हिंदी साहित्य : एक अनुदित संकलन
ISBN: 978-93-93166-31-9
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स्वातंत्र्योत्तर लघु-उपन्यासो में नगरीय सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति

 अनीता पटेल
शोध छात्रा
हिंदी विभाग
आचार्य नरेन्द्र देव नगर निगम महिला महाविद्यालय
कानपुर,  उत्तर प्रदेश, भारत  
डाँ0 ऋतम्भरा
शोध निर्देशिका
हिंदी विभाग
आचार्य नरेन्द्र देव नगर निगम महिला महाविद्यालय
कानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत

DOI:
Chapter ID: 16057
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सारांश

कोई भी लेखक अपने समाज या परिवेश से अलग हो ही नही सकता। ईमानदार तथा परिश्रमी लेखक अपने सामाजिक परिवेश के प्रति पूर्णतः सजग, तथा संवेदनशील रहता है। वह जिस समाज में रहता है। उसी की साहित्य में रुचि तथा अभिव्यक्ति करता हैं। सामाजिक परिवेश की सभ्यता, परम्परा, वातावरण, आर्दश, अचार-विचार, घटनाएं, वेश-भूषा आदि ही उसके साहित्य का आधार भूमि होता है। इस दृष्टि से स्वातंत्र्योत्तर लघु-उपन्यासों में नगरीय सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक का यह लघु-उपन्यासों में नगरीय सामाजिक जीवन एवं परिवेश की त्रासदी का  वृहद् आख्यान हैं। नगरीय जीवन की विभिन्न समस्याओं, विसंगतियों एवं नगरों में निवास के समय एकत्रित जीवन अनुभवों को लेखक ने लघु-उपन्यास में मार्मिक एवं सजीव वर्णन करने का प्रयास किया है।

मुख्य बिन्दु: नगरीय जीवन, परिवेश, लघु-उपन्यास समाज, लेखक, आवास, संवेदनहीनता नारी जीवन, दाम्पत्य संबन्ध, तनाव, जीवन मूल्य, बेरोजगारी, शिक्षा स्तर, परिवार, बच्चे, बृहय आडम्बर, अन्ध विश्वास, अमानवीयता आदि।

प्रस्तावना

किसी भी नयी साहित्यिक विधा या प्रवृत्ति के आरम्भ के पीछे अपने समय एवं समाज का सच एवं उनकी बदली हुई स्थितियाँ होती है जो उस विधा या प्रवृत्ति की सृजनात्मकता के लिए भूमि एवं भूमिका का निर्माण करती है।

नामवर सिहं ने कहानी विधा के बारे में कहा है कि ‘‘यह छोटे मुहँ बड़ी बात कहती है’’[1] लघु-उपन्यासों के बारे में भी यह बात कही जा सकती है। लघु-उपन्यास अपने आकारगत लघुता के कारण एक नई साहित्यिक विधा के रुप में स्थापित नही है। इसके अपने कुछ विशेषताए है जो इसे कहानी और उन्यास से अलग करते है। घनश्याम मधुपने अपनी रचना हिन्दी लघु-उपन्यासमे यह स्पष्ट किया है कि ‘‘हिन्दी लघु-उपन्यास समय की माँग को लेकर उद्वत हुआ है। कहानी की संघनता एवं जीवन यथार्थ को आत्मसात् करते हुए इस विधा का जन्म हुआ है। उपन्यास और कहानी से उत्पन्न इस विधा में उन दोनो के गुण विद्यमान है। दोनो के गुण इसलिए की कहानी या उपन्यास यदि दोनों में से किसी एक में भी लघु-उपन्यास की संभावना निहित होती है तो इस विधा का जन्म ही नही होता।’’[2]

प्रत्येक साहित्य विधा की कुछ अपनी-अपनी विशेषता होती है। कोई भी साहित्य जीवन की वास्ताविकता को नकार कर अपने अर्थ को प्राप्त नही कर सकता है। उसके अन्दर अपनी आंतरिक महत्व तो होती ही है। जो उनमें निहित परस्पर अन्तर होने के बावजूद उन्हें एक सूत्र में पिरोता है। हिन्दी के लघु-उपन्यास पर बात करते सहसा रहीम जी याद आते है-

‘‘रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहाँ काम आवै सुई, कहाँ करे तलवारि।।’’[3]

तो सवाल लघुता या विशालता का नही है, सवाल उसमे समाहित उस जीवन-दृष्टि का है। जो किसी रचना के आकार के कारण बनते है और वे शब्दो के सहारे सामने उपस्थित होते है। लघु-उपन्यास समय की माँग को लेकर उद्भूत हुआ है। लघु-उपन्यास में उपन्यासकार के जीवन में घटित होने वाली किसी विशिष्ट घटनाओं का संवेदनशील और अनुभूतिबद्ध लेखा-जोखा वर्णन होता है।

