ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- VI September  - 2024
Anthology The Research

किशनगढ़ चित्रशैली में अलंकारिकता एवं काव्यात्मकता

Figurativeness And Poeticism In Kishangarh Style Of Painting
Paper Id :  19275   Submission Date :  2024-09-16   Acceptance Date :  2024-09-23   Publication Date :  2024-09-25
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DOI:10.5281/zenodo.13943738
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बिरदी चन्द
शोधार्थी,
चित्रकला विभाग
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय
,अजमेर, राजस्थान, भारत
रामावतार मीणा
शोध निर्देशक, प्रोफेसर
चित्रकला विभाग
राजकीय महाविद्यालय
टोंक,(राजस्थान)
सारांश
राजस्थान प्रदेश जितना प्राचीन है उतना ही आधुनिक इसका नाम है। पूर्व में यह प्रदेश छोटी-छोटी रियासतों में विभक्त था जिनके नाम भी अनेक थे। 1829 ई. में सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टॉड (घोड़े वाले बाबा) ने अपनी पुस्तक  Enals and Entiquties of Rajasthan में इस नाम का प्रयोग किया। इससे पूर्व 1765 ई. के शिलालेख के अनुसार भी राजस्थान शब्द प्रयोग करने की जानकारी मिलती है जिसमें लिखा गया है कि ‘‘देश, धर्म, क्षेत्र-सागर, सपवित्र क्षण तन्मध्ये मेरू शिखर, सराज-विजय, राजस्थान सन्नृपम्बिवास।’’
राजस्थान में जितनी शूरवीरता रही है उतना ही कोमल इसका हृदय है। राजपूतों ने यदि क्षेत्र-रक्षण में तलवार की तृष्णा रक्त से शान्त की है तो रनिवासों में श्रृंगार, प्रणय, मंदिरों में धर्म, साहित्य व संगीत की प्यास तूलिका से बुझाई। इस प्रकार राजपूत शूरवीर परम्परा से काव्य व कला के संरक्षक रहे है तो प्रकृति से उन्होंने शौर्य को धारण किया है। इन्हीं के कोमल हृदय में राजस्थान की कला पल्लवित हुई जो अपने आरम्भ से अनेक सहचरी कला शैलियों का सानिध्य प्राप्त करती हुई अपने यौवन पर पहुंची तो इसके सौन्दर्य व प्रणय रस से संपूर्ण जगत भाव-विभोर हो उठा।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Rajasthan is as ancient as its name. Earlier, this state was divided into small princely states which had many names. In 1829, Colonel James Todd (Ghode Wale Baba) first used this name in his book 'Enals and Entiquties of Rajasthan'. Before this, information about the use of the word Rajasthan is also available according to the inscription of 1765 AD, in which it is written that "Country, religion, area-ocean, holy moment, Meru peak, Saraj-vijay, Rajasthan Sannrupambivas." Rajasthan has as much bravery as its heart is soft. If the Rajputs have quenched the thirst of sword with blood in the field of defense, then they have quenched the thirst of makeup, love in the palaces, religion, literature and music in the temples with the paintbrush. Thus, Rajputs have been the protectors of poetry and art by tradition and they have imbibed bravery by nature. In his tender heart, the art of Rajasthan flourished. From its inception, it received the company of many companion art styles and when it reached its youth, the entire world became enthralled with its beauty and love.
मुख्य शब्द राजस्थान, चित्रकला, राजवंश, दर्शन शास्त्र, आत्मा, परमात्मा।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Rajasthan, Painting, Dynasty, Philosophy, Soul, God.
