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वेदों में पर्यावरणीय चेतना |
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Environmental Awareness in the Vedas | |||||||
Paper Id :
19250 Submission Date :
2024-09-18 Acceptance Date :
2024-08-23 Publication Date :
2024-08-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.13955030 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
संसार आज चाहे कितनी भी प्रगति का प्रस्ताव रख दे, यह सत्य है कि मानवीय समस्याओं का समाधान हमें वेदों में ही दिखाई देता है। मानव जीवन के उत्कर्ष के लिए जो कुछ भी उपयुक्त है वैसी सभी चीजों की उपलब्धता वेदों में पाई जाती है। वेदों में निश्रेष के साधनों के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी दिखाई देती है।भौतिकवाद की स्थापना का विकार आज विश्व के लिए भारी चर्चा का विषय बन गया है।मनुष्य ने नदियां बाय अंतरिक्ष सब कुछ भ्रष्ट कर दिया है। ऐसी स्थिति में हम गर्व से कह सकते हैं कि भारत ने वेद कल से ही इस बात की जागृति रखी है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | No matter how much progress the world proposes today, it is true that we find the solution to human problems only in the Vedas. Whatever is suitable for the progress of human life, all such things are available in the Vedas. Along with the means of excellence, the art of living is also visible in the Vedas. The disorder of establishing materialism has become a big topic of discussion for the world today. Man has corrupted everything from rivers to space. In such a situation, we can proudly say that India has been aware of this since the time of Vedas. | ||||||
मुख्य शब्द | वेद, पर्यावरण, प्रकृति, प्रदूषण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian Politics, Dynasty, Status Of Dynasty, Reasons, Suggestions. | ||||||
प्रस्तावना | ऋग्वेद के अनुसार मनुष्य अपने लिए प्रदूषण रहित पृथ्वी
लोक चाहता है। किंतु मनुष्य ने ही अपनी आवश्यकताएं इतनी बढ़ा ली है कि उनकी पूर्ति
पर्यावरण के लिए खतरा बन गई है और प्रकृति के विनाश की तरफ धकेल रही है। मनुष्य यश
कीर्ति वैभव और समृद्धि का अभिलाषी हैं इन सबको प्राप्त करने के लिए प्रकृति का संरक्षण
भी चाहता है। प्रकृति अपनी रक्षा करने में समर्थ है यह इस बात से सिद्ध होता है कि
जहां कहीं पर भी प्राकृतिक घटनाएं घटित होती हैं तो यह प्रकृति का आदेश ही होता है।
आज वैज्ञानिक ओजोन परत में हुए चित्र के बारे में जो चिंता प्रकट कर रहे हैं वेदों
ने इस संबंध में बहुत पहले सचेत किया था पृथ्वी का हृदय परम व्योम में स्थित है जिसका
अभिप्राय यही है कि जिस तरह हृदय की धड़कन पर प्राणी का जीवन निर्भर है इस प्रकार अंतरिक्ष
रुपी ह्रदय के नष्ट होते ही संपूर्ण ब्रह्मांड का नाश निश्चित है। आज इसमें तनिक भी
संदेह नहीं है वैदिक ऋषि मुनियों ने प्रकृति को माता कहा है और पूजा के लिए माना है
क्योंकि प्रकृति के सारे कार्य भूमि द्वारा ही संपन्न किए जाते हैं इसलिए पृथ्वी ही
प्रकृति का प्रथम तत्व है। पृथ्वी सभी प्राणियों की हित संपादक होने से "अदिति"
कहलाई। वेदों में वृक्षों के महत्व का प्रतिपादन किया गया है। वर्षों में चेतन तत्व
माना है वृक्ष कार्बन डाई ऑक्साइड को ऑक्सीजन में परिवर्तित करके मानव जीवन के लिए