स्वातंत्र्योत्तर लघु-उपन्यासों में नगरीय सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति में ऊहापोह और उलझनों और उसमें फँसी मनुष्य की जिन्दगी के रु-ब-रु होते हुए कमलेश्वर के लघु-उपन्यास एक त्रासद घटना की ओर इंगित करते है। उनके लघु-उपन्यास तीसरा आदमीमें एक नये शादी-शुदा दंपत्ति के आर्थिक दबाव और नगर के ताने-बाने झूठे नियमों में इस तरह उलझ जाते है कि उनके बीच सब कुछ बच के भी कुछ नही बचता है वह एक-दूसरे के रिश्ते। एक खुशहाल दाम्पत्य-जीवन के लिए विश्वास और प्रेम की जरुरत होती है वही खत्म होता जा रहा है। इस लघु-उपन्यास के कथानक में लेखक ने स्वय लिखा है कि ‘‘महानगर में संघर्षरत एक मध्यमवर्गीय परिवार। परिवार क्या, पति, पत्नी और पति का एक मित्र। संत्रास, घुटन और समस वाली भीड़-भरे इस महानगर के एक छोटे से कमरे में इन तीनों का रचाव, बसाव, मनमुटाव, द्वंद्व, संशय और स्पर्धा, इस संशय की कथा है- जिसमें पति अपनी पत्नी पर शंकालु निगाह रखने को विवश होता है। उसका अजीज दोस्त एक वक्त उसके लिए तीसरा आदमीका प्रतीकार्थ बन जाता है। यह कथा वक्त की नजाकत है।’’[4]

लघु-उपन्यास ‘तीसरा आदमी’, यशपाल के बारह घण्टेनिर्मल वर्मा के वे दिन’, ममता कालिया के कितने शहरों में कितनी बारआदि केन्द्र में है। उनकी रचनाओं में नगरों में रहने वाले के सामाजिक जीवन में बहुत अधिक भिन्नता देखने को मिलती है। वहाँ की वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार व्यवहार, विश्वास एवं धारणायें, आर्थिक स्थिति, शिक्षा का स्तर, धर्म व्यवसाय आदि क्षेत्रों में विभिन्नता देखने को मिलती है। अर्थात् नगरीय जीवन में एकरुपता का अभाव। नगरीय जीवन में सामाजिक विजातीयता के बावजूद व्यक्तियो को एक साथ निवास करना पड़ता है। जिसके कारण एक-दूसरे के प्रति सामाजिक सहिष्णुता में वृद्धि होती है। नगरीय सामाजिक जीवन में सरकार अपने अध्यादेशों, कानूनों पुलिस तथा सरकारी विभागों के द्वारा समाज पर नियंत्रण रखता है। अर्थात् नगर में सरकारी नियमों का प्रभाव अधिक है।

स्वातत्र्योंत्तर लघु-उपन्यासकारों में निर्मल वर्मा हिन्दी साहित्य के शीर्षस्थ लेखको में एक है। निर्मल वर्मा जीनक अपने लघु-उपन्यासों में आधुनिक व्यक्ति क स्थिति एवं अभिव्यक्ति नियति को चित्रित किया है। निर्मल वर्मा के सन्दर्भ में गोपाल राय जी लिखते हैं-‘‘निर्मल वर्मा मुख्यतः अवसाद, निराशा, अलगाव बोध, संत्रास भाव और मन की अंधकारभरी गुफाओं में भटकनेवाली चेतना के उपन्यासकार है।’’[5] उपयुक्त से सपष्ट है कि निर्मल वर्मा जी ने अपनेपन, अलगावबोध, उब, यातना द्वंद्व, चितंन घुटन की भावना को अस्तित्वादी शैली में वर्णन किया है। निर्मल वर्मा जी के वे दिनउनका पहला लघु-उपन्यास हैं। जो नगरीय मानसिकता से युक्त है। इस लघु-उपन्यास के संदर्भ में पारुकान्त देसाई लिखते है- ‘‘वे दिन यूरोप की महायुद्धधोत्तर नई दिशा-द्वारा पीढ़ी के संत्रास, घुटन, तनाव, मूल्यहीनता, अर्थहीनता, और उसके रीतिपन को रुपायित करने वाला उपन्यास है।’’[6] इस लघु-उपन्यास में सदस्यों का विभाजन करते समय दो भागों में बाटा गया है एक तो भारतीय वर्ग और दूसरा विदेशी वर्ग में स्काँलरशिप लेने वाला लघु-उपन्यास का पात्र मै’ (इंदी) तो दूसरा पाश्चात्य वर्ग जिसमें फ्रन्ज मारिया, रायना, टी0टी0, टुरिस्ट, कम्पनाी का मालिक होटल के अन्य छात्र, कर्मचारी आदि सम्मिलित है। मैको प्रयोग में आर्थिक अभाव, बेरोजगारी, मानसिक पीड़ा एवं तनाव जैसे विभिन्न समस्याओं से गुजना पड़ता है। अपने आर्थिक अभाव के सन्दर्भ में मैकहता है-‘‘सर्दी के उन दिनों में टूरिस्टों के साथ बाहर भटकने की संभावना मुझे ज्यादा आकर्षक नही जान पड़ी। लेकिन इनकार करने का मुँह नही था। उन दिनों स्काँलरशिप की रकम बहुत पहले खत्म हो जाती थी। हर विद्यार्थी छुट्टियों में काई न कोई काम ढूंढ लेता था। मै अब तक चलता आया था लेकिन मुझे लगा, अब दिन इस तरह नही चल सकेगा।

इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को विद्यार्थाी जीवन में नगर मे पढ़ाई करने के लिए गयें मैको आर्थिक अभाव के कारण छुट्टियों में नौकरी करनी पड़ती है। वही परिस्थिति टी0टी0 तथा होस्टल के अन्य विद्यार्थी की है जो शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने घरों से दूर दूसरे (नगर) में गये है।

भारतीय समाज में हिन्दी साहित्य में नगरीय सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति की एक अलग ही छाप या प्रभाव है। नगरीय समाज ग्रामीण समाज की तुलना मे विशाल और घना बसा हुआ होता है। नगरीय समुदाय में सामूहिक जीवन की अपेक्षा वैयक्तिक मूल्यों पर अधिक महत्व होता है। नगरीय समाज मे भावना की अपेक्षा औपचारिकता और दिखावा अधिक होता है। यहाँ विभेदीकरण की प्रक्रिया अधिक तथा संगठित की प्रक्रिया कम है।

लेखक ने अपने लघु-उपन्यास में नगरीय जीवन व्यतीत करने वाले तथा वहाँ की समाजिक विभिन्नता का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। उनकी रचनाओं में रहने वाले के सामाजिक जीवन में बहुत अधिक भिन्नता देखने को मिलती है। वहाँ की वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, व्यवहार, विश्वास एवं धारणायें आर्थिक स्थिति, शिक्षा का स्तर आदि क्षेत्रों में विभिन्नता देखने को मिलता है। अर्थात नगरीय समाजिक जीवन में एकरुपता का अभाव है। नगरीय जीवन में सामाजिक विजातीयता के बावजूद वयक्तियों को एक साथ निवास करना पड़ता है। जिसके कारण एक दूसरे के प्रति सामाजिक सहिष्णुता में वृद्धि होती है।

लेखक ने अपने लघु-उपन्यास में नगरीय लोगों के जीवर्नोपार्जन का मुख्य आधार फैक्ट्री मील, कारखाने एवं स्वयं का व्यापार पर आधारित है। श्रमिक अपने विभिन्न आवश्यकताओ की पूर्ति इन्ही संगठनों में कार्य करके करता है आदि का वर्णन किया गया है। नगरीय समाज में पति और पत्नी के विचारों मे भी भिन्नता पाई जाती है। क्योकि पति और पत्नी दोनों ही अलग-अलग स्थानों पर कार्य करते है। नगरीय समाज में गतिशीलता अधिक पायी जाती है। क्योकि वहाँ व्यक्ति स्वतन्त्र होता है अपने इच्छा एवं समर्थ के अनुसार व्यवसाय कर सकता है। वह बधंन मुक्त होता है। नगर में कोई हिन्दू व्यक्ति मुसलमान व्यक्ति के साथ मित्रता कर सकता है इससे उनके समाजिक स्थिति पर कोई प्रभाव नही पडता है। अर्थात नगर में व्यक्ति ऐच्छिक संपर्क स्थपित कर सकता है।

नगरीय समाजिक जीवन में सरकार आपने अध्यादेशों, कानूनों पुलिस तथा सरकारी विभागों के द्वारा समाज पर नियंत्रण रखता हैं। अर्थात नगर में सरकारी नियमयों का प्रभाव अधिक होता है।

नगर में समुदायिक भावना का अभाव है नगरीय सामाजिक जीवन में न एक समूह होता है और नही सामुदायिक भावना, न लोक निन्दा का भय और न पास-पड़ोस वालों का लिहाज। यहाँ किसी को किसी से काई मतलब नही रहता है। नगरीय सामाजिक जीवन की सबसे महत्पूर्ण विशेषता एकांकी परिवार है। क्योकि औद्योगिक विकास ने संयुक्त परिवार को विघटित करके छोटे परिवारों को नगर में बसने के लिए प्रेरित किया है। एकांकी परिवार में केवल पति-पत्नी और उनके बच्चे ही रहते है।

