय व्यापार के साथ सौतेला व्यवहार किया। नेपाल ने पाकिस्तान औषधियों की तुलना में भारतीय औषधियों पर 7.5 प्रति
शत का अतिरिक्त कर लगाया जिससे वे महंगी हो गई। इसके साथ ही नेपाली व्यापार से भारत जो कर एकत्र करता था वह भी सन्धि के प्रावधानों के अन्तर्गत उसे वापिस कर देना था। इस व्यवस्था का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव भारतीय सिगरेट व्यापार पर पड़ा। भारत द्वारा नेपाल को निर्यातित कुल भारतीय सामग्री का 20 प्रतिशत भाग सिगरेट होता था, जिसे उसने 1968 में प्रतिबन्धित कर दिया था। भारत के द्वारा इसका विरोध करने पर नेपाल सरकार  ने एक निश्चित मात्रा में मध्यम और निम्न श्रेणी की भारतीय सिगरेटों को भी नेपाल में निर्यात किये जाने की सुविधा प्रदान की। इस व्यवस्था ने भारत और नेपाल के राजनैतिक सम्बन्धों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया।[5]
नेपाल सरकार ने भारतीय बाजारों में नेपाली माल के मुक्त प्रवाह की मांग रखी। ऐसा यह इसलिये कर रहा था क्योंकि नेपाल राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के विरूद्व प्रारम्भ से प्रचार कर रहा था। जिससे यह भारतीय नीतियों को प्रभावित कर सके। इसके साथ ही खाद्यान्न नीति
, नेपाल की मुद्रा नीति तथा भारत से प्राप्त उत्पादन कर की समस्यायें भी भारत और नेपाल के सम्बन्धों को प्रभावित करती रही थी। परन्तु इन समस्याओं को पदाधिकारी स्तर पर सुलझा लिया गया। यह कहना असंगत न होगा कि जहां भारत ने नेपाल के आर्थिक विकास में समुचित योगदान दिया, वहीं नेपाल ने दबावकारी नीतियों और धमकियों का इस्तेमाल किया।
सन् 1970 में समाप्त होने वाली 10 वर्षीय सन्धि को न तो भारत ने संषोधित ही किया और न उसे आगे चालू ही रखा। इस भारतीय नीति के कारण ही 1970 में भारत-नेपाल सीमा पर आंशिक तनाव भी अनुभव किया गया
, जिससे नेपाली व्यापार और आर्थिक जीवन लगभग ठप्प हो गया। अब तक क्षेत्रीय राजनीति में भारत की स्थिति 1960 की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ हो चुकी थी। इस परिस्थिति में नेपाल को भारत की दृढ़ता के समक्ष झुकना पड़ा। सन् 1960 की सन्धि के बहुत से मुद्दों पर असहमति होने के कारण एक सन्धि 1971 में भारतीय शर्तो पर पांच वर्षीय व्यापार वाणिज्य सन्धि हस्ताक्षरित की गयी।[6]
सन् 1971 तक भारत और नेपाल के व्यापारिक एवं वाणिज्यिक सम्बन्ध तनावपूर्ण हो चुके थे
, जिसका प्रभाव उनके राजनैतिक सम्बन्धों पर भी पड़ा और वे असामान्य होते चले गये। व्यापार एवं वाणिज्य क्षेत्र में तनाव के मुख्य मुद्दे बौंड समस्या, तस्करी, पारगमन एवं व्यापार की समस्या और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की समस्या थी। तत्कालीन क्षेत्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आये परिवर्तन के कारण कहा जा सकता है कि भारत के विरूद्ध नेपाल को सहायता देने हेतु अन्य देश बहुत उत्साहित नहीं थे। दूसरी ओर राजनैतिक जागरूकता के वशीभूत नेपाल का व्यापारिक वर्ग एवं जनसामान्य व्यवस्था से अपनी अपेक्षा और आकांक्षाओं की आपूर्ति चाहता था, जिसके लिये सहज और सुविधाजन्य परिस्थितियों एवं बाजार की आवश्यकता थी। नेपाल के लिये यह बाध्यकारी था कि वह भारत के साथ नवीन व्यापारिक सन्धि करें। भारत भी अपने राजनैतिक सम्बन्धों को घनिष्ठ बनाने के प्रयोजन से इस अवसर को चूकना नहीं चाहता था, अतः व्यापार और वाणिज्य की उभयपक्षीय सन्धि दोनों राष्ट्रों ने अगस्त 1971 को हस्ताक्षरित की। यद्यपि यह सन्धि भारत के पक्ष में नहीं थी और संसद में भी इसकी आलोचना हुई।