अमूल योगदान देते हैं। भारतीय संस्कृत में पीपल नीम बरगद तुलसी आदि को पूजन करने का यही अभिप्राय है कि आक्सीजन
प्रदान करके मानव जीवन की रक्षा करते हैं। हिंदू धर्म में प्रत्येक घर में तुलसी का
पौधा लगाने की सलाह दी गई है जिसे वैज्ञानिक कारण है कि तुलसी का पौधा जो दिन व रात
दोनों समय ऑक्सीजन छोड़ता है तथा इसकी पत्तियां प्रकाश संश्लेषण द्वारा सर्वाधिक मात्रा
में सौर ऊर्जा शोषित करती है। ऋषियों और मुनियों ने जनमानस में इस धारणा को बोल दिया
है कि तुलसी में लक्ष्मी व विष्णु दोनों का निवास है यह पौधे वाष्प विसर्जन द्वारा
वातावरण में नमी बनाए रखते हैं जिससे समय-समय पर वर्षा होती रहती है तथा मृदा क्षरण नहीं होता। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य वेदों में पर्यावरणीय चेतना का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | हाल में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में 21 भारत में है। वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर गाजियाबाद है दूसरे स्थान पर चीन का होटन शहर व तीसरे स्थान पर पाकिस्तान का गुजरांवाला शहर है दिल्ली दुनिया का पांचवा सबसे प्रदूषित शहर है। मनुष्य प्रकृति के अनियंत्रित दोहन से वेदों में प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए बार-बार आवाहन किया है। मनुष्य अपनी इच्छाओं को बस में रखकर प्रकृति को उतना ही ग्रहण करें कि उसकी पूर्णता को नुकसान न पहुंचे। पर्यावरण के तीन मूलभूत कारक मृदा, वायु तथा अग्नि को वेदों में पृथ्वी लोक, अंतरिक्ष लोक तथा आदित्य लोक के रूप में चिन्हित किया है जो सर्वव्यापक शक्ति अर्थात विष्णु द्वारा रचित तथा संरक्षित है। राजा बलि से दान में विष्णु ने तीन कदमों में तीन लोको का अधिग्रहण कर लिया जो वास्तव में ही इनके संरक्षण का ही प्रतीक है वेदों में कहा गया है कि हम जाने अनजाने में ऐसा कुछ ना करें जो विध्वंसक हो यदि कोई ऐसा कार्य हमसे हो जाए तो सृष्टि के संरक्षण के प्रतिकूल हो तो वेद हमारी रक्षा करें। ऋग्वेद में पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में बहुत सी आशंकाएं व्यक्त की गई है जिससे यह सिद्ध होता है कि वेदों के रचयिता को मानव जाति से पर्यावरण को खतरे की आशंका बारंबार बनी हुई थी। |
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मुख्य पाठ |
पर्यावरण प्रदूषण एवं संरक्षण वेदों में पर्यावरण के संरक्षण के महत्व को उद्घाटित करते
हुए मानव मात्र को उसकी रक्षा में उद्यत रहने के लिए आवाहन किया गया है। पर्यावरण के
संरक्षण के लिए मनुष्य के अंदर सत्य संकल्प तब ज्ञान तथा त्याग के गुण का होना बहुत
आवश्यक है। इनसे पृथ्वी का संरक्षण किया जा सकता है वेदों में पशु पक्षी और वनस्पतियों
के संदर्भ एवं उल्लेख भारतीय संस्कृति के मूलभूत मूल्यों को रेखांकित करता है। यजुर्वेद
में इसका उल्लेख मिलता है कि इस जगत के समस्त प्राणियों को मित्रवत देखो पर्यावरण की
सुरक्षा के लिए वेदों में शांति की प्रार्थना की गई है। स्थलमंडल पृथ्वी का ठोस भाग है ब्रह्मांड का भाग 29 प्रतिशत भाग ही महाद्वीप दीप तथा धरती का है। पृथ्वी तो
रसायनों का घर है। मानव इनका अंधा धुंध दोहन करके पृथ्वी का नाश न करें जो आज लालच
बस कर रहा है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में अनेक शक्तियों से संपन्न औषधीय अन्य तथा
फल देने वाली कृषि तथा अनेक वनस्पतियों का उल्लेख है। जिसका संरक्षण तथा उचित प्रयोग
