|
|||||||
अब्दुल बिस्मिल्लाह: उपन्यासों के
लोकगीतों में जिरह और विरह |
|||||||
Abdul Bismillah: Questioning And Separation In The Folk Songs Of Novels | |||||||
Paper Id :
19343 Submission Date :
2024-10-06 Acceptance Date :
2024-10-21 Publication Date :
2024-10-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14191044 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
हिन्दी कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह की चिंता है- "समाज, धर्म, जाति वर्ग और संस्कृति की
अब्दुल बिस्मिल्लाह अपने साहित्य में भारतीय समाज के बदलते यथार्थ का चित्रण करते
हुए कहते हैं मनुष्य के बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता, समाज के बिना मनुष्य
अधूरा है।" जीवन के संघर्ष के कठिन और प्रेरणादायी प्रसांगो को उद्धत करते हैं।
श्रम और श्रमिक को सम्मान मिलना चाहिए, यहीं शोध लेखन का सार है। लोकगीत लोक-साहित्य की प्रमुख विधा है। उसकी रचना
जन-सामान्य द्वारा होती है। इसमें रचने वाले का कवित्व नहीं होता, बल्कि वे गीत जन सामान्य
की अनुभूति के द्योतक होते हैं। लोकगीत में भावाकुल हृदय की अनायास अभिव्यक्ति
होती है। हृदय में कोई भाव उठता है, गीत के रूप में फूट पड़ता है। जीवन का कोई भी पहलू लोकगीतों
से अछूता नहीं है। तीर्थ, व्रत, त्योहार, मेले, ऋतु, सुख-दुःख, सामूहिक, भौतिक, राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों
में इनकी व्यापकता है। विविध अवसरों के अनुकूल विविध रूप में लोकगीत गाये जाते हैं, जैसे- आल्हा, बारहमासा, कजरी, होली, मल्हार, सोहर, विवाह, गीत, बिरहा आदि। लोकगीत समाज
के एक विशिष्ट वर्ग की मुक्त, स्वाभाविक और बनावट से
रहित अभिव्यक्ति है। |
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Hindi story writer Abdul Bismillah is concerned about society, religion, caste, class and culture. Abdul Bismillah, while depicting the changing reality of Indian society in his literature, says that society cannot be built without man, man is incomplete without society. He quotes difficult and inspiring incidents of life's struggle. Labor and workers should be respected, this is the essence of research writing. Folk song is the main genre of folk literature. It is composed by the common people. There is no poetic skill of the creator in it, rather those songs are indicative of the feelings of the common people. In folk song, there is spontaneous expression of an emotional heart. Any feeling arises in the heart, it bursts out in the form of a song. No aspect of life is untouched by folk songs. They are widespread in all areas - pilgrimage, fast, festival, fair, season, happiness-sorrow, collective, physical, national. Folk songs are sung in various forms to suit various occasions, such as Alha, Barhamasa, Kajri, Holi, Malhar, Sohar, Vivaah, Geet, Biraha etc. Folk songs are the free, natural and unpretentious expression of a specific section of society. |
||||||
मुख्य शब्द | जिरह, विरह, अनायास, आल्हा, रिवाज, चदरिया, जहरवाद, चटकल इत्यादि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Cross-examination, separation, spontaneously, Alha, custom, Chadariya, poison, Chatkal etc. | ||||||
