Pollution Control : The Need of Time
ISBN: 978-93-93166-38-8
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भारतीय दर्शन में पर्यावरण संरक्षण

 डॉ. ज्योति सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ
वाराणसी,  उत्तर प्रदेश, भारत  

DOI:
Chapter ID: 16329
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              वर्तमान समय में मानव जिस जीवनशैली को अपनाता जा रहा है अगर गौर से देखा जाए तो हम प्रकृति का दोहन अपने जीवन यापन को सरल बनाने हेतु वे सारे कार्य कर रहे हैं जो प्रकृति का शोषण करने हेतु कारण के रूप में है। हम प्रकृति का शोषण करके आर्थिक विकास की ओर लाभ का अर्जन कर रहे है। आज यदि हम मानव के जीवन दर्शन को आत्मसात् कर जलवायु परिवर्तन पर विचार करें तो पाते हैं कि वस्तुतः समस्या बाह्य न होकर आन्तरिक और मूल्य चेतना पर आधारित है यदि हम प्रकृति को आत्मसात् कर उसे जीवन को लय और संगीत समझकर उसका सदुपयोग एवं संवर्धन करें तो प्रकृति भी हमें अनुगामी मानकर जीवन पोषण करने वाली होगी। यही दृष्टि प्रकृति व उससे जुड़े जीव-जगत, वनस्पति, औषधी सभी के लिए कल्याण की कामना की ओर ले जाती है।

       विगत वर्षों में जलवायु परिवर्तन की समस्या जिस तेजी के साथ पूरे विश्व समुदाय के सामने मुँह फैलाये खड़ी है वह काफी चिन्तनीय    है। आज न केवल भारत जैसे विकासशील राष्ट्र बल्कि विकसित राष्ट्र भी इस समस्या के हल को निकालने के लिए प्रयासरत् हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व जलवायु परिवर्तन की समस्या को दूर करने हेतु दिसम्बर 2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन का आयोजन किया था जबकि भारत ने इसके कई हजार वर्ष पूर्व में ही यह निर्णय ले लिया था कि प्रकृति का संरक्षण एवं संवर्धन किया जाए। इसके लिए प्राचीन काल में ही हमारे यहाँ वैदिक ग्रन्थों में कई मौसम सम्बन्धित देवताओं जैसे- इन्द्र-वर्षा का देव, वायु का देवता, अरण्य-वन की देवी इत्यादि का उल्लेख किया गया है। तथा इनके कार्यों की विस्तार पूर्वक चर्चा की गई है। ऐसा माना जाता था कि पृथ्वी पर ये सभी मानव जीवन को सुगम्य बनाने के लिए आवश्यक है। यह दोहन या शोषण के लिए नहीं है। चार वेद जो हिन्दू धर्म के लिए अत्यन्त गौरव एवं सम्मानपूर्ण ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद की उत्पत्ति को भी पर्यावरण से ही जोड़कर शतपथ ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण में बताया गया है। ‘‘ऋग्वेद’’ को अग्नि से उत्पन्न माना गया, यजुर्वेद को वायु से उत्पन्न माना गया, सामवेद को सूर्य से उत्पन्न माना गया और अथर्ववेद को जल से उत्पन्न माना गया है।

‘‘अग्नेश्रर्वग्वेदों वायोर्यजुर्वेद, सूर्यात्सामवेदः’’
(शतपथ ब्राह्मण: 11.5:8.3)
‘‘सोममयो ह्यायं वेदः’’ (गोपथ ब्राह्मण: पूर्वार्चिक 2.9)

अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में 63 मंत्र का उल्लेख वातावरण को लेकर ही लिखा गया है। इस सूक्त की प्रथम पंक्ति में पृथ्वी को धारण करने वाले आठ तत्वों की चर्चा करते हुए लिखा गया है-

‘‘सत्यं वृहदृमुप्रं दीक्षा तयो ब्रह्म यज्ञः पृथवीं धारयन्ति’’

वैदिक ऋषि वृहदमुप्रं एक जगह इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-

‘‘यत् ते कूमे विखनामि क्षिप्रं तद पिरोह तन

माते मर्म विमृग्वारि माते हृदयमर्विपम।।’’

अर्थात्- हे भू तुम्हारे जो कन्द मूल आदि हम खोदते हैं वे शीघ्र ही पुनः उत्पन्न हो जाएँ क्योंकि हमने तुम्हें खोदते समय तुम्हारे मर्म को आघात् नहीं पहुँचाया है, तुम्हारे हृदय पर चोट नहीं लगाई है।इस पंक्ति से यह स्पष्ट होता है कि पृथ्वी हमारी पूजनीय माता है जो हमें अन्न जल देकर जीवन देती है यह सजीव है, आदरणीय है, पूज्यनीय    है।

