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हिंदी साहित्य : एक अनुदित संकलन ISBN: 978-93-93166-31-9 For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8 |
हिंदी एवं पंजाबी कहानियों में शरणार्थियों की समस्या और पुनर्वासन का वर्णन |
डॉ कुलदीप कौर
सह - आचार्य
हिन्दी विभाग
गोखले मेमोरियल गर्ल्स कॉलेज
कोलकाता पश्चिम बंगाल, भारत
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DOI: Chapter ID: 16193 |
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देश-विभाजन का सीधा प्रभाव उन लोगों पर पड़ा, जिन्हें अपना सब कुछ छोड़ कर जाना पड़ा, शरणार्थी शिविरों में आश्रम लेना पड़ा।उर्दू, हिंदी, पंजाबी आदि कई भाषाओं में देश-विभाजन एवं शरणार्थियों की समस्या को लेकर कहानियाँ लिखी गई। हिंदी में इस विषय पर लिखने वाले कहानीकरों में अज्ञेय, उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, कमलेश्वर आदि कहानीकार एवं पंजाबी साहित्य में करतार सिंह दुग्गल, कुलवंत सिंह विरक, हीरा सिंह दरद, संतोष सिंह धीर, अमृता प्रीतम आदि कहानीकारों के नाम उल्लेखनीय हैं। एक लंबी दासता के बाद देश को आजादी मिली, विभाजन के मूल्य पर देश आजाद हुआ पर टुकड़ों में बँटकर। “यह केवल एक राजनीतिक घटना मात्र ही नहीं था, जिसमें एक देश के दो टुकड़े भौगोलिक इकाइयों के रूप में बाँट दिए गए थे। यह धर्मांध के वहशी रुप का ऐसा भया वह कृत्य था जिसने एक संस्कृति, एक भाषा, एक भाई-चारे के रिश्ते-नातों को दो राष्ट्रों के रूप में जन्म दे दिया।”[1] जसवंत दीद विभाजन के संबंध में सवाल पूछते हैं कि कैसी आजादी है जो मातृभूमि को छोड़ने पर मिलती है?जसवंत दीद के अनुसार “15 अगस्त 1947 का दिन भारत के ही नहीं विश्व-इतिहास का ऐसा सफा है जो भारत एवं पाकिस्तान की आजादी का दिन ही नहीं बल्कि एक जख्मी इतिहास का भी साक्षी है।”[2] विभाजन के पक्ष में दलील देने वालों का तर्क था कि हिन्दुस्तान की कोई एक संस्कृति नहीं। हिंदू एवं मुसलमान दोनों का सामाजिक जीवन भिन्न है।धर्म निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव की घोषणाओं के बावजूद हिन्दू-मूसलमान दोनों संप्रदायों में दूरी बढ़ती गई।सिरिल रेडक्लिफ की विभाजन रेखा ने लाखों हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों को बेघर कर दिया। हिन्दू और सिख नए जन्में पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आए।मुसलमान हिन्दुस्तान की धरती को छोड़कर पाकिस्तान चले गए।अनेक लोग भूख, प्यास, गर्मी और थकान से मारे गए तो अनेकों की रास्ते में ही हत्या कर दी गई। हत्या, लूट, बलात्कार जैसी घटनाएँ, दोनों तरफ घट रही थी।जो बचे थे, वे शरणार्थी शिविरों में पहुँचे, जहाँ भूख, लाचारी और तंगहाली थी। “आजादी मिलते ही भयंकर रक्त-पात और संहार हुआ, उसमें शरणार्थियों के काफिले ही नहीं आए बल्कि अपने देश, घर, परिवार में ही स्वयं शरणार्थी बन गया।”[3] उच्च लोगों ने सबसे ज्यादा झेला है, जो जीवित थे, मानव मूल्यों और आस्थाओं को खंडित होते देख रहे थे। और उन्हीं खंडित मूल्यों के बीच स्वयं को स्थापित करने की चेष्टा कर रहे थे।अपना वतन, घर-बार, जमीन-जायदाद, नाते-रिश्ते, पास-पड़ोस का साथ, वे जो दुख-सुख में सदा सहभागी रहे, छोड़कर आते का दर्द कितना गहरा था।अपनापन छूट गया। धीरे-धीरे लोग शहरों में बसने लगे। परिचित माहौल को छोड़कर नए माहौल में बसना स्वयं में एक यातनादायक स्थिति थी।लोगों को अनगिनत समस्याओं से जूझना पड़ा।अपनी जमीन से बिछुड़ने की वेदना, विस्थापित के रूप में नए देश में बसने की समस्या परिवार से बिछुड़े लोगों को पुनः पाने की आस, भूख और लाचारी ने उन्हेंपस्त कर दिया। कठिन संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा। “मिट्टी का वियोग रगों में उस समय दौड़ता है जब मिट्टी से इंसान टूटता है।”[4] विस्थापितों के लिए आवास और भोजन की व्यवस्था एक ऐसी समस्या थी जिसका समाधान हुए बिना अनेक प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दुष्परिणाम की संभावना थी। आवास और भोजन के साथ-साथ जीविकोपार्जन के साधन जुटाना भी एक बड़ा कार्य था।पंजाब में विस्थापितों को स्थापित करने के लिए एक नया विभाग बनाया गया ‘महकमा मुड़ बसाउ’। इसका उद्देश्य विस्थापितों को स्थापित करना और पंजाब में शांति कायम करना था। पाकिस्तान से उजड़कर आए शरणार्थियों को बसाना आसान नहीं था।