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बिहार की राजनीति में राष्ट्रीय जनता दल की स्थिति एवं प्रभाव का अध्ययन |
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Study of The Position and Influence of Rashtriya Janata Dal In The Politics Of Bihar | |||||||
Paper Id :
19366 Submission Date :
2024-10-01 Acceptance Date :
2024-10-21 Publication Date :
2024-10-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14190422 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
किसी भी राज्य की राजनीति उसके समाज और उसकी अर्थव्यवस्था के बीच संबंधों
की देन होती है। बिहार में भी सामाजिक परिवर्तन, राजनीतिक परिवर्तन, आर्थिक परिवर्तन एवं आरक्षण से जुड़े मुद्दों के लिए मंडलोत्तर राजनीति की शुरूआत 1990 के दशक में हुई। दोनों प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी
(भाजपा) बिहार में दोनों ही क्षेत्रीय दलों राजद और जद (यू) की सहयोगी के रूप में
रही है। 1990 का दशक बिहार सहित कई राज्यों में
क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक प्रभुत्व की शुरूआत का रहा है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The politics of any state is a result of the relationship between its society and its economy. In Bihar too, the post-Mandal politics began in the 1990s for issues related to social change, political change, economic change and reservation. Both the major national political parties, Congress and Bharatiya Janata Party (BJP), have been allies of the two regional parties, RJD and JD(U), in Bihar. The 1990s decade also saw the beginning of the political dominance of regional parties in many states including Bihar. | ||||||
मुख्य शब्द | बिहार, राजनीति, राष्ट्रीय जनता दल, प्रभाव। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Bihar, Politics, Rashtriya Janata Dal, Influence | ||||||
प्रस्तावना | भारतीय लोकतंत्र में दलों की भूमिका अग्रणी रही हैं। इन्हीं दलों के कारण जनता राजनीति की जानकारी प्राप्त करती है तथा राजनीतिक दल विकास के साथ समय-समय पर जनता को प्रशिक्षण देकर राजनीति का ज्ञान देते है। जय प्रकाश आन्दोलन के पश्चात बिहार में जनता पार्टी का वर्चस्व था, लेकिन इस पार्टी के कर्णधारों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा तथा अहं के टकराव के कारण पार्टी का कई बार विभाजन हुआ तथा 1988 में स्थापित जनता दल के विभाजन के फलस्वरूप 1997 में राष्ट्रीय जनता दल का उदय हुआ। जहाँ तक मूल जनता दल का प्रश्न है, तो इसका पहला विखंडन देवीलाल और चंद्रशेखर के नेतृत्व में नवम्बर-दिसम्बर 1990 में हुआ और इसका दूसरा विखंडन अजीत सिंह ने 1993 में 20 सांसदों के साथ मिलकर पी.वी.नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार को बचाने के लिए किया। उन्होंने पहले जनता दल (अजीत) का गठन किया और फिर उसका विलय कांग्रेस में कर दिया। मूल जनता दल का तीसरा विभाजन 14 सांसदों के साथ जार्ज फर्नाडिंस और नीतीश कुमार ने 1994 में किया और समता पार्टी का गठन किया। |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य बिहार की राजनीति में राष्ट्रीय जनता दल की स्थिति एवं प्रभाव का अध्ययन का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | बिहार के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जनता दल के उपरोक्त तीनों विभाजनों का प्रभाव 1990 से चल रहे लालू प्रसाद के अल्पमत राज्य सरकार के स्थायित्व पर नहीं पड़ा। जैसे 