इसी प्रकार पृथ्वी माता के स्तुति करते हुए लिखा गया है-

यत् वदामि मधुमत तद् वदामि यदीक्षेतद् वनत्ति मा

त्विषी मानस्मि जूति मानवान्यान् हन्मि दोधतः।’’

अर्थात् मैं जो कुछ मधुर बोलता हूँ हे पृथ्वी! वह तुम्हारी ही कृपा का फल है, मुझे जो कुछ प्रिय दिखाई देता है, वह भी तुम्हारी ही कृपा का फल है, मैं तुम्हारी ही कृपा से तेजस्वी और वेगवान बना रहूँ और तुम्हारी ही कृपा से साधु पुरुषों की रक्षा और दुर्जनों का नाश कर सकता हूँ।

ईशोपनिषद में पर्यावरण की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि-

‘‘ईशावास्या मिदं सर्वं, यत्किंच जगत्या जगत्।

तेन व्यक्तेन भुज्जीया, मा गृधः कस्यारिव हृनम्।।’’

अर्थात् - जड़ चेतन पदार्थों से समृद्ध यह सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करें परन्तु ‘‘यह सब मेरा नहीं है’’के भाव के साथ उसका संग्रह न करें। ‘‘वराह पुराण’’ में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने जीवन में एक पीपल, एक नीम, एक बेर, 10 फूल के पौधे लगाता है वह कभी नरक में नही जाता है। इसी प्रकार ‘‘महाभारत’’ में एक जगह वर्णन आता है कि ‘‘जो परमतत्व है, पर्वत उसकी हड्डियाँ है, पृथ्वी उसकी मज्जा है, समुद्र रक्त है, वायु श्वास है और अग्नि ऊर्जा है।

ऋषि भतृहरि ने पर्यावरण के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘‘धरती मेरी माता है, वायु पिता है, अग्नि मित्र है, जल सगा सम्बन्धी और आकाश भ्राता है। इस प्रकार के सम्बन्धों से मैं इनसे जुड़ा हुआ हूँ।’’

हजारों वर्षों से नदी, वायु, जल, सूर्य, वन, पशु-पक्षियों की पूजा करते चले आ रहे हैं क्योंकि ऐसा माना जाता रहा कि पृथ्वी पर ये सभी मानव जीवन को सुगम्य बनाने के लिए आवश्यक हैं। यह दोहन या शोषण के लिए नहीं हैं। पृथ्वी का लगभग एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था। उपनिषदों में इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि- हे अश्वरूपधारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ, अर्ध जीर्ण भोजन है, नदियाँ तुम्हारी नाड़ियाँ हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदय खण्ड हैं, समग्र वनस्पतियाँ, वृक्ष, एवं औषधियाँ तुम्हारे रोम सदृश्य है।

अर्थात् भारतीय दर्शन में पृथ्वी के प्रत्येक कण-कण में ईश्वर विद्यमान है, वह पूज्यनीय है, उसका संरक्षण एवं संवर्धन करना ही हमें ईश्वर के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को दर्शाता है। यदि हमें प्रकृति से प्रेम है तो हमें ईश्वर से प्रेम है, जिस प्रकार वह परमपिता परमात्मा प्रेम और स्नेह भक्ति भाव से प्राप्त किया जा सकता है उसी प्रकार यह पृथ्वी स्नेह एवं संवर्धन के माध्यम से ही मनुष्य को स्वस्थ प्राण वायु का संचालन कर सकती है। अतः हमें इसका संवर्धन एवं संरक्षण करना होगा।

भारतीय परम्परा में धार्मिक कार्यों को पर्यावरण से जोड़कर उनका संवर्धन एवं संरक्षण किया गया है। इसके लिए धार्मिक कार्यों के पूजन विधान में आज भी शान्ति पाठ पढ़ा जाता है यथा-

‘‘नमों वृक्ष जयः, वृक्षाणां पतये नमः

औषधीनां पतये नमः, वननां पतये नमः

नमो वनन्यायच, अरण्यानां पतये नमः।।

‘‘वनस्पते शतब्ल्यों विथहे सहस्त्र बस्शा विवयं सहेय।

यं त्वामयं स्वाधिति स्तेज मानः प्राणिनाय महते सौभगाय।।’’

‘‘विश्वदेवा अदितिः पंचजना अदितिर्जात मदि तिर्जनित्वम्।।

द्योः शान्ति रन्तरिक्ष शान्तिः पृथ्वी शान्ति रापः, शान्ति रोषधयः शान्तिः

वनस्पतयः शान्ति विश्वेदेवाः शाति र्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः

समाशान्ति रेधि। यतो यतः समीहसे ततो नो अभयंकुरु’’।।

भारतीय दर्शन में वृक्षों की पूजा का प्रमाण मिलता है, पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया। भोजन में भगवान को तुलसी का भोग पवित्र माना गया। जो कई रोगों में औषधी रामबाण है। बिल्व के वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया, केले के वृक्ष को विष्णु भगवान से, नीम के वृक्ष को शीतला माँ से जो चर्म रोग में गुणकारी है, दुर्वा को गणेश इसी तरह ढाक, पलाश, कुश, गुड़हल, पारिजात, आंवला इत्यादि का उल्लेख पूजन के रूप में किया गया है। पूजा के कलश में नदियों के जल को संरक्षित करने के लिए उसे सप्त नदियों एवं सप्तभृतिका से जोड़ा गया है।

       यदि हम सभ्यता में सिन्धु सभ्यता की मुहरों को देखें तो पाते हैं कि उन मुहरों पर पशुओं एवं वृक्षों के चित्र अंकित रहते थे, सम्राटों द्वारा अपने राज चिन्ह के रूप में वृक्षों एवं चिन्हों का प्रयोग किया जाता था। गुप्त सम्राट बांस को पूज्य मानते थे मार्गों में पेड़ की छाया पथिक को मिल सके इसके लिए वृक्षारोपण किया गया, चित्रकारी में प्रकृति के अनुपम छटा को हम प्रकृति के प्रेम से ही जुड़ा मानते हैं। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय कवियों का राष्ट्रप्रेम हमें पेड़ों, पुष्प के माध्यम से ही राष्ट्र चेतना प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करती रही।

       कहते हैं कि परम्पराएँ मूल्यों से सिंचित होती हैं और मूल्य जितने विशुद्ध रूप में परम्पराओं से घुलते हैं, परम्पराएँ उतनी ही उर्वरता व ताजगी के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी समाज को ऊर्जा व पोषण प्रदान करती है, इसलिए यह आवश्यक है कि हम समय-समय पर मुड़कर पीछे अपनी पोषणदायिनी परम्पराओं व जीवन दृष्टि को आज के साथ जोड़ें क्योंकि हमारे आज के बीते हुए कल के बीज से ही आने वाले भविष्य का निर्माण होता है। भारतीय दर्शन इन्हीं परम्पराओं और मूल्यों को आत्मसात् करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम्’’ अर्थात् पूरी पृथ्वी ही हमारा घर है को लेकर आगे बढ़ रही है। हम प्रकृति को निर्जीव नहीं बल्कि सजीव ईकाई के रूप में देखते हैं। जलवायु परिवर्तन के अवांछनीय परिवर्तन के कारणों जैसे- पर्यावरण प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, प्रदूषण को दूर करने हेतु भारतीय दर्शन में मानव जीवनशैली अनेक परम्पराओं और प्रथाओं में प्रकृति की रक्षा करने का विज्ञान समाहित    है। बशर्ते हमें उसे विश्व पटल पर रखने की आवश्यकता है। हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि भारतीय दर्शन में मनुष्य का रहन-सहन, खान-पान वैज्ञानिक ज्ञान से परिपूर्ण था। चरक संहिता में औषधीय गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है। भारतीय चिकित्सा विज्ञान में वृक्षों के औषधीय गुणों के ज्ञाता - चरक, सुश्रुत और वाग्भट्ट का नाम आयुर्वेद के चिकित्सक के रूप में सर्वमान्य है। धन्वन्तरि महान चिकित्सक थे जिन्हें हिन्दू धर्म में देवता के रूप में पूजा जाता है। दीपावली जैसे महान पर्व के दो दिन पूर्व धनवन्तरि का जन्म दिवस धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा का प्रादुर्भाव किया था।

ऐतिहासिक अवलोकन के पश्चात् यदि हम आधुनिक समय में भारतीय दर्शन में जलवायु के संरक्षण और संवर्धन की कड़ी को देखें तो रहीमदास जी के दोहे में जल की महत्ता प्रेम से करते हुए कहा गया है कि पानी और इज्जत/प्रेम को कभी खरीदा नहीं जा सकता। यह अमूल्य है-

‘‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून

पानी गये न उबरे, मोती मानस चून।’’