व्यापार, उद्योग-धंधे एवं कृषि के लिए जमीन एवं आर्थिक सहायता दी गई, पर वह पर्याप्त नहीं था। सांप्रदायिकता, क्रूरता, निर्ममता के बावजूद मानवता के भी मिसाल मिलते हैं।यह मालूम था कि देश बँट गया है, सीमाएँ निर्धारित हो गई है; फिर भी उनके मन नहीं बँटे। दोनों ओर आग थी पर एक-दूसरे को बचाने एवं सुरक्षित बाहर निकालने को भी प्रयत्नशील हुए। विभाजन ने समस्याओं को जन्म दिया-सांप्रदायिकता, घृणा, विद्वेष, हिंसा, पीड़ा, अत्याचार परंतु इसी विभीषिका में प्रेम, सद्भावना, त्याग, विश्वास तथा मानवता बनने की राजनीतिक घटना ने उनके दिलों को नहीं बांटा। वर्षों बाद भी मानवीय संबंध उतने ही मजबूत हैं जितने विभाजन से पहले थे। महीप सिंह की कहानी ‘पानी और पुल’ कुलवंत सिंह विरक की ‘खॅबल’ इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है।देश का दो हिस्सों में विभाजन भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटना है। भारत का विभाजन केवल भौगोलिक स्तर पर नहीं था।यह एक मानवीय ट्रैजिडी थी, जिसने लाखों लोगों को भावनात्मक-विचारात्मक, मानसिक और आत्मिक स्तर पर प्रभावित किया था।सदियों से अर्जित संस्कृति, जातीयता और मानवीय संबंध सांप्रदायिकता की आग में जल कर राख हो गए।बँटवारे के दर्द का गहरा अहसास और विस्थापितों की समस्या से कहानीकार प्रभावित हुए।हिंदी में अज्ञेय की ‘नारंगियाँ’, मोहन राकेश की ‘मलबे का मालिक’ भीष्म साहनी की ‘पाली’, कृष्णा सोबती की ‘सिक्का बदल गया’ तथा पंजाबी में करतार सिंह दग्गल को ‘उस दीयाँ चूड़ियाँ’, कुलवंत सिंह विरक की ‘उलाहमा’ गुरमुख सिंह जीत की ‘फूलां दे परछावें, लोचन बख्शी की ‘मुड़ मुढों’ आदि उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। कुलवंत सिंह विरक की कहानी ‘उलाहमा’ में शरणार्थी शिविर का वर्णन है। देश की सीमा के दोनों ओर के लोगों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ा।हजारों घर जलाए गए, अनगिनत लोग उजड़े, लाखों की संपत्ति जलकर नष्ट हो गई। दोनों तरफ अव्यवस्था और बिखराव का माहौल था।धार्मिक सहिष्णुता और उदारता जैसे मूल्य खंडित हो गए। सिपाही इन शरणार्थियों को मारने की फिराक में थे। इनकी तरफ ध्यान देने वाला कोई नहीं था।कहानी का पात्र बलकार सिंह, जो सारे गाँव का मालिक था, जो सारे गाँव में सम्मान का पात्र था, अन्य लोगों के साथ वह भी अपने प्राण बचाने के लिए शिविर मेंछिपा हुआ था। खुली जगहों या खेतों के आस पास शरणार्थी शिविर होते थे, जहाँ किसी प्रकार की कोई बुनियादी सुविधा लोगों को नहीं मिलती।इन शिविरों में भोजन के नाम पर केवल चने ही खाने को मिलते थे।शरणार्थी शिविर में बैठकर लोग बाहर अपने खेतों और फसलों को हसरत भरी नजरों से देखते, पर उन्हें पा नहीं सकते थे।शिविर के साथ लगे खेतों में फुला सिंह ने अपने मजदूरों द्वारा गोंगलु लगवाए थे। शिविर में रहते हुए सूखी रोटी और चने खाकर उसका मन भर गया था।वह चाहता था कि “इन गोंगलुओं के पत्ते तोड़कर उसका साग बनाए, पर वहाँ जाने की उसकी हिम्मत नहीं थी।”[5] एक तरफ अपनी जमीन और रिश्तों से टूटने का दर्द और दूसरी अपनी जमीन और वतन से दूर पेट भरने की समस्या, सबसे बड़ी समस्या बन कर लोगों के सामने खड़ी हो गई थी। करतार सिंह दुग्गल की कहानी ‘तूं खा’ में जस्सोवाल का चौधरी जब अपने वतन पहुँचता है, तो उसकी स्थिति क्या हो जाती है, इसका चित्रण कहानी में किया गया है चौधरी अपने गाँव को छोड़ते समय सोच रहा था कि आजाद हिन्दुस्तान में दूध की नदियाँ बह रही होंगी, चारों और लहलहाते खेत होंगे, मिल और कारखाने लाखों-करोड़ो, का पेट भरते होंगे। गाँधी और नेहरु उसके लिए देवता समान है।परंतु हिंदुस्तान की धरती पर पहुँच कर उसे और उसकी बेटियों को कहीं रूकने की जगह नहीं मिल रही थी। हिंदुस्तान के पहले बड़े शहर में ट्रक रुका, “गाँधी कैंप में कोई जगह नहीं थी। पैंतीस हजार शरणार्थी पहले से ही वहाँ थे। ट्रक पटेल कैंप पहुँचा। नहीं, यहाँ भी जगह नहीं।करीब चालीस हजार लोग यहाँ रुके हुए थे। नेहरू कैंप भी भरा था...गुरुद्वारे भर चुके थे, सराय भरे पड़े थे। कहीं भी कोई जगह नहीं थी।”[6] ‘उसके दुखों का अंत यही तक नहीं था। दूसरे दिन चिलचिलाती धूप में उनका ट्रक दूसरे शहर पहुँचा। वहाँ एक तंबू में उसे जगह मिली।अपनी सरकार के प्रति उसका अगाध विश्वाश था। चौधरी सोचता है, “हमारी सरकार इस तरह हमें भूल नहीं सकती।”[7] उसके सपने जल्द टूटने लगे, “तंबू में केवल इतनी जगह थी कि वृद्ध पिता और उसकी दो जवान बेटियाँ लेट सके और एक-एक करवट ले सकें, बस।”