|
भगवान गौतम बुद्ध एवं भारतीय समाज (बौद्ध धर्म के उदय से 12वी शताब्दी तक) ISBN: 978-93-93166-10-4 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
भगवान बुद्ध और उनके द्वारा किए गए सामाजिक सुधार(महापंडित राहुल सांकृत्यायन की दृष्टि में) |
डॉ. निमिता वालिया
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी साहित्य विभाग
श्रीमती नर्बदा देवी बिहानी गवर्नमेंट पी0 जी0 कॉलेज
नोहर, हनुमानगढ़ राजस्थान भारत
|
DOI: Chapter ID: 15998 |
This is an open-access book section/chapter distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. |
सारांश ईसा पूर्व छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वैदिक कर्मकांडो की जटिलता में समाज
जकड़ा हुआ था और ब्राह्मणों का धर्म पर एकाधिकार था। ऐसी दशा में संस्कृत के स्थान
पर जन भाषा में आर्त्त लोगों के लिए धर्म आचरण का सरल मार्ग सुझाने का कार्य
महात्मा बुद्ध ने किया। यह धर्म वेद-वचन को प्रमाण नहीं मानता, वर्ण-व्यवस्था,
कर्मकांड और बलि-प्रथा में विश्वास नहीं करता,
ईश्वर की सत्ता को भी नहीं मानता,
क्योंकि ईश्वर व देवता में आत्मा मानव को निष्क्रिय बनाती है सदाचार से ही
व्यवस्थित उच्च स्तर पर पहुँचकर जीवन-मरण से मुक्ति पाता है, कदाचार से व्यक्ति अधोगति पाता है। अपने व्यावहारिक
दृष्टिकोण जाति-पाती, ऊँच-नीच के विरोध तथा सादगी
के कारण इस धर्म को देश के भीतर और बाहर फैलते देर नहीं लगी। बुद्ध के उपदेश मौलिक
थे, उनके निर्वाण के बाद बिहार के राजगृह में पहली बौद्ध संगति
हुई, जिसमें बुद्ध के तीन
शिष्यों- काश्यप, उपालि और आनंद ने उनकी
शिक्षाओं को दोहराया। दूसरी संगीति वैशाली में,
तीसरी अशोक के समय और चौथी कुषाण सम्राट कनिष्क के समय आयोजित हुई। मौखिक
परम्परा में प्रवहमान सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य को तीन भागों में लिपिबद्ध किया गया, जो ’त्रिपिटक’ कहलाते हैं। सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेश हैं, विनयपिटक में भिक्षुसंघ के आचार-विचार और नियम हैं, अभिधम्म पिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक विचार हैं। बुद्ध
को कुछ लोगों ने महापुरूष माना, जिनके बताए मार्ग से
निर्वाण-प्राप्ति संभव थी। इनका मानना था कि बुद्ध की न तो मूर्ति बने और न पूजा
की जाए। इन लोगों को ’हीनयान’ कहा गया, जबकि कुछ लोगों का मानना था
कि बुद्ध से पहले भी अनेक बुद्ध हुए हैं और आगे भी होंगे। इस मत के लोगों ने बुद्ध
की प्रतिमाएं बनाई, पूजा भी प्रारम्भ कर दी।
इसके मत को ’महायान’ कहा गया। इस मत के मानने वालों ने पालि में रचित बौद्ध
साहित्य को संस्कृत में भी रचना शुरू कर दिया। एशिया के अनेक देशों में बौद्ध-धर्म
पृथक् अस्तित्व कायम रख सका, पर भारत में हिंदू धर्म ने
बुद्ध को अपने में आत्मसात् करते हुए उन्हें अवतार मान लिया। इस प्रकार दोनों
धर्मो के बीच का अंतर मिटता रहा। बौद्ध धर्म की पूर्व बुद्धों या बोधिसत्वों की ’जातक कथाओं’
से सिद्ध होता है कि बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म एवं आत्मा के अस्तित्व को
स्वीकार किया गया है। सार-रूप में कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म दर्शन एवं जीवन की
आचार संहिता है। मुख्य शब्द प्रक्षालन, कृशकाय, अनात्मवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, अनीश्वरवाद क्षणिकवाद,
आतुरालय, अवश्यंभावी, सनातन। प्रस्तावना भारत सर्वधर्म सद्भाव के पथ पर सदैव अग्रसर रहा। यह सब धर्मों की शरण-स्थली
रहा है। क्या आंतरिक, क्या बाहरी धर्मों को सहर्ष
स्वीकार कर सहृदयता की एक नई परिभाषा मुखरित की है। देश में जहाँ हिंदू-धर्म का