सन्धि के अनुसार नेपाल ने व्यापार और पारगमन की पृथक सन्धि की अपनी मांग वापस ले ली थी। इस प्रकार तत्कालीन क्षेत्रीय राजनीति को मूल्यांकित करते हुये उसने पूर्वी पाकिस्तान के रास्ते अन्य देशों के साथ व्यापार करने के प्रयोजन से ‘‘राधिकापुर’’ पर सुविधा उपलब्ध कराने की मांग भी वापस ले ली। शेष सन्धि भारत और नेपाल के लिये समान रूप से महत्वपूर्ण थी किन्तु भूतपर्व विदेश मंत्री श्री ऋषिकेष शाह ने सन्धि को पूर्व की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण तथा आर्थिक रूप से हानिप्रद बताया था। 1971 की सन्धि को दो भागों में विभक्त किया गया था। प्रथम व्यापारिक और द्वितीय पारगमन सुविधाओं का उल्लेख किया गया। इस सन्धि की धाराऐं एक से लेकर सात तथा आठ से लेकर पन्द्रह उल्लेखनीय थी, शेष प्रावधान सामान्य थे जो भारत तथा नेपाल द्वारा अन्य देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाये जाने और माल भेजे जाने के विषय में अपनाये जाने वाले थे।[7]

भारत और नेपाल के सम्बन्धों को इस व्यापारिक सन्धि ने प्रभावित करने में जहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वहीं ऐसी छुटपुट आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न की, जिससे दोनों देशों के राजनैतिक सम्बन्धों में अस्थायी रूप से तनाव आया। किन्तु तनाव क्षेत्रीय राजनीति में परिवर्तित होती भारतीय स्थिति के कारण स्थायी न रह सके। इन समस्याओं ने आंशिक रूप से ही सही भारत और नेपाल के सम्बन्धों को प्रभावित किया और व्यापार के लिये नये आयाम तलाष करने का निश्चय किया और एक दूसरे का किसी भी देश की तुलना में कम समर्थिक राष्ट्र का दर्जा न देने का निश्चय किया। उन्होंने यह भी निश्चय किया कि भारत नेपाली उत्पाद को अपने देश में आने से बाधित नहीं करेगा और सीमा शुल्क से उत्पाद को मुक्त रखेगा। इस ओर ऐसे ही प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में भारत और नेपाल के मध्य व्यापार, आर्थिक, वाणिज्य सम्बन्धों का प्रारम्भ सन् 1971 के उपरान्त हुआ यहां यह बताना समीचीन होगा कि भारत-नेपाल व्यापारिक सम्बन्धों का प्रारम्भ जिन परिस्थितियों में सन् 1950 में हुआ था, सन् 1971 तक आते-आते उनमें परिवर्तन आया। सन् 1971 के उपरान्त नेपाल को भारतीय निर्यात सामान्यतः पारम्परिक उत्पादों के क्षेत्र में किया जाने लगा, जिसमें चाय, काफी, तम्बाकू, चीनी, साबुन, कपास, हथकरधा वस्त्र और जूते आदि प्रमुख है।