प्रस्तावना
दर्शन यदि मन की क्रिया है तो विज्ञान शरीर की क्रिया है, किन्तु कला मानव आत्मा की वह क्रिया है जिसमें मन व शरीर दोनों की अनुभूति निहित होती है। अतः कला मानव संस्कृति का प्राण है जिसमें देश तथा काल की आत्मा मुखरित होती है। इसी आत्मा का कला के माध्यम से परमात्मा से मिलन राजस्थान के विभिन्न रजवाड़ों में पल्लवित चित्रकला में मुखरित हुआ है। जिससे राजस्थान की चित्रकला मात्र कला न रहकर आत्मा से परमात्मा के मिलन का मार्ग बन गई जिस पर लगभग सभी ठिकानों की कला अग्रसर हुई।
चित्रकला के बारे में कहा गया है कि:  
कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थ मोक्षदम्।
गांग्ल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठतम्।।[1]
अर्थात् चित्रकला सभी कलाओं में श्रेष्ठ है, यह धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष प्रदान करने वाली है। जिस घर में इसकी प्रतिष्ठा की जाती है वहां मंगल ही मंगल होता है।
राजस्थान में चित्रकला का विकास विभिन्न राजवंशों के संरक्षण में अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ है। इसलिए इन राजवंशों की कलाएं भी उनके स्थानीय देश, काल  परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न शैलियों के रूप में जानी जाती है। जिनमें भक्ति, साहित्य, काव्य, धर्म व श्रृंगारिकता से एकरूपता होते हुए भी इनके स्वरूप में पर्याप्त अन्तर है। तत्कालीन चित्रकला प्रमुख रूप से मेवाड़, मारवाड़, ढूंढाड़ व हाड़ौति क्षेत्र चित्रशैलियों में विभाजन किया गया है। इन क्षेत्रों में भी अनेक उपशैलियां पल्लवित हुई जिनकी अपनी निजी विशेषताएं रही है।
राजस्थानी चित्रकला में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाली किशनगढ़ चित्रशैली का विकास जयपुर,जोधपुर, नागौर व शाहपुरा रियासतों के बीच स्थित किशनगढ़ रियासत मे हुआ। इस रियासत का क्षेत्र लगभग 2200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है जो राजस्थान के लगभग मध्य में स्थित है।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य किशनगढ़ चित्रशैली में अलंकारिकता एवं काव्यात्मकता का अध्ययन करना है 
साहित्यावलोकन
किशनगढ़ की स्थापना जोधपुर के राठौड़ वंशीय मोटा राजा उदय सिंह के आठवें पुत्र किशनसिंह द्वारा 1609 ई. में की गई। किशनसिंह को मुगल दरबार में 1500 सैनिकों (1000 पैदल व 500 घुड़सवार) का मनसब प्राप्त था तथा यह मुगल दरबार के विश्वासपात्रों में से थे। किन्तु अपने सीमित शासनकाल में किशनसिंह के समय में कला का कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हो सका। इनके पश्चात् इनके पुत्र सहसमल 1615 ई. में राजा बने किन्तु अपने दक्षिण अभियान के समय ही रूग्णता के कारण इनका वहीं देहान्त हो गया। इनके समय का इनका एक व्यक्तिचित्र उपलब्ध है जो अत्यन्त सुन्दर है। इनके पश्चात् इनके भाई जगमाल राजा बने किन्तु उनका भी अल्पकाल में ही देहान्त हो जाने से किशनसिंह के तीसरे पुत्र हरिसिंह को राजा बनाया गया। राजा हरिसिंह का भी एक व्यक्तिचित्र प्राप्त होता है जिसका प्रकाशन प्रख्यात इतिहासकार एरिक डिकिंसन ने अपने ग्रंथ किशनगढ़ पेंटिंग में भी किया है।[2]
मुख्य पाठ
हरिसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके दत्तक पुत्र रूपसिंह 1643 ई. में सिंहासनारूढ़ हुए। इन्होंने अपनी नवीन राजधानी यहां से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित बबेरा को बनाया जो कालांतर में रूपनगढ़ के नाम से विख्यात हुआ। रूपसिंह के पश्चात् मानसिंह (1658-1706) राजा बने। उनके पश्चात् उनके पुत्र राजसिंह (1706-48) राज्यासीन हुए। राजसिंह वीर, धर्म परायण, कला-रसिक व स्वयं अच्छे चित्रकार व कवि थे। इन्होंने 33 ग्रंथों की रचना की जिनका प्रभाव समकालीन अन्य कलाओं पर भी पड़ा। इनके समय में किशनगढ़ में काव्य व चित्र-रचना समान रूप से सृजित होती रही। यही प्रभाव किशनगढ़ की कला के आगामी स्वरूप पर पड़ा जिससे किशनगढ़ की चित्रकला पर काव्य का गहरा प्रभाव परिलक्षित हुआ।
किशगनढ़ चित्रशैली का चरम विकास राजसिंह के पुत्र राजा सावंतसिंह के समय में हुआ। सावंतसिंह अपने पिता राजसिंह की काव्य व चित्रण रूचि के कारण कवि व कला मर्मज्ञ हुए। इनका जन्म 1699 ई. में हुआ। बचपन से ही सावंतसिंह वीर यौद्धा, साहसी व कवि हृदय थे। आगे चलकर आप काव्यरचना में ‘नागरीदास’ उपनाम से विख्यात हुए। आपके द्वारा 76 ग्रंथों की रचना की गई। इस संदर्भ में कहा गया है कि:
किशनगढ़ चित्रशैली को अपने चरम पर पहुंचाने का श्रेय राजा सावंतसिंह को जाता है। वे एक विद्वान, टीकाकार व अच्छे कवि व हिन्दी, संस्कृत एवं फारसी के ज्ञाता थे। उन्होंने बिहारी चन्द्रिका, पद मुक्तावली, ग्रीष्मविहार, उत्सवमाला, मनोरथमंजरी और रसिक रत्नवाली सहित अन्य ग्रंथों की रचना की।[3]
इस कवि हृदय कलामर्मज्ञ राजा के जीवन में एक रूपवती स्त्री बणी-ठणी का आगमन किशनगढ़ की कला व काव्य के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। बणी-ठणी को बाल्यावस्था में ही सावंतसिंह की माता दिल्ली से अपनी सेविका के रूप में लेकर आई। यह अपनी उम्र के साथ ही एक सौन्दर्यवान रूपवती के रूप में बड़ी हुई। राजकुमार सावंतसिंह भी इसी उम्र के थे इसलिए स्वाभाविक रूप से दोनों साथ-साथ ही बड़े हुए। कालांतर में इन दोनों का आपस में आकर्षण बढ़ता गया जिसकी परिणति प्रेम-आसक्ति के रूप में हुई। बणी-ठणी स्वयं भी एक विदूषी व कवि हृदय एवं कृष्ण भक्त स्त्री थी जिसने ‘रसिकबिहारी’ उपनाम से पद रचनाएं की। शनै-शनै दोनों का आकर्षण बढ़ता गया और आगे चलकर यही प्रेम किशनगढ़ चित्रशैली के चित्रों में प्रवृत्त हुआ। इस संदर्भ में कहा गया है कि यह वह चेहरा व आकृति थी जिसने किशनगढ़ के प्रतिनिधि चित्रों को प्रभावित किया तथा चित्रकारों ने वल्लभ संप्रदाय के प्रणय प्रेमियों गोपाल कृष्ण तथा राधिका के सभी चित्रों इनका प्रयोग किया।[4]
किशनगढ़ में इस समय जिस नारी सौन्दर्य का उद्भव हुआ वह पूर्ववर्ती कला रूप का केवल अगले चरण में विकास मात्र नहीं बल्कि बणी-ठणी के शारीरिक सौन्दर्य पर आधारित था।
नागरीदास के समय में किशनगढ़ में काव्य, संगीत व चित्रकला ने समान रूप से विकास किया। वल्लभ संप्रदाय का अनुगामी, कृष्ण भक्त व सौन्दर्य उपासक होने के कारण इनके कार्यकाल में किशनगढ़ शैली अपने यौवन को प्राप्त हुई। जिसमें इनके प्रिय चित्रकार निहालचन्द की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। नागरीदास की कविताओं  व पदों को आधार बनाकर बणी-ठणी के रूप सौन्दर्य को चित्रित करने का श्रेय चित्रकार निहालचन्द को है। निहालचन्द द्वारा नागरीदास के काव्य-चित्रण का समय 1735 से 1757 के बीच का है। इनका बनाया एक चित्र ‘किशनगढ़ की राधा’ जो राजस्थानी चित्रकला में बणी-ठणी के नाम से विख्यात हुआ, अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक है। भारत सरकार ने इस पर एक डाक टिकट भी जारी किया जिस पर ‘किशनगढ़ की राधा’ अंकित किया गया है। कला मनीषी व पद्मश्री कृपालसिंह शेखावत ने भी इस चित्र की प्रशंसा करते हुए इसकी तुलना मोनालिसा से की है।[5]
