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रीतिबद्ध
महाकवि देव की ब्रजभाषा का मूल्यांकन |
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Evaluation of The Brij Language of The Great Poet Dev in Ritibaddha | |||||||
Paper Id :
19371 Submission Date :
2024-10-16 Acceptance Date :
2024-10-22 Publication Date :
2024-10-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14511842 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
रीतिबद्ध महाकवि देव की ब्रजभाषा का मूल्यांकन करते हुए हम यही कह सकते हैं कि देव रीतिकाल के एक महाकवि है जो अपनी कृति में प्रेम और श्रृंगार को अधिक महत्व देते हैं इनका वर्ण विषय भी प्रेम और श्रृंगार ह है लेकिन उनके प्रति उनकी धारणा अत्यंत उच्च है और इन्होंने अपनी भावना बड़ी ही उदात्त और उज्जवल रूप से प्रस्तुत की है देव का काव्य शास्त्रीय विवेचन भी जो इनके गंथो में लक्षण अंशो से प्राप्त होता है, वह अपनी मौलिक विशेषता रखता है इनको रीतिकाल के शक्तिशाली कवियों में माना जाता है, देव व बिहारी में कुछ कवि देव को बिहारी से भी बढ़कर मानते हैं तथा कुछ काम मानना है कि देव बिहारी से कमतर है।यह विवाद भी मिश्र बंधुओं की उपज है देव ने अपनी रचनाओं में सुंदर ब्रजभाषा का प्रयोग किया है जो कि उस समय के कवियों की रचनाओं में ऐसी सरस,सरल, सुंदर तथा मधुर ब्रजभाषा का प्रयोग नहीं मिलता है इस प्रकार साहित्य की दृष्टि से देव की ब्रजभाषा समकालीन कवियों से श्रेष्ठ है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | While assessing the Braj Bhasha of the great poet Dev of the Ritikal period, we can say that Dev is a great poet of the Ritikal period who gives more importance to love and romance in his work. His characters' subjects are also love and romance, but his perception towards them is very high and other original feelings are presented in a very lofty and musical form. Dev's poetic analysis, which is obtained from the characteristics parts in three knots, also has its original feeling. Anushthan is considered to be one of the powerful elements of the Ritikal period, Dev and Bihari. In some, poet Dev is considered more respected than Bihari and some believe that Dev is inferior to Bihari. The use of the sweet, simple, beautiful and melodious Braj Bhasha is not such that from the point of view of literature, Dev's Braj Bhasha is better than the contemporary method. | ||||||
मुख्य शब्द | रीतिबद्ध, महाकवि, देव, ब्रजभाषा, मूल्यांकन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Ritualistic, Great Poet, God, Braj Language, Evaluation. | ||||||
प्रस्तावना | रीतिकालीन
कवि देव का पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था । उनका जन्म सन् 1673 ई. इटावा उत्तर प्रदेश में
हुआ। रीतिकालीन कवियों में देव बड़े ही प्रतिभाशाली कवि थे। ये किसी एक आश्रयदाता
के पास नहीं रहे। इनकी चित्रवृत्ति किसी एक स्थान पर नहीं लग सकी। अनेक
आश्रयदाताओं के पास रहने का अवसर इन्हें मिला और इसी कारण राजदरबारों का
आडम्बरपूर्ण और चाटुकारिता भरा जीवन जीने से इन्हे अपने जीवन से वितृष्णा हो गई। |