1990 में रथ यात्रा के दौरान बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी की रथ-यात्रा रोके जाने तथा उनकी गिरफ्तारी के बाद भाजपा द्वारा राज्य सरकार से समर्थन वापस लेने से कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। बिहार भाजपा के एक तिहाई विधायक इन्दर सिंह नामधारी और समरेश सिंह के नेतृत्व में नया गुट बनाकर पहले लालू सरकार का समर्थन किया बाद में जनता दल में विलय कर लिया। लालू प्रसाद के इसी संकट प्रबंधन और नेतृृत्व कौशल ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर जनता दल की राजनीति के केन्द्र में ला दिया। एस.आर.बोम्मई के बाद उन्हें यह अवसर 1996 में मिला। जब वह राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1991 के लोकसभा चुनाव में बिहार में जनता दल का अच्छे प्रदर्शन का श्रेय उनकी क्षमता और लोकप्रियता को ही मिला। वे अब बिहार के सबसे लोकप्रिय राजनेता बन चुके थे जिसके जनसमर्थन का आधार व्यापक था। 5 जुलाई, 1997 को लालू प्रसाद यादव, रघुवंश प्रसाद सिंह, कांति सिंह एवं 17 लोकसभा और सात राज्य सभा सांसद तथा अन्य समर्थक विधायक नई दिल्ली में इकट्ठा हुए और एक नयी राजनीतिक पार्टी 'राष्ट्रीय जनता दल' (राजद) का गठन किया। वस्तुतः यह जनता दल के विभाजन के फलस्वरूप अस्तित्व में आयी थी। लालू प्रसाद यादव इसके प्रथम अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित हुए। वर्ष 1997 में लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में आरोपित होना और उनके सार्वजनिक छवि धूमिल होने के बावजूद, वह न केवल यादवों और मुस्लिमों के, बल्कि निम्न-वर्गीय पिछड़ी जातियों के एक निश्चित भाग के भी नेता के रूप में स्थापित रहे। चूंकि उनके उपर मुख्यमंत्री पद को छोड़ने के लिए राजनीतिक तथा कानूनी दबाव बढ़ता जा रहा था, इसलिए उन्होंने जनता दल को विभाजित कर दिया। इस प्रकार जनता दल की संसदीय और साथ-ही-साथ राज्य की पार्टी इकाई को विभक्त करके दिल्ली के एक सम्मेलन में राजद का गठन किया। लालू प्रसाद बिहार में जनता दल के निर्वाचित कुल 45 सांसदों में से 18 सांसदों और कुल 167 विधायकों में से 137 विधायकों को अपने साथ लेकर पार्टी से अलग हो गये। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया, आगे चलकर वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के 22 विधायकों में से अधिकतर को अपने मंत्रिपरिषद् में स्थान दिया। वर्ष 2000 में भाकपा (26) माकपा (6) ने भी सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए राजद को समर्थन दिया, जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के 19 विधायकों ने भी अलग राज्य के राजद के वादे के आधार पर समर्थन दिया। 26 निर्दलीय विधायकों में से भी अधिकांशतः राजद पक्ष में रहे। इस तरह राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद बिहार में अपने राजनीतिक प्रभुत्व को बचाने में सफल रहे। अब भी 27 वर्षों के बाद राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ही है।[1] राजद की भूमिका और प्रभाव के आकलन के क्रम में लालू प्रसाद यादव के शासन का एकीकरण किस प्रकार हुआ, इसकी विवेचना अपेक्षित है। लालू प्रसाद एस.आर.बोम्मई के स्थान पर जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष 1996 में बनें।