इस बीच सावंतसिंह के जीवन में गृहक्लेश एवं भाई बहादुर सिंह के साथ सत्ता संघर्ष हुआ। जिसमें बहादुर सिंह ने मारवाड़ के शक्तिशाली राजा के सहयोग से किशनगढ़ की सत्ता पर अधिकार कर लिया गया। संघर्ष व राजनीतिक घटनाक्रम के पश्चात् सावंतसिंह ने मराठों से संबल प्राप्त कर अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। किन्तु इस संघर्ष में किशनगढ़ राज्य दो भागों में विभक्त हो गया एक किशनगढ़ व दूसरा रूपनगढ़। जिसमें रूपनगढ़ की बागडोर सावंतसिंह के हिस्से में आई तथा किशनगढ़ बहादुरसिंह के अधिकार में रहा। किन्तु इस क्लेश के चलते सावंतसिंह का कवि हृदय आहत हो गया तथा 1757 ई. में इन्होंने अपने पुत्र सरदारसिंह को राजकाज सौंपकर स्वयं अपनी प्रेयसी के साथ अपने ननिहाल वृन्दावन में चले गए तथा वहीं अपने अन्तिम समय तक राधाकृष्ण की भक्ति और काव्य साधना में लीन  रहे।

इस समय इनके द्वारा रचित एक पद विख्यात है जिसमें इनके मन की वेदना को व्यक्त किया गया है -
जहां कलह वहां सुख नहीं, कलह दुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल।।[7]
सावंतसिंह के पश्चात् सरदारसिंह, बिड़दसिंह, प्रतापसिंह कल्याणसिंह के समय में भी किशनगढ़ में चित्ररचना कार्य अनवरत जारी रहा। 1818 ई. में किशनगढ़ राज्य अंग्रेजों के अधीन हो गया। इस समय मोखमसिंह, पृथ्वीसिंह, शार्दूलसिंह, मदनसिंह राजा रहे किन्तु तब तक किशनगढ़ चित्रशैली शनै-शनै लुप्तप्रायः होने लगी।
किशनगढ़ शैली में अलंकारिकता
‘‘किशनगढ़ की चित्र परम्परा विशुद्ध श्रंृगार प्रधान होने के कारण अधिक सरस बनी तथा उसमें राजस्थानी धार्मिक भावना पूर्ण रूप से विकसित हुई। जयदेव की अष्टपदी, सूरदास के पद इस शैली में चित्रित हुए तथा प्रेम के सिंहासन पर बैठी मायाविनी राधारानी जिनके चरण स्पर्श के लोभी मुण्ठित मुकुट केशव के चित्रों के नायक थे।
चांदनी रात, श्वेताभूषण विभूषिता, नारी संकुल, सरोज युक्त सरोवरों में शीतल सलिल सुशोभित रंगमहल तथा अलकों और पलकों की शोभा में नारी मात्र का सौन्दर्य राधा की रूप रानी बना तथा मानव मात्र में कृष्ण रूप की कल्पना ने आध्यात्मिक वातावरण की ऐसी रचना की जिसमें मिथ्या संसार के स्वप्न फीके पड़ गए। राधा के अधर पल्लवों पर विराजित स्मिता चन्द्रिका में मन का सब कुछ डूब गया। किशनगढ़ के चित्र आध्यात्मिक मार्ग के प्रकाश नक्षत्र बने।[8]
‘‘किशनगढ़ के राजा वल्लभ संप्रदाय के अनुगामी रहे हैं। वल्लभाचार्य जी ने स्वयं ही कहा है कि त्याग से और श्रवण कीर्तनादि साधनों से प्रेम का बीज हृदय में जमता है। इसी भाव को आत्मसात करते हुए किशनगढ़ के चित्रकारों ने चित्रण के लिए कृष्ण भक्ति को ही अपनी तूलिका का आधार बनाया। चूंकि वल्लभाचार्य स्वयं चित्रकार एवं चित्र प्रेमी थे अतः चित्रकला में निपुण होना तब आचार्य परम्परा के अनुकूल एक आचरण हो गया था।8