[8] पिछले कई दिनों से उन्हें खाने के लिए चने ही मिलते।वह थक चुका था, सोच लिया कि वह आज कैंप में चने नहीं लेगा, पर आज भी वही स्थिति थी झोली के चनों को आसमान की ओर फेंक कर जस्सोवाल के चौधरी ने कहा – “तूं खा! तूं खा!! तूं खा!!!”[9] यह स्थिति केवल जस्सोवाल के चौधरी की नहीं, बल्कि शिविर में रह रहे सभी शरणार्थियों की थी।चौधरी की तरह ऐसे लाखों लोग थे, जिन्हें रोटी के लिए कोई नहीं पूछता। देश की आजादी के लिए लोगों ने अपनी दौलत लुटा दी, अपनी जमीन-जायदाद छोड़, खाली हाथ आना पड़ा, शरणार्थी शिविर में रहने को बाध्य हुए, पर उनके आँसू पोंछने वाला कोई नहीं, उनकी व्यथा कौन सुने? सरकार से बड़ी उम्मीदे लेकर इस देश में आए; पर निराश होना पड़ा। यह कहानी आजाद भारत की सरकार पर व्यंग्य है कि वह जनता का पेट भरने में असमर्थ है। कृष्णा सोबती की ‘सिक्का बदल गया’ कहानी एक महत्वपूर्ण कहानी है। शाहनी जो बहुत कम उम्र में ही शाह जी के साथ व्याह कर इस गाँव में आई थी।गाँव में सब अपने थे। धर्म-जाति के नाम पर वहाँ कोई विभेद नहीं था। लेकिन उस समय जो खूनी आँधी चली, वह शाहनी के गाँव भी पहुँची।दूर तक फैले खेत, बड़ी हवेली, लोगों का अपनत्व सब उसका था, परंतु सब कुछ छोड़कर शाहनी को कैंप जाना होगा क्योंकि राज बदल गया है, सिक्का बदल गयाहै। शाहनी को लेने ट्रकें पहुँच गई। वर्षों से जिस गाँव एवं गाँववालों को अपना बनाया, आज बुढ़ापे में उसका साथ छूटना कितना त्रासद हो सकता है।इसका अनुभव शाहनी करती है। सुबह ही दरिया किनारे ‘रेत में अगणित पाँवों के निशान’ देख कर वह स्थिति को समझ गई थी।थानेदार दाऊद खाँ बूढ़ी शाहनी को देखकर विचलित हो जाता है कि कहाँ जाएगी अब यह? “शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते।वक्त ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है...”[10] सरल और भोली शाहनी कैंप में पहुँचकर जमीन पर लेटे हुए सोच रही थी, “राज पलट गया है....सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आई...”[11] साहित्यकार अपने परिवेश से असंपृक्त नहीं रह सकता। विभाजन के साथ ही शरणार्थियों के काफिले जो सीमा के दोनों ओर आते-जाते हुए अनगिनत समस्याओं से जूझे, उसने कथाकारों को सोचने के लिए बाध्य किया कि जिस शारीरिक एवं मानसिक कष्ट के दौर से सामान्य जन गुजरे, उसे किस तरह उन्होंने झेला। अपनों का साथ छूट जाना कितना यातनादायक है, इसे भीष्म साहनी ने ‘पाली’ में प्रस्तुत किया है।विभाजन रेखा के खींचे जाने से मनोहर लाल और कौशल्या भी अपने दोनों बच्चों के साथ काफिले में चल पड़े। उनका भविष्य अंधकारमय हो गया।उन्हें नहीं पता क्या हो रहा था। “और आखिरी दिन बड़े शहर का शरणार्थी शिविर खाली होने लगा था, और शरणार्थी फिर अपने गट्ठर-पोटलियाँ उठाए कैंपों के बाहर निकल रहे थे....कैम्पों के चौधरी चिल्ला रहे थे जल्दी लारियों पर सवार हो जाओ, दिन ढलने से पहले हमें सीमा पार कर जाना होगा,लारियों वाले भोंपू बजा रहे थे, शरणार्थी एक-दूसरे पर चिल्ला रहे थे।”[12] इस आपाधापी में मनोहर लाल ने पाया कि उसके बेटे पाली का हाथ उसके हाथ से छूट गया है।पीछे पाली जैनब और शकूर के यहाँ पलने लगा। संतानहीन दंपति ने उसे खुदा की नियामत समझ पुत्रवत वाला।लेकिन गाँव के मौलवी उसे ‘काफिर का बच्चा’ मानते हैं और उस बच्चे की सुन्नत करवा देते हैं। उसका नाम ‘पाली’ से बदल कर ‘इल्ताफ’ रख दिया जाता है।बच्चे की विडंबना का यहीं अंत नहीं।पिता के पास लौट आने पर चौधरी जी द्वारा उसका यज्ञोपवीत एवं मुंडन या शुद्ध करते समय भी उसे यातना को झेलना पड़ा।धार्मिक एवं सांप्रदायिक उन्माद के बीच मानवता बोध से जुड़ी भीष्म साहनी की कहानी ‘पाली’ समाज के अनेक परतों को खोलती है अनेक सवाल खड़े करती है। भीष्म साहनी की एक अन्य कहानी ‘निमित्त’ का उल्लेख यहाँ आवश्यक है। कहानी का बुजुर्ग व्यक्ति परिवार के साथ बातें कर रहा है।वह विभाजन के समय की एक दास्तान सुना रहा था। वह राजगढ़ की फैक्टरी में काम करता था। फिसाद के दिनों में फैक्टरी बंद हो गई।कई मुसलमान शरणार्थी फैक्टरी में आ गए थे। उनके कहने पर फैक्टरी के ट्रक में उन्हें कैंप भेजा गया, पर सारे मजदूर मारे गए।एक दिन इमामदीन नाम का बूढ़ा मिस्त्री उससे बोला कि उसे फैक्टरी की मोटर से पटियाला कैंप भेज दिया जाए। ड्राइवर शेर सिंह के साथ उसे भेज दिया।लोगों ने बताया कि शेर सिंह ने उसे मार डाला।