यह स्पष्ट होता है कि नेपाल की अपने व्यापार को नये आयाम देने की नीति सफल नहीं रही। नेपाल के कुल निर्यात में भारत का भाग 45 प्रतिशत घटकर 55 प्रतिशत रह गया आयात 81 प्रतिशत से घटकर 42 प्रतिशत रह गया। इस प्रकार भारत के साथ नेपाल के व्यापार संतलन में एक प्रभावी नकारात्मक दृष्टिगोचर होने लगा। इसका मुख्य कारण था भारत और नेपाल के बीच असंतुलित व्यापारिक परिर्वतन। अतः नेपाल अपनी व्यापारिक नीति तथा अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में इस अवधि के अन्तर्गत अक्षम रहा है।

इसके उपरान्त नेपाल ने भारत के साथ संयुक्त क्षेत्र में औद्योगिक और व्यापारिक इकाईयाँ स्थापित करने का अगस्त सन् 1979 से प्रयास किया और इस दृष्टि से होटल व्यापार को उसने प्राथमिकता दी। होटल के अतिरिक्त जूट, चीनी और खनिज को भी उसने प्रारम्भिक रूप से संयुक्त क्षेत्र के लिए उपयोगी माना। समस्त राजनैतिक दुविधाओं के बावजूद संयुक्त क्षेत्र की स्थिति सुदृढ़ हुई।

आर्थिक सहायता और व्यापारिक सम्बन्धों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय सहायता की प्रकृति पूरक रही है और उसका नेपाल विकास में योगदान रहा है। नेपाल के व्यापार के प्रति भारत का सकारात्मक झुकाव रहा है, मुख्यतः इसलिये कि भारत दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप का मुख्य देश होने के नाते परिधिगत राष्ट्रों विशेषकर नेपाल, जिससे उसके शताब्दियों पुराने सम्बन्ध है, उसकी आर्थिक और राजनैतिक सुदृढ़ता चाहता है ताकि नेपाली समाज  सम्यक प्रगति कर सके। किन्तु नेपाल ने भौगोलिक एवं सामरिक स्थिति को अनुगत करते हुये भारतीय दृष्टिकोण को उसकी कमजोरी माना और सदैव दवाब की भाषा में बात करने की चेष्टा की। प्रारम्भिक वर्षों में राजनैतिक स्थिति के कारण उसे इस प्रकार की नीति का अनुसरण कर सफलता भी मिली है।[8]

2001 को नेपाल में नए राजा ज्ञानेन्द्र की ताज पोषी हुयी। इनके शासन में भी नेपाल राजनीतिक तथा आर्थिक रूप से अस्थिर रहा। इस दौरान सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में - नेपाल में माओवादी संगठनों द्वारा कई राज्यों में समानान्तर सरकार चलाना शामिल था। जिसके कारण नेपाल में अशांति फैल रही थी। आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय होती जा रही थी। उद्योग धन्धे असुरक्षा के कारण पलायन कर रहे थे। चूँकि माओवादियों का स्पष्ट मत था कि नेपाल, भारत के साथ अपने सम्बन्धों को सीमित करे तथा उसका पालन करे।

राजा ज्ञानेन्द्र ताजपोशी का समय नेपाल का संक्रमण का समय था, नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था पुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी थी, जिसका परिणाम सन् 2000 से 2005 के मध्य के वर्षों में नेपाल में कई बार नेतृत्व परिवर्तन देखने को मिला। माओवादियों की हिंसा रूकी नहीं थी। वे अपना विस्तार धीरे-धीरे सम्पूर्ण नेपाल में कर चुके थे, जो कि नेपाली अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुआ। इसी मध्य नेपाल ने अपने व्यापारिक सम्बन्धों को और विस्तार प्रदान करने के लिए अप्रैल 2004 में विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ग्रहण की। लेकिन नेपाल को इससे अपना व्यापारिक हित साधने में ज्यादा सहायता नहीं प्राप्त हो सकी। राजनीतिक तथा आर्थिक अस्थिरता के मध्य नेपाल शासन महाराजा ज्ञानेन्द्र ने 1 फरवरी 2005 को आपातकाल लागू कर दिया। नेपाली शासक के लोकतंत्र के दमन के कारण भारत ने नेपाल को प्रदान की जा रही सुविधाओं में कमी कर दी। जिससे दोनों राष्ट्रों के आर्थिक सम्बन्ध और प्रभावित हुए। भारत ने नेपाल पर जल्द से जल्द लोकतंत्र को बहाल किए जाने का दबाव बनाया।[9]