मानव से सदैव अपेक्षित रहा है। इस सूक्त के 35 में भाग में भूमि को किसी भी प्रकार
की नुकसान न पहुंचने का स्पष्ट रूप से निषेध है तथा स्वाभाविक तरीके से की जाने वाली
कृषि को प्रधानता दी गई है। स्वच्छ पर्यावरण केवल मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक
नहीं है वर्ण उत्तम खेती और फसल के लिए भी आवश्यक है। यदि पर्यावरण स्वच्छ होगा तो
उतनी ही अच्छी वर्षा होगी जिससे फसल भी अच्छी होगी। मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत अपरिहार्य
है। आज जो गंदे नालों के पानी से उगाई गई सब्जियां आदि खाने को मिलती हैं वह स्वास्थ्य
पर प्रतिकूल असर डालते हैं। स्वच्छ पर्यावरण का होना किसके लिए आवश्यक है। वर्षा का
जल नदियों में एकत्र होकर और झरनों कूप व नालियों से खेतों में पहुंचकर संसार को लाभ पहुंचता है। अथर्ववेद
के प्रथम सूक्त में पृथ्वी का महत्व प्रदर्शित करते हुए सभी प्राणियों को पृथ्वी का
पुत्र कहा गया है। पृथ्वी के महत्व का प्रतिपादन करते हुए वेद कहते हैं कि भोजन और
स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इसी भूमि पर उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों
की माता और मेघ पिता है क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहकर यह पृथ्वी को गर्भाधान
करता है। पृथ्वी में नाना प्रकार की धातुएं ही नहीं वरन जल और खाद्यान्न कंदमूल भी
प्राप्त मात्रा में पाए जाते हैं। इस पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है। सभी जीवों को जल की आवश्यकता
होती है। हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन की आवश्यकता पूर्ति भी जल से होती है। वेदों में कहा गया है कि पृथ्वी पर झील की निरंतर वृद्धि होती रहे इसलिए वर्षा के लिए यज्ञ करने चाहिए।
यज्ञ के महत्व का वर्णन जगह-जगह मिलता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि जंगल तथा वृक्ष
पृथ्वी पर वर्षा लाते हैं। वृक्ष ही मिट्टी
को बहाने से रोकते हैं बाढ़ और सुख दोनों का प्रतिरक्षण वृक्षों से होता है। देवों
द्वारा बसाए गए नगर तथा अच्छे उद्योगों का उल्लेख भी पर्यावरण प्रदूषण से बचाए रखने
की ओर संकेत है। इससे पृथ्वी सभी पदार्थों से पूर्ण तथा रमणीय रहती है। अर्थात वेद
के 43वे सूक्त में कहा गया है कि अन्यायपूर्वक पृथ्वी पर निवास
करने वालों को दंड देने का काम भी प्रकृति करती है। सामाजिक जीवन में जल को प्रदूषण करने की क्रिया सरवत परीक्षित होती है। गंगा जैसी पवित्र नदी जिसके
जल को अमृत स्वरूप माना गया है। पुराणों में कहा गया है कि - गंधक जड़ी बूटियां से
टकराकर गंगाजल आता है। इसके सेवन से मानव रोग रहित बन जाता है। ऋग्वेद में पांच मुख्य तत्वों में जल को देवी रूप मानकर
वेदों से स्तुति की गई है। संपूर्ण जगत जल से व्याप्त है इसलिए जल "आपस"
कहलाया अर्थात इस सृष्टि के सभी पदार्थ आपस से ही उत्पन्न हुए हैं। इसलिए आपस को दिव्य
तत्व मानकर वरुण को उसका देवता माना गया है। जल के दो रूप वेदों में बताए गए हैं स्थल
तथा मूल। मूल जल कभी नष्ट नहीं होता इसलिए
इसे अमृत कहा गया है। संपूर्ण प्राणियों वनस्पतियों तथा औषधीय में सार तत्व के
रूप में जल ही जल है। यह सभी प्राणियों में प्राण का संचार करने के कारण प्राण कहलाता
है। क्रियात्मक यज्ञ भी आपस रूप में है। वेदों में यह भी कहा गया है कि यह सूर्य जल
से ही उदय होता है और जल से ही अस्त होता है। यह स्वयं पवित्र है ही सभी को भी पवित्र