चूंकि वल्लभ संप्रदाय के प्रमुख आराध्य देव कृष्ण स्वयं सौन्दर्य, प्रेम, प्रणय व धर्म के प्रतीक रहे हैं। जिसके फलस्वरूप इनके अनुगामियों का भी सौन्दर्य व अलंकारिकता के प्रति आकृष्ट होना सहज बात है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रेयसी राधा भी सौन्दर्य, प्रेम व अलंकारिकता की परिचायक है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म के समस्त देवी-देवताओं में यदि सौन्दर्य-श्रंृगार का प्रश्न आता है तो सर्वाधिक श्रृंगार व सौन्दर्य कृष्ण व राधा के रूप में ही प्रकट होता है। आज भी स्त्रियां कान्हां के श्रंृगार व राधा के सौन्दर्य के प्रति आसक्त रहती है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि अलंकारिकता के इसी आकर्षण व सौन्दर्य के चलते आए दिन समाचार पत्रों में मुस्लिम महिलाओं द्वारा अपने बच्चे को कृष्ण बनाकर श्रंृगारित करने के चित्र प्रकाशित होते रहते हैं। जिससे कहा जा सकता है कि जो कृष्ण से जुड़ता है वह श्रृंगार, सौन्दर्य, प्रेम, प्रणय व अलंकारिकता के साथ स्वतः ही जुड़ जाता है।
इसी कृष्ण व राधा के प्रणय से पूरित किशनगढ़ चित्रशैली भी अपने अलंकरण व अनुपम सौन्दर्य के कारण राजस्थान की अन्य सभी कलाशैलियों में सर्वाेपरि है। यह शैली अलंकरण के समस्त पक्षों को अपने आप में समेटे हुए है। फिर चाहे वे मानवाकृतियां हो, प्रकृति हो, पशु-पक्षी हो, वस्त्रालंकरण हो या वास्तु सहित अन्य अलंकारिक तत्व सभी इस शैली में विद्यमान है।  
किशनगढ़ के कतिपय व्यक्तिचित्रों को छोड़ दे ंतो इस शैली में प्रायः राधा-कृष्ण की विभिन्न लीलाओं को ही चित्रित किया गया है। इनमें राधा की मुखाकृतियों में जो विशेषताएं हैं वे ही किंचित परिवर्तन सहित कृष्ण की मुखाकृति में रूपायित हुई है।
किशनगढ़ शैली की नारी मुखाकृतियों में सौन्दर्य व अलंकरण के उच्चतम् आदर्शाें का पालन किया गया है। इसमें नारी के काजलयुक्त खंजनाकार नयन, कमान जैसी भौंहें, पतले व हिंगुल अधर, तीखी चिबुक, कानों तक लटकती अलकावलियां व पतली उंगलियां, हाथों तथा पावों पर मेहंदी लगी हुई व छरहरे बदन को अलंकृत व सौन्दर्यपूर्ण अंकित कर आकर्षण की चरम सीमा तक पहुंचाया। इन स्त्री आकृतियों की वेशभूषा को मोतियों की माला, हार, कानों में विभिन्न आभूषण, नाक में नथ से अलंकृत व सज्जित अंकित किया गया है। सभी नारी आकृतियों में विभिन्न अलंकरणों से सज्जित, कसी हुई कंचुकी, लहंगा व पारदर्शी ओढ़नी बनाई गई है।
पुरूषाकृतियों में भी चेहरे को नारी आकृतियों के समान ही कोमलांगी तथा किशोरवय बनाया गया है। आंख,नाक,अधर व अन्य अंगों को स्त्री सुलभ विशेषताओं में ही कुछ परिवर्तन के साथ दोहराया गया है। जिसमें कहीं-कहीं हल्की व किशोरवय मूंछें भी अंकित की गई है। वेशभूषा में मुगलिया पगड़ी को मोतियों से सज्जित किया गया है जो राजस्थान की अन्य किसी शैली में देखने को नहीं मिलता। लम्बा जामा तथा चुस्त पाजामा, कमर में अलंकृत पटका जिसमें कटार लगाए हुए दर्शाया गया है। संपूर्ण पौशाक को स्त्रियों की भांति पुष्पों से सज्जित किया गया है। गले को मोतियों की माला व हार से सज्जित किया गया है। किशनगढ़ की पुरूषाकृतियों की खास विशेषता है कि ये पुरूषाकृतियां होते हुए भी इनमें स्त्रियों जैसी कोमलता व छरहरापन है।

किशनगढ़ शैली के चित्रकारों ने प्रकृति को भी मानव की सहचरी के रूप में सौन्दर्यपूर्ण अंकित किया है। जिसमें कदली वृक्ष, कमल पुष्पों से आच्छादित जलाशय, हंस, मयूर, हिरण व अन्य पशु-पक्षियों को विषय के साथ अलंकरण के रूप में चित्रित किया गया है। चित्रों में किंचित ऊंचा क्षितिज, गोलाकार व काले बादल, स्वर्ण व रजत वर्ण रेखा से कड़कती बिजली, हल्के आसमानी, सफेद व पीताभ आकाश का अंकन किशनगढ़ शैली की विशेषता है।