परंतु बाद में इमामदीन का पत्र आया, पता चला कि रास्ते में शेर सिंह ने उसे गाड़ी की सीट के नीचे छिपा दिया था।उसके कपड़ों की गठरी को आग लगा दिया था। लोगों ने समझा कि शेर सिंह ने इमामदीन को मार डाला, परंतु शेरसिंह ने उसे सुरक्षित कैंप पहुँचा दिया था। देश-विभाजन के समय कही स्थिरता नहीं थी। सब कुछ अस्त-व्यस्त था। चारों ओर बिखराव ही बिखराव। भावना और संवेदना से शून्य व्यक्ति दिशाहीन था।शरणार्थियों को न रहने के लिए जगह थी और न ही कोई सुरक्षा।विभाजित देश में दोनों ओर के लोग दिशाहीन थे, फिर भी लोगों में अपने वतन से लगाव दिखाई देता था। पंजाबी कथा-साहित्य भी इससे अछूता न रहा। सदी की इस भयावह त्रासदी को कई लेखकों ने स्वयं झेला और उसे पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया।युग और साहित्य का संबंध अभिन्न है। समय-समय पर जो घटनाएँ घटती हैं, वह इतिहास बन जाती है। चाहे ये घटनाएँ सुखद हो या दुखद।साहित्यकार इतिहास को जीवन प्रदान करता है। पंजाबी साहित्य में करतार सिंह दुग्गल का स्थान अन्यतम है।विभाजन के विषय पर उनका कहानी संग्रह है ‘अंग खाण वाले।’ इसी संग्रह की कहानी ‘उस दीयाँ चूड़ियाँ’ में कैंप में भटकते लोगों की यातना का वर्णन है। परमेसरी अपने पति, सास-ससुर के साथ रावलपिंडी में खुशहाल जिंदगी बिता रही थी। धन-संपति, खेत-खलिहान किसी चीज की कोई कमी नहीं थी।देश की आजादी के साथ, उसे सब कुछ छोड़कर पति के साथ भारत आना पड़ा, “परमेसरी की सास पीछे रह गई, ससुर मारा गया, माता-पिता बिछुड़ गए, घर-बार जल कर तबाह हो गया, जमीन हाथ से निकल गई, जेवर छिन गए, रुपये-पैसे लुट गए। परमेसरी और उसका पति कैंपों में भटकते, ट्रकों में धक्के खाते, भूखे-प्यासे, फटेहाल आजाद हिन्दुस्तान में आ गए।”[13] भूख और लाचारी के बीच भटकते हुए परमेसरी अंततः दिल्ली पहुंचती है, “अमृतसर से जलंधर, जलंधर से अंबाला, अंबाला से कुरूक्षेत्र। परमेसरी और ज्वाला को कहीं भी सुख न मिला।हार कर परमेसरी आखिर दिल्ली पहुंची।”[14] वहीं शिविर में रहते हुए परमेसरी ने बच्चे को जन्म दिया। उसकी तकलीफों का कोई अंत न था, “बच्चे के लिए पहले दिन कुछ दूध मिला फिर अपने आप बंद हो गया।अब सुनने में आ रहा था कि मुफ्त राशन भी शरणार्थियों के लिए बंद हो जाएगा।”[15] बच्चे को जन्म देकर खुश होने वाली परमेसरी के बच्चे की निमोनियाँ से मौत हो गई क्योंकि तंबू फटा हुआ था, जहाँ से सर्द हवा आती थी। डॉक्टर भी कुछ नहीं कर पाया। कैंप की बदहाली और अव्यवस्था के बीच वह अपने बच्चे को खो देती है। वह अपने पति को बच्चे को खो देती है। वह अपने पति को पंडित नेहरू के आवास पर भेजती है ताकि वह उनकी कुछ मदद कर सकें। वहाँ सिपाही उसके पति को पकड़ कर ले जाते हैं।अगले दिन एक शरणार्थी की इस करतूत की खबर सब अखबारों में छपती है। साथ ही एक छोटी सी खबर भी छपी, “दिल्ली के शरणार्थी कैंप में बच्चों की मौत ज्यादा हो रही है।”[16] कहानीकार करतार सिंह दुग्गल का व्यंग्य यहाँ स्पष्ट है।एक तरफ देश की आजादी, परमेसरी की तरह देशवासियों का प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के प्रति आस्था, यह सब एक ही क्षण में समाप्त हो गया।कैंप में हो रही बच्चों की मृत्यु का सरकार पर कोई असर नहीं। जिन पर साधारण लोगों की जिम्मेदारी थी, वे अब सत्ता के नशे में थे। परिवेश का दबाव किस तरह मनुष्य की मानसिकता को बदल देता है, इसका उदाहरण अश्क की कहानी ‘टेबल लैण्ड’ है। दीनानाथ इसका उदाहरण है।पंचगनी के सेनीटोरियम में भर्ती दीनानाथ स्वस्थ होने के बाद पंजाब के हिन्दू शरणार्थियों के लिए चंदा एकत्रित करता है। वह स्वयं लाहौर का रहने वाला है।भाई के पत्र से शरणार्थियों की दयनीय दशा का अनुमान कर वह चंदे द्वारा कम्बलों की व्यवस्था का निश्चय करता है। दीनानाथ हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थक रहा है, हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार की बातें सुनकर उसका मन प्रभावित होने लगता है।इसलिए वह हिन्दू शरणार्थियों के लिए चंदा एकत्र करने की बात सोचता है। एक मुस्लिम वृद्ध की करूण कथा सुनकर दीनानाथ सोचने के लिए बाध्य होता है।दीनानाथ हिन्दू शरणार्थियों की सहायता की बात भूलकर चन्दे की सारी रकम उस मुस्लिम बुजुर्ग को दे देता है। इस कहानी में शरणार्थियों की दीन दशा के साथ-साथ मानवीय धरातल को प्रस्तुत किया गया है, जहाँ मनुष्य मात्र मनुष्य है, ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ नहीं। विभाजन का असर उन लोगों पर पड़ा, जिन्हें अपनी जमीन को छोड़ना पड़ा। उनके पुनर्वास का प्रश्न सामने मौजूद था।