प्रस्तावना | अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों में निम्न जन की समस्याओं को आधार बनाया गया
है। निम्न जन की बोली-बानी, रीति-रिवाज, परम्पराओं को भरपूर महत्व दिया
गया है। लोकगीत लोक मानस की उपज होती है। लोकगीतों के ऊपर समय, देश और समाज की छाप होती है।
लोक गीत संस्कृति का बोध कराते हैं तथा लोगों को एक दूसरे से जोड़ने में सहायक होते
हैं। लोकगीतों की परम्परा प्राचीन समय से भारतीय समाज में पायी जाती है। इसमें हमारे
इतिहास की झलक दिखाई देती है। लोकगीत किसी भी संस्कृति की विरासत को अपने अन्दर समाहित
किये रहते हैं। भारतीय लोकगीत भारतीय संस्कृति विरासत का महत्वपूर्ण आधार है, इसलिए इस धरोहर को हमें जीवित
रखना चाहिए। |
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | अब्दुल बिस्मिल्लाह चर्चित लेखक हैं। उनके उपन्यासों में ग्रामीण परिवेश का वातावरण
सांस्कृतिक चेतना के कारण ही संभव हो सका है। लोकगीत हमारे रोजमर्रा के संदर्भों से
जुड़ते हुए जन्म से लेकर मृत्यु तक के मौकों पर गाये जाते हैं, इनकी भाषा शास्त्रीय महत्व
की है। आज परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व में बोलियों के संदर्भ में अगर हम भारत
के हिन्दी प्रदेशों की बात करें, तो एक विशाल हिन्दी भाषा-भाषी
क्षेत्र सामने आता है। बाजार के दबाव और विशाल जनसंख्या वाले क्षेत्र में अपनी पैठ
बनाने के लिए आंचलिक उपन्यासों, भाषाओं के उत्थान का नारा देकर
तमाम दृश्य-श्रव्य माध्यम इन क्षेत्रों में उतर चुके हैं किन्तु लोक में रची-बसी खुशबू
से वे कोसों दूर हैं। लोक गीत भावों के उद्गार होते हैं, जिसको अब्दुल बिस्मिल्लाह ने
अपने उपन्यासों में इन छोटी-मोटी बातों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
|
||||||
साहित्यावलोकन | अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों में लोकगीतों का प्रयोग भाषा की प्रवाहमयता को बढ़ाने के लिए किया गया है। इनके उपन्यासों में सामान्य जन की हँसी-खुशी को देशी भाषा का रूप दिया गया है। छोटी-छोटी बातों को लोकगीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। जिससे सामान्य जन के लिए समझना आवश्यक हो गया है। इनके उपन्यासों में अवधी, भोजपुरी के बीत ज्यादा मिलते हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह एक संगीतप्रेमी लेखक हैं। उन्हें गाँव में गाये जाने वाले गीत बहुत भाते हैं। इसलिए जब मास्को में भी रहने गये तो टेपरिकार्डर के साथ लोकगीतों के कैसेट्स ले गये थे। उदाहरणस्वरूप-‘‘डैडी’’ को लोकगीत बहुत प्रिय थे। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास ‘‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’’ में नसीबुन बुआ गाती है- टीका के ऊपर टोना हिलाय लय झराय लय फुंकाय लय टोना। अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मैथिली, कोंकणी और न जाने किन-किन बोलियों के लोकगीतों के ऑडियो कैसेट्स भरे हुए थे। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास ‘‘जहरबाद’’ में एक पन्द्रह-सोलह वर्ष के लड़के को नाचते दिखाते हैं- मोर बलमा नादान मोर देहिया गुलाबी रंग होइगै, पाँच पचास की चोलिया बंद लागे हजार x x x x x x x माल है विरान ........................। वह अपनी आंचलिक भाषा के गीत गाता हुआ नाचता है। इस गीत में वहाँ की भाषा के साथ ही साथ संस्कृति का बोध होता है, लोकगीतों की पहचान उनके गीतों से बखूबी हो जाती है क्योंकि इन गीतों की परम्परा बहुत लम्बी है। जिस पर देश काल की मर्यादा की छाप लगी रहती है, जो बेटी की विदाई के समय आज भी हमारे शहर वाराणसी (बनारस) के आस-पास भोजपुरी भाषा में गायी जाती है। एक बन गइली दुसर बन गइलीं तिसरे में लागी पियास मियाना (डोली) के परदा उलटि के मो देखलीं न बाबुल ना बाबुल के देस रे। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास ‘‘मुखड़ा क्या देखें’’ पं0 रामवृक्ष पाण्डेय की बिटिया लता के विवाह में गाँव की स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत को देखा जा सकता है-मोर धानी चुनरिया इतर गमके मोर बारी उमरिया नइहर तरसे। अवधी भाषा में गाये जाने वाले लोकगीतों का प्रयोग किया गया है। लोक जीवन के विविध पक्षों की सहज अभिव्यक्ति करने वाले ये लोकगीत बिस्मिल्लाह की अमूल्य धरोहर हैं। जिन्हें जनमानस ने बड़े ही प्यार से संजोकर रखा है। अपने उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरिया में लेखक ने लोक जनमानस में फैले भ्रम, भय, भूल को लोकगीतों के माध्यम से उजागर किया है। लाल लाल झड़िया न दिखावा हो बाबा हमें एतना संसतिया न चढ़ावा हो बाबा। आज भी गाँव की दशा बहुत दयनीय है, कम पढ़े-लिखे लोगों में झाड़-फँूक की प्रवृत्ति मौजूद है। जितना विश्वास झाड़-फूँक पर है उतना दवा पर नहीं, लेकिन सच है कि दारू पर उतना ही अधिक विश्वास है, लोक संस्कृति के अमिट छाप को अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों के एक-एक पंक्तियों से देखा जा सकता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने उन नौजवानों का उल्लेख किया है जो बेरोजगार हैं, भूख के कारण भीख माँगते हैं और काम-धंधे की तलाश में अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़कर पूरब की ओर निकल जाते है-पत्नियाँ गाती है- लागा झुलसियाँ कइ धक्का बलम कलकत्ता निकरि गए। यहाँ कितनी अच्छी उक्ति की प्रस्तुति हुई है। आज भी उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि के नौजवान रोजगार की तलाश में चटकल (कलकत्ता) की तरफ जाते रहते हैं। इसी उपन्यास में अली अहमद काम की तलाश में अब्दुल बिस्मिल्लाह के मामा के क्षेत्र यानी मध्य प्रदेश के दुल्लोपुर इलाके में पहुँचता है, स्त्रियों की ओर से जबरदस्ती करने पर अली अहमद की पत्नी रनिया भी गाना गाती है- ‘‘नजर न लागी राजा तोरे बंगले पर -------------- जो मैं होती राजा तुमरी दुल्हनियाँ झमक रहती राजा ..........................। जिसमें अवधि भाषा की लोकगीत की महक, गूंज, स्पन्दन स्फुटित होती है, कितना सुन्दर लोक संस्कृति की नजारा को जागृत करने का प्रयास किया गया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ में ग्रामीण रीति-रिवाज तथा परम्पराओं का ज्ञान का महत्व है। कुछ औरतें नज बुनिया को छेड़ती हैं तो वह भी गाने लगती है- क्या मजे की बात है क्या मजे की बात है बन्नी अडर बन्ना की पहली मुलाकात है। लोकमानस की पहचान उनके गीतों में बखूबी हो जाती है। लोकगीतों की परम्परा में भोजपुरी लोक नाट्य का अपना स्थान है। विरह की अभिव्यक्ति इनकी अनूठी विशेषता है। अपने व्यक्तिगत छाप के साथ-साथ सम्पूर्ण परिवेश की चर्चा भी इनमें देखी जा सकती है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास में पूरबी गीतों की अभिव्यक्ति मिलती है। यह पूरबी गीत उत्तर प्रदेश और बिहार में सामान्य जन में काफी प्रसिद्ध है। इस उपन्यास का पात्र नन्हकू पूरबी गीत गाता है- ताना मारैं- सारा रोटी हम सरपोटी अउ बटुआ भर दाल सासु गोसाई तोहरी क़िरिया हम कइली उपवास। पूरवी गीत की धूम मच जाती है, इन लोकगीतों की तो सब जगह लोकप्रियता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास में कजरी राग का प्रयोग किया गया