[2] बिहार में तो जनता दल लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व की आभा में पूरी तरह विलीन हो गयी थी। आशय यह कि जनता के बीच लालू प्रसाद यादव का कद जनता दल की तुलना में काफी बड़ा हो गया था। इसके पूर्व 7 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। यह पहल लालू प्रसाद यादव के लिए वरदान साबित हुई। इस प्रकार 'मंडल और मंदिर' जैसे मुद्दे भारत के राजनीतिक पटल पर ज्वलंत हो गए थे। वस्तुतः इन दोनों मुद्दों में एक प्रकार की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी कि कौन भारतीय राजनीति के केन्द्र में होगा? जाहिर तौर पर यह बात स्पष्ट थी कि इस 'मंडल' और 'कमंडल' में देश की राजनीति में केंद्रीयता को लेकर वर्चस्व की लड़ाई भी चली। वस्तुतः बिहार का समस्त समाज, चाहे वह ग्रामीण क्षेत्र से हो या शहरी क्षेत्र से स्पष्ट रूप से अगड़ी और पिछड़ी जातियों के रूप में बंट चुका था। इस गंभीर सामाजिक तनावपूर्ण माहौल के बीच में ही भाजपा ने अयोध्या के बाबरी मस्जिद स्थल पर राम मंदिर बनाने के उद्देश्य से रथ यात्रा की घोषणा की। इसने लालू प्रसाद यादव को अन्य पिछडी जातियों के साथ-साथ मुस्लिमों को एक छत के नीचे लामबंद करने में बड़ी सहायता दी। अंतत्वोगत्वा यह कहा जा सकता है कि लालू प्रसाद यादव भाजपा को मंडल विरोधी के रूप में चित्रित करने में सफल रहे। मंडल आयोग ने दमित वर्गों की आकांक्षाओं को पूरा किया है और उनके जीवन में उत्साह, आशा और जिजीविषा का संचार किया है। सामाजिक न्याय की इस घड़ी के कांटे को अब पीछे नहीं घुमाया जा सकता है। सामाजिक न्याय के जिस पथ पर हम आगे बढ़ गये हैं, उस पथ पर वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं है।[3] |
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मुख्य पाठ |
चारा घोटाला और बिहार के राजनीतिक इतिहास पर
इसका प्रभाव राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी 25 जुलाई 1997 को बिहार राज्य की मुख्यमंत्री तब बनी, जब बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में उनके पति को जेल जाना पड़ा था। उन्होंने तीन कार्यकाल में मुख्यमंत्री पद संभाला। मुख्यमंत्री के रूप में उनका पहला कार्यकाल सिर्फ 2 साल का रहा जो 25 जुलाई 1997 से 11 फरवरी 1999 तक चल सका। अल्पकाल के लिए राष्ट्रपति शासन भी लगा। उनके दूसरे और तीसरे कार्यकाल में उन्होंने मुख्यमंत्री के तौर पर अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। उनके दूसरे और तीसरे कार्यकाल की अवधि क्रमशः सन् 9 मार्च 1999 से 02 मार्च 2000 और 11 मार्च 2000 से 6 मार्च 2005 रहा। जहाँ तक चारा घोटाला का प्रश्न है तो यह राज्य पशुपालन विभाग द्वारा मवेशियों और उनके चारे तथा परिवहन के लिए वाहनों की ऐसी खरीद से था, जो कभी हुई ही नहीं। वह केवल कागजों तक ही सीमित था, जबकि इसके लिए कथित तौर पर संबंधित मद से घन आवंटित किये जा चुके थे। इसमें अनेक राजनेताओं की संलिप्तता की बात भी उजागर हुई। वर्ष 1980 में कांग्रेस शासन के दौरान
यह घोटाला शुरू हुआ था। मोटे अनुमान के मुताबिक, 1993-94 और 1995-96 के बीच बिहार सरकार ने
जमशेदपुर, गुमला, पटना, रांची चाइबासा और दुमका में मेवशियों की खरीद के लिए 253 करोड़ रूपये का भुगतान किया, जिसका वास्तविक
मूल्य सिर्फ 10 करोड़ रूपये था। इस घोटाले का लालू
प्रसाद यादव के राजनीतिक जीवन और बिहार की सियासत पर प्रभाव का आकलन करते हुए 'सिफी फॉइनेंस' की एक रिपोर्ट में कहा
गया- "जब कभी भी
इतिहास में पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद का नाम आएगा, तो उनके साथ चारा घोटाले का भी नाम लिया जाएगा। इस घोटाले ने न केवल लालू
प्रसाद यादव के भविष्य को बदल दिया, बल्कि इसने बिहार
की राजनीति को भी व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। वस्तुतः यही वह घोटाला था, जिसने लालू के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा और संभावना (दोनों) को