देविंदर सत्यार्थी की कहानी ‘अंगूर पक गए’ का दुकानदार अपनी जमीन छोड़कर इधर आ जाता है। स्वयं को स्थापित करने का प्रश्न उसके सामने था।वह कहता है,“अब वह धरती पीछे रह गई, जहाँ मैं चुन-चुन कर अंगूर की बेल लगाता था।हो सकता है कि आपको यह सच न लगे और सच लग भी कैसे सकता है? आज हम घर के बादशाह नहीं। आज फुटपाथ के दुकानदार बन गए है।”[17] लेखक ने अनुभव किया कि शायद वह दुकानदार मुझसे पूछना चाहता था कि सरकार उनके बारे में क्या सोचती है? क्या उन्हें पुनः स्थापित करने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है? जो व्यक्ति उधर से उजड़ कर भारत में आ रहे थे, उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ा। विस्थापितों का यहाँ बसना आसान नहीं था।उस माहौल में अपने परिवार की रक्षा के लिए उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। सरकार की तरफ से विशेष सहयोग नहीं मिल रहा था।गुरमुख सिंह जीत की कहानी ‘काले आदमी’ में झुग्गियों में रहने वाले विस्थापितों का वर्णन है।प्रस्तुत कहानी का पात्र गनेशी दिल्ली के चाँदनी चौक में कंट्रोल का कपड़ा, बढ़े हुए दामों में बेचता हुआ पकड़ा गया। कश्मीरी गेट के पास उसकी झुग्गी थी, जिसे सरकार ने तुड़वा दिया था। उसे पुलिस पकड़कर ले गई। उसका परिवार सड़क पर आ गया था।ऐसी स्थितियाँ कहानीकार को प्रभावित करती हैं।स्थितियों की भयावहता, परिवार का दर्द, दो वक्त के भोजन से भी वंचित हो जाना, यह अहसास लेखक को सोचने के लिए बाध्य करता है।अपना वतन, अपना राज, ये सुनहरे सपने वक्त की आँधी में उड़ने लगे। कहानी का परिवेश उस समय की सच्चाई को प्रस्तुत करता है। पश्चिमी पंजाब से हिंदुस्तान आने वाले लोगों को जगह-जगह भटकना पड़ा। अपने परिवार को एक अच्छी जिंदगी देने का सपना अनेकों का अधूरा रह गया।वक्त की मार ने हौसला तोड़ दिया। सुर्दशन महाजन की कहानी ‘विस्थापित’ (सारिका, मई1974ई० में प्रकाशित) में दास बाबू पर देश-विभाजन के दुष्प्रभाव का कहानीकार ने मार्मिक वर्णन किया है। दास बाबू की लाहौर में टाइपराइटर की दुकान थी। विभाजन के बाद उसे लाहौर से निकल, कई शहरों में भटकना पड़ा। बाद में वे कानपुर आ गए। वहाँ से भी वे भटकते ही रहे। इस भटकन ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। वे बड़े बेटे को इंजीनियर बनाना चाहते थे, मंझले को डॉक्टर और छोटा अभी बहुत छोटा था। यहाँ आकर बड़े लड़के ने एक हायर सेकेण्डरी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। मंझला लड़का परिस्थितियों के संघर्ष में कुंठित हो चुका है। मंझले लड़के का यह भटकाव युवा वर्ग के भटकाव का संकेत करता है। उस समय युवा वर्ग की अपनी कई समस्याएँ थी। रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें संघर्ष करना पड़ा। समस्याएँ कई अलग-अलग स्तरों पर थी। ‘छाकों’ का पाकिस्तान जाना भी इसी प्रकार है। धोखे से इलाही मास्टर ने पासपोर्ट का फारम भरवा दिया था।घरवाले काम के सिलसिले में एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए, उसे देखने को अभ्यस्त थे; पर आज वे उदास थे। वे जानते थे कि यह आना-जाना लगा रहता है। यह उनकी जिंदगी का एक हिस्सा है। कहानीकार मानवता की भावना को समाज से दूर नहीं देखना चाहता है। बदलते हालात में भी मानवता की भावना को हर हाल में जिंदा देखने की आस रखते है।अमर सिंह ही कहानी ‘तलाश’ इस ओर संकेत करती है। कहानी का पात्र बलदेव हिंदुस्तान के शरणार्थी कैंपों में भटकता, अस्पतालों में इलाज करवाता, मरता-जीता हुआ केवल इतना जान पाया कि “उसकी पत्नी और बहन खो गए है।”[18] वह उन्हें ढूँढता है, पर नहीं मिलते। गुरमुख सिंह जीत की कहानी ‘फुलां दे परछावें’ में मोहनलाल और मायावती का परिवार किसी तरह ट्रेन से अमृतसर पहुँचे। गाड़ी में कत्लेआम हुआ, जिसमें मोहनलाल को चोटें आई थी, छोटे बेटे कृष्ण का कत्ल हो गया था, बेटी कांता का कहीं पता न चला। जैसे-तैसे वे दिल्ली पहुँचे।धीरे-धीरे जिंदगी के सुर थिरकने लगे। “मोहनलाल ने चाँदनी चौक में घड़ियों की दुकान खोल ली थी। उसका काम खूब चल पड़ा”।[19] मोहनलाल ने अपनी बेटी चंदरकांता को ढूँढने के लिए पाकिस्तान के होम मिनिस्टर को भी चिट्ठी लिखवाई।मायावंती को यह पता लगा कि कांता बहलोलपुर के चौधरी निसार अहमद के घर में है।