डंका बजता है वहीं जैन, सिख, ईसाई, पारसी, मुस्लिम, यहूदी आदि धर्म भी
अपना-अपना महत्व सिद्ध किए हुए हैं। इन सभी धर्मों से अपनी अलग पहचान बनाता धर्म
है - बौद्ध धर्म। जिसकी स्थापना महात्मा बुद्ध ने की। आम तौर पर देखा जाए तो हर
धर्म में एक सर्वगुण संपन्न भगवान की अवधारणा रहती है, किंतु महापुरूष बुद्ध की तुलना देवी-देवताओं से करना उचित
नहीं, हमारे देश में बड़े-बड़े
महापुरूषों का जन्म सामान्य बात रही है। पर बुद्ध को जिस दृष्टि से देखा परखा जाता
है वैसा महापुरूष नहीं मिलेगा। महापुरूषों में कितने ही महान् मस्तिष्क वाले
मिलेंगे, जिनकी प्रतिभा दूर तलक
देखने वाली, दूर तलक भेदने वाली हैं।
किन्तु हृदयमाधुर्य में इतने बड़े नहीं निकलेंगे। बुद्ध हृदय व बुद्धि दोनों में
महान् थे, उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को
लगभग ढ़ाई हजार वर्षों की परम्पराओं,
अपनों और परायों की आस्था के फूलों ने इतना ढक लिया है कि वह कहीं छुप गए से
नजर आते हैं, पर इसके बावजूद तनिक ध्यान
देने पर भी गर्द लगे जगमग-जगमग करते कोहिनूर की भांति स्पष्टतः चमकने लगते हैं। उद्देश्य संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है,
तो मनुष्य से निकृष्ट भी कोई नहीं मिलेगा। फिर भी सभी सम्मानपूर्वक जीना चाहते
हैं और सभी प्रकार के कष्टों से दूर रहना चाहते हैं। इसके लिए विविध धर्म विविध
मार्ग सुझाते हैं, पर सर्वाधिक सरल मार्ग
सुझाने वाला बौद्ध धर्म है। इसके प्रर्वतक गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए थे- 1. संसार दुःख पूर्ण हैं, 2. इन दुःखों के कारण विद्यमान हैं, 3. इन दुःखों से वास्तविक मुक्ति संभव है, 4. दुःखों से मुक्ति का उपाय है। दुःखों से मुक्ति के लिए बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग बताया है - सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, और सम्यक् समाधि। दुःख का मूल तृष्णा है और तृष्णा की समाप्ति से सुख मिलता है। इसके लिए जीवन में मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए- न तो अधिक आसक्ति हो और न काया को अधिक कष्ट ही पहुंचाया जाए। बौद्ध धर्म अंधविश्वासों एवं बाह्याडम्बरों से मानव को मुक्ति दिलाता है और शान्ति पूर्वक सम्मानित जीवन जीने की प्रेरणा देता है। आज वैश्विक अराजकता के दौर में यह बहुत जरूरी है कि मनुष्य मात्र बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार करें और अपने जीवन को सुखी बनाए। इसी उद्देश्य की पुर्ति हेतु महापंडित राहुल सांकृत्यायन के बौद्ध धर्म सम्बन्धी जीवनानुभवों को इस आलेख में उल्लिखित करने का प्रयास किया गया है। शोध विधि इस आलेख में मेरे द्वारा यहाँ प्राथमिक और अप्राथमिक दोनों ही स्रोतों से तथ्य
पूर्ण जानकारी प्रस्तुत की गई है। इंटरनेट,
सांकृत्यायन की आत्मकथा और उनके द्वारा रचित महात्मा बुद्ध से संबंधित रचनाओं
के अध्ययन-मनन के पश्चात् यह शोध-आलेख प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आलेख हिंन्दी के प्रमुख साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन। बहुआयामी प्रतिभा के धनी, प्रतिष्ठित बहु-भाषाविद। जिनका जन्म 1893 में आजमगढ़ के
पंदहा में हुआ, इनका बाल्यकाल का नाम था
केदारनाथ पांडेय। राहुल सांकृत्यायन उस दौर के उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अंतर्गत
भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमण कालीन दौर से गुजर रहे
थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं कांग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से
राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार
त्यागकर साधु वेशधारी, सन्यासी से लेकर वेदांती
आर्य-समाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिंतक तक का लंबा सफर
तय किया। सन् 1930 में श्रीलंका जाकर वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए एवं तभी से
वे ’दामोदर साधु’ से राहुल हो गए और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन
कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भंडार को देखकर काशी के पंडितों ने
उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पांडे से महापंडित राहुल
सांकृत्यायन हो गये।[1] राहुल
सांकृत्यायन जीवन के शुरूआती दौर से ही स्वच्छंद प्रकृति के थे, परिवार के माया-मोह से दूर कहीं ज्ञान प्राप्ति की तृष्णा
में प्रवृत्त होना, सन्यासी जीवन का मोह, परदुःखकातरता,
मानव-कल्याण की भावना इनके स्वभाव का हिस्सा थी। नाना की शिकार कथाओं और
नवाजंदा-वाजन्दा के सैर सपाटों ने रंग लाना शुरू किया और जीभ पर था वह बाजिन्दा का
सुनहला वाक्य- ’’सैर कर दुनिया की गाफिल
जिंदगानी फिर कहां ? जिंदगानी गर कुछ रही तो
नौजवानी फिर कहां ?[2] इनकी सन्यासी प्रवृत्ति को उभारता एक और कथन - पहले संस्कृत के और वेदांत के
ग्रंथों को खूब पढूंगा उसके बाद सन्यासी हो जाऊंगा।[3] और आगे चलकर सन् 1916 तक
आते-आते इनका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होता गया। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर ये
राहुल सांकृत्यायन बने। बौद्ध धर्म में लगाव के कारण ही यह पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के
सीखने की ओर झुके।[4] ज्ञान पिपासा के कारण इनके मन को ठहराव नहीं था। ज्ञान
प्राप्ति की लालसा इन्हें बौद्ध सिद्धांत के द्वार तक ले गई। बौद्ध-दर्शन क्या है
इधर ध्यान जाना जरूरी था और पूर्व पक्ष के तौर पर उद्धृत कुछ वाक्यों से मेरी
तृप्ति नहीं हो सकती थी।[5] इन पर बुद्ध की शिक्षाओं का व्यापक प्रभाव पड़ा। बुद्ध के
जीवन-दर्शन, उनकी वाणी व उनके अनुयायी
महान साधकों का दिग्दर्शन और बौद्ध धर्म पर किया गया इनका शोध कार्य हिंदी साहित्य
में अग्रणी और युगांतकारी स्वीकार्य हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बुद्ध के जीवन
दर्शन को स्पष्ट करने हेतु व्यापक अध्ययन मनन किया इन्होंने बौद्ध दर्शन से
संबंधित कई ग्रंथो जैसे- बौद्ध दर्शन,
बुद्धचर्या, महामानव बुद्ध, विनय पिटक, मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, आदि का प्रणयन किया और
जगह-जगह की यात्रा कर, किन्नर देश की ओर, मेरी तिब्बत यात्रा,
तिब्बत में सवा वर्ष, चीन की यात्रा, रूस में पच्चीस मास,
लहासा की ओर, व घुमक्कड़ शास्त्र आदि
प्रमुख यात्रा वृतांतों की रचना की। इन यात्राओं के दौरान कवि ने कई
सिद्ध-साहित्यकारों व उनके उत्कृष्ट साहित्य को खोज निकाला। बुद्ध के जीवन के हर
पहलू को इन्होंने बखूबी उजागर किया और जन्म से लेकर जीवन के आखिरी क्षण तक का बड़ा
ही सार-पूर्ण वर्णन किया। महात्मा बुद्ध के जीवन व दर्शन संबंधी सार पूर्ण बातें
राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में निम्न प्रकार है - तरूण सिद्धार्थ को संसार से
विरक्त तथा अधिक विचारमग्न देख शुद्धोधन को डर लगा कि कहीं उनका लड़का भी साधु के
बहकावे में आकर घर न छोड़ जाए, इसके लिए उसने पड़ोसी कोलिय
गण की सुन्दर कन्या भद्रा यशोधरा से विवाह कर दिया। सिद्धार्थ कुछ दिन ठहर गए और
इस बीच में उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसे अपने उठते विचार-चंद्र के गहने
के लिए राहु समझ उन्होंने राहुल नाम दिया। वृद्ध,