समाप्त कर दिया।’’ इस चारा घोटाले के उजागर होने के बाद पार्टी के अन्दर और
बाहर, दोनों जगहों से लालू प्रसाद यादव के
इस्तीफे की मांग जोर पकड़ने लगी। उनके इस्तीफे की मांग करने वालों में जनता दल के विश्वस्त चुनावी सहयोगी वाम मोर्चे के दल भी सम्मिलित थे। आखिरकार लालू प्रसाद
यादव ने जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और इसके बाद बिहार के
सता में अमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिला।[4] लालू शासन-काल में पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण प्रत्येक नीति के अपने प्रभाव और दुष्प्रभाव होते हैं।
बिहार की राजनीति में पिछड़े वर्गों, पिछड़े मुस्लिमों और
अनुसूचित जातियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सशक्तिकरण के चलते ही निश्चित तौर पर लालू प्रसाद यादव पिछड़ी
जातियों के मसीहा बनकर उभरे। पिछड़े वर्गो
का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण एक समान नहीं था। लालू प्रसाद का कार्यकाल
के आकलन वस्तुनिष्ठता से किया जाना कठिन है क्योंकि परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों में
घोर अन्तर है। एक ओर लालू-राबड़ी शासन-काल को उनके विरोधी और मीडिया में जंगल-राज
का प्रतीक कहा गया, तो उनके समर्थक मानते हैं कि लालू-राबड़ी शासन-काल में समाज के शोषित और
वंचित लोगों को एक नयी पहचान और नयी आवाज मिली है। निःसंदेह लालू प्रसाद यादव को
एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाता है, जिन्होंने पिछड़ी जातियों का राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण किया।
लालू-राबड़ी शासनकाल में एक तरह से पिछड़े वर्गों का सामाजिक सशक्तिकरण के साथ-साथ
राजनीतिक और आर्थिक सशक्तिकरण भी हुआ। ये सामाजिक-राजनीतिक- आर्थिक सशक्तिकरण के
परिणाम दूरगामी रहे और इन पिछड़े वर्गों ने जो लालू-राबड़ी शासन काल में अपने हितों
के लिए जिस तरह से मुखर होना शुरू किया वह आज भी जारी है।[5] |
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परिणाम |
बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद की निरंतर पकड़ की
व्याख्या के क्रम में समय-समय पर उनके द्वारा उपर्युक्त गठबंधन बनाने में सफलता का
श्रेय दिया जाता है।[6] वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव के
पश्चात् अपनी पार्टी की सीटों में हुई कमी के मद्देनजर लालू प्रसाद यादव ने राबड़ी
देवी के नेतृत्व वाली सरकार को राजनीतिक रूप से बनाये रखने के लिए इस प्रकरण में 'यू टर्न' लिया। ये वो समय था जब
बिहार से अलग करके झारखंड राज्य का गठन नहीं हुआ था। हालांकि, 2000 विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने राजद को इस आधार पर समर्थन देने का
निर्णय लिया था कि वे (लालू प्रसाद) 'बिहार पुनर्गठन विधेयक' का समर्थन करेंगे। इस
संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि विधेयक का मसौदा अटल बिहारी वाजपेयी नीत राजग की
केंद्रीय सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसका
उद्देश्य था- पृथक झारखंड राज्य का निर्माण। वस्तुतः, कांग्रेस
यह पूरी कवायद इसलिए कर रही थी, क्योंकि उसके निवर्तमान 23 विधायकों में से 11 विधायक संभावित झारखंड
राज्य के क्षेत्रों से आते थे। स्पष्ट था कि बिहार के विभाजन से बिहार में
कांग्रेस और भाजपा के प्रभाव में कमी आती। क्योंकि, उसके
अधिकतर विधायक संभावित झारखंड राज्य के क्षेत्रों से निर्वाचित हुए थे। नए राज्य के रूप में झारखंड का गठन 15 नवंबर 2000 को हुआ था। परिणामस्वरूप राजद
की भी स्थिति मजबूत हुईं। जबकि, दूसरी तरफ समता पार्टी
भी बिहार में विभाजन के बाद अपेक्षाकृत अधिक मजबूत हुई और भाजपा का दर्जा घटकर