वह रोते हुए कहती है कि इससे अच्छा था कि गाड़ी में ही उसे भी मार दिया जाता। इसी संदर्भ में कुलवंत सिंह विरक की कहानी ‘खबल’ को प्रस्तुत किया जा सकता है। लेखक को भारत सरकार की तरफ से लइजन ऑफिसर नियुक्त किया गया।उनका काम पाकिस्तान में जबरदस्ती रख ली गई स्त्रियों को वापस हिंदुस्तान लाना था। उन्हें ऐसी एक स्त्री का पता लगने पर वहाँ जाते हैं।वह बुखार में तप रही थी, निढाल थी। उसकी जात, बिरादरी, गाँव, धर्म का कोई वहाँ नहीं था। वह लेखक से कहती है, “मेरी एक ननद है छोटी।यारा चक वाले उसे ले गए है...तू उसे मेरे पास ला दे...मैंने उसे अपने हाथों पाला है, माँ समान हूँ।वह मेरे पास आएगी, मैं अपने हाथों से उसे किसी के साथ ब्याह दूँगी.... मैं किसी को अपना कह सकूँगी।”[20] लेखक सोचते है कि जब खेतों में हल चलाया जाताहै, कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, सब कुछ निकाल फेक दिया जाता है, पर कुछ दिन बाद फिर से कोई-न-कोई नया जीवन खेतों में उभर ही जाता है।मानवीय भाव-बोध की दृष्टि से यह कहानी उल्लेखनीय है। विस्थापितों के सामने रोजगार का साधन जुटाना कठिन काम था। पेट भरने के लिये कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा।अज्ञेय की ‘नारंगियाँ’ का हरसू और परसू जब से शरणार्थी बन कर मुहल्ले में आए थे, किसी ने उन्हें काम करते नहीं देखा था। सभी बहुत जल्द इस कोशिश में जुट गए थे कि शरणार्थी न रहकर पुरषार्थी कहलाने के अधिकारी हो जाएँ। “सभी ने कुछ-न-कुछ जुगत कर ली थी या गुजर-बसर का कोई वसीला निकाल लिया था।लेकिन हरसू और परसू ज्यों के त्यों बने हुए थे।”[21] एक दिन सबने विस्मय से देखा कि हरसू ने मोहल्ले के बाहर पुआल और बोरी बिछाकर नारंगियों की दुकानकर ली है। बच्चों के पास नारंगियाँ खरीदने के लिए पैसे कहाँ थे? हरसू उन बच्चों को बिना पैसे लिए ही नारंगियाँ दे देता है।एक समय था जब परसू की जेब में दो-दो अठन्नियाँ होती थी।आज नहीं है तो क्या हुआ? वह गहरी उदासी से भर जाता है।“वह वहीं पुलिया फर फिर लेटकर नीम के ऊपर छाये आसमान की ओर देखने लगता है।आसमान जैसी ही खाली, गहरी और अंतहीन है उसकी आँखे।”[22] स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद व्यक्ति को अपने परिवार को बसाने एवं एक अच्छा जीवन देने के लिए समाज में कितना संघर्ष करना पड़ा, कैसी यातनादायक स्थितियों से गुजरना पड़ा, इसे लोचन बख्शी की कहानी ‘मुड़ मुढों’ प्रस्तुत करती है। केसर सिंह अपना सब कुछ छोड़कर इधर आ जाता है।एक मकान किराए पर लेता है, लेकिन किराया देने के लिए उसके पास रुपये नहीं है।कलेक्टर केसर सिंह से किराया माँगता है तो लेखक को ऐसा लगता है केसर सिंह कलेक्टकर से कह रहा हो “मेरे पास और कुछ भी नहीं। साढ़े तीन सौ रुपये कहाँ से दूँ? हाँ, ये मेरी तीन बेटियाँ है, मेरी इज्जत मेरा सब कुछ.......”[23] लेखक का व्यंग्य स्पष्ट है कि व्यक्ति कैसी यातनादायक स्थिति से गुजरा है। भावना के स्तर पर व्यक्ति कितना खोखला हो गया था। विभाजन के दिनों में सत्य और ईमानदारी जैसे मूल्य खोते जा रहे थे। व्यक्ति जिन ऊलझनों में घिर गया था, उससे निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था।मोहन राकेश की कहानी ‘क्लेम’ कई सवाल उठाती है। क्लेम फार्म भरने वाले लोगों को सरकार मुआवजा दे रही थी। साधु सिंह ताँगा चलाता है। उसके तांगे में बैठी तीनों सवारियाँ क्लेम्ज के दफ्तर की थी। आगे बैठा सरदार कह रहा था कि उसका साठ हजार का क्लेम मंजूर हुआ है, जिसमें से आधा पैसा उसे नकद मिलेगा, आधा जायदाद की शक्ल में। “पीछे बैठी स्त्री रो रही थी कि बेड़ा गर्क हो क्लेम मंजूर करने वालों का जो उसका सिर्फ अठारह हजार का क्लेम मंजूर किया गया है.. गुंजरवाला में उनके चार मकान थे और एकसाढ़े तीन कनाल का बगीचा था।”[24] बेइमानी से गलत फार्म भरने वाले मजे में है और ईमानदारी से क्लेम फार्म भरने वालों को परेशानी उठानीपड़ती थी, पर जिसकी समस्या रुपये-पैसे के क्लेम की नहीं है, वह क्या करें? साधुसिंह की पत्नी को बलवाई उठाकर ले गए। वह स्वयं किसी तरह बचते हुए दिल्ली पहुँचा। उसकी कोई संपत्ति नहीं थी, जिसके लिए क्लेम फार्म भरता। उसका जो रह गया, उसके लिए क्लेम फार्म नहीं था।अब वह ताँगा चलाता है और अपने घोड़े से ही बातचीत करता है। घोड़े से ही भावनात्मक स्तर पर जुड़ जाता है। साधुसिंह अकेला है, असहाय है। साधुसिंह की तरह ऐसे अनेक लोग थे, जिनके अपने उधर छूट गए थे। संबंधों की क्षतिपूर्ति सरकार कैसे करे।