भारतीय समाज मे नगरीय जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता जनसंख्या की  अधिकता है। औद्योगिक नगरों में जनसंख्या का घनत्व अन्य नगरो की अपेक्षा सबसे अधिक होता है। यहाँ पर भीड़-भाड़, शोर-शराबा तथा व्यस्थता अधिक है। नगरीय सामाजिक जीवन में काम-काज तथा व्यवसायों की अनेकता है। उदाहारणतः कुछ लोग व्यापार करते है तो कुछ लोग उद्योग चलाते है। कुछ अध्यापक है तो कुछ लोग सरकारी कर्मचारी है आदि। नगरीय सामाजिक जीवन में नैतिकता निरंतर अदृश्य होती जा रही है। भोग और विलासिता, सुखवादी व भोगवादी औद्योगिक, संस्कृति ने व्यक्ति को निम्न से निम्न कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है। व्यक्ति पर न तो समाज का नियंत्रण रहा है और न ही परिवार और समुदाय का। नगरीय सामाजिक जीवन समस्त संसार को अपने में समेटता जा रहा है। नगर यह निश्चित करता है कि लोगों एवं व्यक्ति के लिए किस प्रकार का आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन आधुनिक मानव का होना चाहिए। जो इसका अनुकरण करते है। आज का आधुनिक समाज उन्हे पुरस्कृत एवं प्रोत्साहित करता है और जो इन्हे नही अपनाते उन्हे भारी संख्या में हानि उठानी पड़ती है। परिणामतः नगर नियंत्रण का केन्द्र भी है। नगर व्यवहारिक प्रतिमान सीखने के साथ-साथ नगर नियंत्रण की शक्ति को बढावा देता है। जिसके फलस्वरूप उसके प्रभाव का विस्तार हो रहा है।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आज की बदलती परिस्थितियाँ, परिवर्तित जीवन मूल्यों के बीच, आधुनिक मानव के संघर्षपूर्ण जीवन का नगरीय परिवेश के बीच पनपती विभिन्न समस्यायें एवं वैशिष्ठ्य मनः स्थितियों को परखने का जो अनुभव लेखक को है। वह सराहनीय तथा महत्वपूर्ण है। जो उनके लघु-उपन्यासों मे दृष्टिगोचर हुई  है। प्रस्तुत लघु-उपन्यास में नगरीय परिवेश मे जीवन यापन कर रहे व्यक्ति की पीड़ा, कसक, यातना एवं उसके संघर्ष से भरे जीवन का  वर्णन लेखक ने बड़े ही मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है।

वैयक्तिक अनुभवों एंव जीवन दृष्टि के माध्यम से लेखक ने अपने लघु-उपन्यास में नगरीय परिवेश में अपनी पहचान का बाजरीकरण, असामजिकता, आवास की समस्याआर्थिक समस्या, मंहगाई, बेरोजगारी, प्रदूषण, शिक्षण संस्थानो का बमान एवं भ्रष्टाचार, अध्ययापक वर्ग का संघर्ष, नारी चेतना, टूटते दाम्पत्य सबंध, महत्वाकाक्षी नारी, आदि विषम पहलुओं का मार्मिक  एंव संजीव वर्णन किया है। अतः स्पष्ट है कि प्रस्तुत लघु-उपन्यासों में नगरीय सामाजिक मूल्यों का वृहत् अख्यान है।

संदर्भ ग्रथ सूची

1. नामवर सिंह ; कहानीः नयी; लोक भारती प्रकाशन इला01989; पृ0-18

2. घनश्याम मधुप’- हिन्दी लघु-उपन्यास, राधा कृष्ण प्रकाशन दिल्ली, 1971, पृ0सं0-47

3. डाँ0 रमेश कुमार उपाध्याय तथा डाँ0 योगेन्द्र नारायण पाण्डेय; ‘हिन्दी काव्य’; राजीव प्रकाशन, प्रयागराज, पृ0-120

4. समग्र उपन्यास-कमलेश्वर के दस उपन्यास, राजपाल एण्ड सन्ज प्रकाशन, दिल्ली; 2011, पृ0सं.157

5. शशिभूषण अग्रवाल- भारतीय उपन्यासः अंतिम दशक, पृ0240

6. पारूकान्त देसाई-साठोत्तरी हिन्दी उपन्यास, पृ0149

7. निर्मल वर्मा- वे दिन, पृ021