मात्र एक कनिष्ठ सहयोगी दल के रूप में रह गया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि
बिहार का विभाजन कुछ राजनीतिक दलों के लिए मजबूती लेकर आया, वही सापेक्षिक रूप से दूसरे अन्य राजनीतिक दलों के लिए वह अपेक्षाकृृत
कमजोरी का सबब भी बन गया। 2005 में सत्ता से बाहर
होने के बाद अमेरिकी पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय में स्थापित भारत के उच्चतर
अध्ययन केन्द्र के प्रमुख 'फ्रैंकिन फ्रेंकल' के संपादन में 2006 में जैफ्री विट्सो (Jeffrey Witsoe) के शोध का
शीर्षक ही बिहार के संदर्भ में उसके निष्कर्ष को अभिव्यक्त करता है। सामाजिक न्याय
और ठहरा विकास- जातीय सशक्तिकरण एवं शासन का बिखराव। 15 वर्षों के कार्यकाल की विवेचना (1990-2005) में
कहा गया कि बिहार जैसे राज्य असमान विकास के ज्वलंत उदाहरण है। उपजाऊ भूमि और भूजल
प्रचुर उपलब्धता के बावजूद बिहार में पिछड़ेपन का कारण राजनीतिक नेतृत्व को बतलाया
है। विकास में रूकावट का कारण पिछड़ी जातियों के राजनीतिक में उभार ढूढ़ने की कोशिश
की है। इसे अधूरी क्रांति कहा है। इस शोध अध्ययन में, जाति
राजनीति और लोक प्रशासन के बीच तनाव पाया गया है।[7] बिहार में वर्ष 2009 के लोकसभा और
वर्ष 2010 के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने
अनेक लोगों को आश्चर्यचकित नहीं किया, क्योंकि ये
परिणाम कमाबेश अपेक्षानुरूप और पूर्वानुमानित ही थे। सरल शब्दों में कहे तो बिहार
की जनता ने उक्त चुनावों के बारे में जैसा अंदाजा लगाया था, परिणाम कुछ अपवादों के साथ वैसे ही निकले। किन्तु, जिस प्रकार से इन चुनावों में राजद और लोजपा के गठबंधन ने प्रदर्शन किया
था, उससे पूरी जनता अचंभित और हैरत में थी। वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद और लोजपा के गठबंधन ने केवल 25.5 प्रतिशत मतों के साथ (राजद 18.8 प्रतिशत
और लोजपा 6.7 प्रतिशत) राज्य की कुल 243 विधानसभा सीटों में से मात्र 25 सीटों पर
ही जीत दर्ज कर सकी। दूसरी तरफ, सता में काबिज होने
वाली भाजपा और जद (यू) के गठबंधन ने 39.1 प्रतिशत (जद (यू) 24.1 प्रतिशत, भाजपा 16.5 प्रतिशत) मतों के साथ 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में से कुल 206 (जद
(यू) 115, भाजपा 91) विधानसभा सीटें प्राप्त की। इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार
हुई थी। वास्तविक रूप से देखा जाए तो वर्ष 2010 के
बिहार विधानसभा चुनाव को राजद-लोजपा गठबंधन के राजनीतिक भाग्य के अस्ताचल होने की
एक निरंतर प्रक्रिया और एक अगली कड़ी के रूप में देखने से ज्यादा उसके जनाधार में
लगातार होती हुई गिरावट के रूप में देखना अपेक्षाकृत अधिक श्रेयस्कर और युक्तिसंगत
प्रतीत होता है। लोकसभा चुनाव 2014 एवं विधानसभा
चुनाव 2015 को बिहार की राजनीति में विकास बनाम
पहचान की राजनीति से जाना जाता है। वर्ष 2014 के
लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में एक नयी राजनीति का जन्म हुआ है। पिछले दो दशक की
बात करे तो राज्य की राजनीति में जहां अन्य पिछड़ी जातियों की लामबंदी निर्णायक हुआ
करती थी, वही 2014 के
लोकसभा चुनाव इस मामले में काफी अलग था। इस त्रिकोणीय चुनावी संघर्ष में भाजपा और
उसके सहयोगी राजनीतिक दलों ने बिहार के 40 लोकसभा
सीटों में से 31 सीटें जीतने में सफल रही थी। दूसरी
तरफ, राजद-कांग्रेस गठबंधन ने एक साथ मिलकर 29.8 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे, केवल सात सीटों पर
ही जीत हासिल कर सके। लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद बिहार की जनता के मन में
नाना प्रकार के विचार आये थे, कुछ लोगों ने इस परिणाम