रंगों का प्रयोग चटक, गहन व विषायानुकूल है, कमल सरोवर, चांदनी रात में झील और भवनों के दृश्य वास्तुशिल्प को प्रस्तुत करते हैं। जल में तैरती बतख, जलमुर्गे, सारस, बक आदि का जो अलंकरण है वह चित्र के लावण्य को तो प्रस्तुत करता ही है, किशनगढ़ की क्षेत्रीय विशेषता को भी व्यक्त करता है।
नौकाविहार, चांदनी रात, लतागुल्म के मध्य कहीं भी जहां वे समग्रता के साथ सौन्दर्य परिवेश में रूपायित है, उनकी प्रेम अभिव्यक्ति नैत्रों की भाषा ही बोलती है, उनमें शारीरिकता नहीं है। एक-दूसरे को देखते राधा-कृष्ण की एक पक्षीय (एकचश्म) मुखाकृतियां चित्र में जैसे प्रणय अनुभूति का आदान-प्रदान कर रही है। उनमें दैहिक वासना का स्पर्श भर भी नहीं है। उसका कारण सावंतसिंह का कवि हृदय का होना ही है और तत्कालीन निपुण चित्रकारों का संवेदनशील और चित्रण में दक्ष होना इस तथ्य को प्रस्तुत करता है।[9]
इन सभी विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि किशनगढ़ चित्रशैली मंे अलंकारिकता का मानवीकरण करते हुए उसे विषय का अभिन्न अंग मानकर अंकित किया गया है। जिसमंे प्रकृति, पशु-पक्षियों व अलंकरणों को मानवाकृतियों के सहचरी के रूप में अंकित किया गया है।



किशनगढ़ शैली में काव्यात्मकता
कला व साहित्य का अनन्य संबंध रहा है। विशेष रूप से राजस्थानी चित्रकला में तो संपूर्ण कला ही काव्यात्मकता से सराबोर रही है। भारतीय हिन्दू साहित्य, वैष्णव ग्रंथ, कृष्ण लीला, प्रणय प्रसंगों से परिपूर्ण अनेक काव्यों का राजस्थानी चित्रकला में सौन्दर्यपूर्ण अंकन किया गया है।
किशनगढ़ शैली में भी अन्य शैलियों की भांति ही विभिन्न काव्यों पर आधारित चित्रण किया गया है किन्तु यहां के राजा-महाराजा एवं उनके परिवार की स्त्रियां भी स्वयं विदूषी तथा काव्य रचना  में निपूर्ण रही है। राजा राजसिंह स्वयं एक कवि व चित्रकार थे। जिन्होंने 33 ग्रंथों की रचना की जिनके पुत्र सावंतसिंह ने अपने उपनाम नागरीदास से 76 ग्रंथों की चरना की जिनका स्वरूप काव्यात्मक है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रेयसी बणी-ठणी भी अपने उपनाम रसिक बिहारी से पदरचना करती थी।
किशनगढ़ चित्रशैली में रामायण, महाभारत, बिहारी सत्सई, प्रथ्वीराज रासो, रसिकप्रिया, गीतगोविन्द, नल-दमयन्ती, सूरसागर, देवी आराधना के काव्य, कादम्बरी कथा व इनके अतिरिक्त नायिका अपने रूप वैविध्य की मौलिकता के साथ चित्रित किए गए हैं।
श्रीकृष्ण भक्ति की परम्परा में मात्र राजा सावंतसिंह ही नहीं बल्कि इनके परिवार के अन्य सदस्य भी रत रहे। इनकी बहन संन्दरकंवरी भी एक कवयत्री थी। जिनकी रचना का उदाहरण निम्न काव्य है -
रंज माही मगन कैसी खेलत है, सुभग, चिकुर तन धूरि धसरित डेलिक किलक सकेलत है।
चौंकि चकित चहुं ओरिन चितवन छिपि माअी मुख मेलत है।
संुन्दरकुंवरी घुटरूवनि दोरत कोटिन छवि पग मेलत है।
भक्ति की इस परम्परा को नागरीदास की पौत्री व सरदारसिंह की पुत्री छत्रकुंवरी ने आगे बढ़ाया। तथा प्रेम विनोद जैसे ग्रंथ की रचना की। इतना ही नहीं इनकी माताजी बृजकंुवरी जी (बांकांवत कंवरजी) ने भी कृष्ण भक्ति का काव्य श्रीमद् बृजदासी भागवत की रचना की।[10]
किशनगढ़ शैली में अन्य शैलियों की भांति काव्य ग्रंथों पर तो रचना कार्य किया ही गया किन्तु यह राजस्थान की एकमात्र ऐसी चित्रशैली है जिसके संरक्षकों ने स्वयं भी काव्यों की रचना कर अपने यहां सृजनरत चित्रकारों को चित्रण के लिए प्रेरित किया।