करने वाला तत्व वेदों में माना गया है। वेदों में जल प्रदूषण की समस्या पर व्यापक चिंतन मनन मिलता
है। घर के पास ही शुद्ध जल से भरा हुआ जलाशय होना चाहिए। अथर्ववेद के 12वें सूक्त में कहा गया है कि शुद्ध जलपान करने से मैं मृत्यु
से बचा रहूंगा। वेदों में शुद्ध जल को मनुष्य की दीर्घायु प्रदान करने वाला प्राणों
का रक्षक तथा कल्याणकारी माना गया है। वैदिक युगीन ऋषि मुनि जानते थे कि जल चेहरे का
सौंदर्य तथा कोमलता एवं कांत बढ़ाने में औषधि रूप है। जो अमृता की ओर ले जाने वाला तत्व है।
वायुमंडल तथा जलमंडल के ऊपर आवरण बनाने वाला वायुमंडल है।
वायुमंडल में लगभग ऑक्सीजन 21%, नाइट्रोजन 78%, कार्बन डाई ऑक्साइड 0.04%, जलवाष्प अनियमित मात्रा
में तथा निष्क्रिय कैसे बहुत थोड़ी मात्रा में है। परमाणु अस्त्रों की होड़ में आज विश्व विनाश के कगार
पर खड़ा है। परमाणु परीक्षणों से पर्यावरण कितना प्रदूषण होता है यह हम सबको मालूम
है। पेट्रोल, डीजल के वाहनों, कारखाने आदि से निकला धुआं, जहरीली गैस स्वास्थ्य
के लिए घातक सिद्ध हो रही है। संजीव जगत के लिए पर्यावरण की रक्षा में वायु की स्वच्छता
का प्रथम स्थान है। बिना प्राण हवा क्षण भर जीवित रहना संभव नहीं है। ईश्वर ने प्राणी
जगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला रखा है। हमारे शरीर के अंदर
रक्त वाहिनियों में रक्त बाहर की तरफ दबाव डालता रहता है यदि इसे संतुलित ना किया जाए
तो शरीर की सभी धामनिया फट जाएगी तथा जीवन नष्ट हो जाएगा। वायु का सागर हमारी इससे
रक्षा करता है। शुद्ध वायु को अमूल्य निधि के रूप में वेदों ने मान्यता दी है। शुद्ध
ताजी भाई औषधि है जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है आनंददायक है। सभी मौसम, दिन रात का नियमित आना पर्यावरण की शुद्धि का प्रतीक है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि पृथ्वी का संरक्षण मानव का कर्तव्य है और वह तभी संभव है
जब वह प्रतिबद्ध और कृत संकल्प होकर पृथ्वी के संरक्षण के लिए यज्ञ करता रहे। |
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निष्कर्ष |
आज भौतिकवादी युग में पर्यावरण संकट बढ़ता जा रहा है। आज
स्थिति यह है कि जीवन के लिए अनिवार्य जल, थल, हवा, तीनों प्रदूषण से ग्रस्त हैं। इसके अतिरिक्त ध्वनि प्रदूषण और रेडियो
एक्टिव प्रदूषण का खतरा भी सिर पर आने लगा है। मनुष्य अपनी कब्र धीरे-धीरे स्वयं ही
खोद रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 51% प्रदूषण उद्योग से 27 प्रतिशत वाहनों से 8% फसल के अवशेष जलने से व
14% घरेलू वह अन्य से होता है। कृष्ण में प्रयुक्त
कीटनाशक दवाएं कारखाने से निकलने वाले अवशेष और अस्पतालों से निकली गंदगी से नदियों
का जल प्रदूषित तो होता ही जा रहा है। गली मोहल्ले से लगी जनरेटर प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण फलते जा रहे हैं।
इसलिए हम कह सकते हैं कि वैदिक कालीन में जिस प्रकार से मानव प्राकृतिक वातावरण को
बिना हानि पहुंच उसके साथ आनंदमय जीवन व्यतीत करता था और आज कल मनुष्य प्रकृति के तत्वों
को नुकसान पहुंचाकर वातावरण प्रदूषित कर रहा है। आने वाले समय में यह वातावरण मनुष्य
के रहने के अनुकूल नहीं रह जाएगा इसलिए हम अभी से सजग होकर पर्यावरण के प्रति चेतना
जागृत कर प्रकृति की गोद में वेदों की ओर बढ़े। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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