रोगी, मृत और प्रवर्जित, चार दृश्यों को देख उनकी संसार से विरक्ति पक्की हो गई और
एक रात चुपके से वह घर से निकल भागे। इसके बारे में बुद्ध ने स्वयं चुनार में
वत्सराज उदय के पुत्र बोधि राजकुमार से कहा था - राजकुमार बुद्ध होने से पहले मुझे
भी होता था सुख में सुख नहीं प्राप्त हो सकता,
दुःख में सुख प्राप्त हो सकता है,
इसलिए में तरूण बहुत काले केशवाला ही सुन्दर यौवन के साथ प्रथम वयस में
माता-पिता को अश्रुमुख छोड़ घर से प्रवर्जित हुआ।[6] बुद्ध ने अपने पिता के खेत पर, जामुन की ठंडी छाया के नीचे ध्यान लगाया, किंतु भोजनाभाव के कारण कृशकाय हो गए और सोचा कि इस अत्यन्त
कृशकाया से तो ध्यान-सुख नहीं मिल पाएगा। यह सोच दाल-भात ग्रहण करने लगे इसी कारण
उनके साथ रहने वाले पांच भिक्षुओं ने इनसे उदासीन हो इनका त्याग कर दिया, लेकिन फिर बुद्ध ने ज्ञान के मार्ग पर अटल रहकर अनुपम
निर्वाण को प्राप्त कर लिया और ज्ञान का प्रथम उपदेश उन्हीं पांच भिक्षुओं को दिया
जो उन से उदासीन हो चले गए थे और मध्यम मार्ग अष्टांगिक मार्ग को इन्होंने खोज
निकाला। बुद्ध होने के बाद उन्होंने सबसे पहले अपने ज्ञान का अधिकारी उन पांच
भिक्षुओं को समझा जो कि अनशन त्यागने के कारण पतित समझ उन्हें छोड़ गए थे। पता
लगाकर वह उनके आश्रम ऋषि पतनमृगदाव पहुंचे,
बुद्ध का पहला उपदेश उसी शंका को हटाने के लिए था जिसके कारण कि अनशन तोड़ आहार
आरंभ करने वाले गौतम को वह छोड़ गए थे,
बुद्ध ने कहा- भिक्षुओं इन दो अतियों का सेवन नहीं करना चाहिए - (1) काम सुख में लिप्त होना, (2) शरीर पीड़ा में लगना। इन दोनों अतियों को छोड़ मैंने मध्यम मार्ग खोज निकाला है जो कि आंख देने वाला, ज्ञान कराने वाला,
शांति देने वाला है। वह मध्यम मार्ग यही आर्य आष्टांगिक मार्ग है, जैसे कि- ठीक दृष्टि,
ठीक संकल्प, ठीक वचन, ठीक कर्म, ठीक जीविका, ठीक प्रयत्न,
ठीक समृति और ठीक समाधि।[7] बुद्ध साम्यवाद के समर्थक थे, समानता के भाव के पक्षधर थे,
मानव के दुःखों का कारण इन्होंने तृष्णा को माना और इसी को विवाद की जड़ भी
उन्होंने स्वीकार किया। बुद्ध के अनुसार दुःख का हेतु तृष्णा होती है, उसमें भी भोग की तृष्णा। विषयों को जो हमारे प्रिय लगते हैं, उन विषयों के साथ हम उनका संपर्क बनाना चाहते हैं उनका
ख्याल दिल में करते हैं, तो वह हमारे तृष्णा को पैदा
करता है और हम एक-दूसरे से इस तृष्णा की वजह से इस काम की वजह से हम एक-दूसरे से
लड़ते रहते हैं, विवाद होते रहते हैं और
हमें दुःख की प्राप्ति होती है दुःख का विनाश करने के लिए वह कहते हैं कि दुःख कर
विरोध करो और दुःख के विरोध करने के लिए हमें तृष्णा को मिटाना पड़ेगा। अर्थात्
सारी बुराईयों का न करना और अच्छाइयों का संपादन करना, अपने चित्त का संयम करना,
यह बुद्ध की शिक्षा है।[8] यहां उन्होंने दुःख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल
कर, व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिए
राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों वैश्यों,
सारी दुनियाँ को झगड़ते, मरते-मारते देख भी उस
तृष्णा को हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो,
कांटों से बचने के लिए सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हां अपने पैरों को चमड़े से ढांक कर कांटों से बचा जा सकता
है। वह समय भी ऐसा नहीं था, कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी
दार्शनिक, सामाजिक पापों को सामाजिक
चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी वैयक्तिक संपत्ति की बुराइयों को वह
जानते थे, इसीलिए जहां तक उनके अपने
भिक्षु-संघ का संबंध था, उन्होंने उसे हटाकर भोग में
पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।[9] बुद्ध की शिक्षाओं को देखा जाए तो वह
क्षणभंगुरता को मानता है, वस्तु को पल-पल परिवर्तित
स्वीकार करता है। इस मत को राहुल सांकृत्यायन के अनुसार देखा जाए तो दो सदियों तक
के भारतीय दार्शनिक दिमागों के जबरदस्त प्रयास का अंतिम फल हमें बुद्ध के दर्शन
क्षणिक अनात्मवाद के रूप में मिलता है।[10] बुद्ध प्रतित्यसमुत्पाद को स्वीकार
करते हुए अन्तः और बाह्य है जगत की सभी वस्तुओं को बिना अपवाद के नाशवान और अनित्य
परिवर्तनशील मानता है। यह मानव समाज को टुकड़े-टुकड़े होते न देख कर एकजुट देखने का
जिज्ञासु था। समाज में कौन अच्छा है?
कौन नीचा है? कौन किस वर्ण का है? इससे बुद्ध को कोई लेना देना नहीं था, वह सामाजिक साम्य के पक्षधर रहे। राहुल सांकृत्यायन बौद्ध
धर्म में सामाजिक व्यवस्था के बारे में चित्रित करते हुए कहते हैं, इस प्रकार बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद को देखने पर जहां
तत्काल प्रभु-वर्ग भयभीत हो उठता वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धांत उन्हें
बिल्कुल निश्चित कर देता था यही वजह थी,
जो बुद्ध के झंडे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं,
सम्राटों, सेठ साहूकारों को आते देखते
थे और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को
फैलाने राजा सबसे पहिले आगे बढ़े। वह समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिए
नहीं बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिए बहुत सहायक साबित होगा। जातियों, देशों की सीमाओं को तोड़कर बुद्ध के विचारों ने राज्य
विस्तार करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षरूपेण भारी मद्द की। समाज में आर्थिक
विषमता को अक्षुण्ण रखते ही बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था को, जातिय ऊँच-नीच के भाव को हटाना चाहा था, जिससे वास्तविक विषमता तो नहीं हटी, किन्तु निम्न वर्ण का सद्भाव बौद्ध धर्म की ओर बढ़ गया।[11]
बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद को महत्व देता है। उनका मत था कि कोई भी वस्तु एक क्षण से
अधिक नहीं ठहरती, जगत, समाज, मनुष्य सभी को उसने
क्षण-क्षण परिवर्तनशील घोषित किया और कभी न लौटने वाले ’ते हि नो दिवसा गताः की परवाह छोड़कर परिवर्तन के अनुसार
अपने व्यवहार अपने समाज के परिवर्तन के लिए हर वक्त तैयार रहने की शिक्षा देता था।
बुद्ध ने अपने बड़े से बड़े दार्शनिक विचार को भी बेड़े के समान सिर्फ उससे फायदा
उठाने के लिए कहा था उसे समाज के बाद भी ढ़ोने की निंदा की थी।[12] बुद्ध के समय
समाज में बहुदेववाद प्रथा थी, समाज अलग-अलग देवताओं के
प्रति आस्था रखता था और उसी के अनुरूप पूजा,
अनुष्ठान इत्यादि भिन्न-भिन्न रूप में प्रचलित थे। बुद्ध ने समाज में आस्था का
यह रूप देखकर अपनी असहमति प्रकट की व घोषित किया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है
और जो पृथ्वी पर अवतरित होता है वह एक सामान्य मनुष्य की भांति ही होता है उसमें
अवतार अथवा देवत्व की भावना कपोल-कल्पना मात्र है और अंधविश्वास को बढ़ावा देने
वाली है, अतः इस प्रकार के
बाह्याडंबर से समाज को मुक्त करने की दृष्टि से बुद्ध ने अपने धर्मोपदेश दिए। जो
लोग बुद्ध की शिक्षाओं और उनके ग्रंथो को भली-भांति मनन नहीं करते और अपने-अपने
मतानुसार उनके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं,
उनके लिए कोई भला क्या कहे। बुद्ध अनीश्वरवादी थे और बौद्ध धर्म में ईश्वर के
लिए कोई स्थान नहीं, फिर भी लोग पता नहीं क्यों
उन्हें ईश्वर भक्त साबित करने का प्रयत्न करते?