इससे सिद्ध होता है कि किशनगढ़ चित्रशैली में काव्यात्मकता रची-बसी है तथा चित्रकारों ने यहां के राजाओं द्वारा रचित काव्यों पर भी चित्रण कर यहां की चित्रशैली व काव्यों और पदों को चिर-स्थाई बना दिया।
निष्कर्ष
सार रूप में कहा जा सकता है कि किशनगढ़ चित्रशैली में अलंकारिकता व काव्यात्मकता का रचना संसार इतना विस्तृत है कि इसे चित्रशैली से अलग किया जाना संभव नहीं है। यहां के राजाओं ने राधा-कृष्ण की भक्ति के माध्यम से अपनी सौन्दर्य पिपासा व साहित्य प्रेम अपने काव्यों, पदों व चित्रकारों के संरक्षण के माध्यम से व्यक्त किया। जिससे यह शैली राजस्थान की अन्य शैलियों से अलग व अधिक सौन्दर्यपूर्ण, अधिक अलंकारिक व अधिक काव्यात्मक बन गई।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. विष्णुधर्माेत्तर पुराण, तृतीय खण्ड, अध्याय 43, 38वां श्लोक।
  2. Dikinson Aric, Kishangarh Painting, Folio No. 7, page8
  3. The credit of taking the Kishangarh school to climax goes to Raja Sanant Singh. He was a scholar, critic and a good poet, was well versed in Hindi, Sanskrit and Persian. He wrote 76 books. Rasa Chandrika, Manorath Manjari, Pada Muktavali, Greesma vihar, Ussavmala books. Hish pen name was Nagri das through which he became famous later on. – L.C. Sharma, A Brief History of Indian Painting, Goel Publishing House, Meerut, page 72
  4. “It was this face and figure that inspired the female facial and physical type of the Kishangarh masterpieces and was idealized by the artist to represent the Beloved in the eternal theme of the Vaishnava renaissance-the love of the Gopala for the milk-maid Radha. This facial type was also used for Krishna”
  5. ‘‘आकर्षण विस्फारित नेत्र, आगे निकली हुई इकहरी चिबुक वाली किशनगढ़ शैली की बनी-ठनी लियोनार्डाे दी विन्सी कृत मोनालिसा के समकक्ष है, जिसे विश्व का सर्वाेत्कृष्ट चित्र माना गया है।’’ - डॉ. रीता प्रताप, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 2014, पृष्ठ 206
  6. डॉ. फैयाज अली, भक्तवर नागरीदास, अभिनव प्रकाशन, अजमेर, 2015, पृष्ठ 26
  7. रामगोपाल विजयवर्गीय, राजस्थानी चित्र परम्परा आलेख, राजस्थान ललित कला अकादमी,जयपुर, वार्षिकी 63, पृष्ठ 4
  8. डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला, किशनगढ़ चित्रशैली, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 2007, पृष्ठ 23
  9.  ‘‘इनके द्वारा चित्रित किशनगढ़ के निपुण चित्रकारों के चित्रों में महत्वपूर्ण विशेषताएं अन्य क्षेत्रीय राजस्थानी चित्रों से अलग पहचान बनाती है। अलौकिक सौन्दर्य से परिपूर्ण नर-नारियों के आकारों का अभूतपूर्व अंकन हुआ है। रेखाओं में लावण्य तथा रंगों का चमत्कार साहित्य के ऐसे रूपक लिपिबद्ध करता है जिसमें कविता और कला दोनों का आनन्द मिल जाता है। भक्तिभाव से परिपूर्ण इस शैली के चित्रों में राधाकृष्ण के रूपायन में सर्वथा नवीन प्रयोग किया गया है।’’ -अग्रवाल श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला का इतिहास भाग दो (मध्यकालीन), रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, 2000, पृष्ठ 45
  10. अर्जुन सिंह गहलोत, अप्रकाशित ग्रंथ किशनगढ़ पुराण, पृष्ठ 226