जलवायु परिवर्तन के जिस मुद्दे को लेकर हम चर्चा कर रहे हैं वास्तव में उसके विविध आयाम हैं यथा- दार्शनिक आयाम जिसपर हम काफी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं, इसके अलावा आर्थिक आयाम, सामाजिक आयाम, वैज्ञानिक आयाम, मनोवैज्ञानिक आयाम और राजनैतिक आयाम। बात जब राजनैतिक आयाम की की जाती है तो इसमें राजनीति विज्ञान के विद्वानों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान में वर्णित नियमों से परिचय कराते हुए उसका उल्लेख करें। हम यदि भारतीय संविधान में देखें तो अनुच्छेद 48 में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि पर्यावरण संरक्षण, वन्य जीव पशु संरक्षण की विवेचना राज्य के नीति निदेशक तत्व में सार्वभौमिक मंगल कामना से युक्त कर दिया गया है।

एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘‘स्वस्थ्य शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।’’ जब शरीर को स्वस्थ्य रखना है तो हमें शुद्ध वातावरण, शुद्ध जल, शुद्ध अन्न का उपयोग अत्यन्त आवश्यक है। अतः इसके लिए हम क्या खाते हैं, कितना खाते हैं, कब खाते हैं, कब सोते हैं, कब उठते हैं अर्थात आपकी दैनिक जीवनचर्या में वो क्या-क्या चीजें शामिल होना चाहिए जिसका प्रभाव आपके शरीर एवं मस्तिष्क पर पड़ता है यह देखना बहुत ही आवश्यक है आज के समय में मानव जिस तरह से अधिकतम् से अधिकतम् सुखोपार्जन एवं धनोपार्जन में लगा है वह उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। अतः हमें इसका निरीक्षण करने के लिए जलवायु परिवर्तन के होने वाले कारणों एवं उनके निवारणों पर ध्यान देना होगा। मोटे रूप में जो कारण एवं निवारण हैं इसकी चर्चा इस प्रकार है-

1. हमें भारतीय दर्शन को अपनाकर पारम्परिक ज्ञान को वैज्ञानिक आधार प्रदान करके पर्यावरण में संतुलन कायम करने का कार्य करना चाहिए।

2. जीवश्म ईंधन के उपयोग में कमी की जानी चाहिए।

3. प्राकृतिक ऊर्जा के स्रोतों को अपनाया जाय जैसे- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि।

4. एकल कृषि की जगह समग्र कृषि की जाय इसमें जोखिम कम रहता है।

5. हर व्यक्ति जो अन्न खाता है, खेतों की उर्वरता नष्ट होने के कारणों को जानकर अन्य लोगों को अवगत कराते हुए खेतों में श्रम का दान    करें।

6. प्रकृति उन्मुखी जीवनशैली को अपनाया जाए।

7. रसायनयुक्त खेती को बढ़ावा न दिया जाए क्योंकि रसायनयुक्त खाद्य पदार्थ रोगों को मनुष्य में जन्म दे रहे हैं।

8. पशुओं और गौ-वध नहीं होना चाहिए, क्योंकि इनके गोबर से खाद बनाकर खेतों में प्रयोग में लाया जा सकता है। जैविक खेती को बढ़ाया जाय।

9. जब तक जीवनशैली में बदलाव नहीं आयेगा तब तक समाधान नहीं मिलेगा। अतः जीवनशैली में बदलाव लाया जाय। तथा परम्परागत जीवनशैली को आधुनिक जीवनशैली के साथ सामंजस्य स्थापित जाए।

10. तापमान वृद्धि वाले जगहों पर कम जल सोखने वाली पौधों एवं कृषि की खेती की जाए।

11. पहाड़ी और पथरीली इलाकों में वहाँ के मौसम अनुकूल वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।

12. ऐसे बीजों का उत्पादन/निर्माण किया जाए जो वर्तमान मौसम के अनुकूल हो तथा लवणता एवं क्षारियता को सहन करने वाला हो।

13. हर व्यक्ति को अपने जन्म दिवस पर 10 पौधों का रोपड़ करना चाहिए या जन्म दिवस पर पौधों को उपहार में देना चाहिए।

इस तरह भारतीय दर्शन को वैज्ञानिक रूप प्रदान करके हम इस विकास की अवस्था में जलवायु के साथ सन्तुलन स्थापित करें क्योंकि जब विकास होता है तो विस्थापना भी होती है जिससे लोग अपने जड़ों से उजड़ते हैं। हमें अपने जड़ों को बचाना है। हमें जलवायु परिवर्तन के समस्याओं को हल करने के लिए वैज्ञानिक तर्कों के साथ पुनर्जागरण की आवश्यकता है। हमारा नारा एक बार पुनः हो,‘‘वेदों की ओर लौटो, वनों की ओर लौटोप्रकृति की ओर लौटो का नारा दिया है। वर्तमान समय में पर्यावरण संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा कई योजनाओं का संचालन भी किया जा रहा है।