ऐसे प्रश्नों को कहानीकारों ने अपनी कहानियों में प्रस्तुत किया। विभाजन के बाद सरकारी दफ्तरों में बढ़ते भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता को मोहन राकेश की कहानी ‘परमात्मा का कुत्ता’ में प्रस्तुत किया गया है। सरकारी कार्यालयों में अनगिनत अर्जियां फाइलों में बंद पड़ी है। लोग आते हैं, चिल्ला कर लौट जाते हैं, पर हर बार कल पर बात टाल दी जाती हैं। अधेड़ उम्र के व्यक्ति को जमीन के नाम पर एक गड्ढ़ा एलॉट किया गया है, इसलिए वह बहुत नाराज है। दो साल हो गए, पर उसकी अर्जी पर कोई विचार नहीं किया गया। पर आज वह किसी की नहीं सुनेगा।एक तरफ शरणार्थियों की दीन दशा और दूसरी तरफ बाबुओं का मनोरंजन में डूबे रहना, आज का काम कल, परसों पर टालना, यही विडंबना थी शरणार्थियों की। आज वह भी जिद पर अड़ा था। मेरा काम होना है तो आज ही होगा और अभी होगा। कमिश्नर साहब बाहर आकर पूछते हैं तो वह उत्तर देता है, “सौ मरले का एक गड्ढ़ा आपको वापस करना चाहता हूँ ताकि सरकार लोग शाम को वहाँ जाकर मछलियाँ मारा करें। या उस गड्ढ़े में सरकार एक तहखाना बनवा दे और मेरे जैसे कुत्तों को उसमें बंद कर दे....।”[25] कमिश्नर साहब उसे अपने कमरे में ले जाते हैं और आधे घंटे में उसका काम बन जाता है। इस जड़ एवं भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति लेखक ने पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। विभाजन के बाद परिस्थितयाँ इस तरह बदलीं कि प्रारंभ में मनुष्य समझ ही नहीं पाया, धीरे-धीरे बदली परिस्थिति, चालाकी, बेईमानी, स्वार्थपरता, जाति-संघर्ष, स्वार्थपरता सब समझ में आने लगा। कमलेश्वर की कहानी ‘भटके हुए लोग’ इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। शरणार्थियों की बेबसी और लाचारी इस कहानी में प्रस्तुत है। पंजाबी शरणार्थियों ने पटरियों और पार्कों में दुकाने लगा ली है।इससे पुराने दुकानदारों को मुश्किल हो रही है। चुंगी शरणार्थियों की दुकाने हटाने वाली है। शरणार्थी दुकानदारों में हंसराज भी है।बूढ़ा परसोतराम हंसराज के पास बैठता, अपना दुख-सुख बाँटता। चुंगी के नोटिस पर दुकाने खाली हो जाती हैं। दस दुकान बनने के बाद काम रुक जाता है।बूढ़े परसोतराम की पंद्रहवी दुकान है। फिरोजपुर में सरकार की ओर से जमीन मिलेगी, वह चला जाता है।यह तय होता है कि हंसराज जमीन देख आए, परसोतरमा दुकान देखता रहेगा। बेईमानी की वजह से दुकान दूसरे को मिल जाती है। फीरोजुपर से हंसराज का पत्र आता है कि वहाँ भी उसको मिलने वाली जमीन किसी दूसरे को मिल जाती है। करीब एक साल गुजर जाता है।न ग्यारहवीं दुकान बनती है, और न हंसराज का पत्र आता है। लेखक कहते हैं कि चालाकी और व्यवहार कुशलता सत्य और ईमानदारी पर हावी होती जा रही है। स्वातंत्रोत्तर भारत में चारों ओर अव्यवस्था और बिखराव की स्थिति थी। कोटा परमिट और ठेके की संस्कृति की शुरुआत का यही दौर था, जिसकी चरम परिणति आज भी दिखाई देती है।बेकारी, अनुशासन हीनता, वर्ग भेद और मोहभंग का वातावरण व्याप्त हो गया था।स्वतंत्रता से जो उम्मींदे देशवासियों को थी, उससे जल्द लोगों का मोहभंग होने लगा। पंजाबी कहानी जगत में भी मोहभंग भी इस स्थिति का चित्रण मिलता है।लोगों के सपने यथार्थ से टकराकर जल्द ही टूटने लगे। इस विषम स्थिति पर बूटा सिंह की कहानी ‘रिसदे नासूर’ उल्लेखनीय है। नईम और सलमा तेईस साल बाद डरते सहमते पाकिस्तान से भारत, अलीगढ़ अपने पिता के पास आती है। उनके पिता डॉ० असलम अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर है। नईम के नाना नवाब बदरुद्दीन खान, लखनऊ के धनी नवाबों में गिने जाते रहे है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन्हें एक दिन अलीगढ़ छोड़कर चले जाना होगा। डॉ० असलम ने अपने परिवार को कराची भेज दिया, स्वयं यही रह गए। जमीन छूटने का गम और पति का यहीं रह जाना नईम की माँ के लिए सितम था। नईम की माँ अलीगढ़ की मिट्टी को तरसती हुई मर गई। मृत्यु से कुछ समय पूर्व वह नईम से कहती है– “मेरा आखिरी वक्त आ गया है, एक बार अलीगढ़ जाकर डॉक्टर को मेरा सलाम देना।”