हजारों अविश्वसनीय चीजों पर विश्वास करने वाले अपने समय के अंध श्रद्धालुओं को
बुद्ध बतलाना चाहते थे कि तुम्हारा ईश्वर नित्य ध्रुव वगैरह नहीं है, ना वह सृष्टि को बनाता बिगाड़ता है, वह भी दूसरे प्राणियों की भांति जन्मने-मरने वाला है ऐसे
अनगिनत देवताओं में सिर्फ एक देवता मात्र है।[13] बुद्ध की अहिंसा संबंधी विचारों को देखा परखा जाए तो इसमें भी वह अपनी एक अलग
ही मंशा रखते थे। उनका मानना था कि जो हिंसा नजर आती है वह हिंसा नहीं होती। बुद्ध
के मुताबिक हिंसा हमारे जीवन का अभिन्न अंग है,
सोच विचार किया जाए तो हर क्षण हम हिंसा करते हैं। बुद्ध ने किसी के प्रति
वैरभाव से की जाने वाली हिंसा को अनुचित बताया है अर्थात् जीवन में सभी के प्रति
आत्मवत् सम्मान पूर्वक जीवन जीने की प्रेरणा दी है राहुल सांकृत्यायन ने कहा है
बुद्ध अहिंसा के परम समर्थक थे और प्राणी मात्र के प्रति सदयहृदय थे, क्योंकि वह मनुष्य जीवन की वास्तविकता को अच्छी तरह समझते
थे। मनुष्य से वह उतनी ही आशा रखते थे,
जितनी कि उसकी शक्ति है। हिंसा की जड़ में बैर काम करता है। इसलिए बुद्ध ने कहा
है कि:- न ही वेरेन वेरानि सम्मन्तीय कुदाचनं। अवेरेन सम्मंति एस धर्मों सन्न्तनों।। वैर से वैर कभी शांत नहीं होता अवैर से ही शांत होता है, यह सनातन धर्म है।[14] अच्छी तरह देखने पर यह मालूम होगा कि
मांसाहार के प्रति बुद्ध का दृष्टिकोण ज्यादा बुद्धि पूर्वक है यदि हर एक आहार के
प्राप्त करने के पीछे होने वाली पीड़ा और हिंसा का विचार किया जाए तो कोई भी आहार
शुद्ध नहीं मिल सकता। अन्न को जो किसान पैदा करते हैं, और कठिनाईयों के कारण अपने बच्चों को भूखा रखकर उसे बेच
देते हैं, ऐसे अनाज के एक-एक दाने में
भी हिंसा लगी हुई है। गुड. तथा दूसरे बहुत से खाद्य,
कई प्राणियों के प्राण-वियोग के साथ बनते हैं। खेतों में हल जोतते वक्त न जाने
कितने आंखों से देखे जाने वाले प्राणी मारे जाते हैं, धान के खेतों में तो और भी अधिक, क्योंकि बरसात के कारण हजारों केचुए और दूसरे जंतु उस वक्त
पैदा होकर घूमते रहते हैं, फसल नुकसान करने वाले
प्राणियों-टिड्डयों और दूसरों का संहार हिंसा है। और हिंसा द्वारा प्राप्त अनाज
उससे अछूता नहीं रह सकता। आजकल फसल की रक्षा या स्वास्थ्य रक्षा के लिए जितनी कृमि
नाशक औषधों का प्रयोग और छिड़काव किया जाता है,
वह अरबों प्राणियों की हिंसा का कारण बनता है। यदि इन सब का ख्याल किया जाए और
उस हिंसा से बचने का प्रयत्न करें तो हम किसी खाद्य को ग्रहण नहीं कर सकते।[15]
उनका मत था कि जो व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है,
वहां उदरपूर्ति हेतु उसे जो भी खाने को मिलता है वह चाहे अन्न हो या वन्य या
समुद्री जीव हो जीवन-निर्वाह हेतु भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप ही मानव जीवन