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अध्ययन का उद्देश्य | रीतिबद्ध महाकवि देव की ब्रजभाषा का मूल्यांकन करते हुए हम यह जान सकते हैं कि देव नाम के जितने भी कवि हुए हैं उनमें महाकवि देव ही सबसे प्रमुख कवि है इन्होंने अपनी रचनाओं में सुंदर सी ब्रजभाषा का प्रयोग किया है जो रीतिकालीन अन्य कवियों की रचनाओं में नहीं मिलती इनकी सी ब्रजभाषा की मधुरता ,कोमलता व सरसता अन्य कवियों में दुर्लभ है, यह श्रेष्ठ कवियों में सम्मिलित नहीं है यह दुर्योग है कि इनको उतना सम्मान नहीं मिला जितना एक श्रेष्ठ कवि को मिलना चाहिए क्योंकि राज दरबारों से इनका इतना संबंध नहीं रहा जो उस समय के अन्य कवियों का रहा था उनकी प्रतिभा निम्न पदों में प्रस्तुत की गई है जो हमारे इस मूल्यांकन में है। |
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साहित्यावलोकन | रीतिबद्ध महाकवि देव की रचनाओं में ब्रजभाषा का मूल्यांकन करते हुए हम यही कह सकते हैं कि साहित्य कवि के हृदय की वाणी बनी है इसलिए हम साहित्य का क्षेत्र विस्तृत मान सकते हैं साहित्य कवि द्वारा जनता से जुड़ने का सशक्त माध्यम है समाज के लिए एक कृति विशेष की उपयोगिता इससे सिद्ध होती है कि इससे पाठक जागरूक होते हैं ,भाषा के प्रति उनका दायित्व, मोह अधिक उत्साह से जागृत होता है तथा पाठक किसी कवि को अपने अधिक करीब समझने लगते हैं कि यह कवि की रचना हमारी हृदय की भावनाओं को हमारी ही भाषा में प्रस्तुत करती है, तथा यह बताती है कि उक्त कभी हमारी भावनाओं को अच्छी तरह से समझता है जो कि हमारी जरूरत है। जनवाणी कवि की वाणी में प्रस्तुत होने पर अधिक प्रभावी हो जाती है साहित्य समस्त कलाओं की अपेक्षा अधिक समाज से जुड़ा होता है और उसमें मुख्य कारण भाषा है और भाषा एक सामाजिक सत्ता है तथा यही वह माध्यम है जिससे एक सामाजिक प्राणी समस्त कार्य सरलता से हल करता है इसलिए साहित्य का अवलोकन समय-समय पर जरूरी है। |
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मुख्य पाठ |
कवि
देव की रचनाएं:- देव
द्वारा रचे गए ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक
मानी जाती है। उनमे रसविलास, भवानी - विलास, भाव-
विलास, जाति
विलास, अष्टयाम
सुजान विनोद काव्य रसायन, प्रेम-दीपिका आदि प्रमुख है। इनके कवित्त सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के
इन्द्रधनुषी चित्र मिलते हैं, संकलित सवैयों और कवित्तों में जहां एक और रूप सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ
है, वही
रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है। कवि देव कुछ समय तक औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के दरबार में भी रहे थे किन्तु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगी लाल नाम सहृदय आश्रयदाता के यहां ही प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपत्ति दान की थी। देव की भाषा प्रांजल और कोमल ब्रजभाषा है। इस भाषा में अनुप्रास और यमक के प्रति देव का आकर्षण दिखाई देता है। उनकी कविता में जीवन के विविध दृश्य नहीं मिलते, किन्तु प्रेम और सौन्दर्य के मार्मिक चित्रों की प्रस्तुति मिलती है कवि देव के मुख्य सवैया और कवित व उनकी प्रांजल ब्रजभाषाः- (1) सॉसनि
ही सौ समीर गयो अरु, आँसुन
ही सब नीर गयो ढरि। तेज
गयो गुन लै अपनो, अरु
भूमि गई तन की तनुजा करि । देव
जिये मिलि बेहि की आस कि, आसहू पास अकास रहो भरि । जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियों जु
लियो हरि जू हरि ।
कठिन-शब्दार्थ:
- सॉसनि-सांसो में, समीर-हवा, आँसुन आँसू,नीर जल, ढरि-ढुलकना गुन-गुण, तन शरीर, तनुजा कृशता, आसहु- आशा में अकास, हेरि-देखकर हियो-हृदय, हेरि कृष्ण, हरना ।
भावार्थ: - इन पंक्तियों में
कवि ने एक ऐसी गोपिका का वर्णन किया है जो कृष्ण की हँसी की चोट की शिकार होकर
विरह-वियोग की चरम दशा में पहुँच गई है। एक बार श्री कृष्ण ने एक गोपी की तरफ
मुस्कराकर देखा तो गोपी भाव-विभोर होकर उन्ही की मुस्कुराहट में खो गई, किन्तु थोड़ी देर बाद कृष्ण ने
उसकी तरफ से मुँह फेर लिया तो उस गोपी की खुशी अचानक से ही गायब हो गई और अब वह
उसी समय से वियोग अवस्था में जा रही है वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही है।
विरह अवस्था में वह तेज-तेज साँसे छोड़ती है,
इससे उसका वायु तत्व समाप्त होता जा रहा है।
कृष्ण
वियोग में रोते रहने से उसके आंसुओं में उसका जल तत्व बहकर समाप्त हो रहा है। गोपी
के शरीर का तेज अर्थात गर्मी भी अपना गुण खो चुकी है। इस प्रकार तेज तत्व (अग्नि)
का प्रभाव भी समाप्त हो गया है। विरह व्यथा में उसका शरीर अत्यन्त कमजोर हो गया है
इस कमजोरी में उसका शरीर अर्थात् भूमि तत्व भी चला गया है। इस प्रकार विरही गोपी
के शरीर के पाँचों तत्व (भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश) में से केवल
आकाश तत्व ही उसके बचा है गोपी अकेले आकाश तत्व के बलबूते पर ही मन में कृष्ण से
मिलन की आशा लगाए हुए है अर्थात् उसका मिलन आशा पर ही जीवित है। अन्त
में कवि देव लिखते हैं कि जिस दिन से श्री कृष्ण ने गोपी की ओर से मुँह फेर लिया
है तभी से उसका दिल तो कृष्ण के पास चला गया है। और मुख से हँसी गायब हो गई है। वह
कृष्ण को ढूंढ-ढूंढ कर थक गई है।
विशेष:
(1) ब्रजभाषा में सवैया छंद का
सुन्दर प्रयोग है। (2) वियोग श्रृंगार का मार्मिक
चित्रण है। (3) यमक, अनुप्रास व अतिशयोक्ति अलंकार
का सुन्दर प्रयोग है। (4) मानव शरीर पाँच तत्वों से बना
है, कवि
ने उनका वर्णन किया है।
(2) झहरि झहदि झीनी
बूँद है परति मानों, घहरि-घहरि घटा
घेरि है गगन में। आनि कह्यो स्याम
मो सौ चलो झुलिवे को आज‘ फुली न समानी भई
ऐसी हौ मगन मैं। चाहति उठ्योई उठि
गई सो निगोडी नीद सोयं गये भाग
मेरे जागि वा जगन में। आँखि खोलि देखौ
तो मैं घन है न घनश्याम, बेई छायी बूंदे
मेरे आंसू है दृगन में ।। भावार्थ:
- विरहिणी
नायिका कह रही है कि मैंने रात में जो स्वप्न देखा उसमें मुझे लगा कि झरझर का शब्द
करती हुई झीनी-झीनी बूँदे पड़ रही है और गर्जना के साथ आकाश में बादलों की घटाए
घिरी हुई है। उस वातावरण में कृष्ण ने आकर मुझसे कहा कि चलों आज झुला-झुले ।
प्रियतम का यह प्रस्ताव सुनकर मैं अत्यधिक खुश हुई। मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा।
में झुलने के लिए उठना ही चाहती थी कि अभागी दुष्ट नींद ही उड़ गई। जागने से नीद की
टूट जाना मुझे दुर्भाग्यपूर्ण लगा। मैंने अपनी आँखे खोलकर कृष्ण को देखना चाहा तो
मुझे लगा कि वहां न तो आकाश में बादल है और न घनश्याम यानी कृष्ण ही है। तब मुझ
बिरहिणी को अपनी आँखों में आए हुए आँसू ही मिले। वह इस दुख से से पड़ी थी उससे आँसू
आ गए थे। कठिन-शब्दार्थ:- झहरि-झहरि - झर झर, घहरि-घहरि, गर्जना के साथ गगन- आसमान, उठ्योई- उठना, निगोडी - बद - नसीब, दृगन- आँख
विशेष:- (1) ब्रजभाषा में सवैया छंद का
सुन्दर प्रयोग है। (2) वियोग श्रृंगार का मार्मिक
चित्रण है। (3) अनुप्रास व अतिशयोक्ति अलंकार
का सुन्दर प्रयोग है। (4) गोपी ने कृष्ण के दर्शनों के
बिना जगत में जगना दुर्भाग्य पूर्ण माना है।