[26] सांप्रदायिक भेदभाव, शरणार्थियों की समस्याएँ, विस्थापन जैसे विषयों पर कहानियाँ लिखी जाती है तो इसका अर्थ यह है कि उस दर्द को आज भी अनुभूत किया जाता है। विभाजन के दिनों में लगी चोट को आज भी लोग अनुभव करते हैं। संदर्भ ग्रन्थ सूची 1. सिंह डॉ० पुष्पपाल, समकालीन कहानी युगबोध का संदर्भ, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986, ISBN: 81214-0002-3, पृष्ठ 250 2. दीद जसवंत (सं०), देश वंड दीयाँ कहानियाँ, साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण 1995, ISBN: 81-7210-868-1, पृष्ठ 8 3. कमलेश्वर, नयी कहानी की भूमिका, प्रकाशक-शब्दकार, दिल्ली, संस्करण 1978, पृष्ठ 58 4. दीद जसवंत (सं०), देश वंड दीयाँ कहानियाँ, साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण 1995, ISBN: 81-7201-868-1, पृष्ठ 13 5. विरक कुलवंत सिंह, उलाहमा, मेरीयाँ सारीयाँ कहानियाँ, पृष्ठ 122-123 6.दुग्गल करतार सिंह, तूं खा, अॅग खाण वाले, भाग 4, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN:81-86216-16-2, पृष्ठ 44 7.दुग्गल करतार सिंह, तूं खा, अॅग खाण वाले, भाग 4, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN:81-86216-16-2, पृष्ठ 45 8.दुग्गल करतार सिंह, तूं खा, अॅग खाण वाले, भाग 4, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN:81-86216-16-2, पृष्ठ 45 9.दुग्गल करतार सिंह, तूं खा, अॅग खाण वाले, भाग 4, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN:81-86216-16-2, पृष्ठ 49 10. सोबती कृष्णा, सिक्का बदल गया, डॉ० ब्रजकिशोर झा (सं०) आधुनिक हिंदी कहानियाँ, आनन्द प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2017, ISBN: 978-81-88904-01-5, पृष्ठ 137 11. सोबती कृष्णा, सिक्का बदल गया, डॉ० ब्रजकिशोर झा (सं०) आधुनिक हिंदी कहानियाँ, आनन्द प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2017, ISBN: 978-81-88904-01-5, पृष्ठ 137 12. साहनी भीष्म, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर, प्रथम संस्करण 1994, ISBN: 81-7016-209-2, पृष्ठ 42-43. 13. दुग्गल करतार सिंह, उस दीयाँ चूड़ियाँ, अॅग खाण वाले, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, भाग 4, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN: 81-86216-16-2, पृष्ठ 66 14. दुग्गल करतार सिंह, उस दीयाँ चूड़ियाँ, अॅग खाण वाले, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, भाग 4, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN: 81-86216-16-2, पृष्ठ 66 15. दुग्गल करतार सिंह, उस दीयाँ चूड़ियाँ, अॅग खाण वाले, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, भाग 4, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN: 81-86216-16-2, पृष्ठ 67 16. दुग्गल करतार सिंह, उस दीयाँ चूड़ियाँ, अॅग खाण वाले, दुग्गल दीयाँ कहानियाँ, भाग 4, नवयुग पब्लिशर्ज, नयी दिल्ली, संस्करण 1995, ISBN: 81-86216-16-2, पृष्ठ 69 17. सत्यार्थी देवेन्द्र, अंगूर पक गए, सुतिन्दर सिंह नूर (सं०) समदरशी, संतालीनामा, विशेष अंक 63, पंजाबी अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ 47 18. सिंह अमर, तलाश, सुतिंदर सिंह नूर (सं०) समदरशी, संतालीनामा, विशेष अंक, अंक 63, पंजाबी अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ 121 19. जीत गुरमुख सिंह, फुलां दे परछावें, सुतिंदर सिंह नूर (सं०) समदरशी, संतालीनामा, विशेष अंक, अंक 63, पंजाबी अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ 133 20. विरक कुलवंत सिंह, खॅबल, सुतिंदर सिंह नूर (सं०) समदरशी, संतालीनामा, विशेष अंक, अंक 63, पंजाबी अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ 113-114. 21. अज्ञेय, नारंगियाँ, ‘अज्ञेय’ संपूर्ण कहानियाँ, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली, पृष्ठ 575 22. अज्ञेय, नारंगियाँ, ‘अज्ञेय’ संपूर्ण कहानियाँ, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली, पृष्ठ 579 23. बख्शी लोचन, मुड़ मुढ़ों, जसवंत दीद (सं०), साहित्य अकादमी, प्रथम संस्करण 1995, ISBN: 81-7201-868-1, पृष्ठ 236 24. राकेश मोहन, क्लेम, मोहन राकेश की संपूर्ण कहानियाँ, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली संस्करण 2010, ISBN: 978-81-7028-228-0 पृष्ठ 109 25. राकेश मोहन, क्लेम, मोहन राकेश की संपूर्ण कहानियाँ, राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली संस्करण 2010, ISBN: 978-81-7028-228-0 पृष्ठ 326 26. सिंह बूटा, रिसदे नासूर, सुतिंदर सिंह नूर (सं०) समदरशी, संतालीनामा, विशेष अंक, अंक 63, पंजाबी अकादमी, दिल्ली, पृष्ठ 176 |