घोषित होता है। बुद्ध के राजनीतिक विचारों की तरफ नजर डाली जाए तो बुद्ध गणतंत्र
के पक्षधर थे। इसी के आधार पर ही उन्होंने जहाँ भी अपने संघ बनाएं उसमें गणतंत्र
का निर्वाह वे करते रहे। बुद्ध राजतंत्र के नहीं,
बल्कि गणराज्य के पक्षपाती थे,
उसी के आदर्श पर उन्होंने अपने संघ का निर्माण किया। संघ की सारी कार्यवाही
वोट - ग्रहण और दूसरी बात वही थीं,
जिनके अनुसार वैशाली और दूसरे गणों के लोग अपना कार्य चलाते थे।[16] राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार बुद्ध को चिकित्सा शास्त्र का भी ज्ञान था
जिसका न केवल उनके काल में बल्कि उनके परवर्ती कालों में भी कई देशों ने पर्याप्त
लाभ उठाया। रोगी की सेवा के साथ कितनी ही दवाईयों के उपयोग की बात भी बुद्ध ने
बतलाई। इसी कारण उन्हें भैषज्य गुरू (दवाओं के गुरू) कहा जाने लगा। भैषज्य गुरू से
जीवन में जितने रोगियों ने लाभ उठाया उन से हजारों गुना अधिक उनके निर्वाण के बाद
लाभान्वित हुए। अशोक ने पशु-चिकित्सा,
मनुष्य-चिकित्सा की व्यवस्था अपने देश में ही नहीं, सुदूर ग्रीक राज्यों में भी की। कम्बुज, चीन आदि देशों में हजारों धर्मार्थ अस्पताल और आतुरालय
खुले। बुद्ध दुःख से टूक-टूक होते हृदयों का तमाशा नहीं देखते थे। वह उसे अनुभव
करते से हटाने की कोशिश करते थे।[17] कहा जाता है कि सत्य बहुत कड़वा होता है और
कटु सत्य कहने में सब झिझकते भी हैं,
किन्तु सांकृत्यायन के अनुसार इस कटु सत्य को कहना बुद्ध अवश्यंभावी मानते थे। ’सत्यम ब्रूयात प्रियं
ब्रूयात न ब्रूयात सत्यम प्रियम’ (सच बोलें, लेकिन प्रिय बोलें,
अप्रिय सत्य को न बोलें)। यदि सभी लोग अप्रिय सत्य को बोलने से इन्कार कर दे
तो भूलों को रास्ता नहीं मिल सकता। बुद्ध आवश्यकता पड़ने पर अप्रिय सत्य को बोले
बिना नहीं रहते थे।[18] सांकृत्यायन के मतानुसार बुद्ध जाति-पाँति के बंधनों को सिरे
से नकारने वाले थे, वह समता के प्रचारक थे, ढ़ाई हजार वर्ष पहले उन्होंने अपने शक्तिशाली आवाज जात-पात
के खिलाफ उठाई, यदि उसका आधार संपत्ति नहीं
होता तो इसमें शक नहीं वह जड़-मूल से खत्म हो गई होती। तो भी बुद्ध की वाणी ने
जात-पात की कठोरता को इतना शिथिल कर दिया कि पीछे राजाओं और ब्राह्मणों ने कुलीन
प्रथा चलाकर उसे पुनः प्रतिष्ठित करना चाहा।[19] बुद्ध चाहते थे मनुष्य किसी का
पिछलग्गू न बनें, स्वतंत्र चिंतन वादी बने, अपनी राहें स्वयं तय करें। बुद्ध स्वतंत्र चिंतक थे चाहते
थे दूसरे भी भेड़ न बने और स्वयं अपने रास्ते का निश्चय करें। इसी कारण बुद्ध दर्शन
ने पुस्तकों और आप्त वाक्यों को प्रमाण नहीं माना। बौद्ध केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण
मानते हैं। अनुमान को भी उतने ही अंश तक जितना कि वह प्रत्यक्ष पर अवलंबित है।[20]
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार बुद्ध अपनी शिक्षाओं का मुख्य ध्येय लोभ-लालच से दूर