है। विशेषकर झीनी-झीनी चदरिया में। यह कजरी गीत आज भी मेरे शहर बनारस, मिर्जापुर विशेषकर सावन मास में गाया जाता है। राम भजन दलाल जो बलिया का रहने वाला है, अपनी बोली बानी यानी-भोजपुरी भाषा में गाता है- चार गुंडा आगे चलैं चार गुंडा पीछे चलैं बिचवा में चलालू उतान सांवर गोरिया तुहंइ बाट् नोखे के जवान सांवर गोरिया। इस प्रकार हम कह सकते है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों में लोकगीत संस्कृति का बोध केवल गाँवों में नहीं रहता बल्कि अपने लोक के साथ वह सदा रहता है। प्रकृति के चेतन तथा जड़ जगत के सम्बन्ध में भूत-प्रेतों की दुनिया, जादू टोना, सम्मोहना, वशीकरण, ताबीज, भाग्य, सगुन, रोग, मृत्यु इत्यादि के सम्बन्ध में लोक-विश्वास इसके क्षेत्र में आते हैं। रीति-रिवाज, अनुष्ठान, त्योहार, युद्ध, आखेट, मत्स्य-व्यवसाय, पशुपालन, धर्म, गाथाएँ, लोक कहानियाँ भी लोक गीत संस्कृति के धरोहर हैं। इसी कारण उसकी अभिव्यक्ति में ईमानदारी होती है और उसकी भाषा में कोई आडम्बर नहीं होता है। |
||||||
निष्कर्ष |
अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों में जितने भी लोकगीत हैं, उसमें जिरह और विरह का द्वन्द्व है। जहाँ जिरह होगा वहाँ विरह अवश्य होगा क्योंकि
विरह के डाल पर ही प्रेम का फूल खिलता है। जो उनके गीतों का प्राण है। प्राण इस मायने
में है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में विरहीणी नायिका इन सब गीतों को सुनकर-गाकर उसमें
जीने लगती है। उन्हें ऐसा लगता है मानों अपने प्रियतम से जिरह कर रही हो। यानी अपराध
बोध को वह मॉफ कर देती है। मॉफ करना आज के समय का सबसे बड़ा विश्वास है। यह विश्वास
सिर्फ लोग गीतों में ही बचा है। अब्दुल बिस्मिल्लाह को पढ़ेत हुए एक बारगी ऐसा लगता
है कि जो इनके गीतों का पुट है वह फूहड़ है। पर ऐसा नहीं है। इसके गवाह उनके उपन्यास
हैं। एक उदाहरण से हम अपनी बात स्पष्ट करें-‘‘मोर धानी चुनरिया इतर गमके, मोरी बारी उमरिया नइहर तरसे।’’ भाव यह है कि मजदूरी करने के लिए
प्रियतम देश से बाहर चला गया है। इतर गमके यह जिरह है। ‘‘बारी उमरिया’’ यह विरह है। इस तरह से सभी गीतों
में भाव मिलेगा। जो जिरह अध्े विरह के रूप में है। दूसरी बात कि असली खजाना तो हमारे
भीतर ही है, वह तो स्वयं अपने भीतर खोजना होगा। अब्दुल बिस्मिल्लाह
ने सिर्फ जीवन जीने का रास्ता दिखाया है। यही इनका विरह में जिरह है। सच में हम कितना
करते हैं मेहनत का सम्मान। देश बदल रहा है, अर्थव्यवस्था भी। अस्थायी और अनुबंध
आधारित नौकरियों की संख्या बढ़ती चली जायेगी। देश को केवल सरकारी नौकरियों का नहीं बल्कि
हर प्रकार की नौकरियों का सम्मान सीखना होगा। मेहनत और मजदूरीकश का सम्मान करना होगा।
तमाम लोग कामगारों का उक्सर अपमान करते हैं.............। इनकी दुनियाँ को भी बदलने
का सार्थक प्रयास दिखाया है। उनका इशारा इस विडम्बना पर भी है कि जिस मुल्क में श्रम
या श्रमिक की कोई खास गरिमा नहीं हैं, वहाँ करने के लिए बहुत काम है। जिन
कामों के बिना हमारा जीवन नहीं चल सकता, उनका भी हम आदर नहीं करते हैं। धर्म, जाति, राष्ट्रीय मूल, विकलांगता, यौन अभिविन्यास लिंग, वैवाहिक स्थिति, पहचान, उम्र के आधार पर भेद-भाव आदि के खिलाफ
यह शोध पत्र सख्त कारवाई करती है। कुल मिलाकर हमें छोटे-छोटे तमाम कामगारों के बारे
में सोचना चाहिए। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों में गीतों का जो संजाल है, वह उत्साहजनक है। फिर भी हमें कुछ दूरी तो तय करनी ही है। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
|