को विकास के मुद्दे के लिए किए गए मतदान के रूप में देख रहे थे, तो वही कुछ लोगों ने यह राज्य की जनता की आशाओं, सुशासन, राजनीतिक सशक्तिकरण, शिक्षा जैसे विकास के लिए किए गए मतदान के रूप में इसे देखा। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा
की अपार सफलता ने देश के सभी विपक्षी दलों को धराशायी कर दिया। बीजेपी के नेतृत्व
वाले एनडीए ने बिहार में 40 लोकसभा सीटों में से 39 सीटें प्राप्त कर प्रचंड जीत हासिल की। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 23.6 प्रतिशत वोट के साथ 17 सीटें हासिल करने
में सफल हुई, वही इसके सहयोगी दल जनता दल यूनाइटेड को 21.8 प्रतिशत वोट के साथ 16 सीटें प्राप्त हुई।
बिहार में मुख्य विपक्षी दल राजद को एक भी सीट हासिल नहीं हुई, जबकि कांग्रेस एक सीट किशनगंज हासिल करने में सफल रही। अगले वर्ष 2020 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए और नीतीश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन अपनी सरकार बनाने में सफल रही। अगस्त 2022 में नीतीश कुमार द्वारा फिर
से एक बार एन.डी.ए. गठबंधन को छोड़कर महागठबंधन का साथ स्वीकार किया। वे आठवीं बार
बिहार के मुख्यमंत्री बने। गठबंधन टूटने के मामले पर नीतीश कुमार द्वारा कहा गया
कि बीजेपी ने हमें खत्म करने की साजिश रची, हमेशा
अपमानित करने का प्रयास किया। इस कारण से वह भाजपा से अलग हो गए। बिहार में 2022 के बाद महागठबंधन की सरकार सिर्फ 17 महीनों
तक ही सत्ता में रही। महागठबंधन में आपसी मतभेद के कारण नीतीश कुमार ने एक बार फिर
से बाजी पलटते हुए जनवरी 2024 को जद(यू)-भाजपा की फिर नई एन.डी.ए. सरकार का गठन किया। इस प्रकार, राज्य में राष्ट्रीय जनता दल की स्थिति एवं प्रभाव एक विपक्षी दल के रूप
में बनी हुई है। राजद को 1990 के दशक के अंत तक समता
पार्टी और भाजपा के साथ उसके गठबंधन का खामियाजा भुगतना पड़ा था। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में अपने पुराने गलतियों से सावधान होकर राजद ने
विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों का चयन अपेक्षाकृत सावधानी से किया। इसने उंची
जातियों और भाजपा के सता में आने का संदेश यादवों और मुसलमानों के असंतुष्ट वर्गों
को देने की कोशिश की, जो इससे दूर हो गए थे। राजद पिछड़ी
जाति की राजनीति की मुख्यधारा की आवाज बनी हुई है, विशेषकर
बिहार में एम-वाई (मुस्लिम यादव) का समीकरण।[8]
अब राष्ट्रीय जनता दल की कमान अप्रत्यक्ष तौर पर लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव के हाथों में आ गई है, लेकिन व्यापक तौर पर इसे लालू प्रसाद यादव की पार्टी के तौर पर ही देखा जाता है। तेजस्वी यादव ने अब तक जो राजनैतिक तौर पर परिपवक्ता दिखाई है, वो काफी सराहनीय रहा है। लेकिन उनके सामने असली चुनौती पार्टी की छवि को ठीक करने और जातिगत समीकरणों के हिसाब से सामाजिक दायरा बढ़ाने की है। |
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निष्कर्ष |
अध्ययन के क्रम में प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि
आगामी दशकों में भी राजद की स्थिति एक प्रमुख दल की रहेगी और राज्य की चुनावी
राजनीति में अन्य दलों के साथ प्रतियोगिता में इसकी मुुख्य भूमिका रहेगी। जहां तक
राजद का प्रश्न है, तो विगत वर्षों में कुछ विशिष्ट
सामाजिक समूहों को संबद्ध करने में सफलता पाई है। विश्लेषकों और सीएसडीएस जैसे
तथ्यसंकलन संस्थाओं के अध्ययन भी इसे स्वीकार करता है कि राजद का निश्चित वोट बैंक
बना हुआ है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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