रहकर, मनी विकारों का त्याग कर, मानव-कल्याण हेतु कार्य करते हुए चित्त मुक्ति बताते हैं।
अपनी शिक्षा का क्या मुख्य प्रयोजन है,
इसे बुद्ध ने इस तरह बतलाया है,
भिक्षुओं यह ब्रहमचर्य (भिक्षु का जीवन),
न लाभ-सत्कार प्रशंसा के लिए है न शील की प्राप्ति के लिये, न समाधि की प्राप्ति के लिए,
न ज्ञान दर्शन के लिए है। जो अटूट चित्त से मुक्ति है, उसी के लिए यह ब्रह्मचर्य है,
यही सार है यही उसका अंत है।[21] बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी पहलुओं को
साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने बखूबी उजागर किया,
उन पर बुद्ध के विचारों का गहरे तक असर हुआ,
इसका पता हमें बुद्ध के जीवन पर उनके द्वारा किए गए शोध कार्य से भली भाँति
भाषित हो जाता है। बुद्ध के अंतिम वाक्य को लेते हुए वे कहते हैं बुद्ध का अंतिम
वाक्य था संस्कार (कृत वस्तुएं) नाशवान हैं,
आलस न कर जीवन के लक्ष्य को संपादन करो। चीनी पिटक के सूत्र का अनुवाद भी ऐसा
ही है - ’व्यधर्माः संस्काराः, अप्रमादेन संपादयेथाः।’ अपने इस अंतिम वाक्य में उन्होंने दो बातों पर जोर दिया। एक में उनका मुख्य
दर्शन है’ सभी वस्तुएं परिवर्तनशील है’, अर्थात् क्षणिकवाद। दूसरे में अपने लक्ष्य की प्राप्ति में
आलस न करने की सलाह है।[22] निष्कर्ष बौद्ध धर्म की जन्मस्थली रहा है हमारा भारत वर्ष। इसके संस्थापक गौतम बुद्ध ने 45 वर्षों तक कोसी कुरूक्षेत्र से लेकर हिमाचल विंध्याचल क्षेत्रों में विचरते हुए अपने सिद्धांतों का अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया। बौद्ध धर्म के मानने वाले चिरकाल तक धुरन्धर महासम्राटों से लेकर साधारण जन तक सम्पूर्ण भारत में प्रचुरता से फैले हुए थे। भारत का शायद ही कोई भाग बौद्ध भिक्षुओं के मठों से और इसके सिद्धान्तों से रिक्त रहा हो। इसके विचारक और दार्शनिक सहस्त्रों वर्षों तक अपनी शिक्षाओं से देश के महान् विचारकों को प्रभावित करते रहे और मानव-कल्याण हेतु निरन्तर कार्य करते रहे। निष्कर्षतः बुद्ध ने अपने समय की सामाजिक जड़ता को तोड़ने का उपक्रम किया, उन्होंने बहुदेववाद जैसी अंधश्रद्धा के खन्डन हेतु अनीशवरवादी दर्शन का प्रचार किया और राजतंत्र के स्थान पर गणतंत्रात्मक व्यवस्था का समर्थन किया। स्वस्थ समाज हेतु बुद्ध एवं उनके अनुयायियों ने चिकित्सकीय अनुसंधान किए और रोगों के उपचार हेतु निरन्तर संलग्न रहे। उनका सामाजिक समरसता हेतु किया गया अवदान महत्वपूर्ण हैं। अहिंसा-दर्शन में भी उनके विचार युक्तियुक्त है। किसी से अनावश्यक वैरभाव रखकर हिंसा करने को बुद्ध उचित नहीं ठहराते, बुद्ध एक आदर्श समाज की सुन्दर रचना का स्वप्न देखते थे और उसे पूर्ण करने में ही उन्होंने अपना र्स्वस्व समाज को समर्पित कर दिया। सन्दर्भ ग्रंथ सूची 1. विकीपीडिया - राहुल सांकृत्यायन
|