(3) रावरो रूप रह्यौ
भरि नैननि, वैननि के रस सौं
श्रुति सानो । गात में देखत गात
तुम्हारे ई बात तुम्हारिये
बात बखानो।। ऊधो उहा हरि सौ
कहियों, तुम हो न इहां यह
हौं नहि मानों। या तन ते बिछुरे
तो कहा, मन ते अनतै जु
बसौ तब जानो ।।
कठिन-शब्दार्थ:-
रावरो
- आपका,
नैननि-नेत्रो, वैननि-वाणी, श्रुति-कान, गात-अंग, अनतै - अलग होकर
भावार्थ:-
प्रस्तुत पद में
कवि देव बताते है कि गोपियाँ उद्धव से कह रही है कि जब तुम मथुरा जाओ तो वहाँ जाकर
प्रभु श्री कृष्ण से कहना कि आपका रूप सौन्दर्य ही हमेशा हमारी आँखों में भरा रहता
तथा आप की मधुर बोली से ही हमारे कान भरे रहते है अर्थात हमारे कानों में हमेशा
आपकी मधुर वाणी व बाँसुरी की धुन गुजती रहती है, हम हमारे अंगों में आपके अंगों के दर्शन कर लेती है तथा हम
गोपियों के बातों का विषय भी केवल तुम्हारी बात करना ही रहता है सो जब उद्धव तुम
मथुरा जाओ तब कृष्ण से कहना कि तुम गोकुल में गोपियों के पास नहीं हो इस बात को वे
नहीं मानती क्योंकि आपके दर्शन के स्वयं में ही कर लेती है, तुम हमारे से तन से दूर चले
गए तो क्या हुआ, मन
से दूर जाकर बसोगे तब हम मानेगी कि तुम हमसे दूर हो, क्योंकि वास्तविक दूर होना तो मन से दूर होना है।
विशेष:- (1) प्रस्तुत पद में गोपियों की
एकनिष्ठ भक्ति को प्रकट किया है। (2) ब्रजभाषा का सुन्दर प्रयोग
कवि द्वारा किया गया है। (3) गोपियों ने मन की दूरी को
सच्चा दूर होना माना है। (4) अनुप्रास अलंकार व वियोग
श्रृंगार का सुन्दर प्रयोग है।
(4) डार द्रुम पालना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झंगोला सोहै तन छवि भारी दै। पवन झुलावै केकी कीर बतरावै देव, कोकिल हलावै हुलसावै करतारी दै। पूरीत पराग सो उतारा करे राई लौन, कुंदकली नायिका लतान सिर सारी दै। मदन महीप जू को बालक बसन्त ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।।
कठिन
शब्दार्थ:- दु्रम-
पेड़, पल्लव
- पŸाा, सुमन - फूल, झंगोला - कुर्ता, ढिला-ढाला वस्त्र, कैकी - मोरनी, कीर - तोता, कोकिल - कोयल, लौंन - नमक, कुंदकली- सुन्दर, महीप - राजा
भावार्थ:- कवि देव वसन्त ऋतु को राजा कामदेव का पुत्र (बालक) संबोधित करते हुये बड़े ही
मनमोहक तरीके से वसन्त ऋतु के आगमन का वर्णन करते है कि बसन्त रूपी बालक के लिये
पेडो की डालिया पालना बन गयी है तथा डाल के नये पŸो पालने का बिछौना बन गये और डाली पर आए फूल इस तरह सुशोभित
हो रहे है जैसे बसन्त रूपी बच्चे ने फूलों का ढीला ढाला कुर्ता पहन रखा है जो उसके
तन को बडा शोभायमान बना रहे है, पवन डाली रूपी पालने को झुला दे रही है,
मोरनी और तोते बसन्त रूपी बच्चे से बाते कर रहे है तथा कोयल
अपने हाथों की तालिया बजा- बजा कर उसे हुलसित करती है। सुन्दर सी लता रूपी नायिका
अपने सिर पर नये पŸो
रूपी साडी को रखकर फूलों के पराग से राई - नमक के समान बसन्त रूपी बच्चे की नजर
उतारती है। कामदेव रूपी राजा का बालक बसन्त उसे गुलाब सवेरे चुटकियाँ बजा-बजा कर
जगा रहे है।
विशेष:- (1) प्रस्तुत पंद्याश में कवि देव
द्वारा बसन्त को कामदेव का पुत्र मानकर वर्णन किया है। (2) प्रस्तुत पंद्याश में
ब्रजभाषा तथा रूपक (अनुप्रास)अलंकार का सुन्दर प्रयोग है। (3) प्रस्तुत पंद्याश में वात्सल्य
रस का वर्णन तथा वसन्त का प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णित है। (4) कवित छंद का प्रयोग हुआ है।
(5) राधिका कान्ह को ध्यान करै, तब कान्ह है राधिका के गुन गावै। त्यौ अँसुवा बरसै बरसाने को, पाती लिखि लिखि राधे को ध्यावै।। राधै है जाय घरीक में ‘‘देव‘‘ सु