आपालकाल के दौरान भारत-नेपाल व्यापार लगभग ठप सा पड़ गया। इसका प्रमुख कारण भारत विरोधी माओवादियों की हिंसा थी, क्योंकि माओवादी बाजारों से आयात तथा निर्यात के पक्षधर नहीं थे। माओवादियों द्वारा नेपाल में हिंसा तथा लूटपाट के द्वारा अशांत कर दिया। माओवादियों की हिंसा का भय नये निवेशकों पर भी पड़ा। जिसके कारण नेपाल में नया निवेश पूरी तरह बन्द हो गया परिणामस्वरूप नेपाल की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह टूट गई।

कुल मिलाकर 21वीं सदी भारत नेपाल आर्थिक सम्बन्धों पर माओवादियों की हिंसा की गहरी छाप रही तथा यह आशा की जाती रही कि द्विपक्षीय आर्थिक सम्बन्धों में सुधार तभी सम्भव हो सकेगा, जब माओवादी हिंसा के रास्तों को त्यागकर मुख्य धारा से जुड़ेगें, क्योंकि हिंसा ग्रस्त राष्ट्र का विकास सम्भव नहीं हो सकता। फलस्वरूप राजा ज्ञानेन्द्र ने जनवरी 2007 में संसद बहाल कर दी तथा आपातकाल समाप्त कर दिया तथा नयी संविधान सभा के गठन की घोषणा कर दी।

नयी संविधान सभा के गठन के बाद नेपाल का आधारभूत ढांचा ही परिवर्तित हो गया। नेपाल लोकतांत्रिक, गणराज्य तथा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हो गया। नेपाल में यह नया परिवर्तन न केवल भारत के लिए वरन् सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के लिए शुभ संकेत था, क्योंकि इसके माध्यम से सार्क संगठन के सभी सदस्य राष्ट्र पारस्परिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सम्बन्धों को और अधिक मजबूती प्रदान कर सकेंगे।

निष्कर्ष

वर्तमान में भारत द्वारा नेपाल में संरचनात्मक ढ़ांचा सुधारने के लिये नेपाल को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की जा रही है तथा चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिये भारत ने नेपाल के साथ सम्बन्धों में सकारात्मक रूख के लिये एकतरफा पहल की जा रही है। फलस्वरूप नेपाल चीन की तरफ अधिक झुकाव नहीं दिखा रहा है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. गौतम शिव दयालः भारत एवं विश्व राजनीति, सुमिता प्रकाशन, इन्दौर, 1990, पृ.4
  2. उपरोक्त, पृ. 5
  3. गोपाल लल्लन: स्टडी इन हिस्ट्री एड कल्चर इन नेपाल, भारतीय प्रकाशन, वाराणसी, 1977, पृ. 23
  4. सुशीला त्यागी: इण्डो नेपालिज रिलेशंस 1858-1914, डी.के. पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1974, पृ. 36
  5. रजनी कोठारी: स्टेट एण्ड नेशन बिल्डिंग थर्ड वर्ल्ड पर्सपेक्टिव, अलाइड पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 2001, पृ. 13
  6. लोकराज बराल: लीडरशिप इन नेपाल, एड्रोइट पब्लिशर्स, दिल्ली, 2001,  पृ. 8
  7. उपरोक्त, पृ. 10-11
  8. आई.डी.मिश्रा: स्टिमिक स्ट्रेन्स एण्ड पॉलिटिक्स डवलपमेंट इन नेपाल, विलयश्री पब्लिकेशन, वाराणसी, 1985, पृ. 129
  9. टी.बी. सुब्बा: नेपाल एण्ड द इंडियन नेपालिज, हिमालय बुक्स, नई दिल्ली, 2005, पृ. 73