प्रेम की पाती लै छाती लगावै। आपुने आपुही में उरझे सुरझे विरूझे समुझे समुझावै।।
कठिन
शब्द:- घरीक
- घडी में, उरझे
- उलझती,
विरूझे- भ्रमित, समुझावै - समझाती
भावार्थ:- प्रस्तुत सवैया (पद) में कवि देव राधा जी के विरह को व्यक्त करते हुये बताते
है कि एक दिन राधा जी श्री कृष्ण के बारे में सौच रही थी तभी उन्हे लगता है कि वे
स्वयं कृष्ण बन गई है तथा कृष्ण होकर वे श्री राधा जी के गुण गाने लगती है तथा
बरसाने में रहते हुए ही, बरसाने की राधा के प्रेम के विषय में सोच - सोच कर कृष्ण बनी राधा अत्यधिक
रोती है तथा श्री राधा के लिये पत्र लिख - लिख कर उनको याद करती है। तथा जैसे ही
कृष्ण बनी राधा द्वारा श्री राधा जी के लिये लिखा प्रेम पत्र पूरा होता है वह घडी
भर में ही फिर राधा बन जाती है तथा कृष्ण बन कर लिखे प्रेम पत्र को हृदय से लगाती
है, इस
प्रकार प्रभू प्रेम में डूबी राधा जी अपने आप में उलझती है, सुलझती है। इस प्रकार प्रभू
प्रेम में राधा जी अपने विरह के समय को व्यतीत करती है।
विशेषः- (1) प्रस्तुत पद में श्री राधा जी
की कृष्ण के लिये एक निष्ठ भक्ति व प्रेम को व्यक्त किया है। (2) प्रस्तुत पद में श्री राधा जी
की विरही मनोदशा का सुन्दर वर्णन किया गया है। (3) सुन्दर ब्रजभाषा का वर्णन तथा
अनुप्रास अलंकार का प्रयोग श्रेष्ठ है। (4) वियोग श्रृंगार रस का सुन्दर
प्रयोग है।
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निष्कर्ष |
देव
आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते है आचार्यत्व के पद के अनुरूप
कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और
सुखदेव ऐसे साहित्य शास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिद्धांत निरुपण का
मार्ग नही पा सके। कुछ लोगों ने भक्तिवश इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना का श्रेय
देना चाहा। अभिधा, लक्षणा
आदि शब्द शक्तियों की निरुपण हिन्दी के रीतिग्रंथों में प्रायः कुछ भी नहीं हुआ ।
इस दृष्टि से देव का कथन है किः- अभिधा
उत्तम काव्य है, मध्य
लक्षणा लीन । अधम व्यंजना रस बिरस, उलही कहत नवीन।
ब्रजभाषा
काव्य के अंतर्गत देव को महाकावि का गौरव प्राप्त है, यद्यपि ये प्रतिभा में बिहारी
भूषण, मतिराम
आदि समकालीन कवियों से कम नहीं वरन् कुस्त बढ़कर ही सिद्ध होते है फिर भी किसी
विशिष्ट राजदरबार से संबंध न होने के कारण इनकी वैसी ख्याति और प्रसिद्धि नहीं
हुई। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘‘मतिराम और जसवंत सिंह के बाद यदि कोई सचमुच ही शक्तिशाली कवि और आलंकारिक कवि
हुआ तो वह देव कवि थे। ‘‘छल नामक संचारी भाव इनकी ही
दैन है। देव को अत्यधिक प्रसिद्ध करने वाले लेखकों में मिश्रबंधु है जिनके विचार
से देव का स्थान हिन्दी साहित्य में तुलसी के बाद आता है। देव और बिहारी में कौन
अधिक श्रेष्ठ है इसको लेकर एक विवाद भी चला था। इसी संबंध में ‘‘देव और बिहारी‘‘ नामक पुस्तक पंडित कृष्ण
बिहारी मिश्रा ने लिखी और ‘‘बिहारी और देव‘‘ की
रचना लाला भगवान दीन ने की थी। इन दोनों में देव और बिहारी की काव्य प्रतिभा को
स्पष्ट करने का प्रयत्न है यद्यपि हिन्दी साहित्य के अंतर्गत ‘‘देव‘‘ नाम के छह-सात कवि मिलते है
तथापि प्रसिद्ध कवि देव को छोड़कर अन्य ‘देव‘ नामधारी
कवियों की कोई विशेष ख्याति नहीं हुई।
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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